हिन्दुस्तानी अदब के प्रचार-प्रसार में नवल किशोर प्रेस का योगदान: हिमांशु बाजपेयी
हिन्दुस्तानी अदब के प्रचार-प्रसार में नवल किशोर प्रेस का
योगदान
हिमांशु बाजपेयी
शोधार्थी- जनसंचार विभाग, म.गां.अं.हिं.वि.वि. वर्धा,महाराष्ट्र
शोध सारांश-
प्रस्तुत
शोधपत्र का उद्देश्य हिन्दुस्तानी अदब यानी हिन्दी-उर्दू साहित्य के प्रचार प्रसार
में मुंशी नवल किशोर प्रेस की भूमिका को तलाशता है. नवल किशोर प्रेस उन्नीसवीं और
बीसवीं सदीं में भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के सबसे बड़े प्रकाशन संस्थानों में से
एक थी. 1858 में शुरू होकर ये प्रेस 1950 तक लगातार काम करती रही. यूं तो इसने प्रकाशन सम्बन्धी
विविध कामों को अंजाम दिया. ब्रिटिश शासन काल में स्टेशनरी और स्कूलबुक की छपाई के
ठेके भी इसको मिले. प्रेस ने दुनिया की अनेक भाषाओं में प्रकाशन किया. मगर
हिन्दी-उर्दू यानी हिन्दुस्तानी अदब के लिए ये प्रेस ख़ास तौर पर समर्पित थी.
हिन्दी-उर्दू सम्बन्धी अपने योगदान के लिए नवल किशोर प्रेस को कालजयी ख्याति मिली.
प्रस्तुत शोधपत्र इसी योगदान की पड़ताल करता है.
की-वर्ड्स- नवल
किशोर प्रेस, हिन्दुस्तानी, हिन्दी-उर्दू, साहित्य, पत्रकारिता
प्रस्तावना-
हिन्दुस्तानी
अदब की दुनिया में मुंशी नवल किशोर और उनके प्रेस का नाम कभी भुलाया नहीं जा सकता.
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में मुंशी नवल किशोर प्रेस ने भारतीय साहित्य के क्षेत्र
में अनुपम योगदान दिया है. हिन्दी और उर्दू साहित्य के इतिहास में रूचि रखने वाले
जानते हैं कि मुंशी नवल किशोर प्रेस ने अपने प्रकाशन व्यवसाय के ज़रिए
हिन्दुस्तानी अदब को जो समृद्धि दी है वो आश्चर्यजनक है. इसीलिए साहित्य जगत के
बड़े बड़े पुरोधाओं से लेकर आज के छोटे छोटे शोधार्थी तक सब इस प्रेस को बहुत ऊंचे
दर्जे पर रखते हैं. उर्दू के बड़े शाइरों का दीवान छापना हो या संस्कृत के प्राचीन
ग्रंथों का उर्दू और अरबी फारसी में अनुवाद छापना हो, या उर्दू अरबी फारसी ग्रंथों को हिन्दी और संस्कृत में
छापना हो या कुरआन शरीफ के अलग अलग भाषाओं में सस्ते संस्करण छाप कर इसे आम
मुसलमान के लिए सुलभ बनाना हो अथवा अपने अख़बारों के ज़रिए सामाजिक एवं राष्ट्रीय
चेतना फैलाना हो..नवल किशोर प्रेस ने ये काम कुछ इस तरह से अंजाम दिए हैं कि ये
अपनी मिसाल खुद हैं. हिन्दुस्तानी साहित्य में इसी महान योगदान के लिए इतिहासकार
महमूद फारूक़ी ने उन्हे अद्भुत व्यक्तित्व बताया है.(फारूक़ी,2010)
शोध-उद्देश्य-
हिन्दी-उर्दू
साहित्य के प्रचार प्रसार में नवल किशोर प्रेस के योगदान की पड़ताल करना
शोध-प्रविधि-
प्रस्तुत
शोध-पत्र के लेखन में गुणात्मक अन्तर्वस्तु विश्लेषण शोध प्रविधि का इस्तेमाल किया
गया है.
