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आदिवासी हिन्दी कविता में चित्रित सामाजिक संघर्ष: डॉ.दोड्डा शेषु बाबु




आदिवासी हिन्दी कविता में चित्रित सामाजिक संघर्ष

-डॉ.दोड्डा शेषु बाबु
असिस्टेंट प्रफेसर, हिंदी विभाग
मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी,
हैदराबाद.-500032-तेलंगाना
मो.9985281090
Email:- doddaseshubabu@gmail.com

 #की वर्ड: आदिवासी, विस्थापन, आदिवासी कविता, संघर्ष, संस्कृति  


आदिवासी समस्या विश्व की एक बहुत बढी समस्या है। बदलते हुए सामाजिक परिवेश तथा भूमंडलीकरण या बाजारीकरण के संदर्भों में यह समस्या हमेशा केलिए चर्चा का विषय बनी है। पूरे विश्व में अपने वैयक्तिक अस्मितापरक सम्पत्ति को बचाने पक्ष में रहकर ये लोग समाज की प्रधान जीवनधारा से अपने-आप दूर रहना चाहते है। जिस अस्मिता केलिए वे आज तक अपना है समझकर जी रहे है वही आज खतरे के दायरे में है।  भारत की राजनीति में आदिवासियों को दरकिनार करके कोई राजनीतिक दल नहीं रह सकता। एक जमाना था आदिवासी हाशिए पर रहते थे लेकिन वर्तमान राजनीतिक एवं आर्थिक नीति के कारण वे आज चर्चा के  केन्द्र में हैं। आदिवासी समुदाय  राजनीति के केन्द्र में आने के पीछे प्रधान कारण है आदिवासी क्षेत्रों में कारपोरेट घरानों का प्रवेश और आदिवासियों में बढ़ती जागरूकता। समकालीन साम्राज्यवादी नीति के कारण आदिवासियों को अपने समाज और आवासप्रांत को छोडकर जाना पड रहा है। इस प्रकार की विस्थापन की समस्या पहले से भी आज ज्यादा दिखती है। ऐसे मामलों में विश्व के सभी राजनीतिक दल अपनी –अपनी नीति के अनुसार आर्थिक नीतियां रच रही है। भारत के संदर्भ में   आदिवासियों के प्रति वामपंथी दलों का रूख कांग्रेस और भाजपा के रुख से बुनियादी तौर पर भिन्न है। वामपंथी दलों ने आदिवासियों को कभी भी आदिवासी बनाए रखने, वे जैसे हैं वैसा बनाए रखने की कोशिश नहीं की है। वामपंथी दलों ने आदिवासियों को साम्राज्यवादी विचारकों द्वारा दी गयी घृणित पहचान से मुक्त किया है। उन्हें मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठा दी है। यह कार्य उनके मानवाधिकारों की रक्षा करते हुए किया है। आदिवासियों को वे सभी सुविधा और सुरक्षा मिले जो देश के बाकी नागरिकों को मिलती हैं। आदिवासियों का समूचा सांस्कृतिक तानाबाना और जीवनशैली वे जैसा चाहें रखें,राज्य की उसमें किसी भी किस्म के हस्तक्षेप की भूमिका नहीं होगी,इस प्रक्रिया में भारत के संविधान में संभावित रूप में जितना भी संभव है उसे आदवासियों तक पहुँचाने में वामपंथियों की बड़ी भूमिका रही है।1 

