वर्तमान समाज में दलित स्त्री का दोहरा शोषण-अमित कुमार झा
वर्तमान समाज में दलित स्त्री का दोहरा शोषण
अमित कुमार झा
पूनम लखानी
महिला अध्ययन एवं विकास केंद्र
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
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-amitjha9648@gmail.com
प्रस्तावना - विश्व समाज इतिहास को विहंगम दृष्टि से अवलोकित करे तो हमें यह दृष्टिगोचर
होता है की आज भारतीय समाज परिवर्तन के जिस उत्तराधुनिक स्थिति में खड़ा है। वह एक
क्रमबद्ध सामाजिक परिवर्तन का परिणाम है। भारतीय समाज अपने विकास यात्रा में आज
आदिम अवस्था से उत्तराधुनिक अवस्था में आ पहुंचा है। यह उस अवश्यसंभावी
सामाजिक परिवर्तन का परिणाम है जिसे चाहकर भी कोई समाज नहीं रोक सकता है। वह इस
परिवर्तन के पास से अपने आप को अलग नहीं रख सकता है, क्योकि
परिवर्तन को लाने वाला कारक
.कोई एक नहीं होता है यह कमोबेश अनेकों कारकों से प्रेरित होता है। इस कारण
समाज किसी न किसी कारक के संपर्क में जरूर आता है जो उसे परिवर्तन के लिए प्रेरित
करता है।
सामाजिक
परिवर्तन की गति प्रत्येक समाज में कमोबेश भिन्न होता है। यह गति उस समाज के इस
स्थिति पर निर्भर करता है की वो समाज कितना खुला समाज है। जो समाज जितना खुला होता
है वो परिवर्तन की प्रक्रिया को जल्दी ग्राह्य करता है। उसमे परिवर्तन तीव्र गति
से होता है। इसके विपरीत जो समाज बंद समाज होता है वो परिवर्तन की प्रक्रिया को
जल्दी ग्राह्य नहीं करता है। उसमे परिवर्तन मंद गति से होता है। बंद समाज अपंने आप
को परिवर्तन की प्रक्रिया से यथा संभव दुरी बनाकर रखने की कोशिश करता है।
इस सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया
के तहत समाज में व्यापक परिवर्तन हुआ है। समाज विकास के अनेक चरणों से गुजरा है,
परन्तु विकास के इस यात्रा में महिला की स्थिति कमोबेश एक जैसी ही
रही है। वैदिक काल में उनके स्थिति में पराभव तीव्रता से हुआ परन्तु उसके बाद के
काल खण्डों में स्त्री की स्थिति वंचित एवं शोषित की होती गयी। जिस कारण वह समाज
में हाशिये पर आती गयी।
दलित स्त्री का शोषण - स्त्रियां हमारे समाज का अपरिहार्य अंग है। महिला एवं पुरुष के संयोग से ही एक संतुलित समाज का निर्माण हो सकता है। एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए यह आवश्यक है की समाज में एक पुरुष के व्यक्तित्व विकास होने के लिए जिस प्रकार की सुविधा प्रदान की जाती है ठीक उसी प्रकार की सुविधा भी स्त्रियों को प्रदान की जाये। जब समाज के इस अभिन्न अंग का विकास होगा। तब जाकर वह एक संतुलित,शोषण से मुक्त,समन्यवादी स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकेगा।
भारतीय
समाज का पुरुषप्रधान समाज होने के कारण इस समाज में
पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है। पुरुष हमेशा समाज में स्त्री को दोयम दर्जे में रखने का प्रयास किया है और
वह काफी हद तक इसमें सफल रहा है। उसके अधिकरों को सिमित कर उसके सर्वांगीण
