विश्वहिंदीजन चैनल को सबस्क्राइब करें और यूजीसी केयर जर्नल, शोध, साहित्य इत्यादि जानकारी पाएँ

“कुछ भी तो रूमानी नहीं’ कहानी संग्रह में स्त्री पात्रों के जीवन का उभरता सच”: कुलदीप


“कुछ भी तो रूमानी नहीं’ कहानी संग्रह में स्त्री पात्रों के जीवन का उभरता सच”

            कुलदीप
शोधार्थी-हिंदी विभाग
महर्षि दयानद सरस्वती विद्यालय, अजमेर

मनीषा कुलश्रेष्ठ ने अपनी कहानियों के माध्यम से स्त्री की वास्तविक स्थितियों को सामने लेकर आई है । इन कहानियों में समाज में स्त्री की स्थिति, उसके साथ घटित होने वाली घटनाओं का बारीकी से चित्रण किया गया है । उनकी कहानियों में यौन शोषण, मानसिक शोषण, औरत की घुटन, छटपटाहट, आरोप-लांछन, घर व बाहर पिसते रहने का दर्द, मर्यादाओं को ललकारने की कसमसाहट आदि का वर्णन किया हैं । स्त्री जीवन के  यथार्थ का कोई भी पहलु उनसे नजरअंदाज नहीं हुआ है । चहारदीवारियों का सच लेखिका सामने लेकर आयी है । औरत की लड़ाई उसके अपने ही घर से शुरू होती है । उसके सगे-संबंधी उसे दबाकर रखने की कोशिश करते है, उसका मानसिक व शारीरिक शोषण करते हैं । उनकी स्त्री विषयक कहानियाँ पितृसत्तात्मक समाज से टकराती दिखाई देती है ।

            ‘मास्टरनी’ कहानी में स्त्री समस्याओं को सामने लाया गया हैं । घर व बाहर दोनों जगह उसके सामने आने वाली समस्याओं को इस कहानी में समेटा गया हैं । कहानी की पात्र सुषमा आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न है फिर भी उसका पति उसे बराबरी का दर्जा नहीं देता है । घर का काम व बच्चों की देखभाल उसकी जिम्मेदारी है । क्या बच्चे सिर्फ उसके ही हैं ? पति-पत्नी दोनों नौकरी करते हैं, दोनों ही एक-एक बच्चे को अपने साथ रखते हैं । पति पत्नी पर धौंस जमाता है । अपने तबादले के लिए सुषमा पति से कहती है पति आलस्य के मारे जाना नहीं चाहता और वह स्वयं जाये तो लोगों की गंदी नजरों का शिकार बनेगी । “छुट्टियों में आई है महारानी यूँ नहीं कि ठीक से खाना-वाना बना कर के खिलाये, साल भर तो खुद ही ठेपते हैं अपनी और तेरे लाड़ले की रोटी । अभी आई है, आते ही साली ट्रांसफर के चक्कर में पड़ गयी ।”[1] सुषमा अपने परिवार में ही अपनी खुशियाँ और दुनिया ढूँढ़ती है । स्वयं जहाँ रहती है सु:खी है परंतु पति व बच्चे की परवाह करती है । स्वयं पर निर्भर होने के बावजूद सास व पति के ताने सुनती है । अपने स्वाभिमान को भूल गयी है । रिश्तों में अपने आप को घोल कर उसने अपना अस्तित्व खो दिया । जिस परिवार के लिए वह मरती है उसी परिवार के सदस्य उसकी परवाह नहीं करते हैं । वर्तमान समय में भी औरत घर व नौकरी दोनों चीजों के बीच फंस गयी है । आर्थिक दृष्टि से मजबूती भी उसे मानसिक रूप से मजबूत नहीं बना पाती । पति का प्यार भी नहीं बचा, बस शारीरिक जरूरतें बची हैं । उसे स्वतंत्रता तो आर्थिक दृष्टि से संपन्न होने पर भी नहीं मिली । सुषमा प्यार, इज्जत और सम्मान चाहती है पर उसे मिल नहीं पाता । परंपरागत ढर्रे पर उसे चलने के लिए क्यों मजबूर किया जाता हैं ? पुरुष की मानसिकता क्यों नहीं बदल पाती हैं ? “यन्त्रवत-सा मिलन उसे भाता नहीं है । प्रेम, नखरे, छेड़छाड़ तो कभी थे नहीं उनके रिश्ते में पर एक नयापन सा था स्पर्शों में...लहरें थीं जिस्म में । ख़ुद पर कोफ्त हो रही थी किसलिए कर लिये पैदा ये बच्चे झटाझट ? दाम्पत्य क्या है, यह समझ पाती तब तक तो ये अनचाहे मेहमान चले आए ।”[2] शादी से पहले उसके सपनों को कॉलेज में, घर में कितना तवज्जो दिया जाता था पर शादी के बाद उसके सपने टूट जाते हैं । ससुराल वालों को नौकरी चाहिए, गाने बजाने का शौक उनके लिए पालतू की चीज है । “यह सितार-वितार क्यों उठा लाई मायके से ? फालतू जगह घेरेगा । वैसे भी हमारे घर में किसी को पसंद नहीं गाना-बजाना ।”[3]

