‘सांस्कृतिक अस्मिता और दलित बस्तियां’ (हिंदी मराठी दलित उपन्यासों के संदर्भ में एक तुलनात्म विवेचन): माधनुरे श्यामसुंदर
‘सांस्कृतिक अस्मिता और
दलित बस्तियां’
(हिंदी मराठी दलित उपन्यासों के संदर्भ में एक तुलनात्म
विवेचन)
- माधनुरे श्यामसुंदर
संस्कृति कहते
ही भारतीय समाज में उत्सवधर्मी चेतना मूर्त हो जाती है। संस्कृति का एक स्थूल सा
अर्थ त्यौहार, धार्मिक उत्सव, मिथकों व् इश्वर का प्रभा मंडल, कर्म कांड नैतिकताओं
और आध्यात्मिकता के संदर्भ में समझा, समझाया जाता है। लेकिन क्या संस्कृति का
दायरा मात्र इतना ही है? क्या संस्कृति केवल धर्म व अध्यात्म तक ही सीमित है? यदि
हम संस्कृति और उसके कार्यों का अन्य अनुसंधान और वैचारिक सरणियों के जरिये देखे
तो उसके अर्थ व परिभाषा बेहद विस्तृत हो जाती है।
ई. बी. टायलर
ने संस्कृति को परिभाषित करते हुए लिखा है कि– “संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिसमे
ज्ञान, विश्वास, कलाएं, नैतिकताएं, विधि प्रश्न तथा अन्य और क्षमताएं और आदते है
जिन्हें मनुष्य ने समाज के रूप में अर्जित किया है”।[1]
स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृति मात्र धार्मिकता नहीं है। वह अपने जटिलता में
मनुष्य के संपूर्ण जीवन को समाहित किए हुई है। इसी प्रकार क्लाइड क्लुकहान
संस्कृति को जीवन की समस्त गतिविधियों से जोड़ते है - “हर विशिष्ट संस्कृति
में जीवन की समस्त गतिविधियों की एक रूपरेखा होती है”।[2]
इसी प्रकार
प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर संस्कृति को मानव विकास के साथ जोड़कर देखती है –
“संस्कृति का अर्थ सबसे पहले स्वभाविक बुद्धि को बढ़ावा देना है। हाल के समय इस
अर्थ का विस्तार हुआ है और यह मानव मन को विकसित करने का अर्थ देने लगा है।
...संस्कृति में सभी व्यवहार–प्रतिमानों और जीवन शैलियों को समेट लिया गया है।
...संस्कृति से आराम व्यवहार प्रतिमानों से है, भाषा परम्परा रीतिरिवाज और
संस्थाएं इस में शामिल है”[3]।
इस प्रकार संस्कृति को समाज से जोड़कर देखने के उपकृम में मुक्तिबोध लिखते है– “
जीवन जैसा है उसे अधिक सुंदर उदात्त और मंगलमय बनाने की इच्छा आरंभ से ही मनुष्य
में रही है। यही इच्छा जब सामाजिक स्तर पर खा लेती है तब संस्कृति कहलाती है”।[4]
स्पष्ट हो जात है कि संस्कृति का महत्त्वपूर्ण पक्ष जीवन को सुंदर व मंगलमय बनाना
है लेकिन हम जब भारतीय (या हिन्दू) संस्कृति को देखते है तो पाते है कि उसमे
(हिन्दू या ब्राह्मण संस्कृति) 15 प्रतिशत जनता के जीवन को तो सुन्दर व उदात्त
बनाया है। लेकिन 85 प्रतिशत का जीवन यातना व शोषण से भर दिया। और ऐसा इसलिए हुआ कि
