यात्रा साहित्य : स्वरूप एवं तत्त्व- ओप्रकाश सुंडा
यात्रा साहित्य :
स्वरूप एवं तत्त्व
ओप्रकाश सुंडा
शोधार्थी
हिंदी विभाग
राजस्थान केन्द्रीय
विश्वविद्यालय
बांदरसिंदरी, किशनगढ़,
अजमेर – 305817
आज जातीयता के उच्च सौपान पर पहुँचा ये
मानव अपनी आदिम अवस्था में कैसा रहा होगा इसकी कल्पना ही की जा सकती है। शायद उस
समय उसके पास रहने को घर भी नहीं होगा? वह पागल की तरह इधर – उधर भटकता फिरता होगा ? आस पास के जंगली पेड़ पौधों
और छोटे - मोटे कीट पतंगों को खाकर अपनी उदर पूर्ति करता होगा ? शायद उसमे विवेक शून्य होगा ? पर प्राकृतिक वातावरण
और जलवायु ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी होगी कि वह आने वाले संकट का सामना करने के
लिए उपाय सोचने लगा होगा? समय ने उसे चलना सिखाया और वह एक
स्थान दूसरे स्थान की ओर जाने लगा । स्थान परिवर्तन के दौरान उसका जीवन जगत के
अनेक अनुभवों और वातावरणीय विविधताओं से पाला पड़ा होगा? इस
वैविध्य ने ही उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा दी होगी? अब उसके
सामने अनंत आकाश पड़ा था और घूमने के लिए सारी दुनिया। मानव का ये तब से चला
सिलसिला आज भी अनवरत जारी है।
‘यात्रा’ शब्द
संस्कृत की ‘या’ धातु में ष्ट्रन + टाप
प्रत्यय के योग से बना है जिसका अर्थ है जाना, गति, सफर।1 एक स्थान से दुसरे स्थान तक तक
जाने की क्रिया सफर।2 डॉ हरदेव बाहरी हिंदी शब्द
कोश में इसका अर्थ बताते है – ‘एक स्थान से दूसरे स्थान को
जाना, प्रस्थान या प्रयाण, यात्रा
व्यवहार (जैसे जीवन यात्रा )।3 जैनाचार्ये श्री विजय धर्म सूरि
की दृष्टि में यात्रा शब्द गमन या प्रस्थान आदि का बोध करता है। वे उल्लेख करते है
– प्रस्थीयते स्थानाच्चलते
प्रस्थानाम्। गम्यते गमनं।। व्रजनं
व्रज्या।। आस्यारि। इति क्ययं।। आभिनिर्यायायतेदभिनिर्माण, प्रयायते
प्रयानाम् स्वार्थे के प्रयाणंक…. “ यात्यस्या यात्रा”
हु यामा इति।”4
विभिन्न शब्द कोशों में यात्रा का अर्थ घूमने या स्थान
परिवर्तन के अर्थ में आता ही है। शब्द कोश में प्रयोजन के संदर्भ में अलग - अलग
अर्थ मिलते है। जीवन निर्वाह, व्यवहार, उपाय, उत्सव, प्रस्थान,
प्रयाण, तीर्थ यात्रा; एक
स्थान से दूसरे स्थान को जाने की क्रिया; यात्रियों का
देवदर्शन या देवपूजन के लिए प्रस्थान, चढाई, युद्ध यात्रा।5 डॉ हरदेव बाहरी ने संस्कृत – हिंदी शब्द कोश में ‘यात्रा’ शब्द
का प्रयोग अटन, देशाटन, पर्यटन,
विचरण, भ्रमण, सफर,
अतिक्रमण तथा गति के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। यायावरी भी
यात्रा के पर्याय रूप में प्रयुक्त होता है।6 सदैव
घुमने – फिरने वाले को साधारणतः यायावर कहा जाता है और
क्रिया को यायावरी। मुसाफिरी भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसके अन्य पर्यायो
में खानाबदोश, घुमक्कड़, फेरीवाला,
बंजारा, सन्यासी, आदि
शब्द भी प्रयुक्त होते हैं।7
वृत्तान्त का आशय है – एक