मुंशी नवल किशोर: एक परिचय
मुंशी
नवल किशोर भारतीय साहित्य जगत के अमर पुरूष हैं. उन्होने 22 साल की अल्पायु में लखनऊ में जो प्रेस शुरू किया उसने अगले
92 साल तक ऐसी ऐसी चीज़ें छापीं कि पूरी दुनिया आज इसका लोहा
मानती है. ग़ालिब ने अपने एक पत्र में लिखा है कि मुंशी नवल किशोर के छापेखाने का
क्या कहना जिसका दीवान छापते हैं, आसमान
पर पहुंच जाता है.(ग़ालिब,2010)
अपने
छापेखाने के साथ साथ अपने सामाजिक राजनैतिक सरोकारों के लिए भी विख्यात मुंशी नवल
किशोर का जन्म 3 जनवरी 1836 को अपनी ननिहाल मथुरा के रीढ़ा गांव में हुआ था.(स्टार्क,2012).
उनका परिवार एक समृद्ध ज़मीनदार परिवार था. 1850 में उनकी शादी सरस्वती देवी से हो गयी. 1852 में वे पढ़ाई करने आगरा चले गए. इसके बाद वे लाहौर चले गए
जहां उन्होने मुंशी हर सुखराय जो उनके पिता के जानने वालों में से थे की कोहिनूर
प्रेस में काम किया. दो साल तक यहां काम करते हुए नवल किशोर ने प्रेस चलाने की
सारी बारीकियों को मेहनत के साथ सीखा. कोहिनूर प्रेस के मालिक हरसुख राय इनके काम
से बहुत खुश थे इसलिए इन्हे प्रेस का मैनेजर बना दिया. फौजदारी के एक मामले में जब
हरसुख राय को तीन साल की सज़ा हो गई तो नवल किशोर ने ही इनका सबसे ज़्यादा साथ
देते हुए इनकी ज़मानत करवाई और प्रेस संभाला. उनकी सेवा से प्रभावित होकर हरसुख
राय ने उन्हे एक छोटा प्रेस भेंट में दिया जिसको लेकर वे लखनऊ आ गए. (भार्गव,2012)
1858 में नवल किशोर ने लखनऊ में अपना खुद का छापाखाना शुरू
किया. लाहौर से नवल किशोर के लखनऊ आकर छापाखाना खोलने के कई कारन थे. सबसे पहला तो
ये कि लाहौर में रहते हुए नवल किशोर की दोस्ती दो प्रभावशाली अंग्रेज़ अफसरों से
हो गयी थी. वे दोनो प्रतिष्टित पद पर लखनऊ स्थानांतरित हो गए थे. ये थे सर राबर्ट
मांटगुमरी और कर्नल सांडर्स.(भार्गव,2012). इसके अलावा लखनऊ अवध की राजधानी था और इल्मो-अदब के मर्कज़
के तौर पर पूरी दुनिया में मशहूर था. दिल्ली से बहुत पहले से साहिबे फन लखनऊ आने
लगे थे. अत: प्रेस की मुलाज़मत चाहने वाले लोगों की यहां कोई कमी नहीं थी. तीसरा
ये कि 1857 की क्रांति के बाद लखनऊ में कोई भी बड़ी प्रेस नहीं बची थी
साथ ही अंग्रेज़ों का दमन इतना बढ़ चुका था कि अंग्रेज़ों से किसी की मामूली
दोस्ती भी उसे बहुत रूतबा दिला देती थी. नवल किशोर के सम्बन्ध अंग्रेज़ अधिकारियों
से अच्छे थे इसलिए उन्हे सरकारी काम भी मिल सकता था और जनता में प्रतिष्ठा भी. 1858 में मुंशी नवल किशोर ने जब अपना प्रेस शुरू किया तो सरकारी
काम उन्हे जल्द मिलने लगा. इसी साल उन्होने ज्ञान विज्ञान की पुस्तकों को छापने का
अपना मशहूर काम भी शुरू किया. साथ ही अवध अख़बार की इशाअत भी इसी साल शुरू हुई.