विकास पर अंकुश लगाने का प्रयास किया है। उन पर अपने अधिकारों को जबरदस्ती थोपने
का प्रयास किया है और यह प्रक्रिया आज भी अनवरत रूप से जारी है।
हम यह भी देखते है की स्त्रियां अब अपने प्रति
होने वाले शोषण एवं उपेक्षित व्यवहार को अब चुप -चाप सहन
नहीं कर रही है बल्कि उसका विरोध भी करना प्रारम्भ कर दिया है जिसमे समाज के
बुध्दिजीवियों पुरुष ने भी उनका सहयोग किया है।इसी क्रम
में महिलाओं के अधिकारों से सशक्त करने के लिए बुद्धिजीवियों द्वारा नारीवादी आंदोलनों का जन्म हुआ जो आगे चलकर एक वैचारिकी
के रूप में धीरे -धीरे सम्पूर्ण वैश्विक पटल पर ख्याति
अर्जित की। जो खास तौर पर अपने अधिकारों के साथ उनकी मुक्ति की बात करते थे।
नारीवादी
विचारधारा किसी एक फ्रेम वर्क में बांधकर नहीं रही वह समय के साथ अपने
विचारों में व्यापक परिवर्तन के साथ नए
कलेवर में प्रस्तुत करती है जो विभिन्न काल खण्डों के मांग के अनुसार
निर्मित और परिमार्जित होती रही है।
१९६०-७० के दशक में नारीवाद का एक नया
रूप देखने को मिला जो उग्र नारीवाद का था जो आमूलचूल परिवर्तन
के द्वारा समाज में परिवर्तन कर महिलाओं की स्थिति में सुधार
करना चाहते थे। जिसमे मुख्य तौर पर उच्च वर्ग,मध्य
वर्ग और विश्वविद्यालयों से डिग्री पाने वाली महिलाऐं सहभागी बनी। इन आंदोलनों
के फलस्वरूप भारतीय समाज,में भी स्त्रियों की स्थिति में भी
परिवर्तन होने लगे। परन्तु जिन स्त्रियों की स्थिति कमोबेश
में परिवर्तन हुआ वह महिलाये एक सिमित दायरे की थी। ये स्त्रियां अभिजात्य वर्ग की थी,
जिसके परिवार का समाज में एक विशिष्ट स्थान था या तो वे सामान्य
वर्ग की नारियाँ थी। स्त्रियों की इन बदलती हुयी स्थिति का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करे तो हमें यह दृष्टिगोचर
होता है की विकास की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में में समाज का एक बड़ा तबका गायब था
उसे उपेक्षित कर दिया गया है,वह तबका दलित तबका की
स्त्रियों का है।
दलित समाज की नारियों की स्थिति आज भी उच्च वर्ग की नारियों की अपेक्षा अधिक दयनीय, वैमर्शिक एवं नारकीय है। एक ओर जहाँ उच्च वर्ग की नारियाँ भी दयनीय स्थिति में रह रही है, परन्तु दलित नारियों की स्थिति उनसे भी अधिक खराब है। आज दलित स्त्रियों के साथ हो रहे भेद भाव समाजशास्त्रियों एवं बुद्धिजीवियों के लिए चिंता एवं विमर्श का विषय बना हुआ है। धीरे -धीरे यह स्थिति गंभीर होती जा रही है।
हम
अपने आप को सभ्य और उत्तराधुनिक कह रहे है परन्तु यह कहाँ तक उचित है की
समाज के वर्ग विशेष के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाये। उस पर से महिलाओं पर जिसे
पूजनीय एवं देवी तुल्य माना गया है।
इसी सभ्य समाज में
दलित महिलाओं को नंगा कर घुमाया जाता है, खुले मैदान
में बलात्कार कर निर्मम हत्या कर दी जाती है। उनपर अनेक प्रकार के शोषण,उत्पीड़न और अन्याय किये जाते है। समाज
का दूसरा तबका उसे ख़ामोशी से देखता है। ऐसी स्थिति में दलित नारियों के स्थिति में कोई सुधार नहीं
