विश्वहिंदीजन चैनल को सबस्क्राइब करें और यूजीसी केयर जर्नल, शोध, साहित्य इत्यादि जानकारी पाएँ

आधुनिक हिंदी नाटकों के चिंतन का स्वरुप: अजय कुमार सरोज



आधुनिक हिंदी नाटकों के चिंतन का स्वरुप


अजय कुमार सरोज 
पी-एच.डी. (शोधार्थी)
प्रदर्शनकारी कला विभाग 
म. गां. अं. हिं. वि. वर्धा, महाराष्ट्र 442005
ई-मेल: aksaroj2510@gmail.com
मो॰ 7888275645


आधुनिक हिंदी रंगमंच की शुरुआत सन 1857 से मानी जाती हैं| यह समय हिंदी साहित्य के इतिहास में भारतेंदु युग नाम परिचित हैं| साहित्य और रंगमंच का बहुत ही करीब रिश्ता हैं| यदि साहित्य की पहली अभिव्यक्ति विधा कविता है तो नाटक एक उसी अभिव्यक्त विधा को जीवंत रूप देने में सशक्त विधा है| भारतीय नाटक की उत्पत्ति देखी जाए तो यह उत्पत्ति कब-कैसे एवं किन उपादानों के संयोग से हुई इस विषय पर विद्वानों में मंतव्य नहीं है| परन्तु किसी विद्वान् का मत भी अप्रमाणिक सिद्ध करना अत्यंत कठिन हैं| क्योंकि नाटक समाज आईना (दर्पण) होता हैं| समाज निरंतर परिवर्तन शील रहता हैं | आज का सामाजिक परिवेश अतीत के सामाजिक परिवेश काफी अधिक बदला हैं | प्रेमचंद ने भी साहित्य की बहुत सी परिभाषाए दी है पर मेरे विचार से उनकी सर्वोत्तम परिभाषा जीवन की आलोचना है| डॉ. नगेन्द्र के शब्दों में “साहित्य का जीवन से गहरा संबंध है : एक क्रिया के रूप में दूसरा प्रक्रिया के रूप में | क्रिया रूप में वह जीवन की आभिव्यक्ति है प्रतिक्रया रूप में उसका निर्माता और पोषक ” इसलिए साहित्य मानव सभ्यता की विकास का घोतक माना जाता है| आधुनिक साहित्य के आरम्भ में ही नाटक इस विधा का प्रारंभ हुआ | नाटक विधा का उदभव और विकास का विवेचन करते हुए रामचंद्र शुक्ल इतिहास में “आधुनिक गध –साहित्य परम्परा का प्रवर्तन शीर्षक परिच्छेद के अंतर्गत लिखते हैं कि – विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गध –साहित्य की परंपरा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ ” इस बात पर हेनरी डब्ल्यू वेल्थ भारत का प्राचीन नाटक में लिखते है कि घटनाओं का कृत भी कितना विलक्षण हैं| करुण रस अपनें में तो एक ही है लेकिन विभिन्न परिस्थितियों में उनका अलग –अलग रूप हो जाता है जैसे पानी के अलग –अलग रूप भंवर, बुलबुले , तरंगे तो है लेकिन वास्तव में वे सब पानी ही है| इसलिए नाटक एक कला है जहां शब्दों को इस प्रकार से संगठित किया जाता है कि उसे प्रतुत करके आनंद की प्राप्ति तो होनी ही हैं उसके साथ –साथ अनुभवों के माध्यम से ज्ञान का विस्तार होना हैं|जिस प्रकार शब्दों के बिना साहित्य नहीं रचा जा सकता उसी प्रकार रंगों रेखाओं के बिना चित्रकला की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार इस जीवंत तत्वों के बिना इन प्रदर्शनकारी कलाओं के अस्तित्व की कोई पहचान नहीं की जा सकती| लेकिन साहित्य और प्रदर्शनकारी कलाओं को अनुभूत करने की प्रक्रिया ठीक एक-दूसरे के विपरीत मानी जाती है| नाटक यह विधा प्रकृति से संश्लिष्ट विधा मानी जाती हैं| इसी बात पर भरत मुनि जो कहा था वह इस प्रकार है “ न ऐसा कोई ज्ञान है, न शिल्प है, न विधा है, न ऐसी कोई कला है,न कोई योग है न कोई कार्य ही है जो इस नाट्य में प्रदर्शित न किया जाता हो ” नाटक यह विधा इस तरह मानी जाती है इसमें ऐसा कोई ज्ञान न हो जो की प्रस्तुत नहीं हुआ हो | सिंध, कला , योग इन सभी बातों का प्रयोग नाटक में होता है| इसके प्रस्तुतिकरण में अनेक कलाकारों सामूहिक योगदान होता है| जैसे –नाटक , लेखक , निर्देशक, अभिनेता , सज्जा-सहायक , मंच व्यवस्थापक , प्रकाश चालक तथा इनके पीछे काम करने वाले अनेक शिल्पी तथा कारीगर | इन सभी कलाकारों के बिना नाटक अधूरा हैं| उनके रचना में इन सबको सहयोग गुणात्मक होता है| दूसरी ओर नाटक अपने प्रकृति में सामूहिक है| इसे एक साथ अनेक लोग देख सकते| इसलिए इस विधा को आज जीवंत विधा माना जाता है | आधुनिक हिंदी नाटकों का चिंतन का स्वरुप पर चिंतन करते समय इस काल के नाटकों को भाग में बांटा गया है –

