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स्त्री विमर्श: हिन्दी साहित्य के संदर्भ में- नेहा गोस्वामी

स्त्री विमर्श: हिन्दी साहित्य के संदर्भ में 
Stri vimarsh hindi sahitya ke sandarbh mein 

नेहा गोस्वामी
शिक्षा विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी

स्त्री विमर्श का परिचय stri vimarsh ka parichay 

प्राचीन भारतीय वाङमय से लेकर आज तक स्त्री विमर्श किसी न किसी रूप में विचारणीय विषय रहा है। आज से लगभग सवा सौ साल पहले का श्रद्धाराम फिल्लौरी का उपन्यास भाग्यवती से लेकर आज तक स्त्री विमर्श ने आगे कदम बढ़ाया ही है, छलांग भले ही न लगायी हो।  अलग-अलग पैमानों पर ही सही, प्रगति हुई है। कैसी प्रगति? केवल सजावटी, बनावटी, दिखावटी या सचमुच की?”(विनय कुमार पाठक, 2009)
यह सर्वविदित है कि साहित्य समाज का दर्पण है। किसी भी रचनाकार की रचना में अपने समय काल, उस समय के प्रचलन सिंद्धांतों का समावेश होता है। साहित्य समाज के यथार्थ का बोध कराता है। उपन्यास के माध्यम से रचनाकार अपने युग तथा विशिष्ट काल खंड को विभिन्न चरित्रों, घटनाओं आदि के सयोंजन द्वारा उनकी वास्तविक परिस्थितियों में समग्रता के साथ अभिव्यक्त करता है जिसमें वैयक्तिक अनुभव अपनी समाजिकता के साथ सूक्ष्मताओं में उपस्थित रहते हैं। यद्यपि विषय, उद्देश्य तथा लेखकीय दृष्टि के अनुरूप बलाघात बदलता है। कभी चरित्र महत्वपूर्ण दिखते है, तो कभी घटनाएँ, तो कभी लेखनीय आदर्श, सोच, अनुभूतियाँ और माँग।

स्त्री विमर्श और उपन्यास stri vimarsh aur upanyas

“उपन्यास साहित्य फिर वह स्वतन्त्रतापूर्व हो या स्वतंत्र्योत्तर हो, नारी का चित्रण उसका एक अविभाज्य अंग है। भारतेन्दु कालखंड से लेकर आज तक के सभी उपन्यासों पर दृष्टिक्षेप डालें तो यह स्पष्ट होता है कि अधिकांश उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में कुछ ऐसे नारी पात्रों की योजना की है जो नारी के शोषण, उन पर होने वाले अन्याय अत्याचार, विभिन्न समस्याएँ, उनसे मुक्ति, अपने स्व की खोज... आदि को व्यक्त करने में सक्षम है।”(डॉ॰ वैशाली देशपांडे, 2007)
महिला उपन्यासकारों के साथ साथ पुरुष उपन्यासकारों ने भी नारी समस्या एवं नारी के विबिन्न रूपों का अपने उपन्यासों के केंद्र में रखा है। पश्चिमी सभ्यता के संपर्क के परिणामस्वरूप और विभिन्न भारतीय सामाजिक आंदोलनों के कारण राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक क्षेत्र में भारतीय दृष्टिकोण बदल रहा था। इस बदले हुए नवीन दृष्टिकोण को लेकर आधुनिक साहित्य का भी विकास हुआ। उपन्यास का यह प्रारम्भिक काल था।

भारतेन्दु युग bhartendu yug

इस युग के उपन्यासकारों का ध्यान पहली बार स्त्रियों की सामाजिक दशा की ओर आकृष्ट हुआ। स्वयं भारतेन्दु तथा इस युग के अन्य उपन्यासकार भारतीय स्त्री की दयनीय स्थिति से परिचित थे। वे उनकी स्थिति में सुधार लाने के पक्षधर थे, उन्होनें पाश्चात्य-नारी के दुर्गुणों को छोड़कर अच्छे गुणों की सराहना की और भारतीय नारी को आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। भारतेन्दु के बाद के लेखकों में इनके जैसी नवीन दृष्टि नहीं है। वे भारतीय नारी को पाश्चात्य सभ्यता एवं शिक्षा के प्रसार से दूर रखना चाहते है। यद्यपि उन्होनें नारी की तत्कालीन समस्याएँ जैसे बाल-विवाह, अनमेल विवाह, विधवा और वेश्या को वर्ण्य विषय तो बनाया है किन्तु इनका चित्रण और समाधान प्राचीन मान्यताओं के अनुसार ही किया है।