वृत्त का अंत। यात्रा में एक परिवृत की दुनिया गोल है अर्थात हम घूम – फिर कर एक वृत्त पूरा करते हैं। इस प्रकार दुनिया का चक्कर (वृत) पूरा
करना – यात्रावृत है। यात्रा के लिये प्रत्येक भाषा में अलग –
अलग शब्द हैं। जो घूमने फिरने व एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की
क्रिया में प्रयुक्त होते हैं :– हिंदी – यात्रा; बंगला – यात्रा, सफर, गमन; गुजराती –
यात्रा; मलयालम – यात्रा; पंजाबी – पेंडा; उर्दू – सफर; संस्कृत – यात्रा; मराठी – प्रवास; तमिल – प्रयाणं। अँगरेजी में ‘टूरिज्म’ यात्रा का पर्याय है। लेटिन के ‘टूअर’ से ‘टूरिज्म’ का निर्माण हुआ। लैटिन
का ही एक और शब्द है –‘टोरंस’ जिसका अर्थ एक औजार से है जो पहिये की तरह
गोलाकार होता है। शायद इसी से ‘यात्राचक्र’ या ‘पैकेज टूअर’ का विचार
सृजित हुआ होगा। 1643 ई० के आसपास विभिन्न क्षेत्रों और
राष्ट्रों के भ्रमण के लिये इसका प्रयोग किया गया।
वर्तमान में हिंदी में प्रचलित शब्द
पर्यटन भी इसी का द्योतक है। पर्यटन विस्तृत भू – भाग में किया जाने
वाला भ्रमण। पर् - परिधि, अटन – घूमना –
फिरना अर्थात एक परिधि विशेष में घूमना – फिरना।
संस्कृत साहित्य में बाणभट्ट के लिये आवारा शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँ
आवारा से तात्पर्य गृहस्थ जीवन को छोड़कर इधर – उधर भटकने
वाला आवारा है।
चरैवेति-चरैवेति-चरैवेति अर्थात चलते
रहो – चलते रहो – चलते रहो ...। वैदिक युग का सूत्र वाक्य
गुरुकुलों में ऋषियों द्वारा अपने शिष्यों को ज्ञान देने के लिये चलते रहने का
सन्देश देने के लिये किया था। विद्यार्थी दुनिया भर में सैर करके ज्ञान प्राप्त
करते थे। यात्रा शब्द जीवन जगत के अनेक अर्थों को अपने में समेटे हुए है। जीवन एक
यात्रा है। धार्मिक अर्थों में मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत यात्रा करता
रहता है। संसार मिथ्या ज्ञान है, इसको पार करने के लिये यात्रा करनी पड़ती है । परमात्मा
तक पहुँचने की क्रिया इसी यात्रा द्वारा निष्पन्न होती है। दार्शनिक दृष्टि से
यात्रा का आशय है कि व्यक्ति जीवन भर यात्रा करता है और मरने के बाद कहते है कि ‘इहलोक की यात्रा’ कर गया और समस्त जीवन क्रिया का ही
नाम पड़ गया – जीवन यात्रा ।
यात्रा शब्द सामान्यत: प्रवास के अर्थ
में प्रयुक्त होता है। प्रवास अर्थात अपने घर से दूर बसना या वास करना । ये लोग
प्रवासी कहलाते हैं । संचरणशीलता मनुष्य मात्र की प्रवृत्ति है। यात्रा का
उद्देश्य भिन्न भिन्न हो सकता है जैसे – व्यापार, ज्ञान,
मनोरंजन, विलास आदि। व्यक्ति द्वारा एक परिवृत
एक निश्चित समय में किया गया भ्रमण यात्रा है तथा यात्रा के समय किये गये अनुभव,
संवेदनात्मक अनुभूति, समाज के साथ निर्विकार
जुड़ाव का भाव, समाजगत चेतना का यथार्थ बोध तथा अन्य
संवेदनात्मक तत्त्व यात्राकार के व्यक्तित्व में पचकर लेखनी के सहारे जब कलात्मक
रूप धारण करते है तो यात्रा साहित्य का निर्माण होता है ।
