निर्भीक संपादक डॉ.भीमराव अम्बेडकर और भारतीय पत्रकारिता- डॉ. साताप्पा लहू चव्हाण
निर्भीक संपादक डॉ.भीमराव अम्बेडकर और भारतीय पत्रकारिता
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डॉ. साताप्पा लहू चव्हाण
शोध निर्देशक एवं सहायक प्राध्यापक,
स्नातकोत्तर हिंदी विभाग,
अहमदनगर महाविद्यालय,अहमदनगर−414001(महाराष्ट्र)
दूरभाष : 09850619074
विषय संकेत : भारतीय पत्रकारिता, संपादक डॉ.
बाबासाहेब अम्बेडकर,वैचारिक क्रांति और मानव जीवन, पत्रकारिता और राजनीति, वैश्विक पत्रकारिता, बहुभाषाविद संपादक डॉ. अम्बेडकर,अभिवंचित जनता और
हमकालीन पत्रकारिता
भारतीय
पत्रकारिता ने प्रारंभ से ही विभिन्न विषयों को प्रस्तुति दी है। सामाजिक आंदोलन
कर्ताओं के क्रांतिकारी विचारों,
अनुभवों को समाज के सामने रखा है। ग्रामीण समाज, जाति और अछूत प्रथा के मुद्दों पर भारतीय
पत्रकारिता ने कडा प्रहार किया हुआ परिलक्षित होता है। संपादक युगल किशोर शुक्ल, बालकृष्ण भट्ट, केशवराम, बालमुकुंद गुप्त, मुंशी प्रेमचंद, बाबूराव विष्णु पराडकर, पंडित सुंदरलाल, बनारसीदास चतुर्वेदी, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, पं रूद्रदत्त शर्मा, मुंशी नवजादिक लाल श्रीवास्तव, भवानी दयाल संन्यासी, आचार्य शिवपूजन सहाय, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, माखन लाल चतुर्वेदी, माधवराव सप्रे, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, गणेश शंकर विद्यार्थी, महावीर
प्रसाद द्विवेदी, दुलारे लाल भार्गव, रामरख
सिंह सहगल, लोकमान्य तिलक, अमृत लाल चतुर्वेदी, हनुमान
प्रसाद पोद्दार, कृष्ण दत्त पालिवाल,
प्रताप नारायण मिश्र, मदनमोहन मालवीय, विजयसिंह‘पथिक’, रामवृक्ष बेनीपुरी, डॉ.राममनोहर
लोहिया, दिनेश दत्त झा, रामगोपाल
माहेश्वरी, रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर, ध्रर्मवीर
भारती, मोहन राकेश, विद्यानिवास मिश्र, राजेंद्र यादव आदि पत्रकारों ने भारत के नव निर्माण में महत्वपूर्ण
योगदान किया है।
निर्भीक संपादक डॉ.भीमराव अम्बेडकर ने पत्रकारिता को मानवीय
मूल्य और मानवीय स्वतंत्रता के अत्यंत उपयुक्त साधन सिद्द किया। “बिना किसी प्रयोजन के समाचार देना, निर्भयतापूर्वक उन
लोगों की निंदा करना जो गलत रास्ते पर जा रहें हों-फिर चाहे वे कितने ही शक्तिशाली
क्यों न हों व पूरे समुदाय के हितों की रक्षा करने वाली नीति को प्रतिपादित
करना ” पत्रकारिता का यह पहला कर्तव्य डॉ.भीमराव
अम्बेडकर ने भारतीय पत्रकारिता में एक नया अध्याय के रूप में जोड दिया।अनेक
विद्वजन डॉ. अम्बेडकर को सिर्फ अस्पृश्यों का नेता मानते है, डॉ.
