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प्रतिबंधित हिन्दी-साहित्य में प्रवासी भारतीय: डॉ. मधुलिका बेन पटेल




प्रवासी साहित्य 

प्रतिबंधित हिन्दी-साहित्य में प्रवासी भारतीय

डॉ. मधुलिका बेन पटेल
सहायक प्रोफ़ेसर
हिन्दी विभाग
तमिलनाडु केंद्रीय विश्वविद्यालय

प्रतिबंधित हिन्दी-साहित्य हमारे देश की अमूल्य निधि है। सेंशरशिप के बावजूद देश से जुड़े लगभग हर मुद्दों पर चर्चा की गई। इन रचनाओं में महज़ अंग्रेजों से मुक्ति के संबंध में ही ध्यान नहीं दिया गया वरन् किसान, मजदूर, स्त्री व दलितों के अलावा विदेशों में गुलामों की जिन्दगी जीने को मजबूर प्रवासी भारतीयों की समस्या को भी बड़ी बेबाकी से उठाया गया। सजग लेखकों ने प्रवासी भारतीयों के ऊपर होती क्रूर हिंसा को अपनी रचनाओं के माध्यम से उजागर किया। अंग्रेजी सरकार सीधे-सादे भारतीयों को बहला-फुसला कर विदेश जाने के लिए राजी कर लेती थी। वहाँ पहुँचने पर उन्हें गुलाम बना लिया जाता था। इस क्रूर चक्र में फँस कर बेबस, बेसहारे मजदूर अनवरत श्रम और हिंसा के कारण मर-खप जाते। ‘‘फीजी में गन्नों की खेती या चीनी उद्योग के विकास के लिए ब्रिटिश शासकों को सस्ते मजदूरों की सख्त कमी महसूस हुई। साम्राज्यवादी मनोवृत्ति के अनुरुप अंग्रेज भारतवासियों की ग़रीबी एवं मजबूरी का अनुचित लाभ उठाने की कला में दक्ष हो चुके थे। स्वयं नियामक बन कर वे पार्श्व में रहे और छल-नीति का पालन करते हुए भर्ती का काम भारतवासियों को सौंपा। देश के छोटे नगरों-कस्बों, तीर्थ-स्थानों आदि पर आरकटियों (मक्कार किस्म के दलाल) का जाल बिछाया गया जो भूले-भटके लोगों-मुसाफिरों को कोई न कोई झांसा देकर बहकाकर-जैसे-तैसे-नाना हथकंडे अपनाते हुए उन्हें भर्ती के डिपो तक ले आते थे। यह भर्ती का डिपो न होकर - जाल में फँसाने का एक ऐसा तन्त्र था जहाँ चारों ओर आरकटियों का आतंक छाया हुआ था। हकीकत से अनजान, दबे-सहमे ये बेबस लोग यंत्रवत सरकारी कार्यवाही पूरी करने देते थे। दूसरे शब्दों में, उन्हें प्रतिज्ञाबद्ध कुली की मंजूरी देनी पड़ती थी। धोखाधड़ी में फँसे इन लोगों, को यह नहीं मालूम था कि अब वे इन्सान नहीं रहे, फीजी शासन के गुलाम हो गए हैं। फीजी में उनके जीवन या व्यवसाय के किसी पहलू या हित की बात उठाएँ, वह जुल्म या यन्त्रणा से भरी मिलेगी। वहाँ निपट दमन एवं शोषण का शासन था। अपने देशवासियों की ऐसी अमानुषिक दुर्गति एवं नए प्रकार की गुलामी की दर्द भरी बातें खुलने लगीं। देशाभिमान जाग उठा और चारों ओर भयंकर विरोध होने लगा।’’[1]

