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स्त्री विमर्श

 क्या ईश्वर इतना कमजोर है कि एक रजस्वला स्त्री के दर्शन मात्र से उसका ध्यान भंग हो जायेगा ? यदि ऐसा है तो क्या वह वास्तविक रूप से ईश्वर कहलाने का अधिकारी भी है ?
सबरीमाला मंदिर मैं भगवान अयप्पन ध्यान मग्न मुद्रा मैं विराजमान हैं मान्यता ये है कि रजस्वला स्त्री के दर्शन मात्र से उनका ध्यान भंग हो जायेगा और मंदिर की पवित्रता को नष्ट हो जायेगी।परन्तु ये मापदंड निर्धारित करने वाले कौन लोग हैं ? समाज के लोग या ईश्वर स्वयं ?
ईश्वर कभी अपने बच्चों मैं भेद भाव नहीं करता ये काम कुछ चंद  सामाजिक ठेकेदारों का है जिन्होंने एक वर्ग को ईश आराधना से वंचित किया है। एक तरफ ये ही लोग माता कामख्या की योनि रूप मैं पूजा करते हैं और दूसरी तरफ उसी स्त्री को रजस्वला होने पर मंदिर मैं प्रवेश से रोकते हैं । एक मान्यता के अनुसार माता कामख्या स्वंय एक निश्चित तिथि पर रजस्वला होती हैं जिनकी आराधना करने सवयंम  देवता नील पर्वत पर आते हैं जिसे अब्बुबाची मेला कहा जाता है। प्रभु स्वयं माता की आराधना करते हैं और वही स्त्री प्रभु के समक्ष न जाये यह समझ से परे है।        
 सबरीमाला मंदिर का मुद्दा धर्म या  ईश्वर का मुद्दा नहीं बल्कि ये मुद्दा है स्त्री के सामाजिक महत्व का उसकी अस्मिता का। आज के लोकतांत्रिक भारत और जागरूक भारत की विडंबना नहीं तो और क्या है कि  स्वयं स्त्री ही स्त्री के  विरुद्ध खड़ी है प्रश्न भगवान का ही है तो उस भगवान ने भी  कभी स्त्री के गर्भ से जन्म लिया होगा ? याद रहे ईश्वर चाहे किसी भी मजहब का हो उसने जन्म लेने के लिए स्त्री की कोख का ही प्रोग किया होगा। चाहे कृष्ण हों या ईशु सभी ने स्त्री के गर्भ से ही जन्म लिया और आज वही स्त्री अछूत है। जिस रजोधर्म के कारण स्त्री गर्भ धारण करती है संतान को उत्पन्न करती है आज समाज ने उसी जैविक प्रक्रिया को धर्म और ईश्वर का मुद्दा बना दिया है। 
संविधान का अभिरक्षक हमारा उच्चतम न्यायालय भी यही मानता  है कि सबरीमाला मैं महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंधित नहीं होना चाहिए तो फिर क्यों कुछ धर्म के तथाकथित ठेकेदार और कुछ राजनैतिक पार्टियां अपना हित साथ रहे हैं। अगर महिलाओं के प्रवेश से मंदिर अछूत होता ही है तो एक नियम यह भी बनाना चाहिए कि " कोई भी पुरुष जिसने किसी स्त्री के गर्भ से जन्म लिया हो वह मंदिर मैं प्रवेश का अधिकारी नहीं होगा। "
यदि उपरोक्त वक्तव्य  असंभव प्रतीत होता है तो समाज के उन ठेकेदारों को शर्म करनी चाहिए जो स्वयं किसी स्त्री की संतान हैं। रही बात उन स्त्रियों की जो स्वयं उन महिलाओं का विरोध कर रही हैं जो मंदिर मैं प्रवेश की इच्छुक हैं ऐसी महिलाएँ  जिनकी मानसिकता स्वयं स्वार्थवादी सोच के दायरे तक सीमित है जिनको स्वयं के अधिकारों का भान नहीं है हम उनसे कैसे उम्मीद कर सकते हैं की वह किसी और महिला के हित के लिए आवाज उठयेंगी ? इन  महिलाओं को समाज ने अपना मोहरा बनाकर स्त्रियों के  विरुद्ध ही खड़ा किया है जिससे इस मुहिम को कमजोर किया जा सके। और उन सभी आवाजों को मौन किया जा सके जो  आज रूढ़ियों के विरुद्ध उठ  खड़ी हुई है। आज आवश्यकता है कि  सभी  स्त्रियां मिलकर  समाज को यह सन्देश दें कि  वह स्वयंम नहीं आना चाहती इस प्रकार के किसी भी धार्मिक स्थल पर जंहा उनके लिए स्थान नहीं है।  
