भारतेन्दु की हिन्दी पत्रकारिता में सामाजिक एवं राष्ट्रवादी विमर्श- संकर्षण परिपूर्णन
भारतेन्दु की हिन्दी पत्रकारिता में सामाजिक
एवं राष्ट्रवादी विमर्श
- संकर्षण
परिपूर्णन*
‘सहायक
प्राध्यापक‘
पत्रकारिता एवं जनसंचार
विभाग
राँची विश्वविद्यालय, राँची
शोध-सारांश
हिंदी पत्रकारिता को सारगर्भित रूप से किसी ने
अगर सही दिशा दी है या यूं कहें की साहित्यिक पत्रकारिता के माध्यम से हिंदी भाषा
का अगर सही मानकीकरण किया है तो वे है-भारतेंदु हरिश्चंद्र। ब्रजभाषा के मूर्धन्य
कवि की कार्य संस्कृति से प्रभावित होकर पत्रकारों, साहित्यकारों
और कवियों की ऐसी मंडली बनी जिसकी मंजिल एक थी- हिंदी की जुबान से हिंदुस्तान के
कल्याण की बात करना।
शब्द-कुंजी
सुधार, हिंदी
पत्रकारिता, स्वदेशी वस्तु, भारतीय
संस्कृति, दैनिक साहित्य, संपादन,
शैली, विधा, अंग्रेजीयत, देशभक्ति
प्रस्तावना
हिंदी साहित्य में
नवीन युग के प्रवर्तक के रूप में स्थापित भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पत्रकारिता को
दैनिक साहित्य की तरह प्रयोग किया। भारत की भूमि पर पसरी अंग्रेजीयत पर झाड़ू लगाने
का प्रयास किया इस आलोक स्तंभ ने। ‘कविवचनसुधा‘ में
उन्होंने स्वयं लिखा है-
‘‘हम लोग सर्वान्तयोगी, सब
स्थल में वर्तमान स्वदªष्टा और नित्य सत्य परमेश्वर को साक्षी देकर
यह नियम मानते हैं और लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई भी विलायती कपड़ा नहीं
पहिनेंगें और जो कपड़ा की पहिले से मोल ले चुके हैं और आज की मिति तक हमारे पास है
उनको तो उनके जीर्ण हो जाने तक काम में लावेंगें पर नवीन मोल नहीं लेंगे और किसी
भाँति का भी विलायती कपड़ा नहीं पहिनेंगें, हिंदुस्तान
का ही बना कपड़ा पहिनेंगें‘‘1
भारतेंदु के लेखन में
लोकोक्तियों, मुहावरों की बहुलता ने भाषा को एक ऐसी
विशिष्टता दी जिससे साहित्यिक पत्रकारिता को एक नया आयाम मिल सका। व्यंग्यात्मक
शैली का उन्होंने बखूबी इस्तेमाल किया
जिससे भारतीय जनता के
अंतःकरण में भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रीयता का भाव भर सका। कहा भी जाता है कि-
भारतेंदु की श्रम साधना उनके व्यक्तित्व एवं शैली
के अनोखे पन में सन्निहित थी।2
संपादन की
वैशिष्ट्यता की बहुलता भारतेन्दु की पत्रकारिता को एक बेहतर दिशा की ओर ले जाती है
जिससे नवागंतुक पत्रकार और साहित्यकार भी उर्जा से ओत-प्रोत महसूस करते थे।
रतन भटनागर के शब्दों
में-
‘‘भारतेंदु
हरिश्चंद्र हिंदी साहित्य के ही जन्मदाता नहीं है, वह हिंदी
पत्र संपादन कला के भी जन्मदाता है।‘‘3
पत्रकारिता की नई-नई
विधाओं को जन्म देने का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को ही जाता है। इन्होंने बाल
पत्रकारिता की शुरुआत की‘‘जिसकी यात्रा 1882 में बाल
दर्पण से आरंभ होती है। भले ही पत्रिका मासिक रही हो लेकिन इसके माध्यम से
बालोपयोगी साहित्य को सृजन करने की प्रेरणा दूसरे पत्रकारों और साहित्यकारों को
मिली। इन्होंने बच्चों की कल्पना को विकसित करने की दिशा में पौराणिक, ऐतिहासिक
