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उत्तरमध्यकालीन प्रमुख निर्गुण सन्त सम्प्रदाय: सामान्य परिचय- डॉ॰अनुराधा शर्मा

  
उत्तरमध्यकालीन प्रमुख निर्गुण सन्त सम्प्रदाय: सामान्य परिचय
डॉ॰अनुराधा शर्मा                                                                                                                                         
सहायक प्रवक्ता, स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
डी॰ए॰वी॰ महाविद्यालय अमृतसर
                                                                                              
           


हिन्दी सोहित्येतिहास का मध्यकाल अत्यंत बृहद् ,एवं सार्वांगिक रूप से अति महत्वपूर्ण काल है। इसकी सीमा-निर्धारण सम्वत् 1375 से सम्वत् 1900 तक किया गया है। इस विस्तृत काल के अध्ययन की सुविधा हेतु साहित्येतिहासकारों ने इसे दो भागों में विभक्त किया है। पूर्व मध्यकाल (सम्वत् 1375 से 1700 तक) जिसे भक्तिकालनाम से अभिहित किया गया है तथा उत्तर मध्यकाल (सं० 1700 से 1900) जिसे रीतिकालकाल नाम दिया है। इन नामकरण को काल विशेष की सर्वप्रमुख प्रवृत्ति के आधार पर चुना गया है। इन दोनों कालों में मात्र भक्ति‘ ,वं रीतिही सर्वत्र व्याप्त नहीं थी अपितु इन दोनों कालों में रामकाव्य,कृष्णकाव्य, नीतिकाव्य, रीतिकाव्य, वीरकाव्य ,एवं संतकाव्य की धाराएँ प्रवाहित होती रही हैं। उत्तरमध्यकाल में यद्यपि रस छन्द, अलंकार, नायक-नायिका भेद, गुण-दोष, शब्द-शक्तियों आदि का ही निरूपण प्रमुख रूप से किया गया है तद्यपि यह युग संतमत के विस्तार का स्वर्ण युगकहा जा सकता है, यदि सूक्ष्मतर दृष्टि से इस काल का अध्ययन किया जाए, तो इस काल में संतमत के विस्तार के साथ साम्प्रदायिक मनोवृत्ति का प्राधान्य भी दृष्टिगोचर होता है | जिस काल में 40 से ऊपर संत सम्प्रदाय दृष्टिगत होते हों उसे केवल रीतिकाल कहना समीचीन नहीं इसलिए, मैं इस काल को उत्तरमध्यकाल कहना ही उचित समझती हूँ।
            भक्ति सदैव सगुण एवं निर्गुण दोनों को साथ लेकर चली है, सन्तों ने प्रायः निर्गुण भक्ति-पथ का ही अनुगमन किया है,निर्गुण से अभिप्राय है जो गुणों से विहीन है यह गुण हैं-सत्व, रज् तम। निर्गुण भक्ति से परब्रह्म का निराकार रूप ही भक्ति का आलम्बन बनता है। जबकि सगुण भक्ति में निराकार परब्रह्म को भक्त सगुण रूप देकर उसकी अर्चना करते हैं उसका ब्रह्म गुणों से युक्त हो कर अवतार धारण करता है,उनका यही अवतारी पुरुष सगुण भक्ति का  आधार  बनता है। निर्गुण  विचारधारा के अनुसार प्रत्येक प्राणी बुद्धि तत्त्व, मनस तत्त्व ,एवं आत्म तत्त्व स युक्त होता है परन्तु यह सब तत्त्व मूलतः निराकार ही हैं फिर भी देहधारी कहकर मानव को साकार ही कहा जाता है, अतः निर्गुण संतों का ब्रह्म साकार भी है और निराकार भी। हिन्दी साहित्य में इस निर्गुण  काव्यधारा का उद्भव आकस्मिक नहीं हुआ अपितु इसकी ,एक सुदीर्ध परम्परा रही है। उत्तर मध्यकाल में संतों ने निर्गुण एवं सगुण  दोनों रूपों में ब्रह्म को अभिव्यंजित किया है, ज्ञान-योग-भक्ति की त्रिवेणी को इन निर्गुण  सन्तों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से संवर्धित कर सुप्त जनमानस को जागृत किया है। इस काल में काव्य रूप की दृष्टि से रीतिबद्ध, ‘रीतिसिद्ध एवं रीतिमुक्त तीनों वर्गों का प्रयोग देखा जा सकता है। परन्तु सन्तों ने काव्य का प्रणयन साहित्य में अपनी प्रतिष्ठापना हेतु नहीं किया था। सन्तों ने न तो काव्य सम्बंधी तत्त्वों का अध्ययन कर उन्हें रचा अपितु काव्य अत्यंत सहज रूप से प्रणीत किया, संतों ने न अलंकारों का, न छंद का, न ही काव्य रूप का ध्यान रखा। अतः संतों के काव्य में बन्धन विहीन रीतिमुक्त रूप ही दृष्टिगोचर होता है। संतों ने अपनी वाणी को किसी कलाकृति के रूप में सजाने का प्रयास नहीं किया क्योंकि संत किसी भी प्रकार के बाह्याडम्बरों में विश्वास नहीं रखते थे। संत काव्य में सौन्दर्य का अभाव होते हुए भी उसके सहज रूप में ए,क ऐन्द्रिजालिक मोहपाश है जिसमें बंधकर  जन मानस का अविकल हृदय, संतृप्ति एवं तोश का अनुभव करता रहा है।
विभिन्न संत पंथ एवं सम्प्रदायों का परिचय:
            पूर्वमध्यकाल की निर्गुण शाखा के संत सम्प्रदायों का उत्तरोत्तर मध्यकाल में विकास हुआ जिसके अंतर्गत लगभग  45 संत सम्प्रदाय एवं  उपसम्प्रदाय विकसित हुए , जिनमें से प्रमुख सम्प्रदायों का परिचय इस प्रकार है:
नानक एवं सिक्ख सम्प्रदाय:
            समस्त सन्त सम्प्रदाय अथवा पन्थों में नानक द्वारा स्थापित परवर्ती नौ गुरुओं द्वारा पुष्ट नानक पंथ, जो सिख मत के रूप में प्रसिद्ध हुआ, ही ऐसा पंथ है जो संगठित स्वरूप में विकसित हुआ, इस पंथ के अंतर्गत सिख धर्म का अत्याधिक उत्कर्ष उजागर हुआ। इस पंथ का मुख्य केन्द्र पंजाब रहा है, जो आक्रान्ताओं के कारण  सदैव विचलित होता रहा है, कदाचित यही कारण  है कि यहाँ इस पंथ का इतना अधिक उत्कर्ष हुआ। इस पंथ के प्रवर्तक, सिखों के आदिगुरु, गुरु नानकदेव  थे। इनका आविर्भाव कबीर की मृत्यु के इक्कीस वर्ष पश्चात् सं० 1526 में लाहौर के समीप तलवंडी नामक गाँव में हुआ। सं० 1595 में इनका देहावसान हुआ।1 बाल्यकाल से ही नानक अध्यात्मिक प्रवृत्ति वाले थे, इन्हें पंजाबी संस्कृत, हिंदी ,वं फारसी का अच्छा ज्ञान था। नानक जी ने बहुत से पदों का प्रणयन किया इनके द्वारा प्रणीत रचनाओं में जपुजीअत्यन्त प्रसिद्ध है। इनकी वाणी  श्री गुरुग्रंथसाहिबमें संग्रहित हैं, गुरु नानकजी ने अपनी वाणी के माध्यम से सुप्त प्रायः मानव जाति को जाग्रति प्रदान करने का कार्य किया| उन्हों ने मानव सेवा का सर्वोत्तम सिद्धान्त स्थापित किया, मानव धर्म के माध्यम से समाज में समता उनकी सबसे बड़ी देन है।