आदिवासियों के सामने आज कई प्रकार की समस्याएं एक सवाल बनकर खडा है।  इसमें मुख्य समस्या है। भारत की लंबी सदियों के इतिहास में आदिवासियों के इतिहास को देखा जाए तो आदिवासियों के पलायन और विस्थापन प्रमुख रुप में दिखाई देते है।  इसका मुख्य कारण है उस समय की शासन व्यवस्था(स्व शासन व्यवस्था)। जिन्हें ना केवल अपने प्रदेश, गाँव और जंगल से विस्थापित नहीं बल्कि अपनी संस्कृति, जीवन शैली, नैतिक मूल्यों और भाषाओं के साथ  बेदखल किया गया  है।  यह स्थिति सिन्धुघाटी से लेकर वर्तमान तक जारी है।  आज आदिवासी जहां रहते है वे प्राकृतिक संसाधनों और खनिज संपदाओं से परिपूर्ण है।  वर्तमान ब्राह्मणवादी व्यवस्था और सरकार इसका खुलकर उपयोग कर रही है।  इसके बदले में  आदिवासियों के लिए ना नौकरी में छूठ मिल रही है ना उनका पूनरावास किया जा रहा है। उनकी आशिक्षा, अज्ञान और भोलेपन का फायदा बड़ी-बड़ी स्टील प्लांट, कोयला खदानों और कारखानों वाली कंपनियां ले रही है।  उनकी बीवी बच्चों और औरतों के ऊपर शारीरिक तथा मानसिक जुल्म किए जा रहे है। आदिवासियों के विकास को लेकर हर दिन  रेडियो, टी.वी. और वर्तमान समाचार पत्रों में हर दिन ढिंढोरा पिटा जाता है।    आदिवासियों के विस्थापन के कारण उनकी नस्ल खत्म होती जा रही है।  भौगोलिक परिस्थ्तियां भी आज साथ नहीं दे रही है। सरकार द्वारा बनाए गए कनून और नियमों में खुद फसता जा रहा है।  औद्योगिकरण, खनन, विद्युतीकरण सब-के-सब हरे भरे खेतों की कब्रगाह बन गए,  जिससे जो रोजगार गावों में था वह भी समास हो गया। विडम्बना तो यह है कि इन विस्थापितों की बडी जमात के लिए पुनर्वास या रोजगार का कोई विकल्प सरकार ने तैयार नहीं किया। फलस्वरुप औद्योगिकरण, बेरोजगारीकरण का पर्याय बन गया। वास्तव में औद्योगीकरण निजीकरण और स्वमित्व का दूसरा रूप है। निजीकरण मूलतःजनविरोधी सोच है, जिसमें बहुसंख्यक जनता पर कुछ मुट्ठी भर लोगों का वर्चस्व  स्थापित हो जाएगा। प्रभात पटनायक के शब्दों में निजीकरण वस्तव में सार्वजनिक संपत्ति के बल पर समृध्द लोगों का स्वयं समृध्द बनने का साधन है।2 इसी उपलक्ष में अधिकारी अपना काम करते  है ।जमीन आधिग्रहण प्रक्रिया और उसके लिए सरकारी अफसरों का साथ होने के कारण आदिवासी किसान परिवारों  से उनको  जमीन से बेदखल किया जा रहा हैं।  किसानों की जमीन जमीनदारों, सेठ साहुकारों और महाजनों के हाथ में चली गई  या फिर सरकार और गैर सरकारी प्रतिष्ठानों के लिए अधिग्रहित की गई। आदिवासी अपने इस विस्थापन अन्याय और अत्याचार का विरोध तीर, तलवार और बाण से करता है तो एकता के साथ संगठित रुप में।  आदिवासी साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से आदिवासी जनता की समस्याओं को  शब्द-बद्द करने की चेष्टा हमेशा करता रहा है।  विकास के नाम पर आदिवासियों को विस्थापित करना आज कल की नई बात है।  आगर कोई भी आदिवासी प्रजा घर -जमीन छोडने केलिए मना करती है तो उन्हे  साम-दाम-दण्डोपायों से  भगाया जाता है। जैसे नक्सलवादी बनाना या आतंकवादी बनाना इस का मुख्य उदाहरण है।   