साम्राज्यवादी शक्तियाँ स्वयं परोक्ष में रहकर मजदूरों की भर्ती का काम बिचौलियों को सौंप देती थी। ‘भारत का मजदूर वर्ग: उद्भव और विकास (1830-2010)’ पुस्तक में सुकोमल सेन लिखते हैं, ‘‘इन मजदूरों को भरती करने का तरीका अवर्णनीय संत्रास से भरा था। यूरोप के मालिक भारत के ग्रामीण इलाकों से मजदूरों को एकत्र करने के लिए भारत के अपराध जगत से जुडे़ कुछ बिचौलियों का इस्तेमाल करते थे। इन आदमियों को प्रचलित शब्दों में अरकथी कहा जाता था। यह अरकथी बहुत ही लापरवाह और बेरहमी से तमाम धूर्ततापूर्ण उपाय अपनाकर इन बेरोजगार, अधनंगे, भूखे ग्रामीण लोगों को लालच देकर भारत से बाहर जाने के लिए तैयार कर लेते थे।’’[2]  झूठे कपट जाल में फँसा कर इन ग्रामीणों को बँधुआ बना लिया जाता था। वहाँ इन्हें अनवरत श्रम और हिंसा का सामना करना पड़ता था। ब्रिटिश राज में जब्त की गई पुस्तकों से इस बर्बरतापूर्ण सचाई का खुलासा होता है। लक्ष्मण सिंह के नाटक ‘कुली-प्रथा’ में प्रवासी भारतीयों की दीन दशा का वर्णन है। ‘‘कुली-प्रथा का लेखन 1913 में और प्रकाशन 1916 में हुआ जिसके पीछे गणेशशंकर विद्यार्थी एवं माखनलाल चतुर्वेदी की प्रमुख भूमिका रही है। प्रारम्भ में यह नाटक धारावाहिक रुप से ‘प्रताप’ में छपता रहा। इसे पुस्तकाकार मिला 1916 में और तभी इस नाट्य-कृति पर प्रतिबंध लगा दिया गया।’’[3]

इस नाटक के माध्यम से लक्ष्मण सिंह ने  बड़ी बेबाकी से साम्राज्यवादी शक्ति के कुरुप चेहरे को बेनकाब किया है। वे सीधे-सादे ग्रामीणों को आरकटियों द्वारा विभिन्न प्रपंचों में फँसा कर उन्हें गुलाम बनाए जाने की कहानी कहते हैं। इस संबंध में सत्येन्द्र कुमार तनेजा ने लिखा हैं, ‘‘अवसर मिले तो साम्राज्यवाद का चेहरा किस कदर खौफनाक हो सकता है, इस असलियत का अहसास ‘कुली-प्रथा’ नाटक के पाठ से हो जाता है। फीजी या किसी नए उपनिवेश में खेती-बाड़ी के लिए मजदूर ले जाना एक बात है, सीधे-सादे लोगों को बहकाकर बँधुआ मजदूर बनाना और गुलाम व्यापार करना इन्सानियत को ताक पर रखना है। फीजी में निरंकुशता का उन्माद छाया हुआ था। सनातनी-संस्कारों वाले दम्पति भोलाराम और कुन्ती के बेटे शंकर को घर से भागे कई वर्ष बीत चुके हैं, उसकी कोई खोज-ख़बर नहीं आई। कुछ उदास कुछ उखडे़ माँ-बाप तीर्थ यात्रा के लिए जगन्नाथपुरी आए घूम रहे हैं। उधर आरकटियों (ठगों) का एक दल ऐसे भटके लोगों को अपने जाल में फँसाने में जुटा हुआ है ताकि उन्हें कुली बनाकर फीजी भेजा जा सके।’’[4]  कुलियों को लाने के एवज में आरकटियों को पैसे मिलते थे। इस बात का खुलासा लक्ष्मण सिंह करते हैं। नाटक के प्रथम अंक (प्रथम दृश्य) में नौकर के वक्तव्य से यह साफ जाहिर होता है-

‘‘नौकर: प्रसन्न रहें हमारे डीपी अफसर, फिर किसका डर ? आज उन्होंने लिखा है कि दस कुलियों की आवश्यकता है, प्रति मनुष्य 210 रुपये मिलेंगे।’’[5]  नाटक में सेठ बृजलाल ऐसा ही पात्र है, जो मनुष्यों की खरीद-फरोख़्त में लिप्त रहता है- ‘‘बृज.: कुछ क्या, बहुत कुछ है। दस और चाहिए, दस !
दूसरा: दस ? दस की तो कोई बड़ी नहीं है बात।
बृज.: भाई, पर सोच भी तो लो कोई घात।
तीसरा: अजी सेठ जी, चलते-चलते मार लेते हैं हाथ।

चौथा: आप चिन्तित न हूजिए (गाता है) फाँस लिया करते हैं अवसर पे कपट जाल में हम। ठगी करने के लिए बन जाते कभी डाकटर हैं, ढूँढ़ रोगियों को भेजें फिज़ी अस्पताल में हम; फाँस लिया करते हैं...।’’[6]