द्विवेदी युग dwivedi yug

सामाजिक कुरीतियों को सामने लाकर उनका विरोध करना ही द्विवेदी युगीन उपन्यासकारों का प्रमुख लक्ष्य रहा। “अधखिला फूल” हरिऔध जी का सफल उपन्यास है। इसमे नारी जीवन की अनेक समस्याओं को चित्रित किया गया है। प॰लज्जाराम मेहता के उपन्यासों में भी स्त्री को पर्याप्त महत्व प्राप्त हुआ है।

प्रेमचन्द युग premchand yug

प्रेमचन्द युग विचार के क्षेत्र में, संक्रांति और संघर्ष का काल था। परंपरा और नए जीवनादर्शो में द्वंद है, और इसी द्वंद में संधि की भावना है। यथार्थ जीवन की ज्वलंत समस्याओं को अपना प्रतिपाद्य बनाने पर भी प्रेमचन्द युगीन लेखन परंपरागत भारतीय जीवन-मूल्यों के प्रति अपने मोह को छोड़ नहीं सके और उनकी परिणति आदर्शोन्मुख यथार्थवाद में की। यहाँ तक की साहित्य में स्त्री को लेकर स्टीरियो टाइप बहुत खुले रूप में मौजूद है।

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            “गोदान में प्रेमचन्द जिस तरह धनिया और मालती का चित्रण करते है वे भी पश्चिम और भारतीयता की बहस उलझकर रह जाते है। बल्कि स्त्रीत्ववादी दृष्टि से देखें तो जयशंकर प्रसाद प्रेमचन्द से कहीं अधिक प्रगतिशील दिखाई देते है। वह ही हैं जो ध्रुवस्वामिनी में पति के जीवत रहते ध्रुवस्वामिनी का विवाह उसकी पसंद के पुरुष चन्द्रगुप्त से करने की वकालत करते है।”(क्षमा शर्मा, 2012)
            भगवतीचरण वर्मा के भूले बिसरे चित्र में भी भारतीय नारी की जागरूकता का चित्रण है। गंगा पढ़ी लिखी प्रगतिशील नारी है जो पति तथा ससुराल वालों के दुर्व्यवहार से रुष्ट होकर संबंध विच्छेद कर लेती है तथा नौकरी करके आत्मनिर्भर जीवन बिताना चाहती है। धीरे-धीरे हिन्दी उपन्यासों में नारी को सतीत्व और देवीत्व के कठघरे से निकाल कर मानव रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया जाने लगा।

