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वैज्ञानिक शब्दावली का वर्तमान समय में महत्व: दिनेश कुमार


वैज्ञानिक शब्दावली का वर्तमान समय में महत्व
दिनेश कुमार
शोध-छात्र (पीएच०डी)
पाश्चात्य इतिहास विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
Mob No: 8574963266,7376920476
शोध-सार:
          वर्तमान समय वैज्ञानिक युग है। इस वैज्ञानिकता एवं वैश्वीकरण के दौर में हम अपने मात्र मूल्यों को भूलते जा रहे है। शब्दावलियों में विभिन्नता आ रही है जो किसी भी भाषा के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। यहां तक कि कुछ शब्दावलियां ऐसी है जिनको अध्यापक ही नहीं समझते, तो विद्यार्थियों के समझ से दूर है। प्रत्येक विषय की शब्दावली में विभिन्नता देखने को मिल जाती है भाषा सम्बंधी विषय हो या सामाजिक विज्ञान, मानविकी या फिर विज्ञान के विषय हो इनमें शब्दावली विभिन्नता होना आम बात है। हिंदी हमारी मात्र भाषा होने के बावजूद भी इसका सबसे खराब हाल है। वर्तमान भारत सरकार राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रही है देखते है वह हिंदी के प्रति लोगों का कितना रुझान रख पाने में कामयाब होती है। प्रस्तुत शोध-पत्र के माध्यम से शब्दावलियों में विभिन्नता पर दृष्टिपात किया गया है और  शब्दावलियों में एकरूपता लाने की बात कही गई है। एक बात ध्यान देने योग्य है कि जब तक कन्याकुमारी से कश्मीर तक शब्दावलियो में एकरूपता ला कर भाषायी समानता नहीं लायेंगे तब तक राष्ट्रीय एकता कि बात कहना हास्यास्पद होगा।
कुंजी-शब्द:
          पारिभाषिक, शब्दावली, तकनीकी, विशिष्ट, स्पष्टता, भाषाविद, अनुसंधान, ब्रजभाषा, कृत्रिम, अंग्रेपरस्त, पूर्वाग्रहों, समाजशास्त्रीय, जनांदोलन, रसायनज्ञ, भुखमरी, इतिहास, उपमहाद्वीप, तकनीकी, विषयवार।     
परिचय:
किसी भी विषय को अच्छी तरह समझने के लिए उसकी पारिभाषिक शब्दावली का विशेष महत्व है। शब्दावली जितनी सरल होगी,उसको उतनी आसानी से समझा जा सकता है और रुचिपूर्ण भी बनाया  जा सकता है। सहज भाषा की तुलना में किसी वैज्ञानिक , तकनीकी तथा आर्थिक विषय के वर्णन में यह विशेषता होती है कि उनमें संज्ञाओं (नाम) की भरमार होती है। किसी विशिष्ट विषय को समझाने का कार्य पारिभाषिक शब्दवली के बिना दुरूह ही नहीं बल्कि असम्भव भी है। पारिभाषिक शब्दावली के दो फायदे होते हैं-
पहला यह किसी विचार अर्थात कांसेप्ट को समझने या समझाने के लिए नये शब्दों के प्रयोग से शब्द रूपी विचारों में पंख लग जाते हैं।
द्वितीय यह कि सरल शब्दावली के प्रयोग से स्पष्टता आ जाती है।
