21वीं सदी की कवयित्रियों के काव्य में स्त्री विमर्श: - हरकीरत हीर
21वीं
सदी की कवयित्रियों के काव्य में स्त्री विमर्श
- हरकीरत हीर
‘२१ वीं
सदी में सबसे ज्यादा चर्चित विषय रहा है
स्त्री विमर्श। समाजशास्त्रियों के लिए,
राजनीतिज्ञों के लिए और साहित्य के लिए पिछले ५०-६० वर्षों से यह
स्त्री विमर्श, ‘नारी मुक्ति आन्दोलन’ के
नाम पर एक नए रूप में सार्वजानिक रूप से एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है. सामान्य रूप
से ' विमर्श ' अंग्रेजी के ' डिस्कोर्स ' शब्द के पर्याय के रूप में प्रचलित है ,
जिसका अर्थ उक्त विषय पर दीर्घ एवं गंभीर चिंतन करना है। नारी विमर्श पश्चिमी देशों से आयातित एक
संकल्पना (सामान्य विचार) है. इंग्लॅण्ड और अमेरिका में उन्नीसवीं शताब्दी में
फेमिनिस्ट मूवमेंट से इसकी शुरुआत हुई. यह आन्दोलन लैंगिक समानता के साथ-साथ समाज
में बराबरी के हक के लिए एक संघर्ष था, जो राजनीति से होते
हुए साहित्य, कला, एवं संस्कृति तक आ
पहुँचा ,देखा जाये तो २१ वीं सदी की कविताओं में क्रिया-प्रतिक्रिया के रूप में इस विमर्श के
पक्ष और विपक्ष में रह-रह कर उच्च स्वर उठते रहे हैं और लगभग एक दशक से यह विमर्श ‘नारी सशक्तिकरण’ के नाम से लगातार चर्चा और लेखन का
प्रमुख विन्दु रहा है जिसमें कविताओं ने आग में घी का कार्य किया। खासकर महिलाओं
की लेखनी ने।जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से महिलाओं की शोषित सामाजिक और
पारिवारिक छवि को सार्वजनिक किया. स्त्रियों पर होते अत्याचार और उनकी मार्मिक दशा
पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने का एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान किया. निश्चित तौर
पर इस दौरान महिलाओं की दमित और शोषित परिस्थितियां उल्लेखनीय ढंग से परिमार्जित
हुईं. जहां एक ओर महिलाओं को पुरुषों के ही समान कुछ आवश्यक और मूलभूत अधिकार
मिलने लगे, वहीं शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण महिलाएं भी
स्वयं अपनी महत्ता को समझने लगीं.लेकिन अभी भी स्त्री शोषित होती है ,इसलिए इसमें विमर्श की अति आवश्यकता है।
औरत की आजादी को लेकर
हमेशा ही वाद विवाद और संवाद होते रहे हैं.
एक ओर पुरुष वर्चस्व है और दूसरी ओर स्त्री-मुक्ति की चुनौतियाँ और स्त्री
के आधआरभूत सम्मान का प्रश्न भी। इस शोध का मंतव्य है कि स्त्री-संघर्ष के विविध
पहलुओं को सामने रखते हुए भूमंडलीकृत समय में स्त्री-मुक्ति की दिशा की सही तस्वीर
सामने रखला है।
आज की औरत कितनी आजाद
है,
इस पर विधिवत विमर्श कम ही हुआ है। समाज को एक नारी के प्रति नये
दृष्टि कोण को अपनाना होगा। इस सच्चाई से
भी इनकार नही किया जा सकता कि नारी आज भी प्रताड़ित है। इसके लिए हम देखेंगे २१
वीं सदी की कवयित्रियों की कविताओं में उठ रहे विद्रोह के स्वर को। क्योंकि साहित्य में स्त्री विमर्श के अन्तर्गत
स्त्री द्वारा लिखा गया और स्त्री के विषय में लिखा गया साहित्य ‘साहित्यिक स्त्री विमर्श’ माना जाता है। स्त्री होने के नाते स्त्री ही स्वानुभूति पर
आधारित प्रामाणिक व विश्वसनीय साहित्य की रचना कर सकती है। पुरुष लेखक संवेदना के
स्तर पर, समानानुभूति के आधार पर स्त्री पीडा को व्यक्त करने
में सक्षम रहे हों, लेकिन स्त्री-पीडा का यथार्थ चित्र्ण
उतनी ईमानदारी से नहीं कर सके हैं।
स्त्री विमर्श अब
अपने परंपरागत स्वरुप तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि संसद तक को भी गुंजायमान कर चुका
है और दिल्ली की ‘दामिनी प्रकरण’ से तो न्यायपालिका भी परोक्ष रूप से
इस विमर्श में सम्मिलित हो गयी थी।
'दामिनी प्रकरण'' पर हजारों कविताएं लिखी गयीं जिसमें से वरिष्ठ कथाकार और कवयित्री सुधा
आरोड़ा के लहू खौलाते शब्द मैं यहां पेश
करना चाहूंगी -
दामिनी ! / जीना
चाहती थी तुम / कहा भी था तुमने बार बार /
दरिंदों से चींथी हुई देह से जूझते हुए /
मौत से लडती रही बारह दिन / कोमा में बार बार
जाती / लौट लौट आती / कि शायद / साँसे संभल जाएँ ....... / आखिर
हत्यारे जीते / तुम्हारा जीवट थम गया / और तुम चली गयी दामिनी ! / लेकिन तुम कहीं नहीं गयी दामिनी / अब तुम
हमेशा रहोगी / सत्ता के लिए चुनौती बनकर , / कानून के लिए नई इबारत बनकर ,
/ स्त्री के लिए बहादुरी की मिसाल बनकर , / कलंकित हुई इंसानियत पर सवाल
बनकर , /सदियों से कुचली जा रही स्त्रियों का सम्मान बनकर !
महादेवी वर्मा के
अनुसार --- "..नारी के स्वभाव में कोमलता के आवरण में जो दुर्बलता छिप गयी है
वही उसके शरीर की सुकुमारता बन गयी जिसका लाभ पुरुष वर्ग ने उठाया है । छेड़ छाड़
एवम बलात्कार उन कुत्सित मनोवृत्तियों का परिणाम है जो कुंठित हो चुकी हैं ।और याद
दिलाता है कि वह एक स्तर पर जानवरों से भिन्न नहीं है..।" इस कविता ने सचमुच
स्त्री उत्पीडन का इतिहास ज़िंदा कर दिया ,यह कविता
वर्तमान समय में बहुत ही प्रासंगिक है !