प्रेमचंदोत्तर युग premchandottar yug

प्रेमचंदोत्तर युग के जैनेन्द्र के उपन्यासों पर मनोविश्लेषण शस्त्र का व्यापक प्रभाव स्पष्टत: परिलाक्षित होता है। प्रेमचन्द ने जहां सामाजिक स्तर  पर समस्याओं को उठाया है, वही जैनेन्द्र ने समस्याओं को वैयक्तिक व मानसिक उठाया है। उनके समस्त स्त्री पात्र मानसिक घात-प्रातिघात में परिचालित होते से दिखते है। सुनीता, कल्याणी आदि सभी स्त्री पात्रों का अंतर्द्वंद चरम पर है। जैनेन्द्र अपने उपन्यासों में आंतरिक जगत का विश्लेषण करते हुये स्त्री की समस्याओं व उसकी अस्मिता को भिन्न रूप में उपस्थित करते है।        
            “शेखर एक जीवनी” अज्ञेय का प्रथम उपन्यास है, जिसके दो भाग है इसमे शशि का चरित्र अत्यंत महत्वपूर्ण है। “शेखर के व्यक्तित्व में वेदना और प्रेम का मुख्य सर्जक चरित्र है शशि- सबसे पहले तुम शशि।”
            अज्ञेय के नदी के द्वीप की रेखा प्रखर, तेजस्वी अति बौद्धिक उच्च शिक्षित और सक्रिय नारी चरित्र है। वह सही अर्थो में आधुनिक नारी है – सबल, समर्थ, संतुलित और संकल्पयुक्त।
            फणीश्वरनाथ रेणु के “मैला आँचल” तथा “परती परिकथा” इस युग के प्रसिद्ध आंचलिक उपन्यास है। मैला आँचल की कमली, लक्ष्मी आदि स्त्रियाँ अपनी इच्छा को महत्व देती है।
            रांगेय राघव के “कब तक पुकारूँ” की प्यारी और कजरी भी सशक्त स्त्रियाँ है। रामदरश मिश्रा के “बिना दरवाजे का मकान” तथा भीष्म साहनी के “बसंती” में महरी का काम करने वाली स्त्रियों की संघर्ष कथा है।
            सुरेन्द्र वर्मा के मुझे चाँद चाहिए में एक कस्बे की लड़की एन.एस.डी. में प्रवेश पाती है और अभिनेत्री बनती है।  
            जैनेन्द्र का दशार्क स्त्री की सशक्तता का समर्थन करता है। त्यागपत्र की मृणाल जहां आत्मपीड़न की शिकार है वहीं दशार्क की रंजना टूटती नहीं है अपना रास्ता स्वयं बनाती है।
            मनोहरश्याम जोशी के हमज़ाद में दिखाया गया है कि बाजारवाद के इस युग में स्त्री एक वस्तु मात्र बनकर रह गई है। राज किशोर का उपन्यास तुम्हारा सुख स्त्री के प्रति पुरुष की सोच को उजागर करता है।
            इसी युग में बड़ी संख्या में लेखिकाएं जैसे कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी, पदमा सचदेव, मृदुला गर्ग, उषा प्रियंवदा, मृणाल पांडे, चित्रा मुदगल, मैत्रयी पुष्पा, नासिरा शर्मा, प्रभा खेतान, गीतांजलि श्री, मनीषा, जयंती आदि महिला मुद्दो पर अपनी कलम चलाने लगती है।  स्त्रियों संबंधी मुद्दो पर बहस होने लगती है। स्त्रियों की समस्याओं पर बहुत सी लेखिकाएं कलम चलाने लगती है। मृणाल पांडे, मृदुला गर्ग, कात्यायनी, अनामिका आदि की स्त्री विषयक पुस्तके काफी चर्चित होती हैं। स्त्री विषयों पर पुरुष लेखक भी लिखते है। अरविंद जैन की पुस्तक औरत होने की सजा के आठ संस्करण  छपते है। उन्ही की पुस्तक औरत: अस्तित्व और अस्मिता भी बेहद चर्चित रही।
            “स्त्री सशक्तिकरण के जो भी प्रश्न समाज में प्रकट हो रहे हैं, साहित्य उनसे निरपेक्ष नहीं रह सकता। हर काल में स्त्रियों के बलीकरण के प्रश्न बदलते रहे है। आज स्त्रियाँ लिंगभेद, महिलाओं पर हिंसा को रोकना, निजी कानूनों में संशोधन, महिला स्वास्थ्य तथा आर्थिक दशा आदि में मुद्दों से जूझ रही है। स्त्रियों को समाज की अग्रगामी धारा में जोड़ने में महिला आंदोलन ने प्रमुख भूमिका निभाई है। आज साहित्य में भी महिला आंदोलन द्वारा उठाए गए मुद्दे प्रमुखता से उभर रहे है। यह एक अच्छी खबर है। (क्षमा शर्मा, 2012)