तथा काल्पनिक कथाओं को छापने की परंपरा का सूत्रपात किया।
‘कविवचनसुधा‘ पत्रिका
के माध्यम से भारतेंदु ने राजनीतिक सुधार, सामाजिक
सुधार जैसे कि- अंधविश्वास आदि एवं साहित्यिक सुधार की बात कही जो उस वक्त की
पत्रकारिता की मुख्यधारा बनी। वैसे तो यह एक कविता की पत्रिका थी लेकिन इसकी
लोकप्रियता का ही परिणाम था कि अन्य जगहों से भी समाचार-पत्र निकलने शुरू हो गए थे।-
‘‘खल-गननसों सज्जन दुखी मति होंहि, हरिपद
मति रहै।
अपधर्म छूटै, स्वत्व
नित भारत गहै, कर दुख बहै।।
बुध तजहिं मत्सर, नारिनर
सम होंहि, जग आनंद लहै।
तजि ग्राम कविता, सुमविजन
को अमृतबानी सब कहै।।‘‘ 4
स्त्री-पक्ष को
केंद्रित कर बालाबोधिनी नामक पत्रिका का प्रकाशन कर इन्होंने नारी को अपनी
पत्रकारिता में शामिल किया जो ना सिर्फ हिंदी भाषा बल्कि सभी भाषाओं में देश की
पहली महिला पत्रिका के रूप में स्थापित किया। यह उस दौर की बात है जब भारतीय समाज
में महिलाओं की स्थिति चिंताजनक थी और वह संघर्षपूर्ण स्थितियों से गुजर रही थी।
इस तरह पत्रकारिता की नई विधाओं को जन्म देने का
कार्य किया है भारतेंदु बाबू ने। इनकी गंभीर लेख और निबंध ने भारत की बिगड़ी आर्थिक
स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास किया जिसका मुख्य कारण विदेशी व्यापार था। इनकी
पत्र-पत्रिकाओं से प्रेरित होकर सामाजिक एवं धार्मिक विचारों को प्रकट करने की
धारा हिंदी पत्रकारिता में मुखर हो उठी। इसी उर्जस्विल प्रतिभा का कायल हो
प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने कहा कि-
‘‘युग की प्रतिभा जनता
के निकट अनेक रूपों में प्रकट हुई है। नाटक, सभा, संस्थाओं
में भाषणों, पत्र- पत्रिकाओं के लेखों आदि के द्वारा लेखक
जनता तक अपना संदेश पहुँचा सके। इन सब में पत्र-पत्रिकाएँ ही अधिक स्थायी और
दूर-दूर तक पहुँचने वाला साधन थी। हिंदी में पत्र-पत्रिकाओं की कोई जीवित परंपरा न
थी, परंतु एकाएक उत्तर भारत में आने वाले कितने
नगरों में पत्रों की एक बाढ़ सी आ गई। इसमें बहुत से कुछ महीने या कुछ वर्ष चलकर
ठप्प हो गए। कुछ दीर्घकाल तक हिंदी की सेवा करते रहे। लाहौर, बंबई
और कलकत्ता को यदि सीधी सेवाओं से मिला दिया जाए तो एक त्रिकोण बनेगा, उसके
भीतर देश का वह भाव आ जाएगा जहाँ से इस प्रकार के पत्र निकलते थे। बंबई की अपेक्षा
कलकत्ता से बड़ी संख्या में और बहुत अच्छे पत्र निकले। बनारस तो पत्रिकाओं का
केंद्र था। इनमें अधिकांश पत्रों की प्रेरक काशी में भारतेंदु थे।‘‘ 5
देशभक्ति व देशराग भारतेंदु की पत्रकारिता की एक
महत्वपूर्ण कड़ी थी। वे देश की दुर्दशा को देखकर व्यथित होते। दरबारी संस्कृति और
रीतिकालीन साहित्य पर रूग्ण हो उन्होंने स्वयं ही कह डाला-
‘‘अब जहाँ देखहूँ तहँ
दुःखहि दुःख दिखाई
हा हा! भारत दुर्दशा
न देखी-जाई ‘‘।।6
असल में भारतेंदु
स्वयं में एक आंदोलन थे और हर आंदोलन एक निश्चित ध्येय की ओर इशारा करता था।
जनसमर्थन प्राप्त कर उस और एक अभियान चलाया जाता था। भारतेंदु की चेतना राष्ट्रीय