भारत से मजदूरों को बाहर भेजने का सिलसिला बहुत पहले से शुरु हो गया था। ‘‘उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक से प्रारंभ होकर बीसवीं सदी की शुरुआत तक भारतीय मजदूर वर्ग, अफ्रीका और वेस्ट इंडीज में चीनी के उपनिवेशों प्रवासी मजदूर के रुप में जाता रहा। भारतीय मजदूर वर्ग के इतिहास में उत्प्रवास का यह दौर एक अत्यधिक हृदय-विदारक परिघटना है।’’[7]  ब्रिटिश राज में जब्त की गई बाबूराम पेंगोरिया की पुस्तक ‘राष्ट्रीय आल्हा’ में भारतीयों को विदेश भेजे जाने का विवरण है। यह पुस्तक जैन प्रेस, आगरा से 1930 में प्रकाशित हुई थी। इसमें बाबूराम पेंगोरिया ‘भारत प्रवासी’ नामक कविता में लिखते हैं-
‘‘अब कितने बाहर भारतवासी उनका भी कुछ करुँ बखान।
भूख की ज्वाला ने जब मारे पहुँचे परदेशन में जाय।।
इनकी संख्या इस प्रकार है फीजी पहुँचे साठ हजार।
पौने ३ लाख हैं मारीसिस में डीनाटाड में १ लाख २९ हजार।।
नौ लाख भारतीय सिंघल द्वीप में पुगरंडा में दस हजार।
बिंडवार्ड में  दो हजार हैं और शम में चार हजार।।
गिलवर्ट द्वीप में बसे तीन सौ सेन्टलमेन्टस असी हजार।
न्यूज़ीलैण्ड में बसे पांच सौ दस हजार है जंजीबार।।[8]

आगे वे हांगकांग, केन्या, दक्षिण अफ्रीका, जमैका समेत अन्य देशों में रह रहे भारतीयों का विवरण देते हैं:
‘‘२५ हज़ार केनिया बस रहे हांगकांग में ४ हज़ार।
दक्षिण अफ्रीका में संख्या १ लाख ६१ हज्जार।।
आस्ट्रेलिया  में इनकी संख्या ६ हज़ार ६ सौ है जान।
0 हज़ार जमैका मांहि बाह बात में जानो चार।।
हुंडराज में दौ सौर पहुंचे मोम वासा में पांच हजार।
सिलेचीज में पांच बस गए हैं बारडीज़ एक हैं जाय।।
भारत प्रवासी से उद्धृत कर यह सब बौर दिया बताय।’’[9]

फीजी, मारीशस समेत कई देशों में मजदूर भेजे जाते थे। ‘‘मारीशश, ब्रिटिश गिना, त्रिनिदाद और जमाइका द्वीप समूह चीनी उत्पादन के लिए प्रसिद्ध थे। इन द्वीप समूहों में गन्ने के खेतों और चीनी मिलों में दास मजदूरों से काम लिया जाता था। दासों के व्यापार की समाप्ति के बाद इन दास मजदूरों ने चीनी मिलों और गन्ने के खेतों में काम करने से मना कर दिया। इससे इन द्वीपों की चीनी मिलों और गन्ने के खेतों के लिए मजदूरों का भारी संकट उत्पन्न हो गया। तब साम्राज्यवादियों का समर्थन प्राप्त चीनी उद्योग के धन्ना सेठों ने, इन उपनिवेशों में भारत के गरीब और भूमिहीन किसानों का मजदूर के रुप में आयात करना प्रारंभ किया।’’[10]