अम्बेडकर अस्पृश्यों के नेता नहीं बल्कि संपूर्ण विश्वभर के सामाजिक संस्थाओं, शिक्षा, नारी वर्ग का पिछडापन, समाज सुधार,आर्थिक भ्रष्टाचार के साथ−साथ सामाजिक
भ्रष्टाचार ,छुआछूत आदि विषयों को अपनी संपादकीय टिप्पणियों
और लेखों के द्वारा आलोचना का विषय बनानेवाले सच्चे पत्रकार,
संपादक थे।विश्वभर की सामाजिक क्रांति के प्रेरणास्रोत रहें डॉ.अम्बेडकर को विश्वपत्रकारिता के अग्रणी संपादक मानना होगा।“ डॉ.अम्बेडकर की
निर्भीक पत्रकारिता समाज में मानव अस्तित्व के लिए, समता –बंधुत्व
की भावना के लिए और समाज के कमजोर एवं निर्बल लोगों के लिए समर्पित थी ”1 कहना
आवश्यक नहीं कि डॉ.अम्बेडकर अत्याचारों के विरोध में लढनेवाली वैचारिक चिंतनधारा
निर्माण करनेवाली जुझारू पत्रकारिता के निर्माता थे। डॉ.अम्बेडकर
ने अपने क्रांतिकारी विचारों, अनुभवों और विभिन्न
विषयों पर अपनी राय को अपने अखबारों द्वारा जनता के सामने रखा। इन अखबारों में
शामिल थे ‘मूकनायक’, ‘बहिष्कृत भारत’,
‘समता’, ‘जनता’ व ‘प्रबुद्ध भारत’। डॉ.अम्बेडकर
ने कोल्हापुर के राजर्षि शाहू छ्त्रपति की आर्थिक मदद से 31 जनवरी,
1920 को ‘मूकनायक’ का
प्रकाशन प्रारंभ किया।
समाचार−पत्रों को चलाना या उनका
प्रकाशन करने के लिए आर्थिक पूँजी की आवश्यकता को विख्यात विधिवेता डॉ.अम्बेडकर ने पहले से ही भाप लिया था।आर्थिक अभाव के कारण
कृष्णराव भालेराव का ‘दीनबंधु’(1877) ,अहमदनगर (तरवडी)
के मुकुंदराव पाटिल का ‘दीनमित्र’(1910), बालचंद्र कोठारी का
‘जागरूक’ (1917), श्रीपतराव शिंदे का ‘जागृति’(1917), ‘विजयी मराठा’(1919), मजूर आदि पत्र बंद हो गये थे।
पांडुरंग नंदराम भटकर के संपादन में निकले मूकनायक के “काक गर्जना” शीर्षक अपने संपादकीय में डॉ.अम्बेडकर
ने अपने विचारों को रखा।राष्ट्रीय एकता के लिए शंकराचार्य को भी हिदायत दी।” हम शंकराचार्य
को हिदायत देते है कि वर्ण, धर्म, रूपी
वृक्ष परकीयोंके आक्रमण से और स्वकीयों की जांच से अब असह्य होने से इनके प्रयासों
की कुल्हाडी के प्रहारों से इस वृक्ष के पत्ते, डालिया कटकर
यह ठूंठ में तबदील हो गया है। अब इसे समूल उखाडने का प्रयत्न बहिष्कृत और ब्राह्मणेत्तर
कर रहें हैं और आज नहीं तो कल उन्हें सफलता जरूर मिलेगी।इसलिए तुम भी
स्पृश्य−अस्पृश्य का भेद बंद करो और एकता स्थापित करने के लिए गांव−गांव घूमो,ताकि राष्ट्रीय एकता बढे।यदि आप ऐसा प्रयत्न करेंगे,
तभी शंकराचार्य कहलायेंगे,अन्यथा शर्कराचार्य कहना पडेगा।”2
निडरता का इससे सच्चा उदाहरण और कहीं नहीं मिलेगा। डॉ.अम्बेडकर ने अपने जीवन
में कई मोर्चे पर लडाई लडी।उन्होंने सांप्रदायिकता और संप्रदायवाद को तीव्र विरोध
किया।संप्रदायवाद विरोधी लडाई में उन्होंने अपनी पत्रकारिता के हथियार का कितने
रूपों में इस्तेमाल किया,यह जान कर ही हम उनके तथा उनके युग
की पत्रकारिता की ऐतिहासिक भूमिका समझ सकेंगे और आज के संप्रदायवाद के संदर्भ में
पत्रकारिता के दायित्व के बारे में समग्र धारणा बना सकेंगे।वस्तुतः डॉ.अम्बेडकर के
समय की पत्रकारिता एक मिशन थी,उनके पीछे सामाजिक बदलाव की
भूख थी,आज की तरह पैसे और सत्ता की भूख नहीं थी। इस बात को
हमे मानना होगा।