सभ्यता विकासक्रम के प्रथम सोपान में
आदिम और जंगली मनुष्य वनों में इधर – उधर की खाक छानता फिरता होगा
। भोजन की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान – पता नहीं
कितनी लम्बी दूरी तय की होगी । “प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम
घुमक्कड़ था । खेती बागवानी तथा घर द्वार से मुक्त वह आकाश के पक्षियों की भांति
पृथ्वी पर सदा विचरण करता था। जाड़े में यदि इस जगह था तो गर्मियों में वहाँ से दो
कोस दूर ।”8 सामाजिक जीवन
में प्रवेश हुआ और वह नियत स्थान पर घर बनाकर रहने लगा। शायद सुरक्षा की
विचार-भावना और एक ही जगह भोजन की उपलब्धता ने ऐसी प्रेरणा दी होगी। सामाजिक जीवन ने
उन्हें बहुत सी सुविधाएँ और सुरक्षा प्रदान की, परन्तु
सामाजिक नैतिकता ओर नियमों में आबद्ध मनुष्य का मन मुक्ति के लिये छटपटाने लगा।
इसी मुक्ति की कामना को हृदय में संजोये मनुष्य ने फिर घर छोड़ा होगा, परन्तु उसे
वापस लोटना पड़ता क्योंकि सामाजिक दायित्वों से मुक्ति नही मिली। घुमक्कड़ी के समय
उसे अत्यंत रोमांच ओर आनंद की अनुभूति हुई होगी। अब यात्रा पर निकलना उसकी
स्वाभाविक प्रवृति हो गई। व्यक्ति जब भी जीवन की समस्याओं, संसार
के दुखों, कष्टों ओर मानसिक संताप से घिरा उसने घुमक्कड़ी
अपनाई। वह वापस लौटकर यात्रा के अनुभव अन्य लोगों को सुनाता होगा । “दैनिक साहसिक यात्रा के अनुभव का आत्मश्लाघा से पूर्ण वर्णन कदाचित उनकी
पहली अभिव्यक्ति रही होगी ।”9
जब लोगों में शिक्षा ग्रहण करने की
प्रवृति जगी। लोग एक दूसरे से मिलकर अपने अनुभव बाँटने लगे। उस समय आज की भांति
शायद अत्याधुनिक साधन नही थे परन्तु “सभ्यता के इस युग में भी लोग
प्राय: यात्रायें किया करते थे। जल और स्थल दोनों प्रकार की यात्राएँ होती थी
......लोगों के पास जहाज थे। वे दुनिया का भौगोलिक वृतांत भी खूब जानते थे। वे
सभ्य शिक्षित, उदार, साहसी, व्यापार कुशल, कला निपुण अद्यवसायी थे। ....हमारे साहित्य के ग्रन्थ इस काल की यात्राओं से भरे पड़े हैं । वैदिक और
लौकिक संस्कृत भाषा के ग्रंथों से भरे पड़े हैं ।”10 वैदिक सूक्तो में अनेक देवताओं की यात्राओं का उल्लेख मिलता है ।
मनुष्य का इन यात्राओं के पीछे का
प्रयोजन मात्र आत्मिक शांति ही नहीं बल्कि भौतिक क्रियाएँ भी रही हैं। समाज
निर्माण के साथ ही व्यक्ति को अपनी आवश्कताओं की पूर्त्तता हेतु अन्य मनुष्यों से
संपर्क साधना पड़ा। भय ने मनुष्य को प्रकृति पूजक भी बना दिया। वह किसी व्यक्ति या
स्थान विशेष के प्रति कृतज्ञ होता गया और मन में श्रद्धा-भक्ति का भाव उमड़ पड़ा। इस
प्रकार किसी तीर्थ या देवस्थान की यात्रा का चलन सामने आया। लोग झुण्डों में किसी
उत्सव की भांति यात्राएँ किया करते थे। उनके द्वारा ये यात्राएँ अपने आराध्य के
प्रति भक्ति भाव की अभिव्यक्ति थी। तीर्थाटन को पाप शमन का साधन माना जाने लगा और
यात्राओं सिलसिला सा चल पड़ा ।
मनुष्य की व्यापारिक प्रवृति ने भी