1. भारतेंदु पूर्व हिंदी नाटकों का स्वरुप 

2. भारतेंदु युगीन हिंदी नाटकों का स्वरुप 

3. प्रसाद युगीन हिंदी नाटकों का स्वरुप 

4. प्रसादोत्तर हिंदी नाटकों का स्वरुप 

5. साठोत्तरी हिंदी नाटकों का स्वरुप 



१) भारतेंदु पूर्व हिंदी नाटकों का स्वरुप :- भारतीय नाट्य मंच का रचनाकाल निर्धारित करना एक जटिल समस्या है| इस कला प्रणयन किसी एक व्यक्ति द्वारा एक समय में हुआ होगा| भारतीय परंपरा भरत को ही नाट्यशास्त्र का रचयिता मानती है| किन्तु भारतीय इतिहास में अनेक भरतों का होना काल-निर्धारण में एक उलझन उत्पन्न कर देता है| जिसका समाधान अभी तक नहीं हो पाया है| प. मनमोहन घोष भाषाशास्त्रीय, छंदशास्त्र भौगोलिक तथ्यों के आधार पर कहते है कि “नाट्यशास्त्र के प्रणयन का समय ई.पू.प्रथम शताब्दी तथा ई. द्वितीय शताब्दी के मध्य मानते है ” आज नाटकों में जो भाषा शैली अपनाई जाती हैं| वह संस्कृत और प्राकृत भाषा से आई हैं| इस बात के आधार पर नाट्यशास्त्र या नाटक रचना का बहुत ही प्राचीन माना जाता है| आधुनिक युग के प्रारंभ में जो नाटक लिखे गये वह भारतेंदु युग पूर्व नाटक के नाम से विख्यान हैं| आधुनिक युग लोक मानस को लेकर बहुत ही चर्चित नाटक माने जाते हैं| नाटक को लोकवृत का अनुकरण माना जाता हैं| लोकवृत उसे कहते है जो समाज का अनुकरण करके रंगमंच के माध्यम से अभिव्यक्त कला है| क्योंकि नाटकों में सामाजिक आचरण की सहज अभिव्यक्ति पाई जाती हैं| भारतेंदु यूग पूर्व नाटकों में अंग्रेजों द्वारा स्थापित प्रथम ‘रंगशाला’ ’प्ले हाउस ’ नाम से सन 1776 ई. में कलकत्ते में स्थापित की गयी थी| इसके बाद सन 1777 ई. में ‘कलकत्ता थियेटर ’ की स्थापना हुई| इसी थियेटर में सन 1789 ई. में कालिदास के ‘अभिज्ञानशाकुंतलम ’ का अंग्रेजी में अभिनय प्रस्तुत किया गया है| इन अभिनय शालाओं में भारत में रहने वाले सभी शिक्षित समुदाय का ध्यान नाट्यकला की ओर आकृष्ट किया था| सर विलियम जोन्स द्वारा फोर्ट विलियम कॉलेज में ‘शकुंतला’ के कई अनुवाद प्रस्तुत किये जा चुके थे | शेक्सपियर के नाटकों का अध्ययन भारतीयों द्वारा प्रतिदिन दिलचस्पी के साथ हो रहा था | आज नाट्य संस्कार अब भी भारतीय कलाकारों के मानस में विधमान हैं| इसलिए बाबू गुलाब राय कहते है कि – “नाटक सामाजिकों की अभिवृत्तियों कार्य व्यवहारों का अभिनय के माध्यम से रंगमंच पर उपस्थित करता है , जिसे देखकर सामाजिकों का मन प्रसादन होता है| नाटक में सभी वर्गों जातियों की अवस्था , गुण,रूचि के अनुसार सामग्री उपलब्ध रहती हैं| नाटक की कथा वस्तु में जिन धर्म,क्रीडा,श्रम,हास्य,युद्ध एवं काम आदि भावों की अभिव्यंजना रहती हैं वास्तव में भाव ही हमारे जीवनगण एवं सामाजिक मूल्य है| मंच पर इन्ही प्रतिफलित होते देखकर हमें एक प्रकार का आनंद मिलता है| हमारे समाजिक भाव की तृप्ति होती है| ” इसलिए नाटक हमारे यथार्थ जीवन से जोड़ा गया है| वह सामाजिक मूल्यों की परख अपने अभिनय के माध्यम से दिखाते हैं| कविता, निबंध आदि में भी कल्पना के अतिरिक्त तथा विषय एवं अभिव्यक्ति की व्यापकता के लिए कम अवसर होने के कारण जीवन-मूल्यों का मौक़ा नाटक की तुलना में कम रहता हैं| जबकि नाटक में मूल्याभिव्यक्ति की जीवंत एवं अपेक्षाकृत व्यापक प्रक्रिया उपस्थित करता हैं|