डॉ.अम्बेडकर ने दबे-कुचले वर्गों के उत्थान के
अपने अभियान को आगे बढ़ाने के लिए ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की
स्थापना की। इस संस्था ने अछूतों सहित सभी जातियों की सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक व राजनैतिक समता के लिए कार्य करना
शुरू किया। डॉ.अम्बेडकर को इतने कड़े विरोध का
सामना करना पड़ा। अतः अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने 3 अप्रैल, 1927 को मुंबई से मराठी पाक्षिक ‘बहिष्कृत भारत’ का प्रकाशन शुरू किया। डॉ.अम्बेडकर
चाहते थे कि पत्रकार और पत्रकारिता जगत का एक और दायित्व देश में रहने वाले सभी
धर्म और समुदाय को समान नजर से देखने का है। आज की तारीख में पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा
खंभा मानने के पीछे की भी यही वजह है। लेकिन वर्तमान में तमाम मौके पर पत्रकारिता
निष्पक्षता के अपने मूल तत्व को बचाकर नहीं रख पाती और एक पक्ष बनी नजर आती है।
दलितों, आदिवासियों, किसानों और अल्पसंख्यकों के मामले में
उसका पक्षपाती चरित्र कई मौकों पर नजर आता है। कहना सही होगा कि आज भारतीय पत्रकारिता को
डॉ.अम्बेडकर के विचारों का अनुसरण करने की आवश्यकता है।“
डॉ.अम्बेडकर एक सच्चे सैक्यूलरवादी की भाँति सामाजिक,आर्थिक
पुनरूत्थान के माने गए कार्यक्रम के आधार पर मिश्रित राजनीति पार्टियों के मेलजोल
की तरफदारी करते थे और हिंदू व मुस्लिम राज्यों के बन जाने की जोखिम भरी आशंका से
बचना चाहते थे। इसके साथ ही हिंदू−
मुस्लिम मिश्रित पार्टी बन जाना भी भारत के लिए खतरनाक समझते थे।”3 भारतीय
समाज की भविष्यकालीन उन्नति का सपना डॉ.अम्बेडकर ने देखा था। पत्रकारिता में संस्कृति, सभ्यता और
स्वतंत्रता का समावेश है। भावों की अभिव्यक्ति, सद्भावों की
उद्भूति को ही पत्रकारिता कहा जाता है। पत्रकारिता यथार्थ का ही एक प्रतिबिंब होती
है। पत्रकारिता के द्वारा ही हम अपने बंद मस्तिष्क को जानकारी के माध्यम से खोलते
हैं। सत्य का अन्वेषण और समय की सहज अभिव्यक्ति ही पत्रकारिता का कार्य है। डॉ.अम्बेडकर की
पत्रकारिता इसी
विचाधारा को अग्रेषित करती दृष्टिगोचर करती है।उन्होंने रूढिवादी दृष्टिकोण की जगह
उदारता, औपनिवेशिक दृष्टिकोण
की जगह स्वतंत्रता, निष्पक्षता व वस्तुपरकता को पत्रकारिता
का आदर्श माना था।वे नैतिकता को पत्रकारिता मुख्य हिस्सा मानते थे। वर्तमान में
भारतीय पत्रकारिता नैतिक मूल्यों से दूर जाती नजर आती है। नया मालिकवाद सामने आ
रहा है। डॉ.अम्बेडकर ने अपने सभी पत्रों को समाज की संपत्ति मानी।
भारतीय पत्रकारिता के इतिहास का
अध्ययन करने से पता चलता है कि डॉ.भीमराव अम्बेडकर का भारतीय पत्रकारिता में विशेष योगदान है। डॉ.अम्बेडकर ने बहुजन समाज के विकास को ध्यान
में रखते हुए बहुजन समाज की मुक्ति के लिए सेवाभाव से पत्रकारिता को आगे बढ़ाया, समाज सुधारक,
समाज चिंतक, पत्रकार, संविधानशिल्पी
के रूप में अंबेडकर की पहचान आज सारी दुनिया में है। डॉ.अम्बेडकर की पत्रकारिता का स्वतंत्रता आंदोलन
में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। हिन्दी पत्रकारिता में भी बहुजन वर्ग का अपना एक
अलग स्थान रहा है तथा बहुजन वर्ग ने भी पत्रकारिता के माध्यम से अपने विभिन्न