वहरू सोनवणे अपनी कविता  चाँद पर जाने वाले लोग  में लिखता है- तेजी से निकला एक और आदेश/  उखडती चली गई एक एक झोंपडी/ बुझ गयी झोंपडी की लालटेन/ कदम कदम पर पसरा अंधेरा/ बाल बच्चों  के आंसू रोकने के लिए/ नहीं बचा आंगन/अब तुम ही बताओ/कौन है हमारा इस धरती पर?/ कोई नहीं है/ लोग चांद पर जाते है, हम भी जाएंगे चांद पर/ आदमी को मिल जाए आदमीयत तो वही बहुत है।3  यह कविता आदिवासियों की कसमसाहट स्थिति को व्यक्त करती है। कवि नें आदिवासियों की वेदनाभरित स्थिति को यथारुप प्रकट करने का प्रयत्न किया है।  इसी बात को समकालीन आदिवासी कवि  हरिराम मीणा   आगे बढाते हुए लिखते है कि-सभ्यता के नाम पर / आखिर कर दिए जाओगे बेदखल/हजारों सालों की तुम्हारी पुश्तैनी भौम के/ कोई और होंगे अब कानूनी हकदार/ नारियल के इन  दरख्तों के4 विस्थापन मनुष्य के अस्तित्व के साथ ही उसके परंपरागत ज्ञान एवं भाषाई अस्मिता के लिए भी  प्रश्न चिन्ह लगाता है।  वर्तमान समाज के नव मध्यवर्गीय युवक अपनी तटस्थता की नीति एवं  उपभोग की जीवन पद्धति में मग्न है।  भूमंडलीकरण के इस दौर में आदिवासी जो परंपरागत जीवन शैली जी रहे थे, उनके विस्थापन की नीति नव सांम्राज्यवाद बुन रहा है। आदिवासी समाज को सचेत करने का प्रयास तो जारी है। उनके गदम आगे बढने के लिए बार-बार उनसे सवाल पूछता है। अंडमान टापू पर आदिम युग में रहने वाले और विलुप्त होते जा रहे आदिवासियों के प्रति गहरी चिंता व्यक्त करते है- देखो! उन्होंने आखिर तुम्हें खदेड़ ही दिया/तुम्हारी जमीन से/ तुम्हें नेस्तनाबुत करने के लिए/और तुम चुप हो।5 आदिवासियों के विस्थापन और अस्तित्व की समस्या पर अनेक कविताएं लिखी गई है। आदिवासियों का विस्थापन एक जटिल समस्या है। औपनिवेशिक काल से लेकर आज तक यह समस्या चलती रही है। उनके लिए  अपने लिए कोई जमीन, घर नहीं है। वह हमेशा देश का भ्रमण करते हुए देश की प्रगति केलिए काम कर रहा है। इस संदर्भ में निर्मला पुतुल लिखती है कि-धरती के इस छोर से उस छोर तक/मुठ्ठीभर सवाल लिए मैं/ दौड़ती-हांफती-भागती/तलाश रही हूँ सदियों से निरंतर/अपनी जमीन, अपना घर/अपने होने का अर्थ6  आदिवासियों का विस्थापन ऐसी जगहों से हो रहा है जहां वह परिवार बरसों से जुड़ा था। उसका दर्द इतना है कि अनेक पीढ़ियों पर उसका असर रहेगा। विस्थापन की समस्या प्रमुख रूप से जल परियोजनाओं के कारण, औद्योगीकरण, खाद्य, उद्योग के कारण हो रहा है। सेठ, साहुकार, दलाल लोग उनके जल-जंगल-जमीन को लूठ रहे है।  इसी बात पर कवि अनुज लुगुन वेदनाभरित आवाज कहते है कि- कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा/ उससे पहले नदी गई/ अब कबर फैल रही है कि/ मेरा गांव भी यहां से जाने वाला है।7 विकास के नाम पर हडप ली गई जमीन से एक-एक कर सभी आदिवासियों को निकाला गया।  अब वे शहरों के आसपास कोई और घने जंगल में जा बसे।  वहां इन्हें मनुष्य के रुप में भी देखते नहीं। शहरी परिस्थितियों से अनभिज्ञ रहने वालों का दिन एक अजीब तरीके से शुरू होता है। जो मुक्त रुप से जंगल में घूमते थे  उन्हें यहां बेडियां डाली गई है।  इसी संदर्भ पर अनुज लुगुन लिखता है- वे जो शिकार करते थे निश्चिंत/ जहर बुझे तीर से/ या खेलते थे/रक्त रंजीत होली/ अपने स्वत्व की आंच से/खेलते है शहर के/कंक्रीटीय जंगल में /जीवन बचाने का काम8