२) भारतेंदु युगीन हिंदी नाटकों का स्वरुप :- भारतेंदु पूर्व युगीन नाटकों में सन 1700 के आसपास लिखा गया महाराज विश्वनाथ सिंह कृत ‘आनंद रघुनन्दन ’ नामक नाटक भारतेंदु युग के पूर्व नाटकों में गिना है| भारतेंदु के पिता गोपालचंद्र उपनाम गिरिधर दास द्वारा रचित नहुष सन 1857 हिंदी का प्रथम आधुनिक नाटक माना जाता है| इसके बाद शीतलाप्रसाद त्रिपाठी रचित जानकी मंगल 1868 आदि नाटकों ने भारतेंदु युग पूर्व महत्त्वपूर्ण कृतियों स्थान निभाया हैं | 

जब से भारतेंदु युग का आरम्भ हुआ तब से इस युग के प्रसिद्ध नाटककार स्वयं भारतेंदु ही रहे हैं | भारतेंदु द्वारा अनुदित तथा मौलिक कृत सत्रह नाटक हैं जिसमें सर्वप्रथम ‘विधाशंकर’ बांग्ला से रूपांतरित नामक नाटक सन 1868 में लिखा गया| उसी वर्ष ‘रत्नावली’ संस्कृत से अनुदित पाखण्ड विडंबन (1872), धनंजय विजय (1873), कपूर मंजरी (1875 ), श्री चंद्रावली नाटिका (1873), विघटन विषमौधम नाटक (1876), भारत दुर्दशा (1880), नीलदेवी गीतीरुपक (1881), अँधेरी नगरी प्रहसन नाटक (1881), सती प्रताप (1883), प्रेमयोगिनी नाटिका (1875) आदि कृतियाँ हैं| 

इस युग में प्रेम प्रधान रोमानी नाटक भी लिखे गये जिसमें श्री निवासदास कृत , रणधीर प्रेम मोहिनी, किशोरी लाल गोस्वामी कृत प्रणयिनी परिणय,शालीग्राम शुक्ल कृत ‘मयंक मंजरी ’, लावण्यवती सुदर्शन , गोकुलनाथ शर्मा कृत ‘पुष्पवती’आदि नाटक प्रमुख हैं| वास्तव में इन सभी नाटकों का उद्देश्य मनोरंजन के साथ-साथ जनजागृति तथा राष्ट्रीय भावना उत्पन्न करना था| भारतीय संस्कृति तथा अतीत के गौरव को पुनर जागृत करने एवं भारतीयता की रक्षा करने की दिशा में भी भारतेंदु युगीन नाटकों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है| इसलिए नाटक विधा आज भी प्रासंगिक है| इसलिए भरतमुनि अपने रससुत्र में कहते है कि –“विभावानुभावनयभिचारीसंयोगाद्ररसनिघति ” नाटकों का उद्देश्य सामाजिको को रसानुभूति कराना ही नाटक का उद्देश्य माना गया हैं| रस की निष्पति विभावों , अनुभावों, संचारीभावों और संयोग के द्वारा होती है| इस मत पर विविध विद्वानों ने अपने-अपने मत व्यक्त किये हैं| इस युग के नाटकों में प्रकृति के अनुरूप ही इस युग के लेखकों ने नाट्य –रचना की नाटक के संबंध में आलोचना और समीक्षाएं लिखी तथा नाटकों के प्रस्तुतीकरण और अभिनय में भी खुद भाग लिया| किसी भी युग में इतने पूर्णकालिक नाटक कम लिखे गए हैं|