लक्ष्यों को पूरा किया है। इस पत्रकारिता का लक्ष्य रहा है- बहुजन वर्ग की विभिन्न
समस्याओं से लड़ना। बहुजन वर्ग ने पत्रकारिता में पूरा सहयोग दिया है जिसके
परिणामस्वरूप बहुजन पत्रकारिता ने आज अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है।
किसान और नारी विषयक विभिन्न लेख बहुजन पत्रकारिता के केंद्र में रखने का प्रयास डॉ.अम्बेडकर ने किया हुआ परिलक्षित होता है।मानसिक
पराधीनता से मुक्ति पाने के संदर्भ में पत्रकार प्रेमचंद के विचार दृष्टव्य हैं “हम
दैहिक पराधीनता से मुक्त होना तो चाहते है;पर मानसिक
पराधीनता में अपने आपको स्वेच्छा से जकडते जा रहे है।”4 डॉ.अम्बेडकर की पत्रकारिता मानसिक पराधीनता से मुक्ति पाने के लिए कार्यरत रही है। डॉ.अम्बेडकर ने
दलित, पिछड़े, आदिवासी, आदिम जनजातियां आदि जिन जाति-समूहों को
केंद्र में रखकर बहुजन पत्रकारिता की अभिकल्पना की है, वे
सभी किसी न किसी श्रम-प्रधान जीविका से जुड़े हैं। उनकी पहचान उनके श्रम-कौशल से
होती आई है। मगर जाति-वर्ण संबंधी असमानता और संसाधनों के अभाव में उन्हें
उत्पीड़न एवं अनेकानेक वंचनाओं के शिकार होना पड़ा है। बहुजन पत्रकारिता यदि
जातियों की सीमा में खुद को कैद रखती है
तो उसके स्वयं भी छोटे-छोटे गुटों में बंट जाने की संभावना निरंतर बनी रहेगी।
इसलिए वह स्वाभाविक रूप से श्रम-संस्कृति का सम्मान करेगी। डॉ.अम्बेडकर ने श्रम-संस्कृति का सदैव पुरस्कार किया है।उन्होंने अपनी जुझारू पत्रकारिता के माध्यम से भारतीय
अभिवंचित जनता के प्रश्नों को सुलझाने का सफल प्रयास किया हुआ परिलक्षित होता है।पत्रकारिता
में विभिन्न भाषाओं का ज्ञान होना डॉ.अम्बेडकर आवश्यक मानते थे। उन्होंने संस्कृत, हिंदी,फारसी, उर्दू,मराठी,बंगाली,गुजराती अंग्रेजी,
जर्मन,रशियन,और फ्रेंच भाषा का अध्ययन
किया। इन भाषाओं में वे अधिकार वाणी में व्यवहार करते थे।अतः कहना गलत नहीं होगा
कि डॉ.अम्बेडकर बहुभाषाविद संपादक थे।एक रचनाकार के रूप में अनेक पुस्तकें लिखी।
उनका रचना संसार विशाल था।शूद्र कौन थे, अछूत कौन और कैसे,जाति का विनाश,इस्ट इंडिया कंपनी का प्रशासन और
अर्थव्यवस्था,रूपये की समस्या,
महाराष्ट्र भाषाई प्रांत के रूप में, नियंत्रण और संतुलन,भाषाई राज्यों की परिकल्पना, संघ बनाम स्वतंत्रता,सांप्रदायिकता गतिरोधक और उसका समाधान,राज्य और
अल्पसंख्यक समुदाय, पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन रानडे,गांधी और जिन्ना, आदि पुस्तकें डॉ.अम्बेडकर ने लिखी।“भारत
के उच्चवर्ग के सनातनी लोग निम्न जातियों को किस प्रकार उत्पीडित करते हैं,इस तथ्य को उजागर करनेवाला अंग्रेजी ग्रंथ अम्बेडकर स्वयं लिखें ऐसा आग्रह
शाहू छ्त्रपति बार− बार करते रहें।क्योंकि अपने को भूदेव समझने वालों द्वारा
बहुजनों को दी जानेवाली यंत्रणाओं की जानकारी देनेवाला ग्रंथ अंग्रेजी भाषा में ही
चाहिए था और वह काम डॉ.अम्बेडकर ही कर सकते थे।इसलिए शाहू छ्त्रपति डॉ.अम्बेडकर ही
वह ग्रंथ लिखें, ऐसा आग्रह करते दिखाई देते है। इतना ही नहीं
बल्कि 23 जून,1920 ई। को एक पत्र लिखकर उन्होंने इंग्लैंड के