यह कविता एक उत्पीड़ित स्त्री के दर्द को जिस ढंग से सामने लाती है, वह नि:संदेह इस कविता को अन्य कविताओं से अलग करता है और स्त्री विमर्श को
नई चुनौती देता है।
पाश्चात्य देशों की
तरह,
भारत भी नारी-अपमान, अत्याचार एवं शोषण के
अनेकानेक निन्दनीय कृत्यों से ग्रस्त है। उनमें सबसे दुखद ‘कन्या
भ्रूण-हत्या’ से संबंधित अमानवीयता, अनैतिकता
और क्रूरता की वर्तमान स्थिति हमारे देश की ही ‘विशेषता’
है...उस देश की, जिसे एक धर्म प्रधान देश,
अहिंसा व आध्यात्मिकता का प्रेमी देश और नारी-गौरव-गरिमा का देश
होने पर गर्व है।
वैसे तो प्राचीन
इतिहास में नारी पारिवारिक व सामाजिक जीवन में बहुत निचली श्रेणी पर भी रखी गई नज़र
आती है,
लेकिन ज्ञान-विज्ञान की उन्नति तथा सभ्यता-संस्कृति की प्रगति से
परिस्थिति में कुछ सुधर अवश्य आया है, फिर भी अपमान, दुर्व्यवहार, अत्याचार और शोषण की कुछ नई व आधुनिक
दुष्परंपराओं और कुप्रथाओं का प्रचलन हमारी संवेदनशीलता को खुलेआम चुनौती देने लगा
है। साइंस व टेक्नॉलोजी ने कन्या-वध की सीमित समस्या को, अल्ट्रासाउंड
तकनीक द्वारा भ्रूण-लिंग की जानकारी देकर, समाज में कन्या
भ्रूण-हत्या को व्यापक बना दिया है। दुख की बात है कि शिक्षित तथा आर्थिक स्तर पर
सुखी-सम्पन्न वर्ग में यह अतिनिन्दनीय काम अपनी जड़ें तेज़ी से फैलाता जा रहा है।
इस व्यापक समस्या को
रोकने के लिए गत कुछ वर्षों से साहित्य में
चिंता व्यक्त की जाने लगी है। जब हम हिंदी साहित्य में काव्य के माध्यम से ‘भविष्य की नारी’ पर विचार-विमर्श करते हैं तो दृष्टि
पटल पर सहसा हमारा ध्यान आकृष्ट करता है, पिछले वर्ष २०१४
में प्रकाशित सम्वेदनशील कवयित्री हरकीरत हीर का काव्य संग्रह 'दीवारों के पीछे की औरत ' जिसमे कवयित्री ने
नारी-अस्मिता, नारी चेतना के विषय में समाज के विभिन्न
वर्गों से तो वार्तालाप किया ही है, कन्या भ्रुण हत्या जैसे
मसले पर भी खुल कर कलम चलाई है , कवयित्री ने गर्भ में ही बेटियों को मारे जाने पर सवाल उठाये हैं
. यह सवाल भावी स्त्री विमर्श, स्त्री की दशा और दिशा को नए
रूप, नए अंदाज, नए तेवर और नयी
योजना-परिकल्पना के रूप में एक शोधित, संशोधित, परिवर्तित समाज की रूपरेखा प्रस्तुत करता है जो ‘भविष्यत
की नारी’ के रूप में ‘स्त्री विमर्श’
की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है.उनकी 'अजन्मी
चीख के सवाल ' शीर्षक कविता के कुछ अंश उल्लेखनीय हैं ,
जिसमें कोख की बेटी अपनी माँ से सवाल करती है और अपना कसूर जानना
चाहती है -
मुझे आज भी याद है /
वह भयानक दिन / उस दिन खूब जोरों से बिजली
कड़की थी / कोई बादल फट पड़ा था आसमां
में / इक भयानक सी आकृति का चेहरा / बढ़ आया था मेरी ओर .... /
उस दिन मान मैं खूब चीखी थी / जोर
-जोर चिल्लाई थी / तुझे न जाने कितनी बार पुकारा माँ / पर तुम नहीं आई .... /
धीरे -धीरे कोई तेज धार से / मेरे अंगों
को काटने लगा था / मैं पीड़ा से कराहती
तुझे पुकारती रही माँ / पर तू नहीं
आई … / मेरे
नन्हें -नन्हें हाथ पैरों को / टुकड़ों
टुकड़ों में काट दिया गया / फिर आँख ,
कान , गला भी रेत दिया गया / मुझे
अजन्मी को ही / मार दिया गया
माँ ……
हमारे
शास्त्रों-पुराणों में ऐसे हजारों संदर्भ भरे पडे है जिनमें स्त्री को एक वस्तु या
सम्पत्ति की तरह पुकारा गया है। धर्म के ठेकेदारों ने भी ईश्वर के पश्चात पूरा
ध्यान स्त्री पर ही केन्द्रित किया तथा सारे नियम कायदों से स्त्रियों को लाद दिया
गया । मेरा मानना है कि असंयमित वासना प्राप्ति संघर्ष से बचने के लिए पूरूष
प्रधान समाज ने ही विवाह जैसी संस्था का निर्माण किया और उसके यौन मामलों को लज्जा
की संज्ञा देकर एक बेहद कीमती और नाजुक कांच की दीवार बना दिया। इससे स्त्री जाति
को एक बड़ी हानि हुई, वह है- विवाह पश्चात ही
स्त्री का सामाजिक मूल्य खत्म हो गया । वह सिर्फ भोग्या बन गई। वह दिनभर घर का काम करती , बच्चों की देखभाल करती और पति की सेवा में तत्पर रहती , किसी ने कभी जरुरत नहीं समझी कि उसकी जरूरतों को , उसकी
तकलीफों को भी समझा जाये, उसके मनोभावों को भी समझा जाये ।
वह सिर्फ एक मशीनी वस्तु बन कर रह गई जो सबकी जरूरतें तो पूरी करती है पर अपने लिए
जीना भूल जाती है। पति भी उसे सिर्फ अपनी थकान मिटाने का साधन समझता है। यहां हरकीरत 'हीर '
के ही अन्य एक काव्य संग्रह 'खामोश चीखें '
का उदहारण देना चाहूंगी जिसमें 'औरत …' शीर्षक कविता में वे
लिखती हैं -
वह मेरे जिस्म से
खेला / होंठों को निचोड़ा / और छाती पर सर रख कर सो गया / किसी को खबर भी न हुई / कब मेरी पलकों पर ठहरी हुई बून्द / बर्फ में तब्दील हो गई … / उस ने
उतार ली / मेरे जिस्म की खूंटी से / अपनी दिन भर की थकान / पर मैं कैसे झाड़ू हुई / कैसे बर्तन बनी / और कैसे फ्रिज बन उसका बिस्तर बनी / किसी को खबर भी न हुई …
हांलाकि वैवाहिक
संबंध प्राकृतिक नियमों के अनुरूप है लेकिन उसके पीछे की रूढ़ियॉ एवं कायदे इस
नियम को अप्राकृतिक बनाते है । जो स्त्री की स्वतंत्रता का हनन करते है उसे सिर्फ
भोग्या बना देते हैं। हमें सोचना होगा कि समाज में यह विकृति कैसे आई
?