मुंशी नवल किशोर ने प्रकाशन व्यवसाय के अलावा लखनऊ के सार्वजनिक जीवन में भी गहरी रूचि दिखाई. वे राजनीति में भी
सक्रिय रहे. नवल किशोर जब 1858
में लखनऊ आए तो वे लखनऊ के लिए और लखनऊ उनके लिए एकदम अजनबी था. मगर बाद में वे
लखनऊ से ऐसा घुल मिल गए कि आज लखनऊ उनकी कीर्तिगाथा का आधार है. वे आत्म-निर्माण
की मिसाल हैं. 1875 में वे
लखनऊ म्यूनिसिपल कमेटी के मेम्बर चुने गए, और अगले अट्ठारह साल तक इस पद पर बने रहे. 1881 में वे आनरेरी असिस्टेंट कमिश्नर बना दिए गए. और अगले ही
साल वे ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बन गए.(स्टार्क,2012). लखनऊ में डफरिन अस्पताल को उन्होने 15000 रूपए का दान किया. जुबली हाईस्कूल की शुरूआत की जो आज भी
लखनऊ के सबसे बड़े सरकारी इंटर कालेजों में एक है. कांग्रेस की स्थापना होने के
बाद वे उन लोगों में रहे जो कांग्रेस का राजनीति के विरोधी थे. सर सैयद अहमद खां
से उनकी दोस्ती थी. वे उनके साथ यूनाइटेड इंडियन पेट्रियॉटिक एसोसिएशन में भी
शामिल रहे जो कि कांग्रेस की मुखालफत के लिए बना था. बाद में साम्प्रदायिकता के
मुद्दे पर सर सैयद से उनका मतभेद हुआ और दोनो के रास्ते अलग हो गए. मगर ये बात सही
है कि सर सैयद कभी नवल किशोर के मित्रों और प्रशंसकों में हुआ करते थे. 1895 में दिल का दौरा पड़ जाने की वजह से नवल किशोर की मौत हो
गयी. इसके साथ ही भारतीय इल्मो अदब का एक विशालकाय व्यक्तित्व दुनिया से चला गया.
नवल किशोर प्रेस का अवदान
लखनऊ
में प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत बादशाह ग़ाज़िउद्दीन हैदर की शाही प्रेस या
मतबा-ए-सुल्तानी से मानी जाती है.(स्टार्क,2012). इसके बाद हाजी हरमैन शरीफैन की मोहम्मदी प्रेस का नाम हुआ
जिसमें मशहूर कातिब मुंशी हादी अली भी काम करते थे जो बाद में नवल किशोर प्रेस के
भी मुलाज़िम हुए. इसके बाद मुस्तफा खां की मुस्तफाई प्रेस वजूद में आई.