स्त्री विमर्श: महिला लेखन के संदर्भ stri vimarsh mahile lekhan ke sandarbh mein

            लेखन के क्षेत्र में स्त्रियों का पदार्पण भले ही बाद में हुआ किन्तु उनकी सृजनशीलता अत्यंत प्राचीन है। जब वे साक्षर नहीं थी, तब मौखिक रूप से उनकी रचनाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी चलती थी। लोकगीत इसका अप्रतिम उदाहरण है।
            “लोकगीतों के आदिशोधकर्ता श्री रामनरेश त्रिपाठी ने गहरा अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है कि स्त्रियों के गीतो में पुरुषो का मिलाया हुआ एक शब्द भी नहीं है। स्त्री-गीतों की सारी कीर्ति स्त्रियों के ही हिस्से की है। यह संभव हो सकता है कि एक-एक गीत की रचना में बीसों वर्ष और सैकड़ों मस्तिष्क लगे हों पर मस्तिष्क थे स्त्रियों के ही, यह निर्विवाद है।”(राजेन्द्र यादव, 2001)
            आधुनिक हिन्दी साहित्य में पिछले दो-तीन दशकों से स्त्री लेखन में ज्यादा उभार आया है किन्तु यह कड़ी महादेवी वर्मा के लेखन के साथ ही आरंभ हो गयी थी। आज भी जब स्त्री-लेखन में स्त्री जीवन और उसकी समस्याओं से जुड़ी बातों, स्त्री-पुरुष संबंधो कि तलाश की जाती है तो महादेवी वर्मा कि रचना श्रृंखला की कड़ियाँ नामक निबंध संग्रह का उल्लेख करना लाज़मी हो जाता है। इन निबंधो में उनके द्वारा व्यक्त विचार वर्तमान स्त्री लेखन को एक रचनात्मक ऊर्जा प्रदान करते है।
“आज हमारी परिस्थिति कुछ और ही है। स्त्री न घर का अलंकार मात्र बनकर रहना चाहती है और न ही देवता कि मूर्ति बनकर प्राण-प्रतिष्ठा चाहती है। कारण वह जान गयी है कि एक का अर्थ अन्य कि शोभा बढ़ाना है। तथा उपयोग न रहने पर फेंक दिया जाना है तथा दूसरे का अभिप्राय दूर से उस पुजापे को देखते रहना है, जिसे उसे न देकर उसी के नाम पर लोग बाँट लेंगे।”(महादेवी वर्मा, 2012)
            जीवन के हर क्षेत्र की तरह एक लंबे समय तक स्त्री साहित्य लेखन के क्षेत्र से भी अनुपस्थित रही है। पुनर्जागरण तथा स्वतन्त्रता आंदोलन के दौर में यदा-कदा यदि वह नज़र भी आई है तो अपनी विशिष्ट पहचान रेखांकित नहीं करा सकी। परंतु पिछले कुछ दशक से लेखन के क्षेत्र में महिलाओं की सशक्त भागीदारी बढ़ी है। स्वातंत्रयोत्तर कालखंड में कई महिला रचनाकारो का समान रूप  से योगदान प्राप्त होता है। ऐसे उपन्यास हमें प्राप्त होते हैं, जो मात्र नारी जीवन कि विभिन्न परिस्थितियों को उदघाटित करते है।
            प्रभा खेतान लिखती है कि “ज़्यादातर लेखिकाएँ आलोचना की  आपाधापी में पीछे छूट गई है। स्त्री की अपनी संस्कृति है, इतिहास में इसे भिन्न माना जाता रहा लेकिन इसे अलग पहचान नहीं दी गई। चूंकि अलग से स्त्री शक्ति कि सत्ता नहीं थी इसलिए सत्ता को अलग पहचान ही नहीं मिली।”(अरविंद जैन, 2001)
            कृष्ण सोबती का उपन्यास सूरजमुखी अंधेरे के बचपन से बलात्कार पर हिन्दी में ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओ में भी शायद पहला और अकेला सशक्त उपन्यास है। यह उपन्यास 1972 में प्रकाशित हुआ था। अरविंद जैन (2001) के अनुसार “उस समय कम उम्र में बच्चियों से बलात्कार की समस्या से शायद समाज इतना चिंतित और परेशान नहीं था जितना आज है।”