अल्फ्रेड पीड को सूचना दी थी कि डॉ.अम्बेडकर शिक्षा के लिए इंग्लैंड आ रहें है, उन्हें उस ग्रंथ के लिए हर तरह की सहायता करें ”5 कहना आवश्यक
नहीं कि कोल्हापुर के राजर्षि शाहू छ्त्रपति ने आर्थिक मदत के साथ−साथ डॉ.अम्बेडकर
को प्रोत्साहन भी दिया।जातिसंस्था नष्ट करना राजर्षि शाहू छ्त्रपति का प्रमुख
उद्देश्य रहा है।
शाहू,फुले और अम्बेडकर को यह सहजबोध था कि जाति और
पितृसत्तात्मकता के बीच अपवित्र गठबंधन है और वे एक-दूसरे को मज़बूती देती है। यह
कहना मुश्किल है कि कहां जाति का अंत होता है और पितृसत्तात्मकता शुरू होती है।
उनका यह भी मानना था कि ब्राह्मणवादी, पितृसत्तात्मक जाति
पदक्रम महिलाओं और ‘नीची जातियों’ को
हमेशा अपने अधीन रखना चाहता है ताकि उसकी सत्ता बनी रहे। इसलिए तीनों ने इन दोनों
वर्गों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। अपने जीवन में
लेखनी के माध्यम से डॉ.अम्बेडकर ने धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा उठाया। राजनीति में धर्मनिरपेक्षता
को वे आवश्यक मानते थे।“धर्मनिरपेक्षता की भावना में अटूट आस्था और असीम विश्वास
के बावजूद यह देखा जा रहा है कि व्यावहारिक राजनीति में इसकी गलत व्याख्या की जा
रही है। तथा इसे एक राजनीतिक उपकरण का रूप दिया जा रहा है।”6 डॉ.अम्बेडकर ने धर्मनिरपेक्षता को राजनीतिक उपकरण मानने की प्रवृत्ति को नकारा है। वे
मानते थे कि सच्ची
पत्रकारिता की एक शर्त मानवीय अस्मिताओं के बीच समानता और समरसता का वातावरण
उत्पन्न करना है। इसके लिए उसकी दृष्टि हमेशा उपेक्षित एवं निचले वर्गों की ओर
होती है। सत्ताकेंद्रित पत्रकारिता को उन्होंने नकारा है। इस बात को हमें
मानना होगा।गरिबों,और वंचितों के पक्ष में विश्वपत्रकारिता को खडा करने
का महत्वपूर्ण कार्य डॉ.अम्बेडकर ने किया है। “गणेश शंकर विद्यार्थी का मत है, पत्रकारिता आमीरों की सलाहकार और गरिबों की मददगार होनी चाहिए”7 वर्तमान में भारतीय व वैश्विक पत्रकारिता
अर्थात हमकालीन पत्रकारिता को डॉ.अम्बेडकर की विचारधारा की आवश्यकता है। निस्वार्थ
सेवाभाव,के अभाव के कारण भारतीय पत्रकारिता में नया
“मालिकवाद” प्रवेश कर चुका है।इस मालिकवाद के अनेक मेधावी जुझारू पत्रकार शिकार हो
रहें है। भारतीय पत्रकारिता को डॉ.अम्बेडकर जैसे निर्भीक
संपादक और राजर्षि शाहू छ्त्रपति जैसे हितैषी की आवश्यकता आज
भी है।इस में दो राय नहीं।
निष्कर्ष
–
निष्कर्षतः
स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय पत्रकारिता ने प्रारंभ से ही विभिन्न विषयों को
प्रस्तुति दी है। सामाजिक आंदोलन
कर्ताओं के क्रांतिकारी विचारों,
अनुभवों को समाज के सामने रखा है।ग्रामीण समाज, जाति और अछूत प्रथा के मुद्दों पर भारतीय
पत्रकारिता ने कडा प्रहार किया हुआ परिलक्षित होता है।
निर्भीक संपादक डॉ.भीमराव अम्बेडकर ने पत्रकारिता को मानवीय मूल्य और मानवीय
स्वतंत्रता के अत्यंत उपयुक्त साधन सिद्द किया। डॉ.अम्बेडकर अत्याचारों के विरोध
में लढनेवाली वैचारिक चिंतनधारा निर्माण करनेवाली जुझारू पत्रकारिता के निर्माता
थे। डॉ.अम्बेडकर ने अपने क्रांतिकारी विचारों, अनुभवों और विभिन्न
विषयों पर अपनी राय को अपने अखबारों द्वारा जनता के सामने रखा।