कुली-प्रथा’ नाटक में इस बात की चर्चा की गई है कि परिश्रमी भारतीय मजदूरों का निर्यात किया जाता था। नाटक के प्रथम अंक के चौथे दृश्य में युवकों की बातचीत से इस बात का खुलासा होता है, ‘‘पहला: यह देश वीरान और ऊसर- सा पड़ा था। हड्डीतोड़ परिश्रम की आवश्यकता थी। यह परिश्रम विलासी शरीर से होना असम्भव था। उस आवश्यकता की कुछ पूर्ति वहाँ के हबशियों ने की, फिर नित्य प्रति बढ़ने वाली उस आवश्यकता ने भारत की जनसंख्या पर हाथ फेरा। इसी से ¼Indenture Labour System½ अर्थात् ‘प्रतिज्ञाबद्ध कुली-प्रथा’ का अवतार हुआ जिसने हमारे देशवासियों को गुलामी के कीच में जा उतारा। यह प्रथा बहुत वर्षों से प्रचलित है। ब्रिटिश उपनिवेशों में, भारतवासी स्त्री-पुरुष शाखों की संख्या में पहुँच चुके हैं।’’[11]  ये मजदूर स्वतंत्र नहीं होते थे। सुकोमल सेन लिखते हैं, ‘‘इन प्रवासी मजदूरों को स्वतंत्र मजदूर नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र नहीं थे। वे अनुबंधित मजदूर थे।’’[12]  सीधे-सादे यात्रियों और ग्रामीणों को बहला-फुसला कर फँसा लिया जाता था। ‘‘इन लोगों को धोखाधड़ी से कैसे भरती किया जाता था, इसकी एक मिसाल हरी बिस्वाल की निम्नलिखित गवाही में देखें: मैं कटक का निवासी हूँ। हम चार लोग रोजगार की तलाश में रुके। एक आदमी जिसके पास बिल्ला (बैज) था वह भी अन्य यात्रियों के साथ रुका। अगले दिन हम लोग अपनी यात्रा पर निकल पड़े वह चपरासी जिसके हाथ पर बिल्ला लगा था वह भी हमारे साथ-साथ चल दिया। हम लोगों से उसकी बातचीत होने लगी। बातों ही बातों में उसने कहा कि हम लोग उसके साथ कोलकाता चलें वह नौकरी की व्यवस्था कर देगा। उसने कहा कोलकाता से मात्र चार दिन की यात्रा पर एक जगह मारीशस है। वह मारीशस में 10 रु. प्रति माह पर नौकरी दिला देगा और मुझे जब चाहूँ इस्तीफा देने की स्वतंत्रता होगी।’’[13]  ‘कुली-प्रथा’ नाटक में भी आरकटियों द्वारा नौकरी के नाम पर छल-प्रपंच से गुलाम बनाने की नीति दिखाई देती है। कुन्ती का बेटा शंकर इसी कपट का शिकार होकर फीजी पहुँच गया। ‘‘शंकर: माँ, मैंने अमेरिका जाने की इच्छा से घर छोड़ा। दो वर्ष तक इधर-उधर घूमता रहा। आरकटियों ने धोखा दे यहाँ भेज दिया।’’[14] 

नौकरी की तलाश में निकले गरीब युवक आरटियों के जाल में फँस जाते थे। ‘फिजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष’ पुस्तक में तोताराम सनाढ्य इस कठोर जीवन की रुपरेखा बयान करते हैं। उन्होंने लिखा है, ‘‘सन् 1893 ई. में नौकरी के लिए मैं घर से निकल कर पैदल चल दिया। मेरे पास कुल सात आने पैसे थे। मार्ग में अनेक कठिनाईयों का सामना करता हुआ कोई सोलह दिन में प्रयाग पहुँचा। बस, इसी स्थान से मेरी तुच्छ जीवनी की दुःखजनक रामकहानी प्रारंभ होती है।...एक दिन मैं कोतवाली के पास चौक में इसी चिंता में निमग्न था कि इतने में मेरे पास एक अपरिचित व्यक्ति आया और उसने मुझसे कहा: क्या तुम नौकरी करना चाहते हो ? मैंने कहा: हाँ। तब उसने कहा: अच्छा, हम तुम्हें बहुत अच्छी नौकरी दिलवायेंगे। ऐसी नौकरी कि तुम्हारा दिल खुश हो जाय।’’[15]  सीधे-सादे भारतवासियों को किस प्रकार बहकाया जाता था इसका वर्णन भी तोताराम जी करते हैं। वे बताते हैं, ‘‘वह आरकाटी मुझे बहकाकर अपने घर ले गया वहाँ जाकर मैंने देखा कि एक दालान में लगभग एक सौ पुरुष और दूसरे में करीब साठ स्त्रियाँ बैठी हुई हैं। कुछ लोग गीली लकडि़यों से रसोई कर रहे थे और चूल्हा फूँकते-फूँकते हैरान हो रहे थे।’’[16]  जब तोताराम सनाढ्य ने नौकरी करने से मना कर दिया तो उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया गया। ‘‘जब मैं समझाए जाने पर किसी तरह राजी न हुआ, तो एक कोठरी में बंद कर दिया गया। एक दिन एक रात मैं भूखा-प्यासा इसी कोठरी में रहा। अंत में लाचार होकर मुझे कहना पड़ा कि मैं फिजी जाने को राजी हूँ।’’[17] 