            इसी प्रकार ममता कालिया का उपन्यास बेघर 1971 में प्रकाशित हुआ था। उपन्यास का नायक परमजीत है। जब उसकी प्रेमिका संजीवनी उसके सामने आत्मसमर्पण करती है और परमजीत को पता चलता है कि वह उसके जीवन का पहला पुरुष नहीं है। स्त्री के जीवन में पुरुष पहला होने की धारणा से इतना आक्रांत है कि कई बार पूरे जीवन में यह आशंका सताती है कि कहीं पत्नी या प्रेमिका पहले भी तो किसी से ....... “विवाह पूर्व देह संबंधो के बारे में अनेक शोध अनुभव बताते है कि पुरुष कुँवारी लड़कियों से विवाह करना ही बेहतर समझते है।
            हमारे यहाँ अब तक अधिकांश फिल्में, कहानियाँ, नाटक, उपन्यास सबके द्वारा स्त्री को यही शिक्षा दी जाती है कि यदि अपने पति के लिए तुम कुँवारी नहीं हो तो इस जीवन से तो मर जाना ही बेहतर। दरअसल स्त्री का कुंवारापन ही वह हथियार है जिससे उसे पूरे जीवन लहूलुहान किया जा सकता है।”(क्षमा शर्मा, 2012)        
            उषा प्रियम्वदा के पचपन खंबे लाल दीवारे’, रुकेगी नहीं राधिका’, शेष यात्रा नामक उपन्यास प्रसिद्ध है।
            पचपन खंबे लाल दीवारें कि नायिका सुषमा आत्मनिर्भर है। घर की आर्थिक जरूरतों के कारण विवाह नहीं कर पाती। लेकिन मान और देह की जरूरतों के लिए चोरी-छिपे प्रेम भी करती है।
            प्रभा खेतान का पीली आँधी संयुक्त परिवार के बसने-उजड़ने और टूटने बिखरने की विकास कथा है।
            इस प्रकार पिछले कुछ दशको से महिला लेखन के क्षेत्र में बेहद तीव्रता आई है। मैत्रेयी पुष्पा के इद्न्न्मम’, चाक’, अल्मा कबूतरी’, नासिरा शर्मा का शाल्मली’, मंजुल भगत का अनारो’, मृदुला गर्ग का उसके हिस्से की  धूप’, वंशज’, चित्तकोबरा’, कठगुलाब’, मैं और मैं’, मन्नू भण्डारी का आपका बँटी’, एक इंच मुस्कान (राजेंद्र यादव के साथ), कृष्ण सोबती का जिंदगीनामा’, डार से बिछुड़ी’, मित्रो-मरजानी’, रानी सेठ का तत्सम’, गीतांजलि श्री का माई’, क्षमा शर्मा का परछाई’, अन्नपूर्णा’, स्त्री का समय’, अल्का सरावगी का शेष कादंबरी’, कली कथा वाया बायपास’, अनामिका का दस द्वारे का पिंजरा’, तिनका तिनके पास’, ऐसे अनेकों उपन्यास महिलाओं द्वारा लिखे गए है जिनमे स्त्री समस्याओं का स्वर मुखरित होता है।
            स्त्री लेखन के साथ ही साहित्य में इस पर वाद-विवाद का प्रारम्भ हो गया। राजेन्द्र यादव (2001) के अनुसार “हिन्दी में स्त्रीत्ववाद पर जो भी काम हुआ है खासकर लेखिकाओं ने जो जितना लिखा है, उक्त प्रसंग में अभी मर्दो द्वारा ही निर्धारित सा किया जाता लगता है। आज भी हिन्दी में स्त्रीत्ववाद विमर्श को लेकर कुल जमा एक दर्जन किताबें नहीं मिल पाएँगी। अनेक लेखिकाएं लिंगाधारित लेखन की  सत्ता को मानती ही नहीं और शायद जानती भी नहीं, नई लेखिकाओं में स्त्रीत्ववादी को लेकर एक खुलापन नज़र आने लगा है, लेकिन अभी भी हिन्दी का सारा स्पेस इतना पुल्लिंगवादी है कि औरतें लेखिका होने के लिए मर्द रचनाकारों या आलोचको की ओर देखती है।
            स्त्री लेखन को उनके अनुभव से जोड़कर देखा जाता है। डॉ. सुधा उपाध्याय कहती है कि जब कोई स्त्री रचनाकार बिना औरतपन के दबाब को महसूस करे पुरुष सत्ता को चुनौती देती है तब वह अनुमान से नहीं अनुभव से लड़ती है।