3) प्रसाद युगीन हिंदी नाटकों का स्वरुप :- भारतेंदु के बाद नाटक आन्दोलन का कुछ समय गतिशील दिखाई देता हैं, हिंदी क्षेत्र के रंगमंच जैसा संकेत किया गया , कुछ तो सामाजिक रुढियों के चलते विकसित नहीं हो पाया| फिर यहाँ के नाटक-लेखक ने अपने ही से हीन माना और दोनों के बीच सहयोग के बजाय अंतराल बढ़ता गया| अपने रंगमंच नाटक में प्रसाद लिखते है कि –यह प्रत्येक काल में माना जाएगा कि काव्यों के अथवा नाटकों के लिए ही रंगमंच होते हैं | काव्यों की सुविधा जुटाना रंगमंच का काम है.. रंगमंच के सम्बन्ध में यह भ्रम है कि नाटक रंगमंच के लिए लिखे जाएँगे, प्रयत्न तो यह होना चाहिए कि नाटक के लिए रंगमंच हो| इससे यह स्पष्ट होता है कि नाटक पहले या रंगमंच , इस दुष्टचक्र में पड़कर हिंदी क्षेत्र का रंगमंच लम्बे अरसे तक शिथिल पड़ा रहा| 

सन 1900 से लेकर 1920 तक हिंदी साहित्य के इतिहास में द्रिवेदी युग माना जाता है| इसी युग में प्रसाद के नाटकों का भी जिक्र किया गया हैं| हिंदी नाटक में प्रसाद के आने से गुणात्मक परिवर्तन होता है| सीधी सपाट भाषा की तुलना में लाक्षणिक और अधिक अर्थ संपन्न भाषा का प्रयोग होने लगता है , जिसे उन्होंने छायावादी कविता के माध्यम तत्वाधान में विकसित किया| प्रसाद ने खुद चन्द्रगुप्त मौर्य के अभिनय में सक्रीय रूचि ली थी और उसका एक संपादित संस्करण प्रस्तुत किया था जिसे बहुत दिनों बाद में ‘अभिनय चन्द्रगुप्त ’ के नाम से प्रकाशित कर दिया गया (1977) | चन्द्रगुप्त मौर्य का यह अभिनय दिसंबर 1933 में काशी में हुआ था| जिसकें पूर्वाभ्यास में स्वयं प्रसाद बैठते थे| उसके बाद 1912 में नागरी प्रचारिणी पत्रिका में ‘कत्यानी परिचय ’ नामक नाटक छपा| बाद में इसी का संशोधित परिवाधित रूप 1931 में चन्द्रगुप्त नाम से प्रकाशित हुआ | कत्यानी परिणय (1912 ) , चन्द्रगुप्त मौर्य (1931), अभिनय चन्द्रगुप्त (1933), और अंतिम नाटक ध्रुवस्वामिनी (1933) को उन्होंने , मंच की अनेक सुविधाओं को ध्यान में रखकर लिखा| इस नाटक में आकार कम है, तीन अंक है जिसमें कुल तीन दृश्य –बंध है, पात्रों की संध्या आठ है | और ब्यौरेवार रंग-नर्देश हैं| संगीत की बहुलतः कम है राष्ट्रीय भाव-बोध की अभिव्यक्ति प्रसाद के नाट्य विधान का मूलाधार कहा जा सकता हैं| 