            गुरु  नानक द्वारा प्रवर्त सम्प्रदाय को गुरु गोबिन्द सिंह ने सं०1756 में खालसा पंथ (सम्प्रदाय) का रूप दे दिया।2 गुरु नानक देव के पुत्र श्री चन्द ने उदासी नामक सम्प्रदाय को प्रवर्त किया, इस सम्प्रदाय की चार प्रधान शाखाऐं हैं जो धुआं कहलाती हैं - फुलासाहिब की शाखा, बाबा हसन की शाखा, अलमस्त साहिब की शाखा, गोविंद  साहिब की शाखा। इस पंथ में निर्गुण एवं सगुण-सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है।3 सिखों की शस्त्रधारी एवं  विद्याधारी प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए गोबिन्द सिंह ने श्स्त्रधारी को खालसातथा विद्याधारी को निरमल भेषकी संज्ञा दी। मोरवपंथगुरु गोबिन्द सिंह को निर्मला सम्प्रदाय का प्रवर्तक मानता है। खालसा पंथ और निर्मल सम्प्रदाय में अन्तर इतना ही है कि खालसा के सिख गृहस्थ भेष हैं और
निर्मल सिखों के लिए  विवाह का निषेध है।4 एक अन्य मतानुसार गुरु गोबिन्द सिंह की आज्ञा से वीरसिंह ने निर्मला सम्प्रदाय की स्थापना की।5 राम सिंह नामक सिख ने नामधारी सम्प्रदायकी स्थापना की थी। इस सम्प्रदाय के अनुयायी कूकानाम से भी प्रसिद्ध हैं। इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक रामसिंह को रंगून में निर्वासित किया जाना प्रसिद्ध है, क्योंकि उनके अनुयायियों ने बहुत से कसाइयों की हत्या कर दी थी। सूचानामक ब्राह्मण अथवा सुथराशाह ने सुथराशाही सम्प्रदाय की स्थापना की, इन्हें गुरु  हरगोविन्द तथा गुरु अर्जुन देव जी से सम्बन्धित माना जाता है। इसी प्रकार भाई कन्हैया द्वारा सेवा पन्थी सम्प्रदाय प्रवर्त हुआ है। सिख मतांतर्गत अकाली सम्प्रदाय का भी नाम आता है। खालसा सम्प्रदाय की उत्पति से पूर्व अर्थात् सं० 1747 के लगभग  मानसिंह के नायकत्व में अकाली सम्प्रदाय का आविर्भाव हुआ, इस सम्प्रदाय ने अमृतसर में अकाल तख्त को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्रदान की है।6 इन विविध सिख सम्प्रदायों के अतिरिक्त गुलाब दास द्वारा संचालित गुलाबदासी7 भाई देयाल दास द्वारा प्रवृत्त निरंकारी8 सम्प्रदाय ,एवं पृथीचन्द द्वारा मीना पन्थी पंथ‘, ‘हन्दलनामक जाट द्वारा हन्दल-मतगुरु हरराय के पुत्र रामराय द्वारा रामैया पंथ एवं भगतपन्थी सम्प्रदाय के नाम उल्लेखनीय हैं।9
दादू पन्थ:
            दादू पन्थ के प्रवर्तक दादूदयाल का जन्म सं० 1601 तथा देहावसान ज्येष्ठ कृष्ण 8, सं० 1660 में हुआ।10 इनके पन्थ निर्माण का उद्देश्य था कि प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति आध्यात्मिक भाव रखे तथा सात्त्विक जीवन व्यतीत करे, सब में सेवा,सहिष्णुता, आत्मत्याग, परमार्थ आदि लोक कल्याणकारी भाव जागृत हों,जिसके आधार पर व्यक्ति इहलौकिक एवं पारलौकिक भविष्य सुधार सके। यह पंथ ब्रह्म सम्प्रदायके नाम से भी जाना जाता था जो आगे चलकर परब्रह्मसम्प्रदाय भी कहलाया।11 परन्तु इस का प्रसिद्ध नाम दादू पंथही है, दादूदयाल ने अपने जीवनकाल में कई यात्राएं की-सीकरी, आमेर, द्यौंसा, मारवाड़, बीकानेर, कल्याणपुर आदि। इन स्थानों पर इनके अनुयायियों की गिनती बढ़ती रही, इसीलिए, इनके शिष्यों की वास्तविक संख्या कितनी थी यह निश्चित रूप में नहीं कहा जा सकता, परन्तु इनके 52 शिष्य प्रसिद्ध हुए, हैं जिनमें भी रज्जब, छोटेसुन्दरदास, गरीबदास, रैदास निरंजनी प्राणदास, जगजीवनदास, बजिंदजी, बनवारीलाल, मोहनदास, जनगोपाल, सन्तदास, जगन्नाथदास, खेमदास, चम्पाराम, बड़े सुन्दरदास, बकना माधोदास आदि अत्यंत प्रसिद्ध हुए, इनमें भी रज्जब एवं छोटे सुन्दर दास दादू के आदर्श शिष्य कहे जा सकते हैं।12 दादू पंथ के अंतर्गत पाँच प्रकार के साधु कहे गये हैं जो ब्रह्मचारी एवं सद्गृहस्थ होते हैं: 1- खालसाजिसमें अनेक साधु उपासना अध्यापन और शिक्षण में निरत रहते थे। 2- नाग साधुसाधु सैनिकों का कार्य करते थे। 3- उत्तराड़ी साधु मंडली में विद्वान होते थे जो साधुओं को पढ़ाते तथा वैद्य का कार्य करते थे। उपरोक्त तीनों साधुओं को जीविका ग्रहण  करने का अधिकार था। 4- चौथे प्रकार के साधु विरक्त थे वे न जीविकोपार्जंन न शिक्षण का कार्य करते थे। 5- पाँचवें प्रकार के साधु निरन्तर भस्म लपेटे तपस्या में निरत रहते थे।13- इस पंथ में, दादू द्वारों में, केवल दादू पंथी साधुओं द्वारा हाथ की लिखी बानी की अर्चना की जाती है।

बावरी पंथ:
            बावरी पंथ का प्रवर्तन किसने किया इसका उत्तर निश्चित रूप से नहीं दिया जा सकता। इस पंथ के आदि प्रवर्तक के रूप में रामानंद का नाम लिया जाता है, परन्तु इन्हें प्रवर्तक नहीं माना जा सकता, क्योंकि स्वामी रामानंद के सिद्धांतों एवं उपदेशों को दयानंद तथा मायानन्द ने ग्रहण किया और उत्तराधिकार में यही उपदेश प्राप्त कर बावरी साहिबानामक सुयोग्य महिला ने बावरी पंथका प्रवर्तन किया। बावरी साहिबा अकबर के समकालीन थीं अनुमानधार से इनका समय संवत् 1566-1662 के लगभग  बताया गया है और इन्हें दादूदयाल वा हरिदास निरंजनी के समकालीन ठहराया गया है।14 इनकी शिष्य परम्परा में अत्यंत प्रसिद्धी प्राप्त करने वाले बीरु साहब का नाम आता है, इस पंथ की आचार्य गद्धी गाजीपुर ज़िला के अंतर्गत मुड़कुड़ा नामक ग्राम में स्थित है। इसकी अन्य शाखाओं में चीट बड़ा गाँव, अयोध्या के उटला, अहिरौला तथा मोकलपुर एवं बरौली प्रमुख हैं।15
            इस पंथ का वंश वृक्ष अत्यंत समृद्ध है और इस पंथ का हिन्दी संत साहित्य में अमूल्य योगदान है। इसमें यारीसाहब, उनके पाँच शिष्य, केसोदास, हस्तमुहम्मद, सूफी शाह, शेखनशाह, बूलासाहिब के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके पश्चात् बूला साहिब के दो शिष्य जगजीवन साहब तथा गुलाल साहिब का नाम आता है। गुलाल साहिब के प्रसिद्ध  शिष्यों में भीखा साहिब, ,वं हरलाल साहिब प्रमुख हैं। इसके पश्चात भीखा साहिब के शिष्य गोविन्द साहिब तथा गोविन्द साहिब के शिष्य पलटू साहिब अत्यंत प्रसिद्ध रहे।
मलूक पंथ:
            इस पंथ के प्रवर्तक मलूकदास कहे जाते हैं, मलूक दास नाम से ,एकाधिक संतों का उल्लेख विद्वानों ने किया है, डॉ॰श्यामसुन्दर दास ने कबीर ग्रंथावली की भूमिका में कबीरपंथी मलूकदास का वर्णन किया है।16 मथुरादास की मलूक परिचईके अनुसार प्रयाग  के निकट कड़ा नामक कस्बे में मलूकदास का आविर्भाव वैशाख कृष्ण पंचमी सं० 1631 में और तिरोभाव सं० 1739 में हुआ।17 इनके पिता सुन्दरदास खत्री थे। बाल्यकाल से ही मलूक भगवद् भजनी थे, परहित चिन्तन की उदार चित्तवृत्ति के स्वामी थे। इनका विवाह भी हुआ था और एक पुत्री भी हुई थी, परन्तु पत्नी और पुत्री दोनों की मृत्यु हो गई थी। मलूकदास सांसारिक अनुभव से युक्त प्रसिद्ध महात्मा थे, आपकी प्रसिद्धी से प्रभावित होकर ही गुरु तेगबहादुर एवं औरंगजेब ने इनसे भेंटकर इन्हें सम्मानित किया। आपके अनुयायियों की संख्या भी कम नहीं थी, पूर्व में पुरी तथा पटना से लेकर पश्चिम की ओर काबुल तथा मुल्तान तक इनके अनुयायी देखे जा सकते हैं। इनकी गद्दी एवं मत, प्रयाग, लखनऊ, मुल्तान, आंध्र, काबुल, जयपुर, गुजरात, वृंदावन, पटना, नेपाल आदि क्षेत्रों में स्थित हैं। इनके शिष्यों की सही संख्या तो ज्ञात नहीं है परन्तु प्रमुख शिष्यों में रामसनेही,गोमतीदास, सुथरादास, पूरनदास, दयालदास, मीरमाधव मोहन दास, हृदयराम आदि उल्लेखनीय हैं। इनके पश्चात् शिष्य वंशावली में कृष्णस्नेही, कान्हग्वाल, ठाकुरदास,गोपालदास, कुंजबिहारीदास, रामसेवक, शिवप्रसाद, गंगाप्रसाद, अयोध्याप्रसाद18 आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके अनंतर गद्दी समाप्त हो गई।
सत्तनामी सम्प्रदाय:
            सत्तनामी सम्प्रदाय, भाव सत्यनाम या ईश्वर से परिचय कराने वाला सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय के मूल प्रवर्तक के विषय में निश्चित विवरण का अब तक अभाव है, विद्वानो द्वारा इनका सम्बंध साध-सम्प्रदायसे जोड़ा गया है तो कहीं इसके प्रवर्तक के रूप में दादू पंथी जगजीवन दास का नाम लिया जाता है। विद्वानो द्वारा सत्तनामी विद्रोह की चर्चा की गई है, जिसमें भाग लेने वाले अधिकतर ग्रामीण कृषक थे, ये सत्तनामी लोग थे, इन लोगों का स्वभाव उत्तम था। विद्रोह के समय ये सत्तनामी नारनौल के समीप क्षेत्र में थे, औरंगजेब ने इनका समूल विनाश करने का प्रयत्न किया। नारनौल क्षेत्र को सत्तनामियों की नारनौल वाली शाखा माना जाता है। इस सम्प्रदाय का पुनःसंगठन उत्तर प्रदेश में जगजीवन साहब द्वारा हुआ, इनका बावरी पंथ के बुला साहिब तथा गोविन्द साहिब से प्रभावित होना चर्चित रहा है लोगों की ईर्ष्या भावना को देखते हुए जगजीवन साहब कोटावा गए |यहीं उनका देहावसान हुआ |19 जगजीवन साहब के चार प्रधान शिष्य दूलनदास, गोसाईदास, देवीदास,एवं खेमदास, चारपावा नाम से प्रसिद्ध हुए। दूलनदास के शिष्य सिद्धदास हुए  इनके पश्चात् इनके शिष्य पहलवान दास हुए हैं, तीसरी शाखा, छत्तीसगढ़ी के प्रवर्तक घासीदास कहे जाते हैं, इनके उत्तराधिकारी के रूप में उन्हीं का बेटा बालकदास सामने आता है और इनके बाद अज्जबदास का नाम आता है।20
प्रणामी-सम्प्रदाय:
            प्रणामीया धामीसम्प्रदाय के प्रवर्तक सन्त प्राणनाथ कहे जाते हैं। संत प्राणनाथ ने समन्वय के आधार पर इस पन्थ का प्रवर्तन किया। इन्होंने समकालीन धर्म का पूर्ण रूप से अनुशीलन किया। इसके अतिरिक्त इन्हें अरबी, फारसी, हिन्दी ,वं संस्कृत का भी अच्छा ज्ञान था, वेदों, कुरान, ईसाइयों की तथा यहूदियों की धार्मिक पुस्तकों का भी इन्होंने अध्ययन किया था। इसी कारण  इनके विचार अत्यंत परिष्कृत हुए , इनके समन्वय का उदाहरण इनके द्वारा प्रणीत कुलजम स्वरूपनामक बृहद् ग्रन्थ है जिसका एक नाम तारतम्यसागरभी है। इस ग्ररन्थ में विभिन्न भाषाओं के साथ-साथ ईसाइयों यहूदियों आदि के धार्मिक सिद्धान्त भी मिलते हैं। इस ग्रंथ को सिखों के गुरु ग्रन्थ साहिब की तरह धामी सम्प्रदाय में भी पूजा जाता है। इस पंथ का प्रमुख केन्द्र पन्ना नगर का धामी मन्दिर है।21 इस पंथ का एक अन्य नाम महाराज पंथभी है। इस पंथ के पूर्व नामों में मेराजपन्थ खिजड़ा एवं  चकला कहा जाते हैं, परन्तु धामीएवं प्रणामी (प्राणनाथी) सम्प्रदाय नामकरण ही सर्वप्रसिद्ध है। इस सम्प्रदाय के अनुयायी साचीभाईया भाईकहलाते हैं।22