आज आदिवासी अपनी पहचान के साथ-साथ जीवन की संकट स्थिति से संघर्ष कर रहा है। सरकार और ठेकेदारों द्वारा जंगल को नष्ट किये जाने के कारण जंगलों, घाटियों में रहनेवाले आदिवासियों का जीवन तहस-नहस हो गया है।  जंगल की कटाई के कारण कंद, मूल शिकार नष्ट हो रही है जिसके कारण उनके जीवन का आधार नष्ट हो रहा है।  इसी कारण वह अपना गांव –कबीला छोडकर शहर की ओर दौड रहा है।  उनके जीवन मूल्य नष्ट होते जा रहे है।  अस्तित्व के बिना जीने केलिए उन्हे बाध्य किया है। इस संदर्भ में  प्रमुख कवि एवं आलोचक लक्षमण गायकवाड  कहते है कि-जंगलों के बिना आदिवासियों का कोई अस्त्तित्व नहीं है।  जब अंग्रेज भारत आए और विकास के नाम पर जंगल के खजाने को काटना शुरू किया तो आदिवासियों ने बगावत की।  जब यह संघर्ष आरम्भ हुआ तो कुछ आदिवासियों ने माँग की- हमें काटो लेकिन जंगल मत काटो।  सैकडों- हजारों से जिन जंगलों को हमने सम्भाला है, जिसके सहारे हम जी रहे है, उसे बर्बाद मत करो।9 लेकिन समकालीन  सरकारों ने अपनी निजी कंपनियों के ठेकेदारों केलिए  आदिवासियों को भगाना अपना मुख्य काम बनाया है।  इसी कारण आदिवासी कवि  अपनी कविता आघोषित उलगुलान के माध्यम  सरकार की परंपारागत नीति के प्रति आवाज उठाते रहते है।  उनकी कविताएं आदिवासी के  अस्तित्व के मिट जाने की चिंता से लिखी गयी है।  अनुज लुगन इस बात पर लिखते है कि- लड रहे है आदिवासी/अघोषित उलगुलान में/ कट रहे है वृक्ष/माफियाओं की कुल्हाडी से और/बढ़ रहे है कंक्रीट के जंगल/दांडू जाए तो कहा जाए/कटते जंगल में बढते जंगल में/”10आदिवासी का जीवन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से जंगल से जुडा हुआ है।  जंगल के हर एक पेड, पशु, पक्षी, मट्टी की गंध , शिकार के हथियार एवं वनस्पतियों से परिचित है। उसी में अपना अस्तित्व देखते है।अपनी भाषा, संस्कृति तथा वीरता को बचाना चाहता है। संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल उसी एकता के साथ अपनी अस्तित्व केलिए प्रतीक बने प्रकृति को बचाना चाहती है-अपने चेहरे पर/संथाल परगाना की माटी का रंग/भाषा में झारखंडीपन/जंगल की ताजा हवा/ नदियों की निर्मलता/पहडों का मौन/गीतों की धुन। मिट्टी का सौधापन/फसलों की लहलहाट11            हर इन्सान जीवन के अधिकारों के साथ-साथ इस दुनिया में जन्म लेता है।  इतिहास के पन्नों को पलटकर देखा जाए तो हर एक घटना गवाह है कि हर जगह किसी न किसी प्रकार के मानवीय बंधनों से जकडा हुआ है। कही जाती के नाम पर कही नस्ल के नाम पर। आदिवासी आदमी अपनी आदिवासी जीवन, परंपरा तथा संस्कृति के अभिन्न अंग बने प्रकृति को बचाने केलिए तैयार है।  अपनी अस्मिता को बचाने के संदर्भ में निर्मली पुतुल लिखती है कि- अक्सर चुप रहने वाला आदमी/ कभी न कभी बोलेगा जरूर सिर उठाकर/ चुप्पी टूटेगी ऑएक दिन धीरे-धीरे उसकी / धीरे-धीरे सख्त होंगे उसके इरादे/और तनेंगी मुठ्ठियां आकाश में व्यवस्था के खिलाफ/ भीतर ईजाद करते कई-कई खतरनाक शस्त्र12    आदिवासी कवि अपनी कविताओं मे  इन्सान को इन्सानियत के नजरिए से देखने की प्रेरणा देते  है।  जिसमें आदिवासी सभ्यता और संस्कार की गंध महसूस की जाती है।  भारतीय मिथकों के संदर्भ में नारी को इतना ऊपर उठाया  जाता है कि वह धरती को कभी छू न पाये जहां  मातृत्व और देवित्व उसके पैरों की बन जाती है।  वह अपने अस्तित्व के बारे में सोचने को मजबूर हो जाती हैं। वह अपने अस्तित्व के बारे में सवाल करते हुए निर्मला पुतुल लिखती  है - क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए/ एक तकिया/कि कहीं से थका माँदा आया/और सिर टिका दिया/ कोई खूँटी, कोई घर, कोई डायरी. खामोश खडी दिवार, कोई गेंद/ या कोई चादर, चुप क्यों हो।/ कहों न क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए?/” 13 वास्तव में मातृसत्तात्मक व्यवस्था का मूल रुप है आदिवासी समाज। लेकिन बाह्य समाज का प्रभाव उस समाज पर भी पडा है। आज आदिवासियों में भी स्त्री को दोयम दर्जे से देखा जा रहा है। अंध विश्वास और रूढ़िवादिता के कारण वह पिछडने लगी है।  आकदिवासी औरत की वेदना को बताते कवयित्री निर्मला पुतुल  कहती है-  जवानी में वेश्या, बुढ़ापा में डायन/ ऐसे ही कहते है लोग/  एक ऐसी चीज जिसे घाट में, बाट में/  जहाँ मिले थाम लो/  जब जी चाहे अंग लगा लो/  पूरी हुई हवस तो त्याग दो/  न चीख न पुकार!/ 14   इसी उप लक्ष्य में  सरिता बडाइक  लिखती है- चूलहें बिस्तर की परिधि मे / मुझे नहीं रहना /  गऊ चाल में चलकर नहीं है थकना/   मन में भरी है कविता/  मंजूर नहीं है थमना / हे प्रियवर...../ मुझे भी है कुछ कहना15     अतः स्पष्ट बात यह है कि  आदिवासी रचनाकारों का मुख्य उद्देश्य है  आदिवासियों  की जीवन  स्थिति को उजागर करने के साथ-साथ विस्थापन से  उभरी विभिन्न समस्यओं पर ध्यान आकर्षित करना है।  परंपरागत आदिवासी संप्रदायों की रक्षा करते हुए उनके जीवन से संबंधित सभी पहलुओं को सुरक्षित रखना हीउनका मुख्य उद्देश्य है।   बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों के अनुरुप अपनी वाणी को तदनुकूल सुनाने के पक्ष में रहकर आदिवासी कवि आगे जा रहे है।