डॉ.अम्बेडकर के समय
की पत्रकारिता एक मिशन थी,उनके पीछे सामाजिक बदलाव की भूख थी,आज की तरह पैसे
और सत्ता की भूख नहीं थी। इस बात को हमे मानना होगा। वर्तमान में तमाम
मौके पर पत्रकारिता निष्पक्षता के अपने मूल तत्व को बचाकर नहीं रख पाती और एक पक्ष
बनी नजर आती है। दलितों,
आदिवासियों, किसानों और अल्पसंख्यकों के मामले
में उसका पक्षपाती चरित्र कई मौकों पर नजर आता है। कहना सही होगा कि आज भारतीय पत्रकारिता को डॉ.अम्बेडकर के विचारों का अनुसरण करने की आवश्यकता है। सत्य का अन्वेषण और समय की सहज अभिव्यक्ति ही पत्रकारिता का
कार्य है। डॉ.अम्बेडकर की पत्रकारिता
इसी विचाधारा को अग्रेषित करती
दृष्टिगोचर करती है।उन्होंने रूढिवादी दृष्टिकोण की जगह उदारता, औपनिवेशिक दृष्टिकोण की जगह स्वतंत्रता, निष्पक्षता व वस्तुपरकता को पत्रकारिता का आदर्श माना था।वे नैतिकता को
पत्रकारिता मुख्य हिस्सा मानते थे। वर्तमान में भारतीय पत्रकारिता नैतिक मूल्यों
से दूर जाती नजर आती है। नया मालिकवाद सामने आ रहा है। डॉ.अम्बेडकर ने अपने सभी पत्रों को समाज की
संपत्ति मानी। डॉ.अम्बेडकर ने श्रम-संस्कृति
का सदैव पुरस्कार किया है।उन्होंने अपनी जुझारू पत्रकारिता के माध्यम से भारतीय
अभिवंचित जनता के प्रश्नों को सुलझाने का सफल प्रयास किया हुआ परिलक्षित होता है।
पत्रकारिता
में विभिन्न भाषाओं का ज्ञान होना डॉ.अम्बेडकर आवश्यक मानते थे। उन्होंने संस्कृत, हिंदी,फारसी, उर्दू,मराठी,बंगाली,गुजराती अंग्रेजी, जर्मन,रशियन,और फ्रेंच भाषा का अध्ययन किया। इन भाषाओं में वे अधिकार वाणी में व्यवहार
करते थे।अतः कहना गलत नहीं होगा कि डॉ.अम्बेडकर बहुभाषाविद संपादक थे। डॉ.अम्बेडकर
ने धर्मनिरपेक्षता को राजनीतिक उपकरण
मानने की प्रवृत्ति को नकारा है। वे मानते थे कि सच्ची पत्रकारिता की एक शर्त मानवीय अस्मिताओं के बीच समानता
और समरसता का वातावरण उत्पन्न करना है। इसके लिए उसकी दृष्टि हमेशा उपेक्षित एवं
निचले वर्गों की ओर होती है। सत्ताकेंद्रित पत्रकारिता को उन्होंने नकारा है। इस बात को हमें
मानना होगा।
संदर्भ−निदेश
1 संपा।अमरेंद्र
कुमार−युगप्रवर्तक पत्रकार और पत्रकारिता , पृष्ठ−113
2 संपा।पांडुरंग नंदराम भटकर –
मूकनायक, (काक गर्जना),31 जुलाई,1920,पृष्ठ−52
3 बलवीर सक्सेना –भारत
रत्न, पृष्ठ− 210
4 संपा. प्रेमचंद – हंस
(मासिक)‚अंक 7‚जनवरी ‚1931‚पृष्ठ−139
5 डॉ. रमेश जाधव – लोकराजा
शाहू छ्त्रपति ‚ पृष्ठ−204−205
6 मणिशंकर प्रसाद – धर्म ,धर्मनिरपेक्षता
और राजनीति‚ पृष्ठ−142
7 संपा.डॉ. श्यौराज सिंह, एस। एस। गौतम –मीडिया और दलित‚ पृष्ठ−11
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[आलेख साभार: जनकृति, अंक 33, वर्ष 2018, चित्र साभार: नागपूर टूड़े]
डॉ भीमराव अम्बेडकर निर्भीक व्यक्तित्व की प्रतिमूर्ति, आज जाति भेदभाव से जो हम इतना ऊपर उठे है उन्ही के सद्प्रयासों का परिणाम है , लेकिन दुःख होता है की आज भी कहीं न कहीं जातिवाद का दंश भारत को खोखला कर रहा है। आज जरूरत है हमे बाबा साहेब जैसे निर्भीक लोगों की जो उनके विचारों को जन जन तक पहुंचा कर चेतना जगाएं।
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