4) प्रसादोत्तर हिंदी नाटकों का स्वरुप – 

प्रसादोत्तर नाटक में गुणात्मक परिवर्तन उपस्थित करने वाले नाटककार में प्रमुख है भुवनेश्वर | इस काल में पौराणिक और ऐतिहासिक परंपरा को लेकर नाटक लिखे गए| पौराणिक नाटक में उदयशंकर भट्ट के अम्बा (1935), सागर विजय (1937), मत्स्यगंधा (1937), विश्वामित्र (1938), राधा (1941), सेठ गोविन्ददास का कर्ण (1946) , चतुरसेन शास्त्री का मेघवाद (1936), बेचैन शर्मा उग्र का ‘गंगा का बेटा’ (1940), डॉ लक्ष्मी स्वरुप का नलदमयंती (1941), श्रीमति तारा मिश्र का देवयानी (1944), आदि प्रमुख है| प्रस्तुत इन लेखकों का दृष्टिकोण युग की वैज्ञानिकता और बौद्धिकता से प्रभावित है | इसलिए ये लेखक पुराणों की कथा को नवीन अर्थ गरिमा करने में सफल हुए है| वस्तुतः पुराण का अर्थ भी यही हैं| प्रसाद के बाद कई दशकों तक नाटक इसी दुष्चक्र की इसमें रंगमंच की आवश्यकताओं पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया| नाटक तब तथाकथित माना जाता जब वह मंच पर प्रस्तुत नहीं हो जाता | नाटक तब तथाकथित मना जाता जब वह मंच पर प्रस्तुत नहीं हो जाता और इस अवधि की अधिकांश नाट्य कृतियों की सफलता सिद्ध होने का साधन ही नहीं रह गया| 



5) साठोत्तरी हिंदी नाटकों का स्वरुप-

साठोत्तरी हिंदी नाटकों में लक्ष्मीनारायण मिश्र, हरिकृष्ण प्रेमी, उदयशंकर भट्ट, गोविन्द वल्लभ पन्त, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर आदि उल्लेखनीय है| तो दूसरी पीढ़ी में विष्णुप्रभाकर , भीष्म साहनी, जगदीश चन्द्र माथुर,लक्ष्मी कान्त वर्मा , शम्भुनाथ सिंह, विनोद रस्तोगी , मोहन राकेश, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, आदि है | 

आज का स्वर रंगमंच की दृष्टि से आशावादी बन गया है मानव मूल्यों के प्रति अगाध निष्ठाके कारण आप आज की कुहासा में किरण देख रहे है | इस बात पर डॉ गिरीश रस्तोगी कहते है कि “समकालीन नाटक और रंगमंच की दृष्टि से भी भारतेंदु की प्रासंगिकता इसलिए बढ़ जाती है क्यूंकि उन्होंने नाटक के दृष्टव्य को अपनी कल्पना , परिकल्पना , रचना, पुनर्रचना के स्तर पर अनुभव किया था ” 

इसी तरह से यदि हम साहित्य और रंगमंच के इस मूलभूत अंतर को समझ ले तो उनकी समीक्षा और आलोचना के प्रतिमानों पर खुलकर बातचीत की जा सकती है इसलिए आधुनिक हिंदी रंगमंच आज समाज को एक नई दिशा देने का काम कर रहा है| नाटक यह दृश्य श्रव्य माध्यम होने के कारण इसका प्रभाव ज्यादा बढ़ गया हैं जाहिर है कि रंगमंच के सौन्दर्य शास्त्र पर गहराई से विचार करने में असंख्य और प्रस्तुति , सिद्धांत,और व्यवहार परंपरा और शास्त्र इन सभी चीजों पर ध्यान देना आवश्यक है|

अजय कुमार सरोज 
पी-एच.डी. (शोधार्थी)
प्रदर्शनकारी कला विभाग 
म. गां. अं. हिं. वि. वर्धा, महाराष्ट्र 442005
ई-मेल: aksaroj2510@gmail.com
मो॰ 7888275645


सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-

1) भारत का प्राचीन नाटक, हेनरी डब्लू वेल्थ , मोतीलाल बनारसीदास,नई दिल्ली 1977, पृष्ठ 196 

2) हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास;रामस्वरूप चतुर्वेदी , लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद संस्करण 1986 पृष्ट 147 

3) नाट्यशास्त्र का इतिहास; डॉ पारसनाथ द्रिवेदी , चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, संस्करण -2012 पृष्ठ 99 

4) डॉ लक्ष्मी नारायण का नाट्य साहित्य; सामाजिक दृष्टि , डॉ करुणा शर्मा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली ;संस्करण 2002 पृष्ठ 34 

5) संस्कृत के प्रमुख नाटककार तथा उनकी कृतियाँ , डॉ गंगासागर राय, चौखम्बा संस्कृत भवन, वाराणसी, संस्करण-2001 पृष्ठ 420 

6) हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास; रामस्वरूप चतुर्वेदी लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद संस्करण 1986 पृष्ठ 151 

7) समकालीन हिंदी नाटक की संघर्ष चेतना ; डॉ गिरीश रस्तोगी , हरियाणा साहित्य अकादमी चंडीगढ़ संस्करण 1990 पृष्ठ 5

[साभार: जनकृति पत्रिका] 



                                                                                 

कोई टिप्पणी नहीं:

सामग्री के संदर्भ में अपने विचार लिखें-