 संदर्भ ग्रन्थः

1.      नया जमाना, सोमवार, 29नवंबर 2010, पृ.1
2.      आदिवासी कौन , रमणिका गुप्ता, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृ.32
3.      पहाड हिलने लगा, वहरु सोणवणे, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली, 2009, पृ. 28
4.      सुबह के इंतजार में, हरिराम मीणा, शिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.35
5.      सुबह के इंतजार में, हरिराम मीणा, शिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.44
6.      नगाडे की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल,भारतीय जानपूठ प्रकाशन, पृ.30
7.    शहर के दोस्त के नाम पत्र(कविता)-अनुज लुगुन, वसुधा, पृ.22
8.      अघोषित उलगुलान, अनुज लुगुन, पृ.15
9.      आदिवासी अस्मिता की पडताल करते साक्षात्कार, सं. रमणिका गुप्ता, पृ.99
10.  आघोषित उलगुलान, वसुधा, पृ.16 अप्रैल-जून, 2010
11.  नगाडे की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, पृ.77
12.  नगाडे की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, पृ.84
13.              नगाडे की तरह बजते शब्द- निर्मला पुतुल सं. 28
14.              नगाडे की तरह बजते शब्द- निर्मला पुतुल सं. 28
15.  नन्हे  सपनें का सुख – सरिता बडाइक, पृ.108)



 [साभार: अक्टूबर-दिसंबर सयुंक्त अंक 2017, जनकृति पत्रिका]
[चित्र साभार: ग्रेट इन्डियन जर्नी]



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