भारतवासियों की दशा अत्यंत दयनीय थी। उनके साथ पशुवत व्यवहार किया जाता था। यहाँ से भारी संख्या में नागरिकों को बाहर भेजा गया, जिनकी दशा अच्छी न थी। लक्ष्मण सिंह लिखते हैं, ‘‘वहाँ की सरकार का नियम है कि कोई एशियावासी, विशेषकर भारतीय, विशेष प्रान्तों को छोड़ दूसरे प्रान्तों की सीमा में पैर नहीं रख सकता, और न वह सोने की खानों के आसपास डेढ़ मील के अन्दर रह सकता है। उसका मकान नगर के बाहर मीलों दूर होना चाहिए। सारांश वहाँ उन्हें पाले हुए पशुओं से अधिक स्वाधीनता नहीं। फिज़ी इत्यादि द्वीपों में पाँच वर्ष पश्चात् प्रतिज्ञा से छुटकारा पाने पर भी उन्हें स्वतंत्रता के स्वत्व नहीं दिए जाते। केनेडा, आस्ट्रेलिया आदि उपनिवेशों में तो कोई भारतवासी जा ही नहीं सकता। ये तो हुई वहाँ की बातें जहाँ हमारे अंग्रेज बहादुर का राज्य है। अब यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरिका में नियम बनने वाला है कि वहाँ भारतवासी न धँसने पाँवें। बात सच है, जो घर में ही दुरदुराया जावे उसका बाहर कौन मान करेगा ? पोर्चुगााल वालों के पूर्वीय अफ्रीका का नियम है कि जो भारतवासी वहाँ जाकर रहेगा उस पर कर लगेगा। अंग्रेजी उपनिवेशों में ही नहीं किन्तु विदेशीय उपनिवेशों में भी भारतवासी, कुली भेजे जाते हैं। 1912 के दिसम्बर में डच गायना में 4669 भारतीय कुली थे। वहाँ पर भी वे अत्याचारों से नहीं बचते। अपने देश भारतवर्ष में भी हमारी दशा शोचनीय है। कहीं निलहे कोठी वाले दुहरा लगान वसूल करते हैं, कहीं चाय बागान वाले नादिरशाही मचाते हैं, कहीं बेगार वाले औरंगजे़बी करते हैं और कहीं बात-बात पर ठोकरें पड़ती हैं।’’[18] 