लिथोग्राफिक प्रिंटिंग में लखनऊ इसी ज़माने में मशहूर होना शुरू हुआ. 1856 तक ये सभी प्रेस लखनऊ में काम करती रहीं. मुस्तफाई प्रेस
की इनमें ख़ास शोहरत थी. मगर जब 1857 में लखनऊ में क्रांति हुई तो लखनऊ का प्रकाशन थोड़े दिनों
के लिए ठहर सा गया. 1858
में हालात सामान्य होने के बाद अंग्रेज़ी हुकूमत ने प्रिंटिंग प्रेस को जो सबसे
पहला लाइसेंस जारी किया वो मिला मुंशी नवल किशोर नाम के एक नौजवान को जो लखनऊ से
नितांत अनभिज्ञ था. मगर चूंकि लखनऊ में अंग्रेज सरकार के दो बड़े अफसरों से उसकी
जान-पहचान थी सो ये लाइसेंस उसे मिल गया. अंग्रेज़ों ने भी क्रांति को देखते हुए
किसी स्थानीय आदमी को लाइसेंस देने के बजाय एक परिचित और बाहर वाले को लाइसेंस
जारी करना ज़्यादा सही समझा. इसके बाद 1858 में ही लखनऊ में उस नवल किशोर प्रेस की स्थापना हुई जो आज
भी हिन्दुस्तान के प्रकाशन व्यवसाय का सबसे बड़ा नाम है. अब्दुल हलीम शरर ने अपनी
मशहूर किताब गुज़िश्ता लखनऊ में भी नवल किशोर प्रेस का ज़िक्र किया है. शरर के
मुताबिक अरबी फारसी की जैसी किताबों को जिस व्यावसायिक स्तर पर छाप दिया उसे छापने
के लिए हिम्मत चाहिए.(शरर,1965). नवल
किशोर प्रेस ने उर्दू-अरबी फारसी ही नहीं बल्कि हिन्दी-संस्कृत की किताबें भी
छापना शुरू किया जो लखनऊ में नया चलन था. लखनऊ आने के बाद नवल किशोर ने अपनी प्रेस
सबसे पहले आगा मीर ड्योढ़ी पर लगाई. नाम हुआ-
मतबा-ए-अवध अख़बार. फिर काम बढ़ने पर इसे रकाबगंज और गोलागंज में
स्थानांतरित किया. 1861
में नवल किशोर प्रेस को पहली बार इंडियन पीनल कोड का उर्दू तर्जुमा छापने का ऑर्डर
मिला. इसकी 30,000
प्रतियां छपीं और इसके बाद से नवल किशोर की गणना बड़े प्रकाशकों में होने
लगी.(स्टार्क,2012). नवल
किशोर प्रेस को बड़ी मज़बूती कुरआन एवं दूसरे धर्मग्रंथों को छापने से भी मिली.
पाठ्य पुस्तकें, रजिस्टर और दूसरे
कानूनी काग़ज़ात तो अंग्रेज़ों के आदेश पर वे छापते ही थे. इसके अलावा उन्होने
लखनऊ में पहली बार हिन्दी और संस्कृत पुस्तकों को भी बड़े पैमाने पर छापना शुरू
किया. हालांकि उस वक्त भी लखनऊ में हिन्दी और संस्कृत की किताबें छापने वाली ये
अकेली प्रेस नहीं थी. पंडित बृजनाथ की समर-ए-हिन्द प्रेस और पंडित बिहारीलाल की
गुलज़ारे हिन्द प्रेस हिन्दी संस्कृत की किताबें छाप रहीं थीं. 1862 के आस पास जब लखनऊ में रेल लाइन और डाक सेवा शुरू हुई तो
नवल किशोर प्रेस को इससे बहुत फायदा हुआ. लखनऊ के प्रभावशाली हिन्दू और मुस्लिम
यहां तक कि यूरोपियन भी इसमें काम करने लगे थे. इसकी तरक्की का अंदाज़ा इसी बात से
लगाया जा सकता है कि 1862
में जब इसको शुरू हुए महज़ चार साल हुए थे तब ही इसमें 300 कर्मचारी काम करने लगे थे. काम और काम करने वाली संख्या
बढ़ने पर अंतत: 1870
में ये उस जगह पर स्थानांतरित हुई जिसकी पहचान इसके साथ जुड़ी है- हज़रतगंज.