इस प्रकार विचार विनिमय में आसान होने के साथ ही दक्षता पूर्ण भी हो जाता है। सभी शिक्षाविदों, भाषाविदों और विद्वानों में अंतरभाषी संचार एवं शिक्षा, अनुसंधान और विज्ञान के सभी क्षेत्रों में वैज्ञानिक जानकारी आदान-प्रदान करने के लिए सभी भारतीय भाषाओं में एक प्रकार से तकनीकी शब्दों में अधिकतम एकरूपता रखना चाहिए। शब्दावली में समानता के साथ ही लोक-प्रचलित शब्दों का भी अधिकतम प्रयोग करना चाहिए ताकि साधारण से साधारण व्यक्ति भी आसानी से समझ सके। देश के सभी राज्यों में तकनीकी शब्दों की शब्दावली को आमतौर पर एक करने की बात की जा रही है, जिससे देश के सम्पूर्ण राज्यों में भाषाई समानता लाई जा सकती है।1 भाषाओं में शब्दावली की असमानता होने के कारण बोली में भी असमानता आ जाती है। इसका अच्छा सा उदाहरण एक प्रचलित साधारण सी बोली से लिय जा सकता है- उत्तर-प्रदेश के लोग अपने सहोदर को भाई कहते हैं जहां भाई के प्रति प्रेम भाव अर्पित किया जाता है वहीं महाराष्ट्र के मुम्बई जैसे शहर में इसी शब्द का अनर्थ होकर इसके विपरीत भाई गुण्डे एवं मवालियों के लिए प्रयुक्त होता है।
इसके विपरीत, मकसद पर एक समझ यह भी है कि शब्दावली ऐसी हो जो विज्ञान सीखने में मदद करे और विषय को रुचिकर बनाए। बीसवीं सदी के प्रख्यात भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन ने अध्यापकों को दिए एक व्याख्यान में समझाया था कि शब्द महत्त्वपूर्ण हैं, उनको सीखना है, पर पहली जरूरत यह है कि विज्ञान क्या है, यह समझ में आए। ये दो बातें बिल्कुल अलग हैं और खासतौर पर हमारे समाज में जहां व्यापक निरक्षरता और अल्प-शिक्षा की वजह से आधुनिक विज्ञान एक हौवे की तरह है। इस तरह लोकतंत्र के निर्माण में इन दो प्रवृत्तियों की अलग राजनीतिक भूमिका दिखती है।
तकरीबन हर भारतीय भाषा में इन दो तरह की समझ में विरोध है। हिंदी में यह द्वंद्व सबसे अधिक तीखा बन कर आता है। बांग्ला, तेलुगू जैसी दीगर भाषाओं में उन्नीसवीं सदी तक काफी हद तक संस्कृत शब्दों की आमद हो चुकी थी। हिंदी में इसके विपरीत, जब से कविता से ब्रजभाषा विलुप्त हुई और खड़ी बोली हर तरह से मान्य भाषा बन गई, तद्भव शब्द काफी हद तक बचे रहे, पर तत्सम शब्दों का इस्तेमाल अटपटा लगने लगा। आजादी के बाद कुछ सांप्रदायिक और कुछ सामान्य पुनरुत्थानवादी सोच के तहत हर क्षेत्र में पाठों में तत्सम शब्द डाले गए। उस संस्कृतनिष्ठ भाषा को पढ़-लिख कर तीन-चार पीढ़ियां बड़ी हो चुकी हैं। हिंदी को जबरन संस्कृतनिष्ठ बनाने की यह कोशिश कितनी विफल रही है, यह हम सब जानते हैं। यह समस्या और गंभीर हो जाती है, जब नए कृत्रिम तत्सम या तद्भव शब्द बना कर भाषा में डाले जाते हैं।2