रामस्नेही सम्प्रदाय:
            रामस्नेहीशब्द का अर्थ राम से स्नेह करने वाला या राम का स्नहे पात्र है। इस पंथ का नाम रामस्नेही कदाचित् इसलि, रखा गया क्योंकि इसके अनुयायी राम नाम की ही उपासना करते थे, और अपने राम नाम से स्नेह के कारण अनुयायियों की परम्परा रामस्नेही कहलायी। इस सम्प्रदाय का उद्भव विक्रम की 18वीं शताब्दी में राजस्थान में हुआ, रामस्नेही सम्प्रदाय के आद्याचार्य दरियासाहब (मारवाड़ वाले) ही कहे जा सकते हैं क्योंकि इनका जन्म सं० 1733 की भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को मारवाड़ के जैतारण नामक ग्राम में हुआ, आप रैण शाखा के प्रवर्तक  थे। दूसरी तरफ सिंहथल खेड़ापा शाखा के प्रवर्तक  हरि रामदास हैं, जिनका जन्म सं० 1750 से 1755 के लगभग  अनुमानित किया जाता है तथा तीसरी शाखा शाहपुराके प्रवर्तक  रामचरण कहे जाते हैं इनका जन्म सं० 1776 में हुआ।23 अतः जन्म-काल को देखते हुए  दरिया साहब (मारवाड़ वाले) ही इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक कहे जा सकते हैं। संत दरिया साहब तथा हरिरामदास की शिष्य परम्परा से सम्बन्धित विवरण  प्राप्त नहीं होता। परन्तु इतना अवश्य है कि इनके अनेक शिष्य रहे होंगे। संत रामचरण के 225 शिष्य कहे जाते हैं जिनमें 12 प्रमुख हैं - बल्लभराम, रामसेवक, रामप्रताप, चेतनदास, कान्हड़ दास,द्वारकादास, भगवानदास, राजन, देवदास, मुरलीदास, तुलसीदास ,एवं नवलराम।24 इस सम्प्रदाय में निराकारोपासना की प्रतिष्ठा मुख्य रूप से की गई है। इनके उपासना गृह सिख गुरुद्वारों  की भांति सूने होते हैं तथा मध्य भाग में सम्प्रदाय प्रमुख की वाणी सुसज्जित रूप में विराजमान रहती है। पूजा गृहों को रामद्वारा कहा जाता है। रामस्नेहीसमन्वय की तीनों शाखाओं के अलग-अलग रामद्वारे प्रसिद्ध हैं। रैणाशाखा के द्वितीय आचार्य हरखाराम हुए  तृतीय आचार्य रामकरण, चतुर्थ आचार्य भगवद्दास तत्पश्चात् पांचवें आचार्य रामगोपाल बने तथा उसके पश्चात् क्षमाराम। सिंहथल, खेड़ापा शाखा के द्वितीय आचार्य हरिरामदास के पुत्र बिहारीदास नियुक्त हुए परन्तु वे शीघ्र ही परमधाम सिधार गए, उन के अनंतर उनका पुत्र हरदेवदास पीठाचार्य नियुक्त हुए फिर खेड़ापा से हरिरामदास के शिष्य रामदास ने रामस्नेही शाखा स्थापित की, इस शाखा के दूसरे आचार्य के रूप में रामदास ने अपने पुत्र दयालु राम को खेड़ापा गद्दी का महन्त बनाया, उनके पश्चात् र्पूण दास इस महंत गद्दी पर बैठकर परमधाम पधारे । शाहपुरा शाखा के द्वितीय आचार्य रामजन वीतराग हुए इसके पश्चात् गद्दी आचार्य का चुनाव जनतंत्र पद्धति से होने लगा। राजस्थान के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद बरेली, मेरठ, बम्बई, दिल्ली तक इस सम्प्रदाय का क्षेत्र विस्तृत है।25                                                         दरियादासी सम्प्रदाय:
            दरिया नाम से दो संत हुए हैं। एक दरिया साहब बिहार में उत्पन्न हुए अतः बिहार वाले कहलाये और दूसरे दरिया साहब मारवाड़ में उत्पन्न हुए इसलिए मारवाड़ वाले कहलाये। दरियादासीसम्प्रदाय स्वतंत्र रूप से दरियासाहब (बिहार वाले) द्वारा प्रवृत्त किया गया था। इनका जन्म कार्तिक सुदी 15 सं० 1691 में हुआ तथा उन्होंने सं० 1837 में अपना शरीर त्याग दिया।26 संत दरिया को पंद्रहवें वर्ष में वैराग्य उत्पन्न हुआ तथा तीस वर्ष की आयु में इन्होंने उपदेशों का कार्य करना आरम्भ कर दिया। इनके कई शिष्य हुए जिनमें दलदास सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए। संत दरिया ने पंथ प्रचार हेतु काशी मगहर बाईसी ज़िला गाजीपुर, हरदी तथा लहठान् ज़िला शाहाबाद जाकर उपदेश दिये, परन्तु इनकी प्रधान गद्दी धरकन्धे में है। इसके अतिरिक्त तेलपा (सारन) मिर्जापुर (सारन) तथा मनुआं (मुजफ्फरपुर) में इनकी अन्य गद्दी स्थापित होना कहा जाता है।27 दरियागद्दी दो शाखाओं में विभक्त हैं 1- बिन्दु 2- नाद। प्रथम में दरिया जी के परिवारी तथा द्वितीय में उनके शिष्य आते हैं। इस पंथ को मानने वालों के दो भेष हैं-1-साधु 2-गृहस्थ। इस पंथ के लोग  प्रायः तंबाकू पिया करते हैं। गृहस्थ टोपी पहनते हैं। इनका मूल मंत्र  वेबाहाकहलाता है।28
गरीबदासी पंथ:
            इस पंथ के प्रवर्तक सन्त गरीबदास कहे जाते हैं। इनका जन्म रोहतक ज़िले के छुड़ानी गाँव में सं०1774 में एक जाट परिवार में हुआ।29 इस पंथ का प्रचार दिल्ली, अलवार, नारनोल, बिजेसर तथा रोहतक क्षेत्र  तक हुआ है। गरीबदास आजीवन गृहस्थ रहे, अपने जीवनकाल में गरीबदास ने एक मेला लगाया था जो छुड़ानी गाँव में आज तक लगता है, इस अवसर पर इस पंथ के अनुयायी एकत्रित होकर गरीबदास के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हैं। इनके देहावसान के उपरांत इनके गुरुमुख चेले सलोत जी गद्दी पर बैठे, रोहतक जिले में एक गाँव के साहूकार सन्तोषदास और उनकी पत्नी,गरीब दास के पहले अनुयायी थे। इनकी छठी पीढ़ी में संत दयालुदास हुए  जिन्होंने पंथ का पुनर्गठन किया।30 इस पंथ की परम्परा में जैतराम, तुरतीराम, दानीराम, शीलवन्त राम, शिवदयाल, रामकृष्णदास,  गंगा  सागर आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस पंथ के कई डेरे हैं - रोहतक जिले में करोधा, काणौंदा, छारा, घरावर ,असौदा, सांपला, माड़ौठी गाँव में तथा अलवर में गंगा मन्दिर नाम से भगवानदास र्पूणदास का डेरा तथा रामपुर में गरीबदासी आश्रम है।31