सृष्टि का आधार नारी जो समाज और घर का आधार शृंगार है वो अचानक भोग
की वस्तु क्यों बन गई ? विश्व की इस अद्वितीय भारतीय
संस्कृति में ही हम स्त्री को पूजनीय कहते आये हैं तभी तो पुरुष उनकी ही बदौलत आज
भी महिमा मंडित है ! भारतीय दर्शन में
सृष्टि का मूल कारण अखंड मातृसत्ता अदिति भी नारी है और वेद माता गायत्री है !
नारी की महानता का वर्णन करते हुये ”महर्षि गर्ग” कहते हैं कि :-
यद् गृहे रमते नारी
लक्ष्मीस्तद् गृहवासिनी।
देवता: कोटिशो वत्स!
न त्यजन्ति गृहं हितत्।।
( जिस घर में सद्गुण
सम्पन्न नारी सुख पूर्वक निवास करती है उस घर में लक्ष्मी जी निवास करती हैं। हे
वत्स! करोड़ों देवता भी उस घर को नहीं छोड़ते। )
भारत में हमेशा से ही
नारी को उच्च स्थान दिया गया । भारतीय संस्कृति में नारी का उल्लेख ‘श्री’, ‘ज्ञान’ तथा ‘शौर्य’ की अधिष्ठात्री नारी रूप में किया गया है
!आदिकाल से ही हमारे देश में नारी की पूजा होती आ रही है। आज भी आदर्श-रूप में
भारतीय नारी में तीनों देवियाँ सरस्वती,लक्ष्मी और दुर्गा की
पूजा होती है ! भला ‘अर्द्धनारीश्वर’ का
आदर्श को कौन नहीं जानता ? किसी भी मंगलकार्य में नारी की
उपस्थिति को अनिवार्य माना गया है ! नारी की अनुपस्थिति में किये गए कोई भी
मांगलिक कार्य को अपूर्ण माना गया। उदहारण के लिए हम सत्यनारायण भगवान् की कथा को
ही ले लेते है ! वेदों के अनुसार सृष्टि के विधि-विधान में नारी सृष्टिकर्ता ‘श्रीनारायण’ की ओर से मूल्यवान व दुर्लभ उपहार है।
नारी ‘माँ’ के रूप में ही हमें इस
संसार का साक्षात दिग्दर्शन कराती है, जिसके शुभ आशीर्वाद से
जीवन की सफलता फलीभूत होती है। फिर वह पुरुष की नज़र में सिर्फ भोग्या कैसे बन गई ?
डॉ रमा द्विवेदी जी
ने २०१३ में प्रकाशित अपने हाइकु संग्रह ''साँसों की
सरगम’' में नारी-चेतना, नारी-अस्मिता
और नारी-जीवन के दुःख-दर्द को युक्ति और तर्क के साथ निर्भीक और निडर होकर
रेखांकित किया है. बढ़ती हुयी कन्या भ्रूण हत्या के प्रति उनकी घृणित मानसिकता के
लिए समाज को ही नहीं, अपने परिवार और पति को भी कठघरे में
खड़ा किया है. सोच और कथ्य की दृष्टि से यह एक अनूठा कार्य है. वे लिखती हैं – “जीवनदाता/ बन गया
राक्षस/ सुरक्षा कहाँ?” क्योकि बाहर तेरा सबसे बड़ा शत्रु तो
वही है, जिसका तू अंश है. वे सभी को ललकारते हुए आगे कहती
है- “जन्मदात्री हूँ/ बेटी भी मैं जनूंगी/ रोकेगा कौन?”.
कवयित्री एक सामान्य नारी को उसकी वास्तविक शक्ति से परिचित करना
चाहती है, इसी को लक्षित कर वे लिखती हैं –“आग का गुण/ केवल जलना नहीं/ जलाना भी है”,भ्रूण
हत्या पर वे स्त्री भ्रूण हत्या/ बिगाड़ा
संतुलन/ सृष्टि का नाश”,फिर तर्क करती हैं – “बिगड़ेगा जो/ सृष्टि का संतुलन/ ब्याहोगे किसे?” आहत
होकर असहाय सी अपनी वेदना प्रकट करती है – “गर्भ सुरक्षा/ दे
सकती हूँ बेटी/ बाहर नहीं”
विवाह संबंध विच्छेद
या विधवापन की सूरत में तो एक स्त्री का जीवन और भी कष्टप्रद है , क्योंकि टूटी कांच की दीवार को कोई घर में नही सजाता , न वह ससुराल की रह पाती है न मायके की . एक तलाकशुदा औरत के लिए समाज में
अकेले जीवन यापन इतना कठिन हो जाता कि कई बार ऐसी स्थिति में वह आत्महत्या तक कर
बैठती है। इसी विषय पर दीपिका रानी की
झकझोरती हुई कविता मुझे मिली रश्मि प्रभा द्वारा सम्पादित पुस्तक ''शब्दों के अरण्य में '' में। कवयित्री लिखती हैं -
पति बिछुड़ी औरत
/ एक घायल सिपाही है / उसके हथियार छीन लिए गए हैं / सिंदूर चूड़ियाँ बिछुवे / इनके बगैर वह लड़
नहीं सकती / उसे दिखाया नहीं गया / कोई और रास्ता / उसके घर में
/ बाहर की ओर खुलने वाला दरवाजा /
बंद हो गया है / धक गए हैं रोशनदान
खिड़कियाँ / परम्परा के मोटे पर्दों
से / पति से बिछुड़ी औरत / एक जिन्दा सती है / उसके सपनों का दाह - / संस्कार नहीं हुआ / अपने अरमानों की राख़ / किसी गंगा में प्रवाहित नहीं की उसने / अब उसे कामनाओं की अग्नि -परीक्षा में तप कर कुंदन बनना है ....