एक समय था जब लोगों को लगता था कि धीरे-धीरे ये नए कृत्रिम शब्द बोलचाल में आ जाएंगे, पर ऐसा हुआ नहीं है। अब ग्लोबलाइजेशन के दबाव में सरकारों की जन-विरोधी अंगरेजीपरस्त नीतियों और अन्य कारणों से स्थिति यह है कि भाषाएं कब तक बचेंगी, यह सवाल हमारे सामने है। ऐसे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि इन कोशिशों का मतलब और मकसद क्या हो। अगर हम अपने मकसद में कामयाब नहीं हैं, तो वैकल्पिक तरीके क्या हों। क्या तत्सम शब्दों के अलावा तकनीकी शब्दों को ढूंढ़ने का कोई और तरीका भी है।
कुछ एक उदाहरणों से बात ज्यादा साफ होगी। रसायन के कोश का पहला शब्द अंग्रेजी के ऐबरेशन शब्द का अनुवाद ‘विपथन’ है। यह शब्द कठिन नहीं है, ‘पथ’ से बना है, जिसे बोलचाल में इस्तेमाल न भी किया जाए, हर कोई समझता है। ‘विपथ’ कम लोगों के समझ आएगा, जैसे मैथिल भाषियों के लिए यह आम शब्द है। ‘विपथन’ हिंदी के अधिकतर अध्यापकों को भी समझ नहीं आएगा, जबकि अंगरेजी में ऐबरेशन हाई स्कूल पास किसी भी छात्र को समझ में आता है। इसकी जगह अगर ‘भटकना’ से शब्द बनाया गया होता, मसलन ‘भटकन’, तो अधिक लोगों को पल्ले पड़ता। यहां तर्क यह होता है कि संस्कृत के नियमों के अनुसार ‘विपथन’ से कई शब्द बन सकते हैं, पर ‘भटकन’ से ऐसा संभव नहीं है। पर क्यों नहीं? ऐसे पूर्वग्रहों से मुक्त होने की जरूरत है। अज्ञेय और रघुवीर सहाय जैसे कवियों ने हिंदी में कई शब्दों को सरल बनाया और कई नए शब्द जोड़े।
यह विडंबना है कि एक ओर अखबारों के प्रबंधक संपादकों को अंगरेजी शब्दों का इस्तेमाल करने को मजबूर कर रहे हैं, तो दूसरी ओर बोलचाल के शब्दों के साथ सामान्य खिलवाड़ कर नए शब्द बनाना गलत माना जा रहा है। मसलन कल्पना करें कि कोई ‘भटकित’ शब्द कहे तो प्रतिक्रिया में हिंसा नहीं तो हंसी जरूर मिलेगी। अगर ‘भटक गया’ या ‘भटक चुका’ लिखें तो लोग कहेंगे कि देखो तत्सम होता तो दो शब्द न लिखने पड़ते।3
हिंदी के अध्यापकों के साथ बात करने से मेरा अनुभव यह रहा है कि वैज्ञानिक शब्दावली के अधिकतर शब्द उनकी पहुंच से बाहर हैं। मिसाल के तौर पर अंग्रेजी का सामान्य शब्द ‘रीवर्सिबल’ लीजिए। हिंदी में यह ‘उत्क्रमणीय’ है। हिंदी के अध्यापक नहीं जानते कि यह कहां से आया। क्या यह उनका दोष है? इसकी जगह ‘विपरीत संभव’ या और भी बेहतर ‘उल्टन संभव’ क्यों न हो! एक शब्द है ‘अनुदैर्घ्य’- अंगरेजी के ‘लांगिच्युडिनल’ शब्द का अनुवाद है। सही अनुवाद है- दीर्घ से दैर्घ्य और फिर अनुदैर्घ्य। हिंदी क्षेत्र में अधिकतर छात्र इसे अनुदैर्ध्य पढ़ते हैं। ‘घ’ और ‘ध’ से पूरी दुनिया बदल जाती है। ऐसे शब्द का क्या मतलब, जिसे छात्र सही पढ़ तक न पाएं!
ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं, जहां शब्द महज काले अक्षर हैं और वैज्ञानिक अर्थ में उनका कोई औचित्य नहीं रह गया है। जो शब्द लोगों में प्रचलित हैं, उनमें से कई शब्दों को सिर्फ इस वजह से खारिज कर दिया गया है कि वे उर्दू में भी इस्तेमाल होते हैं, जैसे कीमिया और कीमियागर जैसे शब्दों को उनके मूल अर्थ में यानी रसायन और रसायनज्ञ के अर्थ में शामिल नहीं किया गया है। यह मानसिकता हम पर इतनी हावी है कि हिंदी में वैज्ञानिक शब्दावली हिंदी-भाषियों के खिलाफ षड़्यंत्र लगता है।4 इससे जूझने के लिए हमें जनांदोलन खड़ा करने की जरूरत है। शब्दावली बनाने की प्रक्रियाओं के समाजशास्त्रीय विश्लेषण की जरूरत है। ऐसा क्यों है कि हिंदी क्षेत्र के नामी वैज्ञानिक इसमें गंभीरता से नहीं जुड़ते। जो जुड़ते हैं, उनकी भाषा में कैसी रुचि है? यह भी एक तकलीफ है कि पेशे से वैज्ञानिक होना और वैज्ञानिक सोच रखना या विज्ञान-शिक्षा में रुचि रखना एक बात नहीं है।
अधिकतर वैज्ञानिकों के लिए विज्ञान महज एक नौकरी है। चूंकि पेशे में तरक्की के लिए हर काम अंगरेजी में करना है, इसलिए सफल वैज्ञानिक अक्सर अपनी भाषा में कमजोर होता है। इस बात को ध्यान में रख सत्येंद्रनाथ बोस जैसे महान वैज्ञानिकों ने भारतीय भाषाओं में विज्ञान लेखन पर बहुत जोर दिया था। चूंकि हिंदी क्षेत्र में गरीबी, भुखमरी और बुनियादी इंसानी हुकूक जैसे मुद्दे अब भी ज्वलंत हैं, विज्ञान और भाषा के इन सवालों पर जमीनी कार्यकर्ताओं का ध्यान जाता भी है तो वे सवाल महत्त्वपूर्ण नहीं बन पाए हैं। हिंदी में विज्ञान-कथाओं या विज्ञान-लेखन के अभाव (कुछेक अपवादों को छोड़ कर) के समाजशास्त्रीय कारणों को ढूंढ़ा जाए तो भाषा के सवालों से हम बच नहीं पाएंगे।
आखिर समस्या का समाधान क्या है। शब्द महज ध्वनियां नहीं होते। हर शब्द का अपना एक संसार होता है। जब वे अपने संसार के साथ हम तक नहीं पहुंचते, वे न केवल अपना अर्थ खो देते हैं, वे हमारे लिए तनाव का कारण बन जाते हैं। खासतौर पर बच्चों के लिए यह गंभीर समस्या बन जाती है। अंगरेजी में हर तकनीकी शब्द का अपना इतिहास है। हमारे यहां उच्च-स्तरीय ज्ञान आम लोगों तक नहीं पहुंच पाया, इसके ऐतिहासिक कारण हैं, जिनमें जाति-प्रथा की अपनी भूमिका रही है। यह सही है कि अंगरेजी में शब्द की उत्पत्ति कहां से हुई, इसे समझ कर उसका पर्याय हिंदी में ढूंढ़ा जाना चाहिए। पर लातिन या ग्रीक तक पहुंच कर उसे संस्कृत से जोड़ कर नया शब्द बनाना किस हद तक सार्थक है- यह सोचने की बात है।
भाषाविदों के लिए यह रोचक अभ्यास हो सकता है, पर विज्ञान सिर्फ भाषा का खेल नहीं है। आज अगर तत्सम शब्द लोग नहीं पचा पाते तो उनको थोपते रहने से स्थिति बदल नहीं जाएगी। किसी भी शब्द को स्वीकार या खारिज करने का सरल तरीका यह है कि वह हमें कितना स्वाभाविक लगता है, इस पर कुछ हद तक व्यापक सहमति होनी चाहिए। अगर सहमति नहीं बनती तो ऐसा शब्द हटा देना चाहिए, भले ही भाषाविद और पेशेवर वैज्ञानिक उसकी पैरवी करते रहें।