धरनीश्वरी सम्प्रदाय:
            बाबा धरनीदास के नाम पर धरनीश्वरी सम्प्रदाय प्रवर्त हुआ, इनके अनुयायियों ने पंथ प्रचार हेतु कोई प्रयास नहीं किया। इसी कारण इस सम्प्रदाय को अधिक प्रसिद्धि प्राप्त नहीं हुई। धरनीदास के आविर्भाव काल को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं, कहीं सं० 1713 इनका जन्मकाल माना जाता है और कहीं इनके पिता के देहावसान का काल कहा जाता है। इस अन्य मतानसार इनका आविर्भाव सं० 1632 में हुआ। इतना अवश्य है कि इनका आविर्भाव काल  इन्हीं प्रस्तुत कालों में ही रहा होगा।32 धरनीदास के शिष्य ,एवं प्रशिष्यों में अमरदास, मायादास, रत्नदास, बालमुकुन्द दास, रामदास, सीताराम दास, हरनंदनदास इनके शिष्य प्रशिष्य हु,। इनका प्रधान केन्द्र माँझी की Ûद्दी है। इस सम्प्रदाय के अनुयायी बलिया में मिलते है जिनका मूल सम्बन्ध परसा के मठ से है। इसी मठ से चैनराम बाबा प्रसिद्ध हुए। चैनराम बाबा के शिष्य प्रशिष्यों में महाराज बाबा, सुदिष्ठ बाबा तथा रघुपतिदास सात्त्विकी हुए। इनके अन्तर लक्ष्मणदास, रामप्रसादजी, गोपालदास, पीतांबरदास, सीतारामदास, श्रीपालदास, संतरामदास आदि की परम्परा आती है।33
चरनदासी सम्प्रदाय:
            चरनदासी सम्प्रदाय को इसके अनुयायी शुक सम्प्रदाय ही कहते हैं। इस सम्प्रदाय के संस्थापक व्यास पुत्र  शुकदेव माने जाते हैं, तथा प्रचारक, सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य के रूप में चरनदास की ही प्रतिष्ठा हुई है, इनका जन्म सं० 1760 में माना गया है।34 चरनदास ने दिल्ली को प्रमुख केन्द्र बनाकर उत्तर प्रदेश, बिहार, बंल, मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा पंजाब में प्रचार केन्द्र स्थापित कि,, जिनमें 52 केन्द्रों को प्रमुख केन्द्रों या बड़ा थांभाके रूप में मान्यता प्राप्त हुई। इनके लगभग  52 शिष्य कहे जाते हैं जिनमें जुगतानंद, सहजोबाई, दयाबाई आदि प्रमुख हैं। चरनदास ने अपना उत्तराधिकारी जुगतानंद को बनाया था, इस सम्प्रदाय का स्थापना काल सं॰ 1781 माना गया है तथा सं० 1781 में ही चरनदास द्वारा शिष्य परम्परा का प्रारम्भ कर इसे सम्प्रदाय का स्वरूप दिया गया।35 इनके द्वारा प्रवर्त सम्प्रदाय एक ऐसा समन्वय का रूप था जहां दादू, दरिया, निरंजनी आदि विभिन्न मत ,क ही मंच पर मिलते थे। इस सम्प्रदाय में भिक्षा वृति का, पंचदेव (विष्णु, सूर्य, शिव, देवी गणेश) युक्त पूजा का निषेध था परन्तु पंचदेवों में वे ब्रह्मा, विष्णु , महेश को विशेष प्रधानता देते थे। वास्तव में यह सम्प्रदाय निर्गुण एवं सगुण   समन्वयात्मक स्वरूप प्रस्तुत करता है, दिल्ली में इस सम्प्रदाय की तीन गद्दियां हैं यथा – जुगतानंद, सहजोबाई ,एवं  रामरूप जी की गद्दियाँ। इनके अनंतर सहजोबाई गद्दी के महंतों में गंगादास, वृन्दावन, शुककुंज निवासी ब्रह्मचारी प्रेमस्वरूप, रूप माधुरी शरण तथा सरस माधुरी शरण एवं अखैराम प्रभृति महंत हुए हैं |36
निरंजनी सम्प्रदाय:
            निरंजनशब्द को आधार बनाकर निरंजनी सम्प्रदाय का प्रवर्तन स्वामी हरिदास निरंजनी ने 12वीं शताब्दी के लगभग  राजस्थान के विस्तृत क्षेत्र में किया गोविन्द त्रिगुणायत इस सम्प्रदाय को नाथ पन्थ की एक  शाखा न कहकर सहजिया बौद्ध सिद्धों की ही प्रशाखा माना है।37 परन्तु यह राजस्थान में आविर्भूत एक स्वतंत्र सम्प्रदाय है, किसी मत की शाखा नहीं, इस सम्प्रदाय की अपनी अलग  मान्यताएँ हैं।38 इस सम्प्रदाय मे निरंजन शब्द का प्रयोग  संत कवियों ने निर्गुण ब्रह्म के अर्थ में किया है। यह निरंजनी शब्द इस सम्प्रदाय के सन्तों के नाम के अन्त में अवश्यमेव व्यवहृत किया जाता हैं, जैसे हरिदास निरंजनी, भगवानदास निरंजनी, जगजीवन दास निरंजनी, मनोहरदास निरंजनी प्रभृति। हरिदास निरंजनी इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। इनके कई शिष्य प्रसिद्ध हुए  इनके शिष्यों-प्रशिष्यों में जगजीवनदास, ध्यानदास, मोहनदास, षेमदास बड़े, भगवानदास, मनोहरदास ,पीपा, हरिरामदास, अमरपुरूष, सेवादास प्रभृति सन्तों के नाम उल्लेखनीय हैं।39
शिवनारायणी सम्प्रदाय:
            सन्त शिवनारायण द्वारा शिवनारायणी सम्प्रदाय प्रवर्त हुआ, शिवनारायण का आविर्भाव गज़ीजीपुर जिले (बलिया) में  हुआ था, सम्प्रदाय के प्रारम्भिक केन्द्र भी इसी जिले में है, इस सम्प्रदाय का विस्तार प्रायः सम्पूर्ण भारत के प्रमुख नगरों में हो चुका है। शिवनारायण के चार प्रमुख शिष्य हुए हैं - रामनाथ, सदाशिव, लखनराम, तथा लेखराज, सम्प्रदाय के विस्तार का श्रेय शिवनारायण के प्रमुख शिष्यों लखनराम तथा सदाशिव को है। इस सम्प्रदाय के चार प्रमुख घामघर हैं यथा- संत शिवनारायण का जन्म स्थान चंदवारउनका मृत्युस्थान ससना , प्रमुख शिष्य लखनराम का जन्मस्थान बड़सरीतथा गाजीपुर नगर का मियाँ टोला। इन धामघरों में प्रथम तीन आधुनिक बलिया जिले में है, चौथा गाजीपुर शहर के मियां टोला मुहल्ले में स्थित है, इनके अतिरिक्त बलिया जिले कि अन्य गद्दियों में डिह्वा, रतसड़, बलुआ, दोहरी घाट आदि उल्लेखनीय है।40 सम्प्रदाय के पर्वों में कार्तिक सुदी तीज, अगहन सुदी त्रयोदशी, माघसुदी पंचमी, श्रावण शुक्ल, सप्तमी का विशेष महत्त्व है।41