हमारे समाज में आज भी
विधवा विवाह, पुर्नविवाह जैसे कोई अपराध हो । इस पर
समाज में पाबंदी जैसी स्थिति है । हम स्वयं अपनी संस्कृति पर गर्व करते हुए फूले
नही समाते है किन्तु जब स्त्री पुनर्विवाह या विधवा विवाह जैसी बात आती है तो
हमारे संस्कार आड़े आने लगते हैं।
भारतीय नारियों में
त्याग,
सेवाभाव, सहिष्णुता एवं निष्ठा के गुण
विद्यमान हैं। नारी प्राचीन काल से ही अपनी अद्भुत शक्ति प्रतिभा, चातुर्य, स्नेहशीलता, धैर्य,
समझ, सौन्दर्य के कारण हर मोर्चे पर पुरुष से
आगे नहीं तो पीछे भी नहीं रही है। जहाँ वह पति को पूज्य व देवता के समतुल्य मानती
है, वहाँ पति को भी उसे गृहलक्ष्मी या किसी देवी से कम नहीं
समझना चाहिए .
यद् गृहे रमते नारी
लक्ष्मीस्तद गृहवासिनी।
देवता कोटिशो वत्स न
त्यज्यंति ग्रहहितत्।।
अर्थात् जिस घर में
सद्गुण सम्पन्न नारी सुखपूर्वक निवास करती है उस घर में लक्ष्मी जी निवास करती
हैं। हे वत्स ! करोड़ों देवता भी उस घर को नहीं छोड़ते।
नर-नारी दोनों
गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। स्त्री के बिना
तो किसी घर की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसीलिए कहा गया है—‘बिन घरनी घर भूत समाना।’ इसी सिलसिले में हम देखेंगे
पूनम मटिया की एक कविता ' फिर क्यों सहूँ अत्याचार ' जो प्रकाशित हुई है बोधि प्रकाशन से डॉ लक्ष्मी शर्मा के संपादन में आये
काव्य संग्रह ''स्त्री होकर सवाल करती है .... !'' में , यह संग्रह एक मुक्त स्त्री का सशक्त स्वर है। जिसकी कवितायेँ पारिवारिक ,आर्थिक , दाम्पत्य , सामाजिक
जैसी पारम्परिक शृंखलाओं के साथ ही नवीन स्त्री की चुनौतियों पर भी प्रश्न उठती
हैं , उनसे मुक्ति की मांग करती हैं --
नारी में नर समाया /
जानकर भी तनिक उसका मन न भरमाया / माँ , बहन और पत्नी हर रूप में सिर्फ उसका ही भला चाहा / फिर क्यों उसने इक पल भी सोचा नहीं / सिर्फ हाथ उठाया और आक्षेप ही लगाया / कोमल ,
भावुक हूँ यह जान उसने हर अवसर पर मुझे दबाया / अबला हूँ पर कमजोर नहीं , चुप हूँ पर शब्दों की कमी नहीं /
प्रणय सूत्र में बंधी चली आई , तात्पर्य इसका यही / कि गयी है कोई गाय -भैंस ब्याही …
अपने एक लेख 'स्त्री विमर्श ऒर हिन्दी स्त्री लेखन' में श्रीमती
धर्मा यादव ने कुछ ऐसा मत व्यक्त किया है कि
-"कहानी में जितनी स्त्रियां गतिशील हॆं उतनी कविता में नहीं हॆं
।" अर्थात कविता में व्यक्त संवेदना
की अपेक्षा स्त्री चेतना की कथा साहित्य में व्यापकता मिलती हॆ. मेरा ऐसा मानना है
कि ऐसा नहीं है। आज बहुत सी युवा
कवयित्रियों के स्त्री चेतना के स्वर अंतर्जाल पर धड़ल्ले से उभरते देखे जा सकते
हैं। जब -जब भी स्त्री पर कोई अनाचार ,अत्याचार हुआ विरोध में फेसबुक पर कविताओं की बाढ़ सी आ गई चाहे वह निर्भया कांड हो या कोई अन्य स्त्री
विषयक घटना , अंतर्जाल पर तुरंत विरोध के स्वर उठने लगते
हैं। खासकर फेसबुक पर। जब २०१२ में धनबाद की सोनाली नामक महिला पर
तेजाब फेंका गया और उसका खूबसूरत चेहरा बुरी तरह से तेजाब से जला दिया गया तब
फेसबुक की चर्चित कवयित्री वंदना गुप्ता की ये दहकते शोलों सी कविता ने दिल हिला
कर रख दिया -
मुझमें उबल रहा है एक
तेज़ाब / झुलसाना चाह रही हूँ खुद को / खंड- खंड करना चाहा खुद को / मगर नहीं हो
पायी / नहीं ....नहीं छू पायी / एक कण भी
तेजाबी जलन की / क्योंकि / आत्मा / को उद्वेलित
करती तस्वीर / शायद बयां हो भी जाए / मगर जब आत्मा भी झुलस जाए / तब कोई कैसे बयां
कर पाए / देखा था कल तुम्हें / नज़र भर भी
नहीं देख पायी तुम्हें / नहीं देख पायी हकीकत / नहीं मिला पायी आँख उससे / और
तुमने झेला है वो सब कुछ / हैवानियत की चरम सीमा /शायद और नहीं होती / ये कल जाना