कैप्टन एफ. डब्ल्यू ब्रीच के द्वारा की गई जाँच से ज्ञात होता है कि कुली बनाने के लिए लोगों का अपहरण भी होता था। ‘‘प्र. क्या आप 1837 के ऐक्ट नं. v के पारित होने से पहले अगवा करने की घटनाओं से भली प्रकार अवगत हैं ? उ. इस तरह की घटनाएँ होती थीं। मुझे एक घटना याद है जिसमें एक औरत को बेहोश कर के एक बक्से में बंद कर दिया गया था। वे लोग उसे मैदान के पार ले जा रहे थे तभी उसे होश आ गया। उसे काट डाला गया था। मैं इससे अधिक कुछ नहीं बता सकता। बंगाल प्रान्त के निचले भाग में बड़े पैमाने पर अपहरण की घटनाएँ होती हैं।’’[19]  भारतीय कुलियों पर होने वाले अत्याचारों की कहानी यत्र-तत्र प्रकाशित होने लगी थी। ‘‘15 जून 1938 को बांबे गजेट में इस दर्दनाक घटना के बारे में लिखा गया: इन ठगे गए मजदूरों को नौकरी का भुलावा देकर घर से बहका कर लाया जाता। जलपोतों में भर कर उनको गंतव्य को भेजा जाता, तभी से वह अपने काम लेने वाले मालिक के आधीन हो जाते मानो उनका जन्म ही गुलामी में हुआ है। उन्हें ऐसे उपनिवेशों में भेजा जाता जहां दास प्रथा समाप्त हो गई थी लेकिन वे दास बना दिए जाते।’’[20]  कुलियों पर होने वाले अत्याचारों की कोई सीमा न थी। वे इस बात की फरियाद कहीं नहीं कर सकते थे। नाटक ‘कुली-प्रथा’ में एक हिन्दुस्तानी का वक्तव्य है: महाराज, मैं जिस प्रकार बहकाकर लाया गया उसके कहने की कोई आवश्यकता नहीं। और यहाँ पर जैसे-तैसे कष्ट हुए या होते हैं वे शायद आप को मालूम ही होंगे। मैं ‘शायद’ इसलिए कहता हूँ कि जब से आप के आने की ख़बर सुनी है तब से सब कोठी वाले ने और इंस्पेक्टरों ने कुलियों को धमका रखा है कि जो कोई हमारे विरुद्ध बात कहेगा उसे याद रखना चाहिए के गिरमिट खतम होने तक उसे हमारे ही हाथ रहना होगा। इस प्रकार धमका के उन्होंने सब बातें पहले से ही गवाहियों को सिखा रखी थीं। आप अभी ‘न्यूचू’ गाँव से यहाँ आए, इसी बीच देखिए मुझ पर कैसी मार पड़ी ? गवाही देते समय मैंने आप से कह दिया था कि पूरा पूरा भोजन नहीं मिलता। आपके पीछे इंस्पेक्टर ने मुझे बुलाकर इस बात के कहने के दोष में इतना मारा कि मेरे ये दाँत टूट गए।’’[21]  इन भारतीय मजदूरों के साथ जानवरों की तरह व्यवहार किया जाता था। ‘‘बुरी तरह से भरे हुए मालवाहक जलपोत में जानवरों की तरह ठूंस-ठूंस कर उनको भर दिया जाता है, उनको आधा पेट खाना दिया जाता है। उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है और दवा आदि की कोई सुविधा नहीं दी जाती। इन अभागे मजदूरों में से कुछ तो मार्ग में ही मर जाते हैं, बाकी मजदूर जब गंतव्य स्थान पर पहुँचते हैं तो वह बुरी तरह थके-हारे होते हैं। अपने को इन उपनिवेशों के वातावरण के अनुकूल बनाना भी इनके लिए अग्नि परीक्षा है। इन उपनिवेशों में काम की स्थितियाँ अति कठिन थीं। इन मजदूरों को प्रतिदिन 12 से 15 घंटे काम करना पड़ता था। गन्ने के खेतों और चीनी मिलों में अत्यधिक कठिन काम होने के कारण मजदूरों को अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए अधिकतर रात में भी काम करना पड़ता था। बुरी तरह से थके  और निराश, वह देर रात घर लौटते। जब वे खेतों और मिल में काम करते तो उन पर कार्यनिरक्षक (दरोगा) निरंतर निगरानी रखता, मानो गुलामों से  काम करा रहा हो। अवकाश के दिन (रविवार) भी इनको कोई न कोई काम सौंप दिया जाता। कुछ उपनिवेशों में तो उनको 18 घंटे तक काम करना पड़ता था। इस अत्यधिक कठोर काम के कारण मजदूरों की मृत्युदर भी बहुत अधिक थी।’’[22]

कुलियों से अनवरत काम लेने के बाद उनसे मारपीट भी की जाती। ‘कुली-प्रथा’ नाटक में एक फिजि़यन के कथन से इस अमानवीयता का पता चलता है। ‘‘फिजि़यन: इतने में इंस्पेक्टर साहब आए। उन्होंने धमका कर दस कोडे़ लगाए तो वह पाजी काम पर जाने की अपेक्षा वहीं लेट गया। इससे हुजूर, इंस्पेक्टर साहब अधिक क्रुद्ध हुए। और उन्होंने, फेंक कोट और बाँह चढ़ाकर,/झुँझलाकर और आगे बढ़कर।/घूँसा बाज़ी खूब मचाई,/उसकी यों आपद घिर आई।/कभी पीठ पर, कभी पेट पर,/कभी आँख पर, कभी नाक पर।/कभी गाल पर, कभी कान पर।।/दे दनादन खून वहाँ फिर,/दाँत वाँत इस पाँच गए गिर।’’[23]

सबसे खराब दशा स्त्रियों की थी। उनके शोषण की सीमा न थी। श्रम के साथ-साथ उनका शारीरिक शोषण भी होता था। इस संबंध में तोताराम सनाढ्य ने लिखा है, ‘‘आरकटियों ने कुंती और उसके पति को लखुआपुर जिला गोरखपुर से बहका कर फिजी को भेज दिया था। इन लोगों को वहाँ बड़े  बड़े कष्ट सहने पडे़। इस समय कुंती की अवस्था 20 वर्ष की थी। बड़ी कठिनाईयों से कुंती 4 वर्ष तक अपने सतीत्व की रक्षा कर सकी। तदनंतर सरदार और ओवरसियर उसके सतीत्व को नष्ट करने के लिए सिरतोड़ कोशिश करने लगे। 10 अप्रैल 1912 को ओवरसियर ने कुंती को साबू केरे नामक केले के खेत में सब स्त्रियों और पुरुषों से पृथक घास काटने का काम दिया, जहाँ कोई गवाह न मिल सके और चिल्लाने पर भी कोई न सुन सके। वहाँ उसके साथ पाशविक अत्याचार करने के लिए सरदार और ओवरसियर पहुँचे। सरदार ने ओवरसियर के धमकाने पर कुंती का हाथ पकड़ना चाहा। कुंती हाथ छुड़ाकर भागी और पास की नदी में कूद पड़ी।’’[24]