            सुषमा को पति की लापरवाही के चलते बार-बार एबॉर्शन्स करवाना पड़ता था । कितना दर्द सहना पड़ता है फिर भी पति ऑपरेशन नहीं करवाते। ऑपरेशन करवाये तो उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं । पत्नी के स्वास्थ्य पर पति का कोई ध्यान नहीं जाता है ना उसे कोई फर्क पड़ता है । ऐसी समस्याएँ कितनी ही महिलाओं को झेलनी पड़ती हैं । “कितने एबॉर्शन्स कराएगी ? नौकरी के साथ यह सब झेलना कितना मुश्किल हो जाता है । इनसे कितना कहा है करवा लो ऑपरेशन...पर कान पर जूँ नहीं रेंगती । मैं नहीं करवाता यह सब...पिछली अगस्त से अभी एक साल भी नहीं बीता है । ऑपरेशन नहीं करवा सकते...पर लाइटबंद होते ही सबसे पहले वही सब याद आता है । आनाकानी करो तो...अपने अगले तीन दिन कलेश में निकालो । फिर भी चैन कहाँ है ?”[4] दहेज़ की समस्या के चलते, पापा के ना रहते जल्दबाजी में उसका विवाह कर दिया गया जहाँ उससे ना कुछ पूछा ना उसे बताया गया । वह जैसा दाम्पत्य संसार चाहती थी उसके कितने विपरीत था सब । “उसे आपत्ति विवाह से नहीं थी पर जो उसने विवाह की कल्पना की थी उससे यह दाम्पत्य जीवन जरा भी मेल नहीं खाता था ।”[5] सुषमा के पति का चरित्र अच्छा नहीं था उसकी वजह से घर में कोई कामवाली बाई नहीं टिकती थी । पड़ोस की दीपा भी उनके घर आती जाती रहती थी, यह बात उसका बेटा उसे बताता है । कितना सहन करेगी सुषमा, कौनसा सु:ख दिया है इस दाम्पत्य जीवन ने उसे नौकरी, घर के काम, पति की चरित्रहीनता, पति व सास के ताने, बार-बार एबॉर्शन्स, शारीरिक दर्द, पति की बेरूखी, बच्चों की जिम्मेदारी, विवाह के बाद बिखर चुके सपने आदि का चित्रण इस कहानी में किया गया हैं । सुषमा शादी से पहले कितनी अलग थी, गाना बजाना, पढ़ना, हँसना, सहेलियों की मीठी छेड़छाड़, पापा का उसे संगीत सिखाना, घर व कॉलेज में उसके संगीत को सम्मान मिलना, उसकी सुंदरता, उसकी आवाज में एक जादू था । यह सब उसे तब याद आया जब वह अपने कॉलेज के सीनियर को विधायक के रूप में मिलती है जब उसे अपना तबादला करवाना था, जो उसे पसंद करता था । तब वह अपनी हालत से संकुचा जाती है । लापरवाही से बंधी साड़ी, बालों को कसकर बांधना, थकान व तनाव में शिथिल शरीर, चहरे व मन के रंग फीके पड़े हुए । वह अपने सीनियर विधायक के अपनेपन के व्यवहार को देखकर रुआँसी हो जाती है । “अब वह भीगी नजरें टपकने को ही थीं । उसे स्वयं पर ग्लानि हो रही थी । इस फटीचर हाल में ही उसे इससे मिलना था वह भी अनायास इतने सालों बाद ।”[6] यह कहानी परिवार के आपसी रिश्तों, बंधनों तथा पुरुष सत्ता के कैद में छटपटाती स्त्री के मुक्ति की दबी चाह को व्यक्त करती है ।