हज़रतगंज आने के बाद नवल किशोर ने अपना बुक डिपो जहां से किताबें बेची जातीं थीं, भी खोला. आश्चर्यजनक रूप से 1870 आते आते इस प्रेस में एक लाख बान्नबे हज़ार पेज रोज़ाना
छपते थे. इस साल प्रेस का क्रेडिट बैलेंस दो लाख पचास हज़ार रूपए था. 1882 में यहां 1200 कर्मचारी काम करते थे. सालाना डाकखर्च तकरीबन पचास हज़ार
रूपए का था. 1871 में
कागज की खपत को पूरा करने के लिए नवल किशोर प्रेस ने लखनऊ में अपनी निजी पेपर मिल
और लोहे का अपना कारखाना भी लगवाया. (स्टार्क,2012). 1895 में नवल किशोर की मौत के बाद प्रेस को उनके बेटे
प्रागनारायऩ भार्गव ने संभाला. प्रागनारायन भार्गव की मौत के बाद प्रेस को उनके
बेटे बिशन नारायन ने संभाला. प्रेस के सुनहरे दिनों में गिरावट तो प्रागनारायन के
ज़माने में ही शुरू हो गयी थी मगर बिशन नारायन की मौत के बाद ये महान संस्थान बहुत
मुश्किलों में घिर गया. 1950
में बिशन नारायन और उनके दोनो बेटों तेज कुमार और रामकुमार के बीच बंटवारा हो गया
और इस तरह ऐतिहासिक नवल किशोर प्रेस दो अलग अलग हिस्सों- तेजकुमार बुक डिपो और रामकुमार
बुक डिपो में बंटकर खतम हो गई.(भार्गव,2012)
हिन्दुस्तानी
साहित्य के विकास में नवल किशोर प्रेस का बड़ा योगदान है. नवल किशोर प्रेस की
महत्ता को ग़ालिब ने अपने ख़तों में स्वीकार किया है. मशहूर साहित्यकार अमृतलाल
नागर ने कहा कि जो स्थान इस्पात उद्योग में टाटा का है वही स्थान प्रकाशन व्यवसाय
में नवल किशोर का है. (नाहीद,2006). अपने 92
साल के जीवनकाल में नवल किशोर प्रेस ने तकरीबन दस हज़ार किताबें छापीं. इनमें
मुख्य रूप से हिन्दी-उर्दू की किताबें
थीं. प्राचीन और समकालीन ज्ञान विज्ञान के सारे विषय इनमें समावेशित थे. धर्म, दर्शन, भाषा, व्याकरण, साहित्य, इतिहास, गणित, संगीत, चिकित्सा
आदि अनेकविषयों पर उम्दा और सस्ते ग्रंथ छापे गए. इनमें कई को तो पहली बार जनता से
रूबरू करवाने वाले नवल किशोर प्रेस ही थी. तुलसीदास की रामचरित मानस, दोहावली, कुरआन
का विश्वप्रसिद्ध हिन्दी तर्जुमा और टीका, अवध-विलास, बेताल
पच्चीसी,
वैचित्र्य-चित्रण, नूरनामा, पद्मावत, वेद-पुराण-उपनिषद का हिन्दी-उर्दू अनुवाद, दास्ताने अमीर हमज़ा, फसाना-ए-आज़ाद, फए-अज़ायब, गालिब
का दीवान,
वाजिद अली शाह की मस्नवी हुज्ने अख्तर, बहादुरशाह रफर का दीवान, उमराव जान अदा,गुजिश्ता लखनऊ आदि मशहूर और कालजयी कृतियां इसी प्रेस से
छपीं. नवल किशोर प्रेस ने ज्ञान विज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए लगभग 2000 किताबें आक्सफो्र्ड यूनिवर्सिटी को दान में दीं. हिन्दी की
पत्रिका माधुरी जिसके संपादकों में मुंशी प्रेमचंद शामिल थे नवल किशोर प्रेस से ही
छपती थी.(भार्गव,2012).
हिन्दी
साहित्य को नवल किशोर प्रेस का एक अमूल्य योगदान इसकी साहित्यिक पत्रिका माधुरी भी
है,
जिसके संपादकों में प्रेमचंद और दुलारेलाल भार्गव जैसे लोग
शामिल रहे. अवध की साहित्यिक हलचल के रूप में माधुरी का विशेष योगदान रहा है. माधुरी की हिंदी इसलिए भी
अपना विशेष महत्व रखती है कि जिस समय हिंदी की दुनिया में छायावाद की सांस्कृतिक
लहर चल रही थी और भाषा के गठन का शिष्ट- संस्कृतनिष्ठ रूप राजनीति रूप से भी नये
अर्थ ग्रहण कर रहा था, उस समय
माधुरी अवध की अपनी अवधी भाषा और उसकी लोक विरासत की देशजता से परहेज करती हुई
नहीं दिखाई देती है. हिंदी साहित्य की पत्रकारिता में जो बड़े परिवर्तन देखने में
आए थे जिनमें सबसे ध्यान आकर्षण करने का काम सरस्वती (1903)
के माध्यम से पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली हिंदी
को गद्य और पद्य दोनों के लिए एक करने की आंदोलनधर्मी कमान सम्भाल रखी थी,और हिंदी की मानक दिशा संस्कृत से शब्द ग्रहण करती हुई, लोक भाषाओं के प्रति लापरवाह रुख अख़्तियार किए हुई थीं.