संस्कृति को आज धर्म व नैतिकताओं विधि व नियमों तक सीमित कर दिया। जीवन को बेहतर
बनाने वाली ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को गौण कर दिया तथा उसे कर्म फल, विधि विधान तथा
भाग्यवाद के खाते में डाल दिया।
सार रूप में कह
सकते है कि संस्कृति जो कि मानव जीवन के संपूर्ण को समाहित करती है। मानव को मात्र
जाति, धर्म अध्यात्म तक सीमित कर दिया है। संस्कृति का वास्तविक अर्थ प्रकृति समाज
तथा जीवन जगत को जानना व वेहतर बनाना है। वैज्ञानिक व तार्किक ढंग के दृष्टिकोण के
आधार पर ऐसा किया जा सकाता है। श्रम, समता तथा सह अस्तित्ववाली संस्कृति से जीवन
बेहतर बन सकता है न कि यह पण्डे पुजारियों, ओझा सयानों द्वारा घालमेलकर पैदा की गई
अप संस्कृति से।
भारत में दलित
बस्तियों की क्या स्थिति है हम सब जानते है। उत्तर भारत में जिसे चमार और डोम कहते
है वही महाराष्ट्र में महारों के नाम से जाने जानी वाली दलित बस्तियां गाँव की
सीमा के बाहर होती है। एक तरफ सवर्ण रहते है तो एक तरफ दलित। दोनों की संस्कृति और
दुनिया अलग अलग है। इसका चित्रण मोहनदास नैमिशराय के उपन्यास ‘मुक्तिपर्व’ में
देखने को मिलता है। उपन्यास की कहानी एक दलित बस्ती की कहानी है, जहां के लोगों की
लुगाई एक ही कमरे में है। वे सुबह ही घर से बाहर निकल पड़ते है और दिन भर खटने के
बाद घर आते है। सभी गरीब है मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुटा पाते है। लेखक ने जिस
तरह से सामाजिक वातावरण का विस्तार से वर्णन किया है उससे दलित मुक्ति का संघर्ष एक चलचित्र की तरह
पाठक के समक्ष चलता है। यह सब कुछ इतना सजीव है कि दलितों को वह आज भी अपने
इर्द-गिर्द महसूस होता है, और गैर दलित पाठक भी दलित सवर्ण के बिच मौजूद मौलिक
अंतर तथा दलित यातना को देखकर अनुभव कर सकते है। नैमिशराय वर्णन करते है– “चमार और
डोम शहर की सीमा के इस तरफ थे। उस तरफ सवर्ण रहते थे तो इस तरफ दलित। दोनों की
दुनिया अलग थी उधर बाग़ बगीचे थे तो इधर जंगल। उधर बाज़ार थे, पनघट थे, मंदिर थे,
इधर श्मशान, कूड़ाघर, कलालों की दुकाने। दोनों तरफ के अपने - अपने संस्कार थे और
अपनी - अपनी संस्कृति। जब वे दुसरे से टकराते थे तो मारकाट होती सवर्ण लटिया बल्लम
चलाते हुए गलिया देते, खुले आम पेशाब करते और अपनी उदंड संस्कृति का परिचय देते
फिर भी वे शहर के सभ्य कहलाते”।[5]
इस उदंड संस्कृति के धनी सिर्फ सवर्ण ही नहीं थे, वरण उच्च वर्गीय मुसलमान भी थे।
उपन्यास में नवाब अली वर्दी खां का जिक्र है उसी की हवेली में बंसी नौकरी करता है।
नवाबी संस्कृति की अनेक झलकियाँ उपन्यास में है। ऐसी संस्कृति के सन्दर्भ में डॉ.