            ‘फ़ांस’ कहानी लड़के व लड़की के भेदभाव को रेखांकित करती है जहाँ पुत्र न होने की वजह से पत्नी को बार-बार अपमानित किया जाता है । पुत्री का जन्म हो या मरण कोई बात नहीं पर पुत्री जन्म ले तो परिवार में मातम छा जाता है साथ ही उसके विवाह व दहेज़ की समस्या सामने आती है जो आज भी एक विकराल समस्या बनी हुई है; दहेज़ प्रथा पर कानून बनने के बावजूद भी । लगातार चार पुत्रियों के जन्म से पति पत्नी के प्रति संवेदनहीन हो जाता है । पत्नी के जीने मरने से उसे कोई मोह नहीं रह गया है । पुत्र ना देने की वजह से वह पत्नी से मुँह फेर लेता है, बुरा व्यवहार करता है, अन्य स्त्री से संबंध रखता है फिर भी वह चुपचाप सहन करती है । उसकी गिरती सेहत के प्रति वह ध्यान ही नहीं देता है । जैसे वह इंसान नहीं बच्चे पैदा करने की मशीन हो । औरत की सेहत के प्रति हर जगह लापरवाही बरती जाती है । “अपनी गिरती सेहत का इलाज वे नीम हकीमों के जरिये खुद कराती रहतीं, बाउजी ने तो उसके पैदा होने के बाद अम्मा की तरफ़ मुड़कर कभी देखा नहीं । कभी-कभी अम्मा के कमरे से हताश फुसफुसाहट उभरी ‘हम से मतलब ही क्या उस रांड नर्स रहते आपको । एक दिन हम पैर घिस के मर जाएँगे...ब्याह लाना उसे ही ।’ उत्तर में वही दहाड़, “कल की मरती हो तो आज मर ले । तूने दिया ही क्या हमें ? चार-चार छोरियों के सिवा । तीन तो जस-तस ब्याह दीं ।” वे दाँत किटकिटाते...“अब ये चौथी...इसे तो मैं कुँए में ही फेंक आऊँगा । अब और करजा लेना मेरे बस का नहीं ।”[7] यह कहानी स्त्री की मानसिक प्रताड़ना के साथ-साथ शारीरिक प्रताड़ना की कहानी है जहाँ पिता ही अपनी पुत्री का शोषण करता है । घर में पिता के साथ अंतिमा को असुरक्षा महसूस होने लगती है । वह दरवाजा बंद किये रहती है फिर भी उस घृणित कृत्य से बच नहीं पाती, अंत में शोषण के प्रति विद्रोह दिखाती है । पिता से बचने के लिए अंतिमा अपनी कोहनी से तेज प्रहार करती है उसके बाद पिता कभी बिस्तर से उठ नहीं पाते । स्त्रियाँ ना घर में खुद को सुरक्षित महसूस करती है ना बाहर | दोनों ही जगह शोषण की शिकार होती है । स्त्री को देह मात्र ही मान लिया गया है । देह के भीतर वह इंसान भी है यह कोई नहीं समझता । बलात्कार जैसे घिनौने कृत्य से न जाने कितनी स्त्रियों को कितने संबंधों के बीच गुजरना पड़ता है । इस यातनादायक स्मृति को लेकर वह खुद में घुटती रहती है । कहानी में अंतिमा पिता की मृत्यु के बाद भी उस संबंध के प्रति शुष्क हो जाती है । पिता के मरने का न उसे सुख था, न दुःख था, न शोक था, न उल्लास था । “उसके पिछले घावों के खुरंट अभी हरे ही थे...वह अपमान और पीड़ा दोनों की भयावह और घिनौनी कल्पना से सिहर गई । मन में छिपे क्रोध की एक चिंगारी सुलग कर पुरे वजूद को दावानल की तरह सुलगाने लगी । उसने अपनी कोहनी से पूरे दमखम के साथ उसकी पसलियों पर वार किया । वह चीख़ कर वहीं बैठ गया । तब का जो बिस्तर से लगा तो फिर...उठा ही नहीं ।”[8] यह कहानी अपने पीछे सवाल छोड़ती है कब पुत्र-पुत्री में भेदभाव खत्म होगा, कब एक पुत्री व पत्नी को घर में सम्मान मिलेगा । कब उसके रिश्तेदार उसका शोषण करना बंद कर देंगे, कब दहेज़ की प्रथा बंद होगी । अंतिमा टूटकर बिखर जाती है । जहाँ उसका अकेलापन है उसका दर्द है उसके घाव है । वह नर्सिंग कॉलेज में दाखिला लेना चाहती है ताकि यातना गृह से भाग जाये ।