माधुरी की छवि इन पत्रिकाओं से कुछ भिन्न थी. माधुरी की जो अपनी अलग एक नई पहचान
बनती है,
उनमें से एक कारण भाषा नीति के हिसाब से, इसका अपना उदार रवैया रहा है. यह पत्रिका अपने प्रकाशन काल
के दौर में बहुत ही महत्वपूर्ण संपादकों से गुजरी, लेकिन इसने अपनी भाषाई उदारता हमेशा बरकरार रखी . माधुरी का
प्रवेशांक लखनऊ के ऐतिहासिक नवलकिशोर प्रेस से 30 जुलाई सन 1922 ई. में दुलारेलाल भार्गव के सधे हुए सम्पादन कौशल में आता
है. माधुरी का प्रकाशन शुरू होने से पहले ही नवल किशोर प्रेस प्रकाशन जगत विशेषकर
उर्दू प्रकाशन जगत में अपना अमर स्थान बना चुका था. ऐसे में जब प्रेस ने माधुरी
नाम से हिन्दी पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया तो पहले अंक से ही माधुरी हिन्दी की
एक महत्त्वपूर्ण पत्रिका बन गयी. एक तरफ़ वो दौर जहां शुद्ध खड़ी बोली हिन्दी के
प्रचार प्रसार का था, जिसमें
सैकड़ों साल पुरानी लोक-भाषाओं पर अपेक्षाकृत नई-नवेली हिन्दी को तरजीह दी जा रही
थी,
वहीं माधुरी हिन्दी की समर्थक होते हुए भी लोक-भाषाओं से
अपना रिश्ता जोड़े हुए थी. इसकी एक वजह शायद ये थी कि माधुरी के प्रकाशन से पहले
नवल किशोर प्रेस न सिर्फ़ उर्दू, अरबी, फ़ारसी और संस्कृत बल्कि अवधी और बृज जैसी लोकभाषाओं में
विपुल साहित्य प्रकाशित कर चुकी थी इसलिए शुद्ध खड़ी बोली हिन्दी को लेकर वो किसी
कट्टर पूर्वाग्रह , श्रेष्ठता
बोध या राजनीति से ग्रसित नहीं थी. माधुरी की हिन्दी ने अपने दरवाज़े लोक-भाषाओं
अथवा आम-फ़हम उर्दू के लिए बंद नहीं किए थे. (पीतलिया,2000)
नवल
किशोर प्रेस को अपने उर्दू अख़बार अवध अख़बार के लिए भी याद रखा जाएगा. ये अख़बार 26 नवंबर 1858 को शुरू हुआ. पहले ये एक साप्ताहिक अख़बार था जो 1875 से एक दैनिक अख़बार में बदल गया. उत्तर भारत का ये पहला
दैनिक उर्दू अख़बार था. साथ ही ये नवल किशोर के लाभकारी प्रकाशनों में से एक था.
एक ज़माने में कहावत मशहूर थी कि हिन्दुस्तान के सभी सूबों में या तो हुकूमत के
नुमाइंदे रहते हैं या नवल किशोर के. इंग्लैण्ड में प्रसिद्ध भाषाशास्त्री एडवर्ड
हेनरी अवध अख़बार के नुमाइंदे थे. एक महत्त्वपूर्ण बात ये है आरंभिक उर्दू फिक्शन
का उत्कृष्ट नमूना रतन नाथ सरशार का फसाना-ए-आज़ाद जो आज उर्दू क्लासिक्स में गिना
जाता है,
पहली बार इसी अख़बार में धारावाहिक रूप में छपा.(भार्गव,2012).