/ जब तुम्हें देखा / महसूसने की कोशिश में हूँ / नहीं महसूस पा रही / जानती हो
क्यों / क्योंकि गुजरी नहीं हूँ उस भयावहता से / नहीं जान सकती उस टीस को / उस
दर्द की चरम सीमा को / जब जीवन बोझ बन गया होगा / और दर्द भी / शर्मसार हुआ होगा
स्त्री चाहे पॊराणिक
काल की हो या आधुनिक युग की, वह सदॆव ऎसे प्रश्नों से
जूझती रही हॆ, जिनका उत्तर मांगने तक का उपक्रम, दुस्साहस कहलाता हॆ। नारी में
त्याग एवं उदारता है, इसलिए वह देवी है। परिवार के लिए
तपस्या करती है इसलिए उसमें तापसी है। उसमें ममता है इसलिए माँ है। क्षमता है,
इसलिए शक्ति है। किसी को किसी प्रकार की कमी नहीं होने देती इसलिए
अन्नपूर्णा है।नारी की कोमलता, सुन्दरता और मोहकता ही उसकी
सबसे बड़ी शक्ति है। नारी का प्रेम सृजनात्मक है।
नारी सृष्टि सर्जक है। वह संकट-काल में भी साक्षात् काली बनकर संहार करने
में समर्थ है। किन्तु समाज में जब इसी नारी का निरादर होता है , अनाचार होता है तो उसे एक शिक्षित व सभ्य समाज के हितकर नहीं मन जायेगा। किसी समाज या परिवार के विकास के लिए नारी का
हर तरह से योगदान होता है , यदि वही दबी कुचली जाएगी तो फिर
किसी प्रगतिशील समाज की संकल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसे समय में अपनी एक बिलकुल अलग तरह की
कविताओं के माध्यम से पूर्वोत्तर की कवयित्री डॉ तोंब्रम रीता रानी देवी अपने
काव्य संग्रह ' अँधेरे कमरे में बंद औरत ' में 'मुक्त
कर दो उसे ' शीर्षक कविता में कहती हैं--
अय पुरुष
…!/
स्त्री का तुमने / आज तक किया है शोषण / कभी माँ के नाम पर / कभी पत्नी के नाम पर / कभी बेटी के नाम पर / तो
कभी बहू के नाम पर / और तुम कहाते रहे /
पुरुषार्थी .... ! / स्त्री का शोषण /
क्या पुरुषार्थ का काम है ? / क्या वास्तव में तुम पुरुषार्थ हो ?/जिसके मन में
लहराता है पुरुषार्थ / जो होता है स्वामी सहस का / दूसरों को ऊपर उठाता है वो /
रखकर प्राण हथेली पर / देकर अपना सर्वस्व / ओ पुरुषार्थी !/ तुमने तो जलाया है
मुझे / बार -बार ....
भारतीय वैदिक साहित्य
में नारी को देवी का स्वरुप माना गया है | वह
जन्मदात्री है | उसकी अस्मिता की रक्षा करना समाज का नैतिक
दायित्व बनता है। वह मायके में अपनी उड़ान ,
भाई बहन सब छोड़ कर ससुराल
आती है , आते ही उस पर अंकुश लगा दिए जाते हैं , उसकी स्वतंत्रता छीन ली जाती है , उसे एक बोनसाई
बनाकर रख दिया जाता है , जो खिलता तो है पर उसमें कभी
परिपक्वता नहीं आती। हरकीरत हीर के संपादन
में बोधि प्रकाशन से आई पुस्तक ' अवगुंठन की ओट से सात बहने '
ने स्त्री विमर्श के उस अनछुए पहलू को हमारे सामने रखा है | नारी शक्ति को समर्पित
इस कृति की कविताओं का आस्वाद बिलकुल भिन्न है | इसी काव्य संग्रह में असमिया की
एक कवयित्री कुंतला दत्त की ''बोन्साई '' शीर्षक कविता की इसी संदर्भ में कुछ पंक्तियाँ हैं -
बोन्साई की तरह रोपा
गया हमें / एक 'शो पीस ' की तरह /
सजाया गया हमें / बस एक निश्चित परिधि तक / पलने और बढ़ने दिया गया हमें / हाथ और
पाँव / फ़ैलाने की स्वतंत्रता /होती हमें / बढ़ने लगें तो / निश्चित अवधि पर काट
-छाँट दिया जाता है हमें / और निश्चित अन्विति पर फल प्राप्ति की / की जाती है आशा हमसे / पर उन फलों में / वह
खासियत / वह परिपक्वता नहीं होती / जो आम फलों में होती है / जिनसे इक बलवान पौधा
/ फिर दोबारा जन्म ले सके / बोन्साई उम्र भर के लिए / होकर रह जाते हैं बौने ....
२१ वीं सदी की
कवयित्रियों की रचनाओं में यह साफ
प्रदर्शित होता है कि भारतीय समाज ने
हमेशा से ही महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा दूसरे दर्जे का स्थान दिया है.
उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति शोषित और असहाय से अधिक नहीं देखी गई. महिलाओं को
हमेशा और हर क्षेत्र में कमतर ही आंका गया जिसके परिणामस्वरूप उनके पृथक अस्तित्व
को कभी भी पहचान नहीं मिल पाई. उसे बचपन से ही उसके स्त्री होने आभास दिला दिया
जाता है ,
उसकी संपूर्णता के विषय में गंभीरता से चिंतन करना किसी ने जरूरी नहीं
समझा। डॉ मालिनी गौतम अपने काव्य संग्रह ''बूँद -बूँद का अहसास '' में 'काव्य
कोकिला ' शीर्षक कविता में लिखती हैं -
मैं हूँ औरत / सर से
पाँव तक औरत / पालने में ही घिस -घिस कर / पिला दी जाती है मुझे घुट्टी / मेरे औरत
होने की / उसी पल से मुझे / कर दिया जाता
है विभक्त / अलग -अलग भूमिकाओं में / बना दिया जाता है मुझे / नाज़ुक , कोमल , लचीली
/ ताकि मैं ज़िन्दगी भर / उगती रहूँ उधार के आँगन में / पनपती रहूँ अमर बेल बनकर /
किसी न किसी तने का सहारा लिए / कुछ भी तो नहीं होता मेरा अपना / न जड़ें .... न आँगन / और न आसमान ……
इस पुरुष प्रधान समाज
ने हमेशा ही स्त्री को घर की चारदीवारी में कैद रखा है । पुराने समय से ही देवदासी प्रथा , सती प्रथा , दहेज प्रथा , पर्दा प्रथा ने स्त्रियों की स्थिति को
दयनीय बना दिया है। इस पुरुष प्रधान समाज
में स्त्री बचपन में पिता , जवानी में पति और बुढ़ापे में पुत्रों की अवहेलना का शिकार
होती आई है। कभी धोखे से जायदाद लेकर बेटा माँ को एयरपोर्ट पर अकेला छोड़ विदेश चला
जाता है , तो कभी जायदाद के लिए उसकी हत्या तक कर देता है ,
उसे घर से निकाल देता है ,
या उसके मरने का इंतजार करता है ताकि जल्द से जल्द उसकी जायदाद पर
कब्जा कर सके। जो माँ बेटे के जन्म पर
खुशियाँ मानाती नहीं थकती वही माँ अपने
अंतिम दिनों में उसी बेटे की आँखों में खटकने लगती है। इसी दृष्ट्व्य को हरकीरत हीर के सम्पादन में
बोधि प्रकाशन से आई पुस्तक 'माँ की पुकार ' में आशमा कौल ने अपनी 'विडंबना ' शीर्षक कविता में बखूबी दिखाया है -
कितनी खुश हुई थी तुम
/ पुत्र के जन्म पर / थाल पिटवाए थे / लड्डू बंटवाए थे / गली के हर घर में / छिपाए
रखती थी तुम / उसे सीने में / एक चीख पर उसकी / दौड़ी चली आती थी / काला टिका लगाकर
/नज़र से उसे बचाती थी / बाँहों से उतरता न था / वह दिन रात / और तुम उसकी ख़ुशी
/ जाती थी भूल / थकी बाहों का दर्द / उसकी
खातिर लड़ा करती थी सबसे / उसके हक के लिए / भीड़ जाती थी तुम .... / पर समय की चल ने बदला है आज / सबका ही
हाल / अब जवान नहीं रही तुम / वह भी अब बच्चा नहीं है / आज वह बहुत स्याना हो गया
है / छिपा कर रखता है तुम्हें / तुम्हारे
के पिछले कोने में / कराहती हो दर्द में जब तुम / दरवाजा अपने कमरे का बंद
करके / कहता है बीवी से / और कितने जियेगी
बुढ़िया / यह सुनकर / कान बंद कर लेती हो तुम / कि कहीं बेटे के लिए कोई / बददुआ न
निकल जाये …
भारत में विधवाओं की
स्थिति भी बदतर है। विधवाओं को अशुभ माना जाता है. तमाम कानूनों के बाद आज भी
उन्हें पति की संपत्ति से बेदखल कर दिया जाता है और वे दर-दर भटकने के लिए मजबूर
हो जाती हैं। भारत में हर साल हजारों विधवाएं उत्तर प्रदेश के वृंदावन का रुख़
करती हैं. परिवारवालों ने उन्हें छोड़ दिया है और अब इस दुनिया में वे अकेली हैं।
लोग स्त्री के विधवा होते ही लांछन और प्रताड़ना कर शिकार बना देते हैं। उसे घर से
धक्के मार कर निकाल देते हैं। भले ही उसके पास जीने, रहने
का कोर्इ आसरा न हो। इस 21वीं सदी में भारतीय स्त्री की प्रगति का दंभ करने से
पहले एक बार गंभीरतापूर्वक खंगालना होगा उन कारणों को जो विधवाओं को आश्रमों में
शोषित होने के लिए विवश कर रहे हैं। विधवा की स्थिति का कमलेश शर्मा ने अपने काव्य
-संग्रह 'कल्पना ' के अंतर्गत 'विधवा ' शीर्षक कविता में बखूबी वर्णन किया है ---
'' विधवा
बेचारी का जीवन क्या रह जाता है / उसके पति के मरते ही सभी खत्म हो जाता है / उसके
सभी रंग फीके पड़ जाते हैं / जीने के सभी अधिकार छीन लिए जाते हैं / दे दिए जाते
हैं सफेद कपड़े पहनने को / कोई नहीं मौका दिया जाता उसे हँसने चहकने को …''
देखा जाये तो विश्व
में आधी आबादी स्त्रियों की है। लेकिन
उसकी पहचान माँ , पत्नी , बहन , बेटी , प्रेमिका आदि से
ही की जाती है , एक स्वतंत्र और स्वावलंबी स्त्री की हैसियत
से नहीं। नारी की इस दुखद स्थिति एवं
विडंबनापूर्ण नियति के लिए सांस्कृतिक मान्यताएं एवं धारणाएं जिम्मेदार हैं वरना
नारी तो अकेले ही समय के तूफानों से मुकाबला करने का साहस रखती है . आज नारी अपनी
पहचान स्वयं बनाने को तत्पर है। हवाओं में
चिराग़ जलाने वाली , तूफानों में किश्ती बहाने वाली नारी आज
पुरुष से किसी भी मायने में कम नहीं। लंदन की कवयित्री 'कमलेश
शर्मा ' अपने काव्य संग्रह 'वंदना '
में 'नारी ' शीर्षक
कविता में लिखती हैं --
इतना कमजोर न समझो
नारी वह चट्टान है / हिला न सकोगे , माथा पटकोगे
, दो टूक हो जाओगे / बिखर जाओगे छोटे कंकड़ों की तरह / नारी
तो चट्टान है उसे हिला न पाओगे / ममता की मूर्त है , तन मन
धन लुटा देती है / अपने पराये , सभी आँचल में छिपा लेती है /
वह साक्षात है प्यार की देवी /अपनी पराये सब पर प्यार न्योछावर कर देती है . …
सच है स्त्री अपने हर
रूप को कर्तव्यता से जीती है , चाहे वह माँ रूप में हो ,
बहन रूप में या बेटी रूप में , वह अपनी पीड़ा
भूलकर भी सबके सुख के लिए तत्पर रहती है।
अपने इसी काव्य संग्रह में कवयित्री 'बेटी ' शीर्षक कविता में कहती हैं ---
'' बेटी वह , जो हमेशा हर समय साथ देती है /
लेने की इच्छा है उसे , सदैव मायके के लिए जान देती है / सदा
दुआएं मांगती रहती माँ के घर की /मायके से जाकर भी , क़ुरबानी
कर देती है अपने तन की। ''
आज नारी ने स्वयं को 'वस्तु' मानने से इंकार कर दिया है , अपने शरीर के ख़िलाफ़ शोषण का वैचारिक मोर्चा उठा लिया है और इस पुरुष
प्रधान समाज की ज्यादतियों , पारंपरिक रीति -रिवाज़ों एवं
विवाह प्रणाली के विरुद्ध विद्रोही रुख़ अख्तियार कर लिया है। वह इस पुरुष प्रधान समाज से जानना चाहती है कि
शरीर की पवित्रता के सारे प्रमाण पत्र उसी से ही क्यों ? कभी
पुरुष से उसकी पवित्रता के लिए क्यों प्रश्न नहीं उठाये जाते ? क्यों उस पर कोई रोक -टोक लक्ष्मण रेखाएं नहीं खींची जाती। कंचन शर्मा अपने काव्य संग्रह ' तालाब में कंकड़ ' की 'नारी '
शीर्षक कविता में कुछ इसी तरह के प्रश्न उठाती हैं , देखिये --
कौन हो ? कहाँ से आई ?/ क्या नाम है ?/कौन पिता , कौन
पति तुम्हारा ?/ सुहागन , पतिता या
कुमारी ?/प्रश्न ये सभी / क्यों पुरुष से नहीं ? / पिता , पति , पुत्र /सर्वत्र
पुरुष ही /नारी का परिचय ?/पवित्रता का प्रमाण पत्र ?