            ‘पॉजिटिव’ कहानी दो एड्स रोगियों की कहानी है । जिसमें पुरुष स्त्री से सिर्फ दैहिक सुख चाहता है और वह प्यार भरे सपने सजाती है जहाँ कोई उसे बेहद चाहे । वह अपना बच्चा चाहती है जो उसका अपना हो । वह माँ बनना चाहती है, अपने होने वाले बच्चे के नए सपनों के साथ खुश है परंतु पुरुष पिता नहीं बनना चाहता । वह जिम्मेदारी से भागता है । एक-दो पुरुष पहले भी उसके जीवन में आये वे प्यार से भरे पूर्ण नहीं थे किंतु अब की बार जिस पुरुष ने प्रवेश किया वह तो उसकी जिंदगी को ही मौत की ओर ले जाने लगा । उसकी जिंदगी में आया उसे रोग दिया और भाग गया । जिस वक्त दोनों को एक दुसरे के साथ की जरुरत थी, प्यार की जरुरत थी । पुरुष को अपने तलाकशुदा पत्नी व बच्चे याद आये । वह अपनी बची जिंदगी उन अपनों के साथ गुजरना चाहता है और जो तीन साल स्टैला के साथ बिताये उसकी जिंदगी को छीन लेना वाला रोग दिया उस स्टैला की आज कोई कीमत नहीं रह गयी । वो उसे अपने नरक का हिस्सा बना गया और चलते वक्त कहता है वह अपनों के साथ रहना चाहता है उसे अपने नरक का हिस्सा नहीं बनाना चाहता । पुरुष कितना स्वार्थी है जो लड़की अपनी जिंदगी उसे दे रही है वह उसी की जिंदगी छीन कर भाग रहा है । भागना ही था तो क्यों तीन साल उसकी जिंदगी में ठहरा ? “माफ़ कर देना मैं अपने अतीत का बैग साथ लाया था, उसमें न जाने कब यह रोग बंधा चला आया । बैग फैंक दिया मगर यह फ़ैल गया हमारे बीच । फुल ब्लोन एड्स का अर्थ समझती हो न । मैं उस हद तक पहुँचू उससे पहले अपनी जमीन पर, अपने लोगों के बीच लौट जाना चाहता हूँ ।”[9] साथ ही एड्स पीड़ित महिलाओं को सकारात्मक सोच प्रदान करती है, यह कहानी उनमें जीने की चाहत पैदा करती है कि अभी भी जिंदगी ख़तम नहीं हुई है । जिंदगी के कितने साल बचे है उन्हें ख़ुशी से जी लो । सकारात्मक सोच ही हमें जिंदगी जीने की नई प्रेरणा देगी । एड्स पीड़ित महिलाएँ नौकरी भी करती है, वे जिंदगी को प्यार भी करती है । और मरने के डर को खुद से दूर भगा दिया है । अपनी जिजीविषा की शक्ति को बरकरार रखे हुये है । एड्स पीड़ित महिलाओं को भी खुशनुमा जीवन जीने का अधिकार है । जीवन हर स्थिति में खुबसूरत है अगर उसमें से मरने का डर निकाल दिया जाये तो अपने नये सपने, नई उमंगे, नये उल्लास के साथ जीने का मजा ही कुछ ओर है । “हमको टीबी हुआ तो हमने खून का जाँच कराया । हाँ हमको सरकारी हस्पताल का कंपोटर आके बोलै के ये तुम्हारा रपोट...तुम एचआईवी पोंझिटिव...तुम पाँच मईना में मर जायेगा ।” हमने रपोट का कागज फाड़ा चाँटा...माटी मैला बच्चा लोग को क्या तेरा बाप संभालेगा । पन शिस्टर बाद में सब समझाया और हम रैड लाईट में ‘बी बोल्ड’ की कम्युनिकेटर बन गया । उस बात को पांच साल हो गया होइंगा । हम जिन्दा न अभीच । धंधा भी बरोबर...।”[10]