होगा। यह सुधार तभी संभव है जब समाज का बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यक शोषित दलित
स्त्री को संरक्षण प्रदान करेगा। उसके विरूद्ध आवाज उठायेगा। इसके अतिरिक्त दलित
स्त्रियों को अपने शोषण के प्रति स्वयं भी आवाज उठाने होंगे।
वर्त्तमान
परिदृश्य में दलित समाज और दलित स्त्री को पृथक करके देखने की आवश्यकता हैं। समाज
का यह दलित तबका प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है वही उस समाज की स्त्रियां और
भी पिछड़ी हुयी है। इस कटु सत्य को हम
अनदेखा नहीं कर सकते है। उन्हें उच्च वर्ग के शोषणकारी व्यवहार के अतिरिक्त अपने
समाज और परिवार के उत्पीड़न का भी शिकार होना पड़ता है। इस अर्थ में दलित स्त्रियां दोहरे रूप से शोषित हो
रही है।
भारतीय
सामाजिक व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है जिसमे जातियों
का जंगल है। इस जाति
व्यवस्था से पूर्व वर्ण व्यवस्था विद्यमान थी जो अपने प्रारंभिक चरण में
अपेक्षाकृत परिवर्तनकारी, खुला हुआ एवं कम कठोर था। परन्तु
बदलते समय के साथ यह व्यवस्था अपरिवर्तनकारी,बंद एवं कठोर
होता गया। इस वर्ण व्यवस्था के अंतिम पायदान पर शूद्र वर्ण था जो दलित एवं
अस्पृश्य के नाम से जाना गया। इसे समाज से बहिष्कृत कर इसके स्थान को समाज से बाहर रखा गया। यह वर्ण व्यवस्था का
आखिरी वर्ण था। जिसका कम मुख्यत: समाज के अन्य वर्णो की सेवा करना था।
समाज
का यह तबका आर्थिक रूप से सबसे ज्यादा शोषित हुआ। दलित समाज में महिला एवं पुरुष
एक साथ काम करते थे समाज का यह तबका जहाँ गुलामों की भांति काम करता था। यह बेगार श्रम भी करता था। वही
इन सब कामों में अधिकांश काम महिलायें करती थी। वह पुरुषों के साथ कृषि
क्षेत्र में अधिक कामों को करती थी। वह पशुपालन के कामो में पुरुषों को
सहयोग प्रदान करती थी।दलित स्त्रियां उच्च तबके के घरेलु कामो को भी किया करती है।
जिसके इनके दो वक्त की रोटी का व्यवस्था बड़ी मुश्किल से हो पता था। ये स्त्रियां महानगरों में पुरुषों के साथ धोबी,सफाई
कर्मचारी का काम कर के धन अर्जित करती है। परन्तु इन धनो पर भी पुरुषों का ही
अधिकार होता था।
यह
महानगरों में गन्दगी से अपने दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाती है। दलित वर्ग के
परिवार में पुरुष अधिकांशत शराब,जुआ, वेश्यागमन
जैसे अन्य लतों में फॅसे होते है जिसके कारण वे आर्थिक रूप से घर चलने में अपनी
सक्रीय भूमिका नहीं निभा पाते है। जिस कारण दलित समाज में स्त्रियां ही अपनी परिवार की सम्पूर्ण दायित्त्व का निर्वाह स्वयं करती
है।
परिवार
में पुरुषसत्तावादी व्यवस्था होने के कारण पुरुष अपनी अनावश्यक लतों को पुरा करने के लिए स्त्रियों से पैसा मांगता और न देने पर वह पुरुष उसे प्रताड़ित करता है। जहा
समाज में स्त्रियां समाज में अपने दलित एवं स्त्री
होने का दंश तो झेलती है ही वही यह परिवार में में भी स्त्री होने का दंश झेलती है।
विगत कुछ समय से
