अभिशप्ता
मैं कन्या
अभिशप्ता
बुझी बुझी अतृप्ता
जब थी अजन्मी
तभी से एक दुविधा
मन में पनपी
क्या यही मेरी नियति
कि मैं चाहे भ्रूण हूं
बालिका या तरुण रहूँ
मेरे पीछे सदा होंगे
हत्यारे दैत्य
जो प्रयास करेंगे
कभी गर्भ में मारने का
बच गयी तो फेंक देंगे घूरे पर,
या फिर मासू्म बचपन को
पैशाचिक वृति के
विक्षिप्त नराधम
घृणित विकर्म से
कर देंगें ऐसे समाप्त
कि काँप उठेगी धरा ,
मैं शापित,
अजन्मी थी तभी से
भक्ष्य हूं
मनो दुष्ट ,हिंसक
मनोरोगी शिकारियों का
लक्ष्य हूं,
मैं तरूणी
नित्य जब बच आती हूं
नराधमों के चंगुल से
प्रभु को धन्यवाद देती हूं
उस निरापद दिवस के लिये ,
मैं विवाहिता
भयाक्रांता
गुजरती हूं नित्य
अग्नि परीक्षा से
कब तक बचूंगी दाह से
दुर्जनों की आह से
दहेज की चाह से
कामुक निगाह से
मेरा जीवन
किश्तों मे मरण
मैं "तथाकथित देवी "
संघर्षरत सदैव
आत्म रक्षा में !!
-ओंम प्रकाश नौटियाल
(पूर्व प्रकाशित-सर्वाधिकार सुरक्षित )
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