‘क्या यही है वैराग्य’ कहानी में सुमेधा कायस्थ परिवार की बेटी व जैन परिवार की वधु है । स्वयं डॉक्टर होने के बावजूद भी ससुराल की परम्पराओं को बिना इंकार किये निभाती है । खाने पीने में परहेज रहन-सहन तौर तरीके संस्कृति आदि । एक तरफ भारतीय महिलाओं के स्वास्थ्य की बात उठायी गई है । जहाँ महिलाएँ बीमारी पर जब तक ध्यान नहीं देती तब तक वह बड़ी या गंभीर न हो जाए । ग्रामीण महिलायें महिला डॉक्टर  न मिलने के कारण पुरुष डॉक्टर के सामने अपनी बीमारी प्रकट करने से कतराती है । दूसरी तरफ भी वे पारिवारिक जिम्मेदारियों में इतनी व्यस्त रहती हैं कि उनका खुद पर ध्यान ही नहीं जाता । इस तरह का समर्पण इन्हें बड़ी बीमारी का शिकार बना देता है । “अधिकतर भारतीय महिलाएँ अपने स्वास्थ्य को तब तक अहमियत नहीं देतीं जब तक वह बड़ी बिमारी बन कर सामने न आ जाए, उस पर आंतरिक समस्याएँ तो सबसे ज्यादा छिपाई और उपेक्षित की जाती है ।”[11] जैन धर्म को स्वीकार कर साध्वियाँ वैराग्य धारण कर लेती है । तब इतने नियम कायदों में खुद को बांध लेती है कि स्वास्थ्य से बड़ा धर्म हो जाता है । जहाँ स्तन कैंसर की बीमारी में वो बाहर अस्पताल नहीं जाएँगी और आश्रम में रहकर इस रोग का ईलाज नहीं होगा । इस तरह बार-बार स्वास्थ्य का गिरना बार-बार तकलीफ सहकर धर्म का निर्वहन करना ही तो सबसे बड़ा नहीं । क्यों धर्म के नाम पर वह इतनी तकलीफ को सहती है । “दवा से ठीक नहीं हुई तो आपको बड़े शहर में जाकर इलाज करवाना होगा । बेटा मुझे तो तेरी ही दवा से काम चलाना होगा । मेरा भाग्य जो तू स्थानक में आ गई, दवा मिल जायेगी । हमें तो रोगों से भी अकेले ही जीतना होता है, न जीते तो नश्वर देह ही तो है ।[12] भारतीय लोग किताबी जीवन व व्यवहारिकता में आये सिद्धातों को अलग-अलग रखते हैं । हक़ीकत में पुरापंथी विचारों में जकड़े रहेंगे और किताबी ज्ञान को किताबों तक ही सीमित रख देते है । व्यावहारिकता में अमल नहीं करते । पुखराज की पत्नी सुमेधा को अगर जैन साधु ने मन ही मन चाह लिया तो सुमेधा तो कहीं गलत नहीं ठहरती फिर क्यों पुखराज सुमेधा से चार महीने नहीं मिलता । कौन सा वैराग्य है यह ! स्त्री है इसलिए उसके प्रति किसी का भाव तुम्हे पसंद नहीं, इसमें उसकी क्या गलती है । उसे ही दोष दिया जाता है कि तुम्हे इन परंपरागत चीजों में टांग नहीं अड़ानी चाहिए ।