तेज सिंह कहते है – “ मेरी निश्चित धारना है कि समाज में जिन सामाजिक वर्गों का
वर्चस्व होता है, सत्ता भी उन्हीं सामाजिक वर्गों के हाथों में केन्द्रित होती है
और उनकी असली लड़ाई सत्ता पर काबिज होने के लिए ही होती है ता कि समाज पर अपना
सांस्कृतिक-वैचारिक वर्चस्व कायम किया जा सके। ऐसी स्थिति में सत्ता की अवधारणा का
महत्त्व असंदिग्ध है। सत्ताएं तिन तरह की होती हैं –एक ज्ञान सत्ता दूसरी राजसत्ता
और तीसरी धर्म सत्ता। जिस सामाजिक वर्ग के पास ये तीनों सत्ताएं होती है, वही वर्ग
प्रभुत्वशाली होता है और अपना सांस्कृतिक वैचारिक वर्चस्व कायम करता है”।[6]
जिस संस्कृति की तरफ तेज सिंह इशारा कर रहे है ये वही उदंड संस्कृति है जो नवाबे
अली में देख सकते है। लिहाजा आज इस तरह की संस्कृति को ही ज्यादा तर रूप में देखा
जा सकता है।
एक दूसरा
उपन्यास ‘थमेगा नहीं विद्रोह’ उमराव सिंह जाटव का है इस में दलित संस्कृति को देख
सकते हैं। इस उपन्यास में जो तथ्य आये है संभवतः 2000 इ.स. के आस पास के है
क्योंकि उपन्यास के अनुसार यह जागृति उनमे स्वर्गीय बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर
द्वारा दिए गए अमोघ मंत्र ‘शिक्षित बनों, संगटित हो, संघर्ष करो’ के कारन है।
अम्बेडर के कारण ही जाटव मोहल्ले में किसी बौद्ध विहार और किसी बौद्ध भंते के अभाव
में ये लोग बुद्धधर्म के स्वतः अनुयायी है। लेकिन असंख्य देवी-देवताओं का पूजा-पाठ
करते है। शीतलामाता, भुमियामायी माता, अहोई माई, छट पीर, चामुंडा माई आदि उनके
जीवन में केन्द्रीय महत्त्व रखते है और ये लोग लांगुरिया के गीत गाते है ज्वालाजी
और हिंगलाज की जात लगाते है सैकड़ों कोस भटकते है।
इसी को मध्य
नजर रखते हुए अरुण साधू का उपन्यास झिपय्या जो मराठी का उपन्यास है इसमे जिस
संस्कृति को बताया गया है शायद 65 साल के स्वतंत्रता के बावजूद भी कोई परिवर्तन
नहीं आया। लेखक के शब्दों में ही – “पच्चीस पैसे का दो चम्मच दूध और चार चम्मच
शक्कर लेकर झिपप्या भागता हुआ वापस आया। तब तक माँ ने मिटटी के चूले पर पानी से
भरा एल्युमिनियम का बर्तन रख दिया था और चूले को जलने के लिए कागज़ के टुकडे, बढई
की दूकान से लाए लकड़ी के छोटे टूकडे और भूसा, धज्जियां - जो भी उसके हाथ लगता था सब
डाल रही थी और चूले को फूंकते हुए अभी भी गहरी नींद में खोई लीला पर बरस रही थी,
“उठ ओ घोड़े, उठ! इत्ती बड़ी हो गयी पेड़ के माफिक फिर भी यहाँ खर्राटे मारती सो रही
है। उठ और उस ब्लाउज को ठीक कर ले। इत्ती बड़ी हो गई है फिर भी जरा भी लाज शर्म
नहीं है मुई को। दिन तो इतना निकल आया, अब लाइन पर कब जायेगी तू। आं? अब उठती है
या दू एक लात कमर पे”?[7]
उक्त विवेचन के बाद यह काहाँ जा सकता है कि दलितों की अपनी संस्कृति होती है।
लिहाजा उनकी अपनी अस्मिता है। इसलिए दलित
बस्तियों में होते हुए भी दलित समाज अपनी अस्मिता बनाये रखता है।
भारतीय गावों
की रचना तथा समाज रचना देखने के बाद यह आश्चर्य होता है कि यहाँ के गाँवों की तथा
समाज की रचना इतनी एक जैसी कैसी है? शहरों में ऐसा चित्र नहीं है। लेकिन गाँवों की
रचना एक जैसी ही है। चाहे महाराष्ट्र हो या मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश या अन्य
प्रदेशों में भी गाँवों की वैचारिक पहचान अलक होगी लेकिन रचना अलग नहीं है। यहाँ