रविभाण पंथ:
            रविराम साहबतथा भाण साहबगुजरात के प्रसिद्ध सन्तों में गिने जाते हैं। रविराम साहब भाण साहब के शिष्य थे, इन दोनों सन्तों के नाम पर यह पंथ प्रवर्त हुआ। रवि साहब के प्रमुख शिष्य मोरार साहबहुए हैं। मोरार साहिब की शिष्य - परम्परा में हिन्दू व मुसलमान दोनों कौमों के लोग  थे। संत होथी (मुसलमान) इनके प्रमुख शिष्य थे। हिन्दुओं में चरनदास (लोहाणा) छोटालाल (दर्जी) तथा रणमल सिंह इनके शिष्य थे। भाण साहब की शिष्य परम्परा में खीमसाहब का नाम भी उल्लेखनीय है। इस पंथ के अनुयायी गुजरात, सौराष्ट्र तथा पश्चिमी राजस्थान में मिलते हैं।42
साहिब पंथ:
            साहिब पंथ के प्रवर्तक तुलसी साहबहाथरस वाले थे, जिन्हें साहिब जी के नाम से भी जाना जाता है। तुलसी साहब ने अपने द्वारा प्रवर्त मत को संत-मतनाम दिया है।43 तुलसीसाहब का पूर्व नाम श्यामराव था, आप बाजीराव द्वितीय के बड़े भाई थे, परन्तु वैराग्य भाव के कारण , आप इस संसार से विरक्त हो हाथरस में ही रहने लगे। वहीं काला कंबल ओढ़कर हाथ में लेकर उपदेश दिया करते थे। इनके शिष्य प्रशिष्यों में सूरस्वामी, दरसन साहब, मथुरादास साहब, संतोष दास, ध्यान दास तथा प्रकाश दास प्रभृति सन्त आते हैं, तुलसीदास साहब की समाधि हाथरस में वर्तमान है जहाँ ज्येष्ठशुक्ल 2 को प्रतिवर्ष भंडारा होता है।44
लाल पन्थ:
            लाल पन्थ के प्रवर्तक सन्त लालदास का जन्म अलवर राज्यान्तर्गत धौलीधूप ग्राम में सं०1597 में हुआ, ये मेव जाति तथा निर्धन परिवार से सम्बन्धित थे। बाल्यकाल से ही सन्त लालदास ,कान्तसेवी तथा भगवद्भक्त थे। संत लालदास साक्षर,एवं  शिक्षित नहीं थे परन्तु इनके उपदेशों में भाव गम्भीर्य की कमी न थी। इनका विवाह भी हुआ था तथा इनका एक पुत्र एवं एक पुत्री थी। इनका देहावसान सं० 1705 में हुआ।45 सन्त लालदास के अनुयायी जो अलवर राज्यान्तर्गत पाए जाते हैं वे लालपन्थीकहलाते हैं। इनके शिष्यों अथवा गद्दी परम्परा के बारे में कोई विवरण प्राप्त नहीं होता, परन्तु संत लालदास को चमत्कार एवं दिव्यता के कारण फिर भी प्रसिद्धि प्राप्त है। इनकी बानियों का एक संग्रह लालदास की चेतावनीशीर्षक से हस्तलिखित रूप में संग्रहित है।
जसनाथी सम्प्रदाय:
            जसनाथी सम्प्रदास सिद्ध सम्प्रदायभी कहा जाता है, इसके प्रवर्तक सिद्ध जसनाथ का जन्म सं०1539 की कार्तिक शुक्ल को बीकानेर राज्यान्तर्गत कतरियासर के अधिपति जाणी जाट हमीर के घर में हुआ, एक अन्य जनश्रुति के अनुसार हमीर जाट जसनाथ जी के पोषक पिता थे, सिद्ध जसनाथ का पूर्व नाम जसवंत था। आपने गुरु गोरखनाथ से दीक्षा ग्रहण की तबसे आपका नाम जसनाथ हो गया। सिद्ध जसनाथ सं०1563 की आश्विन शुक्ल 7 को जीवित समाधिस्थ हुए।46 इस सम्प्रदाय की प्रमुख गद्दी, कतरियासर (बीकानेर) में है, इसके अतिरिक्त इस सम्प्रदाय का प्रचार एवं प्रसार पसलू, लिखमादेसर, छाजूसर, पुनरासर तथा मात्नासर में हुआ, इस सम्प्रदाय की शिष्य परम्परा में हारोजी, हांसोजी, पालोजी, टोडाजी, रूस्तम जी, रामनाथजी तथा लालनाथजी के नाम उल्लेखनीय हैं। इस सम्प्रदाय के प्रमुख सिद्ध कहलाते हैं। ये सिद्ध भगवा कपड़े पहनते हैं।47 इस सम्प्रदाय में निर्गुण मत को ही महत्त्व दिया जाता है तथा किसी भी देवता का इस सम्प्रदाय में कोई स्थान नहीं है।
पानप-पंथ:
            संत पानपदास के नाम पर पानप पंथ प्रवर्त हुआ। इनका जन्म बीरबल वंश में ब्रह्मभट्ट जाति के अंतर्गत  सं० 1776 को बिजनौर के जिले में नगीना धामपुर जैसे किसी नगर  में होना माना गया है।48 पानपदास का महात्मा मंगनी राम के द्वारा दीक्षित होना माना गया है। उनके सर्वप्रथम दीक्षित शिष्य थे, उनके पश्चात् पांच और व्यक्तियों को उन्होंने दीक्षित किया, जिनमें बिहारीदास, अचलदास, ख्यालीदास गंगादास ,वं हरिदास का नाम आता है।49 दिल्ली में इनकी गद्दी तेलीबाड़ा में स्थापित हुई। धामपुर में लोहिया नामक स्थान पर इनका महल है जो पानपदास जी महाराजा का स्थाननाम से प्रसिद्ध है। इसी को पानप-पंथ का प्रधान केन्द्र कहा जाता है तथा इस सम्प्रदाय की मुख्य गद्दी भी यहीं धामपुर में है। सं० 1830 में इनका देहान्त हुआ। इनके शिष्यों में मानसदास का नाम आता है तथा इनके प्रशिष्यों में धरमदास, प्रेमदास, मजलसदास, गाधोदास, बरदास, हीरादास, श्यामदास, निहालदास, स्वरूपदास, भजनदास, पूरनदास, जगदीशानंद, दयाप्रकाश, प्रीतमदास के नाम उल्लेखनीय हैं |50
सखी सम्प्रदाय:
            भिनकराम बाबा के शिष्य निपतराम की शिष्य परम्परा में लाछिमी (लक्ष्मी) सखी का नाम प्रसिद्ध है। इनका जन्म सारन जिले के अमनौर नामक ग्राम में सं० 1898 में हुआ। ये जाति के कायस्थ थे, सं० 1971 में इनका देहावसान हुआ, इनके शिष्यों में सिद्धनाथ, त्यागी, प्रदीप एवं कामता सखी प्रमुख हैं। छपरा में इनका प्रधान केन्द्र सखीमठविद्यमान है।51
हीरादासी-पंथ:
            हीरादासी पंथ का प्रवर्तन  एक कबीर पंथी संत निर्वाणदास के शिष्य ने किया। हीरा-दास का जीवनकाल सं० 1551 से 1636 वि० कहा जाता है। इस परम्परा में गुजरात के समर्थदास का नाम भी लिया जाता है। इस पंथ में कुछ नवीनता नहीं है यह पंथ न होकर एक परम्परा ही कही जा सकती है।52