            पुरुष जब भी स्त्री यातना पर लिखता है हमदर्द बनकर, स्त्री को सब्जेक्ट बनाकर उसकी पीड़ा का अनुमान भर लगता है। परंतु जब स्त्री रचनाकार अपना दर्द बखानने के लिए कलम चलाती है तो उसे उसके दूरगामी परिणाम भोगने पड़ते है। “ऐसा क्यो होता है कि जब कोई स्त्री रचनाकार वैयक्तिक अनुभवों की  अभिव्यक्ति का जोखिम उठाती है तो कहानी की नायिका को रचनाकार से जोड़कर देखा जाता है? स्त्री रचनाकार अपनी निजता को दांव पर लगाकर समाज के उलाहनों का शिकार क्यो बनती है? खुला लिखने वाली स्त्री रचनाकार क्यों हर बार मानसिक हिंसा का शिकार होती है?”
            इस संबंध में डॉ. शैल रस्तोगी कहती है “स्त्री उपन्यास लेखिकाओं ने अपने उपन्यासों द्वारा जो चित्र प्रस्तुत किए है वे बहुत अधिक प्रभावशाली और सजीव है। पुरुष नारी स्वभाव का केवल द्रष्टामात्र है। अनुभूति का अभाव होने के कारण उसके चित्रों मे वह तन्मयता नहीं आ सकती, जो नारी के चरित्रों में आनी संभव है।”
            राजेंद्र यादव कहते है कि मर्दो के लिए स्त्रीत्ववादी लेखन की विशिष्ट श्रेणी अभी तक मज़ाक, एक पहेली और अंतत: अबूझ आफत है।          
            “अधिकतर पुरुषों की नज़र में महिला लेखन जड़, नीरस, भावुक, लिजलिजा, आत्मकेंद्रित रहा है” (राजेन्द्र यादव, हंस)। यानि पुरुषों के स्तर का नहीं, उनके लायक नहीं, साहित्य संसार में पुरुषों को स्त्रियों कि जरूरत नहीं थी, यह तो महिलाएं ही है जो जबर्दस्ती अपनी लेखकीय महत्वाकांक्षा से ग्रस्त मंच की ऊँचाइयों तक लपकने लगी। कोई पारो थी, कोई सुनीता, जो अपनी बात कहना चाहती थी, मगर ठीक से कभी कह नहीं पाई।
            स्त्री लेखन पर यह आरोप लगाया जाता है कि यह सीमित यथार्थ को लेकर चलता है या चार दीवारियों के बीच ही घुमड़ता रहता है। यह बात सच है परंतु स्त्री के सीमित यथार्थ उसका अपना है, यहीं उसके अस्तित्व की  सामाजिक सांस्कृतिक सच्चाई है।
            राजी सेठ के अनुसार “यहाँ मूल प्रश्न लेखन के बीच के सीमित यथार्थ का न होकर स्त्री के अपने संसार, अपने परिवेश, अपनी स्थिति का है कि आखिर वह इतनी सीमित क्यों है और उतनी समाजोन्मुखी क्यों नहीं।
            “रोज़मर्रा कि ज़िंदगी, निजी घटनाओं का सटीक वर्णन जितना महिला लेखन में प्रस्तुत किया जा सकता है उतना पुरुष लेखन में नहीं। मगर पुरुष आलोचकों को स्त्री-लेखन की विषय-वस्तु बहुत ही सीमित लगती है। माना कि लेखकीय निखार अभ्यास और साधन पर आधारित है, मगर यह एक सवाल भी है कि क्या केवल अभ्यास करने से ही औरत प्रेमचन्द, अज्ञेय हो जाएगी? क्या वह वर्गीय द्वेष, उपेक्षा कि शिकार नहीं होगी?      
            वास्तव में इस समय स्त्री का पहला संकट अपनी अस्मिता को पाने का संकट है और जहां या जितना यह अहसास हाथ आया भी है वहाँ भी अस्वीकृति के दंश और प्रमाणित करने की चुनौती के साथ। लेखन में सक्रिय स्त्री चाहे सामाजिक स्तर पर पूरे स्त्रीत्व का प्रतिनिधित्व करती है, परंतु उपलब्धि के स्तर पर वह समान्य नारी की अपेक्षा अपनी अस्मिता के एहसास के ज्यादा निकट है। अत: अपेक्षाकृत आत्मविश्वास भी, इस एहसास का समर्थन पाने कि भूमिका तैयार करना उसके जीवन संघर्ष का ही भाग नहीं, उसके लेखन संघर्ष का भी भाग है। कहने कि आवश्यकता नहीं कि आज़ादी के बाद बदलते हुये परिदृश्य में स्त्री लेखन नें अपनी जो पहचान बनाई है, स्त्री विमर्श के मुद्दे प्रस्तुत किए है वह पूर्ववर्ती लेखन में नहीं उभर सके थे, अपनी पूरी अहमियत के साथ विमर्श के केंद्र मे आए।

संदर्भ ग्रंथ सूची
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