 विचारणीय तथ्य  यह  है कि क्या  हम संविधान और कानून से ऊपर हो गए हैं ? तो फिर क्या महत्व है रह जाता है संविधान का और क्या आवश्यकता है कानून की ? 
दो वर्ष ग्यारह माह अठारह दिन तक कई विद्धवान मनीषियों ने मिलकर संविधान का निर्माण किया जिसक अभिरक्षक स्वयं उच्चतम न्यायलय है और वंहा के न्यायाधीश जो वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद उस पद को प्राप्त करते हैं जो हर मुद्दे की गहनता से समीक्षा के उपरांत ही कोई फैसला देते हैं उस फैसले को दरकिनार कर कुछ चंद लोगों ने  कानून तक अपने हाथ मैं लेने से गुरेज नहीं किया।
वैदिक काल मैं स्त्रियां सभा विधत मैं भाग लेती थी ये वो समितियां थी जो राजा को धार्मिक और सामाजिक सलाह  देने का कार्य करती थीं स्त्रियां यज्ञ मैं भाग लेती थीं सूक्तो की रचनाएँ करती थीं व् सभी धार्मिक कार्यो को करने का अधिकार उनको प्राप्त था तब क्या हम ये मान ले कि  उस काल के लोगों को ज्ञान हमसे कम था या उनका ईश्वर हमसे अलग था ? उस काल  के लोग अत्याधिक विद्वान थे जिन्होंने स्त्री और पुरुष के अधिकारों मैं भेद नहीं किया ये तो हमारा दुर्भाग्य है कि हम उस वैदिक कालीन आदर्श को छू तक नहीं पाएं हैं।  
आज की स्त्री अपने अधिकारों के प्रति न सिर्फ जागरूक है अपितु अपने अधिकाररों के लिए सतत संघर्षरत भी है तो क्या आज हम सभी स्त्रियों को ऐसे धर्म या ईश्वर का स्वयं त्याग नहीं क्र देना चाहिए ? यदि हम अछूत ही हैं और मंदिर प्रवेश की अधिकारिणी नहीं हैं तो क्या हमें आज ऐसी प्रथाओं और रूढ़ियों का  बहिष्कार नहीं क्र देना चाहिए ?
आज गाँधी और बुद्ध  के भारतवर्ष मैं स्त्री को अछूत मानकर दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया हैं जिस देश मैं कभी गाँधी ने समानता की बात की थी आज वंहा स्त्री को ही ईश आराधना से वंचित किया जा रहा है।विडंबना ये है कि हम रूढ़ियों से बंध गए हैं  परम्परा और रूढ़ियों में भेद होता है जंहा परम्परा समाज को नवीन मार्ग पर ले जाती है वंही रूढ़ि समाज को अवांछित क्षति पहुंचती है।
 किसी भी रूढ़ि को समाप्त कराने के लिए विरोधों से टकराने का साहस होना चाहिए तभी सुधर आएगा क्योंकि यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया है सदियों से चली आ रहे रूढ़ि को समाप्त करने की। जिससे हम एक बेहतर समाज बेहतर भारत और  एक बेहतर विश्व के निर्माण का मार्ग प्रशांत क्र सकें।    

अलका पांडेय 
21/10/2018




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