यह संभव है कि जैसे-जैसे वैज्ञानिक चेतना समाज में फैलती जाए, भविष्य में कभी सटीक शब्दों की खोज करते हुए आज हटाए गए किसी शब्द को वापस लाया जाए। पर फिलहाल भाषा को बचाए रखने की जरूरत है। और समय के साथ यह लड़ाई और विकट होती जा रही है। गौरतलब है कि कई तत्सम लगते शब्द सही अर्थ में तत्सम नहीं हैं, क्योंकि वे हाल में बनाए गए शब्द हैं। कृत्रिम शब्दों का जबरन इस्तेमाल संस्कृत भाषा के प्रति भी अरुचि पैदा कर रहा है। यह बात संस्कृत के विद्वानों को समझ में आनी चाहिए। लोक से हट कर संस्कृत का भविष्य सरकारी अनुदानों पर ही निर्भर रहा तो यह पूरे उपमहाद्वीप के लिए बदकिस्मती होगी।
पर वैज्ञानिक शब्दावली का सरलीकरण आसानी से नहीं होगा। कट्टर पंडितों और उनकी संस्कृत का वर्चस्व ऐसा हावी है, कि सामान्य समझ लाने के लिए भी जनांदोलन खड़ा करना होगा। जब तक ऐसा जनांदोलन खड़ा नहीं होता, हिंदीभाषियों के खिलाफ यह षड़्यंत्र चलता रहेगा। यह भाषा की समृद्धि नहीं, भाषा के विनाश का तरीका है। संभवत: इस दिशा में जनपक्षधर साहित्यकारों को ही पहल करनी पड़ेगी। आखिरी बात यह कि मुद्दा महज तत्सम शब्दों को हटाने का नहीं, बल्कि सरल शब्दों को लाने का है। विज्ञान-चर्चा जब सामान्य विमर्श का हिस्सा बन जाएगी, तो जटिल सटीक शब्दों को वापस लाया जा सकेगा।5
शब्दों की पहचान के लिए एक आयोग बनाया गया है,जो भारतीय शब्दों की शब्दावली तैयार कर उन्हें प्रकाशित करता है और नई शब्दावलियों को मंजूरी भी प्रदान करता है जो वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग कही जा सकती है, कि यह सभी भाषाओं की शब्दावलियों में एकरूपता है लेकिन कहीं-कहीं देखने को मिलता है कि कुछ शब्दावलियां ऐसी हैं,जो आयोग द्वारा विकसित न किये जाने के बावजूद भी प्रचलन में आ गई है। बड़ी रोचक बात यह है कि इनके मूल उद्भव के बारे में भी नहीं पता है। ऐसे शब्दों को शुद्ध हिन्दी भाषा में देशज शब्द के नाम से जानते है।
वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग लोगों की सुविधा के लिए एक राष्ट्रीय शब्दावली बना रहा है ताकि पाठक एक ही स्थान स्थान पर बैठकर सभी भाषाओं में समकक्षता प्राप्त कर सकें। यह विषयवार शब्दालियां तैयार करता है।
निष्कर्ष:
          21 वीं शताब्दी युग वैज्ञानिक युग है। इसमें तथ्यों को समझने और समझाने के लिए तकनीकी शब्दावली विकसित कि गई है, जिसके माध्यम से हमें तथ्यों को समझने में मदद मिल रही है। तकनीकी शब्दावली को अधिकाधिक उपयोगी बनाने के लिए उसमें अन्य भाषाओं के आम बोलचाल के शब्दों को उनके सरलतम रूप में आत्मसात करने की आवश्यकता है जिससे कि सभी विषयों में तारतम्य स्थापित किया जा सके। शब्दावली में सरलता और समानता स्थापित कर छात्रों में आसानी से समझ विकसित कर सकते हैं।
संदर्भ:
1.     अ दैनिक जागरण सम्पादकीय पृष्ठ, लखनऊ, नगर संस्करण, 3 दिसम्बर 2014. 
2.     http://www.jansatta.com/politics/editorial-the-problem-of-scientific terminology.
3.     हिंदुस्तान समाचार, सम्पादकीय पृष्ठ, लखनऊ, नगर संस्करण, 28 जुलाई 2011.
4.     हिंदुस्तान समाचार, सम्पादकीय पृष्ठ, लखनऊ, नगर संस्करण, 23 अक्टूबर 2017.

5.     मिश्र गिरीश्वर, संभावनाओं भरा हिंदी जगत, दैनिक जागरण सम्पादकीय, लखनऊ संस्करण, सितम्बर 2015.    
[ [साभार: जनकृति पत्रिका, अक्टूबर-दिसंबर, सयुंक्त अंक 2017]
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