यात्राएँ करने के लिये बाध्य किया। वह छोटी से छोटी चीज से लेकर बड़ी से बड़ी चीजों
का आदान –
प्रदान करने के लिये, स्वयं द्वारा निर्मित
चीजों के वितरण, सामान खरीदने तथा अन्य विनिमय का कार्य करने
के लिये इधर - उधर भागने लगा। एक दूसरे से बढ़ते
संपर्क ने मनुष्य के व्यक्तिगत संबंधों को विस्तार प्रदान किया । दूर –
दूर वैवाहिक संबंध स्थापित किये जाने लगे । एक समय ऐसा भी रहा होगा
जब वरयात्रा कई महीनों तक मीलों लंबी दूरी तय करके पहुँचती होगी ।
प्राचीन काल में आज की भांति गली कूंचे
में शिक्षा संस्थान उपलब्ध नहीं थे और न ही आज की सी शिक्षा पद्धति थी। मीलों
लम्बे क्षेत्र में कहीं - कहीं गुरुकुल हुआ करते थे। विद्यार्थी ज्ञान प्राप्ति के
लिए दुनिया का भ्रमण करता था। शिक्षक भी ज्ञान प्राप्ति और अनुभव के लिये लम्बी
यात्राएँ किया करते थे। शंकराचार्य जैसे दार्शनिक द्वारा देश के चारों कोनों की
यात्राएँ की गई और चार ज्ञान केंद्र स्थापित किये गए।
इस प्रकार प्राणी जगत पृथ्वी की
उत्पत्ति से लेकर आज तक चरेवैति - चरेवैति – चरेवैति का आदर्श निभाता आ
रहा है। पुरातत्व खोजों में मिले गिरिकंदराओं के कोटरों में मनुष्य वास के प्रमाण,
समुद्र व पृथ्वी में समाहित सभ्यताओं की निशानियाँ तथा काल की ये
अंतहीन चाल मनुष्य की घुमक्कड़ी के प्रथम बीज बिंदू से लेकर आज तक की कहानी सप्रमाण
कहती है। यात्रा मार्ग में मनुष्य को प्रकृति के प्रांगण में फैले अंतहीन सौंदर्य
ने अभिभूत किया होगा । धीरे – धीरे प्रकृति के इन आकर्षक
दृश्यों – कल कल करती नदियों, विराट
पर्वत शिखर, विहँसते झरने, विशाल जंगल,
उमड़ता सागर, गिरिकंदराएँ व एकांत में अगणित
तारा पंक्तियों से चमकता नील गगन आदि को आत्मसात करके मनुष्य उनके साथ एकाकार हो
लगा। इन दृश्यों से हृदयगत भावनाओं का उमड़ता ज्वार मनुष्य को और भी निकट ले गया।
प्रकृति से उनकी दैनिक जीवन की आवश्कताओं की पूर्ति तो होती ही थी, साथ ही साथ “प्राकृतिक दृश्यों के आत्मसात एवम् विशिष्ट अनुभूति की यह मानव भावना और
आकर्षण ही वस्तुतः यात्रा साहित्य की मूल भित्ति है ।”11
कहा जा सकता है कि मनुष्य की स्वभावगत
विशेषता चंचलता,
आत्मतुष्टि की खोज तथा भौतिक आवश्कताओं ने उसमें सौंदर्य बोध की
दृष्टि विकसित की, परिणामस्वरूप वह अपनी अभिव्यक्ति के लिये
यात्रा साहित्य को कलात्मक रूप देने लगा । उसके व्यक्तित्व, ज्ञान,
संस्कार और अनुभव ने मिलकर आज के यात्रा साहित्य का भवन तैयार किया
।
स्वरूप
“चलना मनुष्य का धर्म है जिसने
इसको छोड़ा वह मनुष्य होने का अधिकारी नहीं है।”12 शास्त्र भी यही बात अनुमोदित
करते हैं कि चलते रहो – चलते रहो –
चलते रहो। मनुष्य स्वभावतः ही संचरणशील है। स्थान की आबद्धता उब पैदा करती है।
व्यक्ति जीवन में सुख और आनंद चाहता है। व्यक्ति के समस्त कार्यकलाप इसी आनंद को
पाने के लिये प्रायोजित हैं। समाज और परिवार की निर्मिति, नियम,
और कायदे, व्यक्तित्व पर नैतिक बंधन आदि समस्त