भाग्यविधाता ?/और -/ पुरुष के लिए - / ऐसा कुछ
भी नहीं ; / क्यों ?
इस 'क्यों' में स्त्री के भीतर की समस्त आक्रोश छिपा
है। स्त्री होने के गुनाह स्वरूप जो उस पर
पाबंदियां लगाई गयी हैं उनके विरुद्ध उठी उसकी ये आवाज़ समाज से जवाब चाहती
है। अब वह इस झूठे संस्कार रीति -रिवाज़ों,
लज्जा के तमाम आवरण तोड़ पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना
चाहती है। इसी काव्य- संग्रह में कंचन
शर्मा ने अपनी भूमिका काव्य रूप में लिखते हुए कहती हैं -
ढहा दे झूठे
संस्कारों / रीति -रिवाज़ों / लज्जा और पवित्रता की दीवारें ! / जो चारों ओर खड़ी
हैं / और तुम - / घूँघट ताने , छाती झाँपे / कब तक बकरी
बन मिमयाओगी ?
औरत ,औरत पैदा नहीं होती उसे औरत बना दिया।
बचपन से ही उसके अंदर लड़के और लड़की का भेद -भाव भर दिया जाता है और बड़ी
होते -होते वह अपना भाग्य पुरुष के हाथों सौंप देती है। कौमार्य में पिता , यौवन
में पति और बुढ़ापे में पुत्र के आगे लाचार बनकर रह जाती है। उसका
स्वयं का कोई वजूद नहीं कोई अस्तित्व नहीं , कोई
पहचान नहीं। इसी बात को कवयित्री शशि प्रभा अत्रि अपने काव्य -संग्रह ' आस्था , एहसास और स्वीकृति ' में
'पहचान ' शीर्षक कविता में बखूबी कहती
हैं --
मैं / आंसुओं की लौ
में / मोमबत्ती से / लगातार / पिघलती चली गई
/ और / अपना आकर खो दिया / आश्चर्य / मेरे अस्तित्व की लाश पर / तुमने अपनी
पहचान कायम की
जैसे-जैसे समाज में
नारी की निरीह स्थिति में बदलाव आया है और वह अबला से सबला बनने की तरफ अग्रसर हुई
है,
वैसे-वैसे वह अपने अधिकारों के प्रति सजग और सचेत भी हुई है।
परिणामस्वरूप पुरूष प्रधान समाज के बंधनों के खिलाफ उसने विद्रोह किया है। स्त्री
के क्रांतिवीर तेवरों से परिवार की बुनियादें हिल गयी हैं और पारिवारिक विघटन
भिन्न-भिन रूपों में समाज में पसरता जा रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि पुरूष का
परम्परागत मध्ययुगीन मानस स्त्री के मौलिक अधिकारों को स्वीकार नहीं कर पाता। वह
उसे दबाना चाहता है और स्त्री अपनी गुलाम मानसिकता वाली सती-साध्वी, प्रेयसी या पति-परमेश्वरी छवि को तोड़कर अपना स्वतंत्र वजूद बनाना चाहती
है। सामंती समाज में स्त्री माँ, बहन, पत्नी,
प्रेमिका, दासी आदि के रूप में थी-उसका अपना
अलग वजूद नहीं था। आधुनिकता और बौद्धिकता के कारण वह अपने निजी स्वरूप और अपनी भावनों
एवं इच्छाओं के प्रति सचेत हुई है।वह भी खुले आकाश उड़ान भरना चाहती है , अपनी पहचान बनाना चाहती है। ऐसे
में मुझे पूर्वोत्तर की कवयित्री कुसुम लता जैन की 'खुले आकाश में ' शीर्षक कविता याद आती है -
रोको मत मुझे भी उड़ने
की मोहलत दो / उन्मुक्त हो खुले आकाश में ताकि / पहुंच सकूँ गगन के उस छोर पर /
जहां खुशियों के उगते इन्द्रधनुष पर झूम सकूँ / सपनों के हकीकत के मुस्कुराते चाँद
पर नाच सकूँ /उमंगों के झिलमिलाते सितारों
पर कूक सकूँ / जहाँ न हो पुरुषों द्वारा खींची गई / लक्ष्मण रेखा के सारहीन संदर्भ
/ न हो मनपाखों जबरन रखी गई / बेनामी
कर्तव्यों और जिम्मेदारियों की भारी गठरी
/ न हो अनकही पीड़ाओं का बेहिसाब भार /
घुटती साँसे , उपेक्षाओं के दंश / न वर्जनाओं की ऊँची -दीवार / कदम - समझौतों की
मार , क़हर ढाते अत्याचार / न न हो त्याग व संयम की
परीक्षाएं ……
इक्कीसवीं सदी की
महिलाओं ने अपने लेखन में जीवन एवं समाज के सभी रंगों को अपनी कुशल तूलिका रूपी
लेखनी से बड़ी भावात्मकता एवं कलात्मकता से उकेरा है। इसमें कहीं वृद्ध समस्या है
तो कही लौकिक प्रेम अलौकिकता पर न्योछावर कहीं पुरानी मान्यताओं का खंडन, बड़े परिवार की समस्या, आधुनिक जीवन का बनावटी खोखला
जीवन, पाश्चात्य संस्कृति में भटकती हमारी युवा पीढ़ी का ’सह-जीवन’ आज भावुकता से कोसों दूर..... संवेदना
शून्य विशुद्ध व्यापारिक रिश्ते पर टिका मानवीय संबंध और उस विषमय वातावरण में
दिनों दिन जकड़ता हमारा समाज एवं परिवार के उन सभी के तीखे रंग हमें इस सदी के
लेखन में पूर्ण रूप से मिलता है।