कुली-प्रथा’ नाटक से भी इस बात का खुलासा होता है। ‘‘ब्रजलाल: अरे भाई, गान्ट साहब की कोठी में तो सौ आदमियों के बीच कुल पच्चीस स्त्रियाँ रह गई हैं। वहाँ अभी आठ और चाहिए। आज्ञा है कि कम-से-कम तीन पुरुषों के लिए एक स्त्री अवश्य हो।’’[25]  अब्बास के कथन से उनके ऊपर होने वाले क्रूर हिंसा का पता चलता है।  कुली-प्रथा में यह आम बात थी कि सद्यः प्रसूता को भी काम पर जाना पड़ता था। अत्याचार की इस पराकाष्ठा को देख अब्बास कहता है: ‘‘या ख़ुदा, पाक परवरदिगार, तू ने ठीक ही किया जो ऐसे पापी को मेरे हाथों से मरवाया। ओफ़! इसने एक दिन दस बारह स्त्रियों को एक क़तार में खड़ी कर के उन्हें उनके बिलखते हुए बच्चों के ही सामने गेंडे की खाल के कोडे़ से मारा था, और इतना निर्दयता से कि उनके मोटे कपड़ों के ऊपर होकर ख़ून बहने लगा था। इसने क्या-क्या नहीं किया ? एक दिन एक स्त्री अपने पाँच दिन के बच्चे को लेकर काम करने खेत पर आई थी। दोपहर को जब उसे प्यास लगी तो पानी पीने के लिए नदी पर गई। वहाँ छाया में बैठकर अपने बच्चे को दूध पिला रही थी। दुर्भाग्य से यह पापी वहाँ आ निकला। इसने उस दूध पीते बच्चे को खींच के नदी में फेंक दिया। मुँह से दूध उगलता हुआ बच्चा नदी में गिर कर बह गया। यह दुष्ट उस नारी के चिल्लाने की परवाह न कर उसके बाल पकड़ खींचता हुआ खेत पर ले आया। उस दिन से सब स्त्रियाँ अपने बच्चों के पैर खूँटे से बाँध, घर में बन्दकर, ताला लगा, खेतों में आती हैं। उस समय यदि कोई कुलियों की झोपड़ी की ओर चला जावे तो भूखे बच्चों के चिल्लाने और रोने की आवाज से उसका हृदय फटने लगता है। इसने ज़बरदस्ती स्त्रियों को दूषित किया, इसलिए कई कुलियों ने अपनी स्त्रियों को मार डाला, और आप फाँसी पर चढ़ गए।’’[26]  कहना न होगा कि प्रवासी भारतीयों पर अत्याचार की कोई सीमा न थी। अपनी रचनाओं में सजग लेखक समुदाय इनके खिलाफ आवाज बुलंद करने लगा था। उनकी अति दारुण दशा को जनमानस के सामने रखा जाने लगा। इस सक्रियता को देख ब्रिटिश सरकार ने सख़्त कदम उठाए। उसने इन रचनाओं को जब्त घोषित कर दिया। बावजूद इसके, लेखक, संपादक मंडल बड़े साहस के साथ इस अभियान में लगे रहे।






[1] तनेजा, सत्येंद्र कुमार : सितम की इंतिहा क्या है ? :राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, बहावलपुर हॉउस, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2010 . पृ. सं. 134
[2]सेन, सुकोमल : भारत का मजदूर वर्ग : उद्भव और विकास (1830-2010) , ग्रन्थ शिल्पी , प्रथम संस्करण 2012, पृ. सं. 61
[3] तनेजा, सत्येंद्र कुमार : सितम की इंतिहा क्या है ? :राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, बहावलपुर हॉउस, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2010 . पृ. सं. 135
[4] तनेजा, सत्येंद्र कुमार : सितम की इंतिहा क्या है ? :राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, बहावलपुर हॉउस, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2010 . पृ. सं. 136