            ‘कालिंदी’ कहानी वेश्यावृत्ति के जीवन के दर्द को बयां करती है कि किस तरह वह मज़बूरी में स्वयं को बेचती है । उनको कितनी शारीरिक यातनाओं से गुजरना पड़ता है पेट पालने के लिए । वहाँ पैदा होने वाले बच्चों का भविष्य भी अंधकार में चला जाता है । बच्चों को सही माहोल नहीं मिलता । वेश्या का जीवन जीने वाली स्त्री अपने बेटी को भी उसी में धकेल देती है । अगर वह खुद को इस चंगुल से बचाती है तो किसी और के हाथों में पड़कर, नये-नये गृहस्त जीवन के सपने देखकर शोषण का शिकार हो जाती है । “कस्टमर’ शब्द उस गली के हम उम्र के बच्चों के बीच एक डरावना शब्द था । एक पिशाच जो औरतों का गला दबाया करता था, औरतें उसकी गिरफ़्त में कराहतीं...थीं । एक पिशाच जिसके न आने से...कभी कटोरदान में रोटी कम पड़ जाती थी या फिर...बचती तो सब्जी या शोरबे के बिना ही खानी होती थीं ।[13] कालिंदी वेश्यावृत जीवन से बचना चाहती थी इसीलिए वह उस जीवन से भागना चाहती थी । एक युवक ने उसे प्यार के सपने दिखाकर इस माहौल से दूर ले जाने का वादा कर उसका शोषण करता है । वह युवक पहले से शादीशुदा था । उसे वापस अजन्मे बच्चे के साथ उसके घर छोड़ जाता है । माँ द्वारा पीटे जाने पर वह सात माह के बच्चे को जन्म देती है । इसके बाद कालिंदी अपनी जीविका चलाने के लिए वेश्याओं के नोंचे हुए जिस्मों की मालिश करती है, उनके कपड़े धोती है और अपने बच्चे को पालने के लिए न्यूड मॉडलिंग का काम करती है । जहाँ नग्नता को नहीं कला को महत्व दिया जाता है जहाँ एक पोज में घंटो खड़े रहना पड़ता है जिसमें पूरा शरीर और नसें दुखने लग जाती है । यह बहुत मेहनत का काम है । इसी काम के चलते बच्चा अपनी माँ पर शक करता है कि वह धंधा करती है । कालिंदी की माँ अपने बच्चों को पालने के लिए धंधा करती है तब कालिंदी अपनी माँ का विरोध करती है कि क्यों चंद पैसों के लिए तुम किसी के शोषण का शिकार बनती हो ।किंतु कालिंदी की माँ धंधा न करें तो बच्चों को क्या खिलायें और इस माहोल में वह बदनाम हो चुकी है तो कोन उस पर विश्वास करके उसको काम देगा । वेश्यावृत्ति समाज की बहुत बड़ी समस्या है जहाँ महिलाओं को उसमें धकेल दिया जाता है और वह वहाँ से निकल नहीं पाती । ताउम्र उसी दलदल में फ़सी रहती है ।

            इस प्रकार मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानियों में महिलाओं के यथार्थ जीवन की स्थितियों से अवगत कराया गया है कि किस प्रकार जीवन में वह भिन्न-भिन्न परिस्थितियों से गुजरती है जहाँ उनका शारीरिक व मानसिक हर प्रकार का शोषण होता है । वह पढ़ी लिखी है । आर्थिक दृष्टि से खुद पर निर्भर है उसके बावजूद भी वह स्वतंत्र नहीं है । वह खूंटे से बंधे बछड़े के समान है जो कुलाचे तो भर सकता है परंतु उस खूंटे से आजाद नहीं हो सकता । उसको उतना ही खोला जाता है जितना की उसकी जरुरत है । वह घर में कमा के भी लाये फिर भी उसकी स्वतंत्रता पुरुष के हाथ में रहेगी । जैसे वह ताला है और उसकी चाबी पुरुष के हाथ में है । वह जब चाहे उसको खोले और जब चाहे उसको बंद करे । पितृसत्तात्मक समाज आर्थिक दृष्टि सपन्न महिलाओं को भी अपनी गिरफ्त में लिए हुए है ।

संदर्भ ग्रंथ:-
1.मनीषा कुलश्रेष्ठ, ‘कुछ भी तो रूमानी नहीं’ (2008), ‘अंतिका प्रकाशन’, गाज़ियाबाद, पृ. 69
2. वही, पृ. 69
3.वही, पृ. 69
4.वही, पृ. 68

5.वही, पृ. 69

6.वही, पृ. 80

7.वही, पृ. 80

8.वही, पृ.43
9.वही, पृ. 49
10.वही, पृ. 49
11.वही, पृ. 57
12.वही, पृ. 62, 63

13. वही, पृ. 87

14.वही, पृ. 51

15वही, पृ. 27







 [साभार: जनकृति पत्रिका]









कोई टिप्पणी नहीं:

सामग्री के संदर्भ में अपने विचार लिखें-