निष्कर्षतः कहना
चाहूंगी कि २१ वीं सदी की कवयित्रियों का लेखन अनंत संभावनाओं से युक्त है। यह भी
सच है कि मुश्किलें हैं भेदभाव हैं, दमन है और
भी विकटतम प्रतिकूलताओं के बावजूद वे अपनी पहचान स्थापित करना चाहती है। स्त्री
लेखन का उद्देश्य मानवीय समाज की स्थापना है अपने यथार्थ बोध की अनुरूपता में उसका
मूल्यबोध भिन्न है, इस भिन्नता की पहचान को समझना होगा।इस
सदी ने औरत को नया चेहरा दिया अपनी अलग सी पहचान दी। इस जमाने का साहित्य
लेखन-महिलाओं का लेखन बहुत बड़ा परिवर्तन लेकर आता है।उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट
है कि, इक्कीसवीं शताब्दी की कवयित्रियों का लेखन उच्चकोटि
का होकर वैविध्य पूर्ण है, वर्तमान में नारी लेखन में
यथार्थोन्मुख आदर्शबाद के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास है।’नारी शोषण’ की जगह अब ’नारी
स्वातंत्र्य’ पुरुषों की होड़ में वह हर जगह अपना अधिकार
जमाने की क्षमता रखने लग गयी है। पर्वतारोहण, सेना, पुलिस, अंतरिक्ष, वायुयान
चलाने आदि कितने ही ऐसे क्षेत्र हैं, जहां नारी का बीसवीं
सदी के पहले, मात्र पुरुषों का अधिकार था, बड़े साहस, हिम्मत और दिलेरी का परिचय दे सफलता के
शिखर पर आरूढ़ हुई है। आज नारी अपनी अस्मिता को लेकर जागरूक है परंतु वह सामाजिक,
पारिवारिक और नैतिक जिम्मेदारियों का निर्वहन बखूबी कर रही है। वह
विद्रोही है परंतु यह विद्रोह उसका रचनात्मक कहा जाए तो अच्छा होगा क्योंकि सास,
ससुर, ननद, देवर,
पति बच्चे सब रिश्तों को वह लेकर चल रही है। आज की कवयित्रियाँ इस
बात को बखूबी समझती हैं। वह अपनी समस्याओं से लड़ना जानती है रिश्तों को निभाते
हुए लेखन कार्य कर रही हैं . उन्होंने अपने लेखन से नारी जीवन के प्रत्येक कोने
में लगे जाले को हटाने का प्रयास किया है
आज नारी अपने जीवन का निर्णय किसी दूसरे के हाथ में नहीं देना चाहती और न
बोझिल रिश्तों की डोर जबरन पकड़े रहना चाहती है।
संदर्भ
ग्रन्थ सूचि -
(१) सुधा आरोड़ा ,
vaatayan.blogspot.com , 09757494505
(२) हरकीरत हीर , दीवारों के पीछे की औरत (हापुड़ ,
उ. प्र ), आगमन प्रकाशन (२०१४ ), पृष्ठ -६५
(३) हरकीरत 'हीर' ,खामोश चीखें , आगमन
प्रकाशन (हापुड़ , उ. प्र ) (२०१४ ) , पृष्ठ
- ८५
(४) डॉ. रमा द्विवेदी
: साँसों की सरगम, हिन्द युग्म प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१३
(५) दीपिका रानी , रश्मि प्रभा (संपा) : ‘शब्दों के अरण्य में’, हिन्द युग्म प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१२.
(६) डॉ लक्ष्मी शर्मा
(संपा ) 'स्त्री होकर सवाल करती है ' , बोधि प्रकाशन ,
जयपुर ,२०१२ , पृष्ठ -
३६३
(७) फेसबुक Vandana
Gupta November 26, 2012
(८) डॉ तोंब्रम रीता
रानी देवी, अँधेरे कमरे में बंद औरत , तोंब्रम प्रकाशन ,इम्फाल ,२००८ , पृष्ठ -३९
(९) कुंतला दत्त , हरकीरत हीर (संपा ) , अवगुंठन की ओट से सात बहने '
बोधि प्रकाशन , जयपुर , २०१३
, पृष्ठ - ६३
(१०) डॉ मालिनी गौतम , अयन प्रकाशन , नई दिल्ली , २०१३
, पृष्ठ - ७७
(११) आशमा कौल , हरकीरत हीर (संपा), माँ की पुकार ,बोधि प्रकाशन , जयपुर (२०१४ ) , पृष्ठ -१३४ , १३५
(१२) कमलेश शर्मा , कल्पना , सुभाष मित्तल प्रिंटिंग प्रैस , बठिंडा ,२००६
, पृ -३८
( १३ ) कुसुम लता जैन
,
खुले आकाश में , ओमेगा बुक्स , दिल्ली , २००९ , पृष्ठ - ३३ ,फोन - ९८१०९८७६५५
(१४ ) कमलेश शर्मा , वंदना , सुभाष मित्तल प्रिंटिंग प्रैस , बठिंडा ,२००५ , पृ - ६९ ,
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(१५) कंचन शर्मा , तालाब में कंकड़ ,सहयोगी प्रकाशन , दुर्गापुर ,वर्धमान , २००८ ,
पृ - ४१ , ४
(१६) शशि प्रभा अत्रि
,
आस्था ,एहसास और स्वीकृति , निर्मल बुक ऐजन्सी , कुरुक्षेत्र ,२००७ ,पृ- ३०
शोधार्थी: हरकीरत 'हीर'
एम.ए. (हिंदी ), डी सी एच
सुंदरपुर , हाउस न -५
गुवाहाटी -५ (असम )
मोब - ९८६४१७१३००
ई मेल - harkirathaqeer@gmail.com
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