[5] तनेजा, सत्येंद्र कुमार : सितम की इंतिहा क्या है ? :राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, बहावलपुर हॉउस, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2010 . पृ. सं.158
[6] तनेजा, सत्येंद्र कुमार : सितम की इंतिहा क्या है ? :राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, बहावलपुर हॉउस, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2010 . पृ. सं.158
[7] सेन, सुकोमल : भारत का मजदूर वर्ग : उद्भव और विकास (1830-2010) , ग्रन्थ शिल्पी, प्रथम संस्करण 2012, पृ. सं.60

[8] पेंगोरिया, बाबूराम : राष्ट्रीय आल्हा ; जैन प्रेस, आगरा, 1930 ,11 वीं कविता (भारत प्रवासी)
[9] पेंगोरिया, बाबूराम : राष्ट्रीय आल्हा ; जैन प्रेस, आगरा , 1930 ,11 वीं कविता (भारत प्रवासी)
[10] सेन, सुकोमल : भारत का मजदूर वर्ग : उद्भव और विकास (1830-2010) , ग्रन्थ शिल्पी , प्रथम संस्करण 2012, पृ. सं.60

[11] तनेजा, सत्येंद्र कुमार : सितम की इंतिहा क्या है ? :राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, बहावलपुर हॉउस, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2010 . पृ. सं.166
[12] सेन, सुकोमल : भारत का मजदूर वर्ग : उद्भव और विकास (1830-2010) , ग्रन्थ शिल्पी, प्रथम संस्करण 2012, पृ. सं.60
[13] सेन, सुकोमल : भारत का मजदूर वर्ग : उद्भव और विकास (1830-2010) , ग्रन्थ शिल्पी, प्रथम संस्करण 2012, पृ. सं.62
[14] तनेजा, सत्येंद्र कुमार : सितम की इंतिहा क्या है ? :राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, बहावलपुर हॉउस, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2010 . पृ. सं.202

[15] सनाढ्य, तोताराम : फ़िजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष; http://www.hindisamay.com/vividh/fizi-dveep-me-mere-21-varsh.html Hindi  samay . com
[16] सनाढ्य, तोताराम : फ़िजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष ; http://www.hindisamay.com/vividh/fizi-dveep-me-mere-21-varsh.html Hindi   samay  . com
[17] सनाढ्य, तोताराम : फ़िजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष ; http://www.hindisamay.com/vividh/fizi-dveep-me-mere-21-varsh.html Hindi   samay  . com
[18] तनेजा, सत्येंद्र कुमार : सितम की इंतिहा क्या है ? :राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, बहावलपुर हॉउस, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2010 . पृ. सं.166

[19] सेन, सुकोमल : भारत का मजदूर वर्ग : उद्भव और विकास (1830-2010) , ग्रन्थ शिल्पी , प्रथम संस्करण 2012, पृ. सं.63
[20] सेन, सुकोमल : भारत का मजदूर वर्ग : उद्भव और विकास (1830-2010) , ग्रन्थ शिल्पी , प्रथम संस्करण 2012, पृ. सं.64     
[21] तनेजा, सत्येंद्र कुमार : सितम की इंतिहा क्या है ? :राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, बहावलपुर हॉउस, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2010 . पृ. सं.197

[22] सेन, सुकोमल : भारत का मजदूर वर्ग : उद्भव और विकास (1830-2010) , ग्रन्थ शिल्पी , प्रथम संस्करण 2012, पृ. सं. 65
[23] तनेजा, सत्येंद्र कुमार : सितम की इंतिहा क्या है ? :राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, बहावलपुर हॉउस, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2010 . पृ. सं190
[24] सनाढ्य, तोताराम : फ़िजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष ; http://www.hindisamay.com/vividh/fizi-dveep-me-mere-21-varsh.html Hindi   samay  . com

[25] तनेजा, सत्येंद्र कुमार : सितम की इंतिहा क्या है ? :राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, बहावलपुर हॉउस, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2010 . पृ. सं.184
[26] तनेजा, सत्येंद्र कुमार : सितम की इंतिहा क्या है ? :राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, बहावलपुर हॉउस, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2010 . पृ. सं.215


[ साभार: जनकृति पत्रिका, सयुंक्त अंक, अक्टूबर-दिसंबर 2017]

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