राधास्वामी पंथ :
            राधास्वामी पंथ के मूल प्रवर्तक शिवदयाल साहब कहे जाते हैं। इनका जन्म सं० 1875 में ,एक खत्री  परिवार में हुआ। सं० 1917 में इन्होंने शिष्यों को उपदेश देने का कार्य आरम्भ किया। इनका देहावसान सं० 1935 में हुआ। इनके अन्तर रायबहादुर सालिग्राम उत्तराधिकारी बने। इस पंथ की शाखाओं में फौजी सैनिक, बाबा जयमल सिंह की डेरा व्यास वाली शाखा है। इनकी मृत्यु के उपरान्त इनके दो उत्तराधिकारियों ने दो गद्दियां स्थापित की, जिनमें एक व्यास में सावनसिंह की गद्दी तथा तरनतारन में बग्गासिंह की गद्दी। सालिग्राम के एक शिष्य ब्रह्मशंकर मिश्र (महाराज साहिब) हुए हैं। इनका जन्म सं० 1917 में तथा देहान्त सं० 1964 में हुआ। इनका समाधि स्थल स्वामीबाग  नाम से विख्यात है। इनके अनंतर इनकी बड़ी बहन श्रीमती माहेश्वरी देवी (बुआजी साहिबा) गद्दी की उत्तराधिकारी बनी। महाराज साहब के दो अन्य शिष्य कामता प्रसाद तथा ठाकुर अनुकूल चन्द्र भी क्रमश आगरा तथा पवना (पूर्व बंगाल) में अपनी गद्दियाँ स्थापित की, बुआजी साहिबा का देहान्त सं० 1969 में हुआ। इनके उत्तराधिकारी माधवप्रसाद सिंह (बाबूजी साहब) बने, कामताप्रसाद (सरकार साहिब) का देहावसान सं० 1971 में हुआ तथा उनकी गद्दी पर उत्तराधिकारी के रूप में सर आनदंस्वरूप (साहेबजी) बैठे। इनके देहान्त के उपरान्त राय साहब गुरुचरन दास मेहता इसी गद्दी के उत्तराधिकारी बने।
            तरनतारन में बग्गासिंह की गद्दी के उत्तराधिकारी बाबा देवा सिंह बने, इसके सावनसिंह (व्यास) के शिष्य-प्रशिष्यों में जगतसिंह, चरनसिंह के नाम उल्लेखनीय हैं।53
उपसंहार:
            उत्तर मध्यकाल में लगभग  45 संत संम्प्रदाय और विभिन्न पंथों में दीक्षित संतों की एक लंबी परम्परा मिलती है। इन सन्तों ने अपने पंथ प्रचार के तथा मानव हित के निमित्त जो उपदेश दि, वे ही सन्त वाणीके रूप में साहित्य की अमूल्य निधि हैं। प्रत्येक पंथ के सभी संतों ने वाणी प्रणीत नहीं की, मूलत: सन्त वाणियाँ मौखिक रूप में थी, जिन्हें शिष्यों-प्रशिष्यों द्वारा लिखित रूप में प्रस्तुत किया गया। उत्तर मध्यकाल एक ऐसा काल रहा है, जिसमें संतों का उत्कर्ष हुआ, चाहे उनमें सम्प्रदायों की होड़ लग गयी थी, परन्तु मुझे तो यह प्रतीत होता है कि यह संत समाज का स्वर्ण-युग कहा जा सकता है क्योंकि इसमें लगभग  96 संत अवतरित हुए । इनका परिचय भी अपने आप में शोध का विषय है।


सहायक ग्रंथ सूची
1-पीताम्बरदत्त बडथ्वाल, हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय (लखनऊ: अवध पब्लि० हाऊस) पृ० 122, 128
2-विष्णुदत्त राकेश, उत्तर भारत के निर्गुण पंथ साहित्य का इतिहास (इलाहाबाद: साहित्य भवन प्रा० लि०1975) पृ० 114
3-त्रिलोकी नारायण दीक्षित, हिंदी संत साहित्य (दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 1983) पृ० 57
4-विष्णुदत्त राकेश, उत्तर भारत के निर्गुण पंथ साहित्य का इतिहास (दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 1963) पृ० 118
5-परशुराम चतुर्वेदी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (इलाहाबाद: भारती भ.डार, 1964), पृ० 291
6-वही, पृ० 427, 428
7-त्रिलोकी नारायण  दीक्षित (हिन्दी सन्त साहित्य (पूर्वोक्त)), पृ० 58
8-परशुराम चतुर्वेदी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (पूर्वोक्त), पृ० 431
9-त्रिलोकी नारायण  दीक्षित (हिन्दी सन्त साहित्य (पूर्वोक्त)), पृ० 58
10-संतनारायण उपाध्याय, दादू दयाल (कलकत्ता: ईश्वर गांगुली स्ट्रीट, 1969), पृ० 22
11-वही, पृ० 52, 53                                                                                        
12-संतनारायण उपाध्याय, दादू दयाल (पूर्वोक्त), पृ० 74
13-हिन्दी विश्वकोश (भाग-10), सम्पा० नगेन्द्रनाथ वसु (दिल्ली: बी० आर० पब्लि० कौरपरेशन्ज़, 1986), पृ० 340
14-भगवती प्रसाद शुक्ल, बावरी पंथ के हिन्दी कवि (नई दिल्ली: आर्य बुक डिपो, 1972), पृ० 58, 60
15-वही, पृ० 54
16-कबीर ग्रंथावली (सम्पा०) श्याम सुन्दर दास (काशी: नागरी प्रचारिणी सभा, 1928) भूमिका, पृ़० 2
17-परशुराम चतुर्वेदी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (पूर्वोक्त), पृ० 571
18-वही, पृ० 576, 577                                                                                     
19-वही, पृ० 638, 612                                                                                        
20-विष्णुदत्त राकेश, उत्तर भारत के निर्गुण पंथ साहित्य का इतिहास (पूर्वोक्त) पृ० 189
21-वही, पृ० 194                                                                                             
22-त्रिलोकीनारायण दीक्षित, हिन्दी सन्त साहित्य, (पूर्वोक्त), पृ० 73                                                                                                        
 23-शिवशंकरपाण्डेय, रामस्नेही सम्प्रदाय की दार्शनिक पृष्ठभूमि, (दिल्ली: रामस्नेही साहित्य शोध संस्थान, 1976), पृ०28, 34, 38                                                                                                       24-वही, पृ़० 41                                                                                                        25-शिवशंकर पाण्डेय , रामस्नेही सम्प्रदाय की दार्शनिक पृष्ठभूमि, (पूर्वोक्त), पृ० 87, 92                                         