प्रायोजित या स्वाभाविक कार्यवृत्तियाँ व्यक्ति को जीवन में सुख देने के लिये हैं।
इन सुखों की कामना और प्राप्त करने के भौतिक प्रयास व्यक्ति मन को थका देते हैं।
इस थके हुए मन की विश्रांति किसी ऐसी जगह है जहाँ समस्त दायित्वों से मुक्ति मिले
और मनुष्य आत्म की पड़ताल में व्यस्त हो जाये। एकांत यात्रा देती हैं। “यात्रा यायावर को तठस्थ दृष्टि देती है। वह रोज के द्वंद्व पूर्ण जीवन में
रहकर प्राप्त नहीं होती। अपने जीवन के निकट वातावरण से हटकर निजी परिस्थितियों के
दबाव से मुक्त होकर मन में कोई कुंठा नहीं रहती।”13 वह स्वयं को स्वतंत्र महसूस करता है। यात्री बनकर जब व्यक्ति निकलता है
तो उसे प्राकृतिक सौंदर्य, नया समाज नई जगह का इतिहास और
भूगोल, विभिन्न व्यक्तियों के भिन्न – भिन्न
आचरण, रहन – सहन, शिक्षा, व्यवस्थाएँ आदि आकर्षित करते हैं। वहाँ के
जीवन संग व्यतीत समय अनुभव प्रदान करता है। उसे अनेक चीजे पसंद आती हैं। अनेक
स्वभाव के प्रतिकूल भी होती है। वह मात्र उपरी चीजों को देखता भर नहीं, साथ – साथ उनके विश्लेषण की प्रक्रिया भी चलती रहती
है। वह उस परिवेश से एकतान होकर इतिहास के झरोखों से देखता हुआ उनका सांस्कृतिक और
मनोवेज्ञानिक विश्लेषण भी करता है। वह उन सबको एक क्षण अनुभव करके जी लेना चाहता
है। वहाँ की समस्याएँ निजी बन जाती हैं। एक साहित्यिक यात्री चीजों को देख और
विश्लेषण करके नहीं छोड़ देता अपितु तथ्य और सौंदर्य के सहारे उसके शब्द वहाँ का
जीवन राग अलापने लगते हैं । “यात्रावृत्त में देश–विदेश की प्राकृतिक रमणीयता, नर – नारियों के विभिन्न जीवन सन्दर्भ, प्राचीन एवं नवीन
चेतना की कलाकृतियों की भव्यता तथा मानवीय सभ्यता के विकास के द्योतक अनेक वस्तु
चित्र यायावर लेखक के मानस रूप में रूपायित होकर व्यक्तिक रागात्मक उषा से दीप्त
हो जाते हैं।”14 उन निजी
अनुभूतियों को लेखक ऐसी कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करता है कि पाठक मानसिक धरातल
पर अपना अस्तित्व विस्मृत कर देता है और वहाँ की सैर करने लगता है ।
यात्रावृत्त अकाल्पनिक गद्य विधा है ।
इसमें यात्राकार सामना की गई परिस्थितियों के यथार्थ अंकन का प्रयास करता है।
हालाँकि कलात्मक अभिव्यक्ति होने के कारण कल्पना से नकारा नहीं जा सकता परन्तु
यात्रावृत्त में चित्रित प्रत्येक दशा यात्रकार की निजी अनुभूति होती है, अनुभूतियों
को वह यथातथ्य सिद्ध कर सकता है। कल्पना का संयोग उसे रोचक बना देता है। लेखक की
भावनाएँ उस परिवेश और वहाँ के मनुष्य की जीवनगत संवेदना को आत्मसात करती है,
वह यात्रावृत्त मानों वहाँ का मानवीय इतिहास हो। जिसमें घटनाओं के
साथ–साथ व्याक्तिचेतना, संस्कार,
सांस्कृतिक जीवन, सामाजिक और आर्थिक क्रियाएँ,
राजनीतिक और भौगोलिक स्थितियाँ, विचार तथा
धारणायें समाहित होती हैं ।
इस प्रकार यात्रा साहित्य मनुष्य के
उड़न-छू मन द्वारा की गई सैर की निजगत अनुभूतियों से आप्लावित ऐसी अभिव्यक्ति है जो