स्वाधीनता की राह थी। वे नयी उभरती राष्ट्रीय चेतना को जन-जन के बीच ले जाते साथ
ही साथ एक सशक्त समाज की स्थापना की ओर अग्रसर थे।
उपसंहार
सारगर्भित रूप से कहा
जाए तो वे मूलतः लेखक, साहित्यकार, पत्रकार या
रचनाकार थे, इसको कोई भी स्पष्ट नहीं कह सकेगा लेकिन हिंदी
पत्रकारिता के जननायक की भाँति उन्होंने हिंदी से लेकर हिंदुस्तान तक की सभी बिंदुओं
को क्रमवार अपने लेखों और पत्र-पत्रिकाओं में इंगित किया है।
चहहूँ जो साँचहू नीज कल्यान।
जपहूँ निरंतर एक
जबान।
हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान।।
7
भारतेंदु की चिंता
व्यापकता में समाहित थी। उनकी पत्रकारिता उनकी चिंता और उद्देश्य का एक सशक्त
माध्यम थी। कभी स्वदेशी नारा दिया तो कभी बंगाल में अकाल जैसे सामाजिक मुद्दों को
भी उठाया। हिंदी भाषा और कविता से लेकर विज्ञान, अंधविश्वास
और अध्यात्म का भी जिक्र किया और अंततः देशभक्ति उनकी पत्रकारीय लेखन का मुख्य
शीर्षक बनती है। कुल मिलाकर वे सर्वगुण संपन्न और उनका यही गुण उस काल के अधिकतम
लेखकों एवं साहित्यकारों में देखने को मिलता है।
भारतेंदु युग के लेखकों की जातीय वैशिष्ट्य को
लक्षित कर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि -
‘‘आजकल
के समान उनका जीवन देश की सामान्य जीवन से विच्छिन्न न था। विदेशी अन्धड़ों ने उनकी
आँखों में इतनी धूल नहीं झाँकी थी कि अपने देश का रूप-रंग उन्हें सुनाई नहीं पड़ता।
काल की गति को वे देखते थे, सुधार के मार्ग भी उन्हें सूझते थे पर पश्चिम
की एक-एक बात के अभिनय को ही वे उन्नति का पर्याय नहीं समझते थे, प्राचीन
और नवीन के संधि-स्थल पर खड़े होकर वे दोनों का जोड़ इस प्रकार मिलाना चाहते थे कि
नवीन, प्राचीन का संवर्धित रूप प्रतीत हो, न
कि ऊपर से लपेटी हुई वस्तु‘‘। 8
संदर्भ-सूची
1. संपूर्ण पत्रकारिता, डॉ.
अर्जुन तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन: इलाहाबाद, 87. प्रिंट.
2. पत्रकारिता के नए आयाम, एस.के.दूबे, लोकभारती
प्रकाशन: इलाहाबाद, 40. प्रिंट.
3. रेडियो और दूरदर्शन पत्रकारिता, डॉ.
हरिमोहन, तक्षशिला प्रकाशन: नई दिल्ली, 18. प्रिंट.
4. पत्रकारिता के परिप्रेक्ष्य, जगदीश
प्रसाद चतुर्वेदी, साहित्य संगम: इलाहाबाद, 118. प्रिंट.
5. रेडियो और दूरदर्शन पत्रकारिता, डॉ.
हरिमोहन, तक्षशिला प्रकाशन: नई दिल्ली, 18. प्रिंट.
6. हिन्दी पत्रकारिता, कृष्ण
बिहारी मिश्र, भारतीय ज्ञानपीठ: नई दिल्ली, 116. प्रिंट.
7. संपूर्ण पत्रकारिता, डॉ.
अर्जुन तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन: इलाहाबाद, 87. प्रिंट.
8. हिन्दी
पत्रकारिता, कृष्ण बिहारी मिश्र, भारतीय
ज्ञानपीठ: नई दिल्ली, 117. प्रिंट.
* संकर्षण परिपूर्णन
‘सहायक
प्राध्यापक‘
पत्रकारिता एवं जनसंचार
विभाग
राँची विश्वविद्यालय, राँची
झारखंड- 834008
संपर्क - 09102171984
ईमेल- sankershanparipurnan8103@gmail.com
[चित्र साभार: Yourstory] [आलेख साभार: जनकृति]
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