26-संत दरिया साहब (बिहार वाले) (सम्पा०) काशीनाथ उपाध्याय (पंजाब: राधास्वामी सत्संग ), पृ़० 12                                    27-परशुराम चतुर्वेदी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (पूर्वोक्त), पृ० 661                                                                                                        
 28-विष्णुदत्त राकेश, उत्तर भारत के निर्गुण पंथ साहित्य का इतिहास (पूर्वोक्त) पृ० 175-176                                
29-गरीबदास की बानी, (प्रयाग : बेलवेडियर प्रि० वक्र्स, 1985), भूमिका पृ० 1                                                   
30-परशुराम चतुर्वेदी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (पूर्वोक्त), पृ० 733                                                                 31-विष्णुदत्त राकेश, उत्तर भारत के निर्गुण पंथ साहित्य का इतिहास (पूर्वोक्त) पृ० 211, 212                                
32-वही, पृ० 190                                                                                                  
33-परशुराम चतुर्वेदी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (पूर्वोक्त), पृ० 632, 633                                                    
34-शम्भुनारायण मिश्र, चरनदासी सन्त जुगतानंद और उनका काव्य (दिल्ली: राधा पब्लिकेशन्स, 1990), पृ० 2                                    35-शम्भुनारायण मिश्र, चरनदासी सन्त जुगतानंद और उनका काव्य (पूर्वोक्त), पृ० 7                               
36-वही, पृ० 24                                                                                               
37-गोविन्द त्रिगुनायत, हिन्दी की निर्गुण काव्यधारा और दार्शनिक पृष्ठभूमि (कानपूर: साहित्य निकेतन), पृ० 345                              38-सत्यनारायण मिश्र, तुलसीदास निरंजनी: साहित्य और सिधान्त (कानपुर: साहित्य निकेतन, 1974), पृ० 9                
39-वही, पृ० 22 से 32                                                                                           
40-रामचन्द्र तिवारी, शिवनारायणी सम्प्रदाय और उसका साहित्य (वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन, 1972), पृ० 162, 164                                                                                                   41-वही, पृ० 179-181                                                                                           
42-विष्णुदत्त राकेश, उत्तर भारत के निर्गुण पंथ साहित्य का इतिहास (पूर्वोक्त), पृ० 196                                       
43-तु० सा०, घट॰ रा०, भाग-1, पृ० 143                                                                          
44-परशुराम चतुर्वेदी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (पूर्वोक्त), पृ० 786                                                  
45-वही, पृ० 484-485                                                                                              
46-रामप्रसाद दाधीच, राजस्थान संत सम्प्रदाय (जोधपुर: राजस्थानी ग्रंथाकार, 1995), पृ० 20                                   
47-वही, पृ० 21                                                                                              
48-पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, हिन्दी काव्य में निर्गुण  सम्प्रदाय (लखनऊ: अवध पब्लिश- हाउस), पृ० 441
49-परशुराम चतुर्वेदी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (पूर्वोक्त), पृ़० 478                                          
50-वही, पृ० 736, 740, 741                                                                                      
51-परशुराम चतुर्वेदी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (पूर्वोक्त), पृ० 700, 701
52-विष्णुदत्त राकेश, उत्तर भारत के निर्गुण पंथ साहित्य का इतिहास, (पूर्वोक्त), पृ० 219                                                
53-परशुराम चतुर्वेदी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (पूर्वोक्त), पृ० 804
शिक्षा :  इतिहास में ऑनर्स                                                                                     

  एम॰ए ,बी॰एड,  पी.एस.टी.ई.टी                                                                                    
पी॰एचडी(हिन्दी) (गुरु नानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर |)                                                       
अध्यापन अनुभव :14 वर्ष                                                                                    
प्रकाशन:  विविध पुस्तकों,पत्रिकाओं में 14 शोधालेख प्रकाशित हैं।


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