नवल किशोर के जीवन काल में ये अख़बार अंग्रेज़ों के प्रति
किसी हद तक नरम दिखाई देता था. शायद इसलिए क्योंकि अंग्रेज़ों के सहयोग से ही नवल
किशोर अपनी प्रेस लखनऊ में जमा पाए थे और अंग्रेज़ों से प्रेस को छपाई का ठेका
मिलता था. इसी कारण से गंगा प्रसाद वर्मा का अख़बार हिन्दुस्तानी और दूसरे अख़बार
इसकी आलोचना करते हुए इसके अंग्रेज़ों का चापलूस तक कहते थे. मगर इसमें कोई शक
नहीं कि 92 साल के अपने लंबे जीवन में इसने कई बदलाव देखे. नवल किशोर
के बाद के दौर में जब देश की राजनीति में कांग्रेस खासकर गांधी के नेतृत्व में
राष्ट्रीय आंदोलन का अहम विकास हुआ उस वक्त ये अख़बार खुल कर कांग्रेस के समर्थन
में खड़ा हुआ और राष्ट्रीय चेतना से ओत प्रोत सामग्री दी. मिर्ज़ा ग़ालिब और सर
सैयद जैसी बड़ी हस्तियां शुरू से ही अवध अख़बार के प्रशंसकों में रहीं. साथ ही
इसके सम्पादकों की अपनी एक प्रतिष्ठा एक धाक रही. इसके मशहूर सम्पादकों में हादी
अली अश्क,
मेहदी हुसैन खां, रौनक़ अली अफसोस, गुलाम मोहम्मद तपिश, रतन नाथ सरशार, नौबत राय नज़र अब्दुल हलीम शरर, प्रेमचंद और शौकत थानवी शामिल रहे.(स्टार्क,2012).
अवध अख़बार अपनी सामग्री के लिए तो जाना गया ही अपनी भाषा
के लिए भी जाना गया. अपनी शुरुआत से ही उसने उर्दू का अख़बार होने के बावजूद उस
भाषा को तरजीह दी जिसे हम हिन्दुस्तानी के करीब मान सकते हैं. बाद के दिनों में तो
अख़बार की भाषा और विकसित होती गयी. साइमन कमीशन की भारत यात्रा के दौरान इस
अख़बार ने जिस तरह के बाग़ी तेवरों का परिचय दिया वो अपने आपमें एक मिसाल है.
निष्कर्ष-
उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि हिन्दी-उर्दू अदब के प्रचार
प्रसार में मुंशी नवल किशोर ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उन्नीसवीं और बीसवीं
सदी में जब साहित्यिक किताबें छापना बहुत मुनाफ़े का सौदा नहीं था, तब प्रेस ने न सिर्फ इन्हे छापने का जोखिम उठाया बल्कि बहुत
से साहित्यकारों को मंज़र-ए-आम पर लाकर उनके साहित्य को हमेशा के लिए महफूज़ किया.
हिन्दी-उर्दू में साहित्यिक पत्रिकाएं और अख़बार छापकर इन्हे इन भाषाओं को जनता के
बीच प्रतिष्ठित किया. हिन्दी-उर्दू में विभिन्न ज्ञानानुशासनों की ऐसी ऐसी किताबें
छापीं जो पहले दस्तयाब ही नहीं थीं. अपने विलक्षण अनुवाद कार्य के ज़रिए हिन्दी और
उर्दू को करीब लाकर हिन्दुस्तानी भाषा के निर्माण और चलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका
निभाई.
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[आलेख साभार: जनकृति पत्रिका]
[चित्र साभार: active illusion, Hindi Studio]
[चित्र साभार: active illusion, Hindi Studio]
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