जाति के आधार पर गाँव की रचना होती है। मुख्य गाँव में सभी सवर्ण रहते है। अवर्ण
गाँव के बाहर रहते है। गाँव में जाति के अधार पर गलियां बनती है जैसे- ब्राह्मण
गली, राजपूत गली आदि। यह एखाद गाँव में अथवा राज्य में होता तो समज सकते है।
परन्तु पुरे भारतीय गांवों की रचना इस पद्धति की ही हैं। सवर्ण के घर मजबूत,
आकर्षक तो अवर्ण के घर घास-फूस के होते है गाँव तथा घर मानव निर्मित है इस कारण
ऐसा भेदभाव है। छप्पर में मातापुर भी ऐसा ही एक गाँव है। यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश
में आता है। मातापुर की रचना भी तमाम भारतीय गाँवों जैसी ही है। ‘गंगा के तट पर
बसा पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा गाँव मातापुर। अन्य भारतीय गाँवों की तरह
मातापुर में भी थोड़े से सुखी और संपन्न शेष दीन और दरिद्र है। सुखी संपन्न लोगों में
सवर्ण कहलाने वाले ब्राह्मण, पुरोहित, ठाकुर, जमीदार तथा लाल-साहूकार हैं। दूसरे
गाँवों की तरह सवर्ण लोग उपर की तरह तथा अवर्ण कहे जानेवाले गंगा की ओर निचान में
बसें हैं। नीचन की ओर गंगा के इस छोर का आखिरी घर सुखा का हैं और फिर कुड़ी-बिठौड़े
शुरू हो जाते हैं ’।[8]
इस तरह इन उपन्यासों की तुलना करने के बाद जिन
बस्तियों का जिक्र हुआ है इस से साफ़ हो जाता है कि दलितों की संस्कृति और सवर्णों
की संस्कृति में कितना अंतर है। इस संदर्भ में तेज सिंह कहते है – “इस दृष्टी से
संस्कृति के दो रूप उभरकर सामने आ जाते है एक, सामान्य तो दूसरा विशिष्ट। सामान्य
रूप में संस्कृति जनता की संस्कृति यानी जन संस्कृति होती है, जिसमे समाज के
विभिन्न समुदायों की आदतों-रुचियों, रीती-रिवाजो, प्रथाओं, विश्वाशों, धारणाओं और
विचारों में कुछ समानता होती है तो दूसरी तरफ विशिष्ठ रूप में संस्कृति वर्गीय
संस्कृति होती है जिसे वर्चस्ववादी संस्कृति कहना जादा ठीक है उसका सीधा संबंध
राजसत्ता से होता है यानी वह राजसत्ता की चाकरी करनेवाली संस्कृति होती है जो धर्म
सत्ता से लेकर साम्प्रदायिक रूप धारण कर लेती है। यह संस्कृति का सबसे विनाशकारी
रूप होता है जिसमे एक विशेष समुदाय और धर्म का हित सर्वोपरि होता है”।[9]
ऊपर
युक्त उपन्यासों की तुलना के बाद बाद दलितों की और सवर्णों की संस्कृति में कितना
अंतर है यही दिखाने का पर्यास रह है।
- माधनुरे श्यामसुंदर
संपर्क :- MH- NRS, K-WING ROOM
NO.107 HCU, GACHIBOWALI, HYDERABAD,500046
मो.न.
+919493014850
संदर्भ :-
1. अपेक्षा – सं. तेज सिंह – अक्तूबर, दिसंबर 2013
2. मुक्तिपर्व – मोहनदास नैमिशराय - अनुराग प्रकाशन नई
दिल्ली, 2011
3. प्रतिरोध की बहुजन संस्कृति – डॉ. तेज सिंह - बुक्स
इंडिया दिल्ली, 2011
4. झिपय्या – अरुण साधू – राधाकृष्ण प्रकाशन, नई
दिल्ली,1998
5. छप्पर – जय प्रकाश कर्दम - राहुल प्रकाशन, दिल्ली, 2007
6. थमेगा नहीं विद्रोह - उमराव सिंह जाटव - वाणी प्रकाशन नई
दिल्ली, प्र.स. 2008
[3] अपेक्षा – सं.तेज सिंह अक्तूबर – दिसंबर – 2013, पृ. स. 52
[5] मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय – पृ.सं. 65
[7] झिपय्या – अरुण साधू – पृ.सं. 15
[8] छप्पर – जय प्रकाश कर्दम – पृ.सं. 05
[9] प्रतिरोध की बहुजन संस्कृति –डॉ. तेज सिंह पृ.सं. 09
[चित्र साभार: symbols-collection.net]
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