देखे तो हम महिलओं के साथ हो रही अनैतिक घटना
में तीव्र वृद्धि देख रहे है, विशेष तौर पर दलित स्त्री के
साथ हिंसा में और भी वृद्धि
देखने को मिलता है। आज भी दलित स्त्री के जिस्म पर उनका
अधिकार नहीं है। आज भी उच्च वर्ग द्वारा दलित नारियों को खरीद कर उसका जब चाहे जैसा
वैसा भोग करने का सिलसिला रुका
नहीं है। दलित पुरुष उसके विरूद्ध आवाज उठाने की कोशिश भी करते है तो उनके साथ
उन्हें भी प्रताड़ित किया जाता है। दलित
स्त्रियों में बलात्कार एवं हत्या की घटना में लगातार
वृद्धि होती जा रही है।
दलित परिवार में स्त्रियों का जितना अपमान होता है उतना हम कल्पना भी नहीं कर
सकते है। वह एक दुधारू गाय के सामान होती है जिसे एक खूंटी से बांधकर उसका दोहन किया जाता है और उसे मारा भी जाता है। उसके भावनाओं
का कोई भी सम्मान नहीं होता है। वह अपने परिवार और समाज में अपमानित होने की आदि हो चुकी रहती है। उसे न चाहते हुए भी काम पर जाने के लिये दबाब बनाया जाता है। काम पर न जाने
पर उसे मारा
-पीटा जाता है। वेतन मिलने पर भी उस पर उसका अधिकार
नहीं रहता है। वह अपने
ही परिवार में अपाहिज व उपेक्षित होकर
जिंदगी व्यतीत करती है।
एक दलित एवं सामान्य स्त्री के शोषण को एक अलग दृष्टि से देखने
की कोशिश करे तो हमें यह दिखाई देता है है की जहाँ सामान्य वर्ग के स्त्री का शोषण
वर्ग एवं लैंगिक स्तर पर होता है परन्तु एक दलित स्त्री
का शोषण वर्ग,लैंगिक एवं जाति स्तर पर भी होता है।जिस कारण में
सामान्य स्त्री के अपेक्षा और भी ज्यादा शोषण होता है। वो सामान्य स्त्री की तुलना
में और भी दोयम स्थिति
में जी रही है। अगर दलित स्त्रियां
पढ़ -लिखकर सशक्त होने का प्रयास करती है तब
भी उसे सामाजिक उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। वह जिस स्थान पर कार्य करती है वह उनका दोहरा शोषण
होता है। जहाँ एक और उसका स्त्री होने के कारण शोषण होता है वही दूसरी और उसका शोषण दलित होने के कारण होती है।
निष्कर्ष - भारत में विगत कुछ वर्षों से लगातार स्त्री के स्थिति में सुधार के लिये
प्रयास किया जा रहा है। भारत में जहाँ एक और नारी वंचित एवं शोषित वर्ग तो है ही परन्तु वो न्यायिक
रूप से से कही ज्यादा
वंचित है। उनके साथ लगातार हो रहे अनैतिक व्यवहार की न्यायिक प्रक्रिया से से भी दलित स्त्रियां
अपने आप को वंचित पाती है। परन्तु इस स्थिति में परिवर्तन
लाना है तो इस समाज में
जो पुरुषसत्तावादी सोच
है उसे कही न कही कम करने की जरुरत है। स्त्री को उसके यथोचित सम्मान करने की कोशिश करे तभी शोषण कम होगा। इसके इतर बाल्यकाल से ही नयी पीढ़ियों को उचित समाजीकरण के माध्यम से ऐसे शिक्षित
करे की वो स्त्रियों के प्रति सम्मान का नजरिया रख सके। उसे अपने समकक्ष मानकर उसे विकास में सहायक बने। जाति
व्यवस्था के पास को शिथिल करने की और भी आवश्यकता है जिससे दलित स्त्री का शोषण ना हो पाए और
एक शोषण मुक्त खुशहाल
समाज का निर्माण हो सके।
सन्दर्भ
सूची -
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