पाठक को उस परिवेश और समय के साथ यात्रा कराती है ...अनुभव कराती है...उस जीवन की
संवेदनाएँ तथा जीवन को उल्लास व उमंग से भर देती है ।
तत्व
किसी भी विधा की बनावट के मूल में कोई
न कोई ऐसी चीज होती है जो उसे अन्य विधाओं से अलगाती है और वो है मूलभूत तत्व । उन
तत्वों के आधार पर निर्णय किया जाता है कि वो साहित्यिक है या नहीं । यात्रा
वृत्तान्त भी एक साहित्यिक विधा है। अगर उसमें वे तत्व निहित हैं जो उसे साहित्य
बनाते हो। यात्रा साहित्य में हम संख्या गिनकर तत्व निर्धारित नहीं कर सकते
क्योंकि उसका ढांचा जीवन की भांति अत्यंत विस्तृत है। हम नहीं कह सकते कि वहाँ या
कल्पना,
या तो तथ्य, या तो वैयक्तिकता,या तो चित्रात्मकता से काम चल जाएगा । यात्राकार के सम्पूर्ण जीवन के
अनुभव से लेकर समसामयिक घटनाओं की सृष्टि उसमें समाहित होती है। फिर भी सामान्यत:
कुछ तत्व निर्धारित किए जा सकते हैं। यथा :-
यात्रावृतांत की रचना करते समय स्थान
विशेष की भौगोलिक परिस्थितियों, आचार–विचार, रीति – रिवाज, इतिहास,
संस्कृति, परिवेश, प्रकृति,
जीवन–कला-दर्शन आदि को दिखाया जाता है।
स्थानीयता वह तत्व है जिसके चारों ओर सम्पूर्ण यात्रावृतांत घूमता है। वर्णित
स्थान का चयन लेखक की दृष्टि और पसंद पर निर्भर करता है। कोई चीज उसके लिये प्रिय
हो सकती है तो कोई उसकी दृष्टि में निकृष्ट कोटि की। यात्रा वृतान्त्त में यात्रा
किये गये स्थान की वस्तुस्थिति का चित्रण आवश्यक है अन्यथा बिना उसके अन्य
स्थितियों का चित्रण असंभव हैं।तथ्य इतिहास या भूगोल का विषय है, परन्तु यात्रा
साहित्य की प्रमाणिकता उसकी तथ्यात्मकता में ही निहित है । लेखक द्वारा दिए गये
तथ्य कोई आँकड़े या घटना भर नहीं होते बल्कि उनको अन्य स्थितियों से इस प्रकार
संबद्ध किया जाता है कि वे बुद्धि पर बोझ न रहकर सहज ही कथ्य के भाग बन जाते हैं।
कल्पना के बिना साहित्य नहीं लिखा जा
सकता । यात्रा साहित्य में भी बिना कल्पना के वह साहित्यिक विधा नही बन सकती
क्योंकि “लिखते समय अतीत को वर्तमान एवम् अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष करने की क्षमता
इसी कल्पना तत्व में निहित है ।”15 आत्मीयता ही ऐसा तत्त्व है जो पाठक को रचना से जोड़े रखता है । यात्रा में
मिला प्रत्येक व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है, यात्री का लगाव
उनसे मात्र औपचारिक ही नहीं होता अपितु संवेदनात्मक और आत्मीय होता है । यात्रा
साहित्य में उस आत्मीयता पूर्ण व्यवहार का वर्णन ही रचना को आत्मीय बना देता है।
यात्रा में पड़ने वाले कुछ क्षण के
मेहमान मार्ग, जंगल, पर्वत, व्यक्ति और
सामाजिक जीवन-यात्री इनमें डूबता उतरता चलता जाता है। इन सब को वह अपने नजरिये से
देखता है। यहाँ यात्रा व्यक्ति द्वारा होती है। यात्रा वृत्तान्त में वर्णन नितांत
व्यक्तिगत दृष्टि से होता है। “यात्रा के समय उसका व्यक्तित्व ओर भी हावी हो जाता
है क्योंकि व्यक्ति को अपनी अभिरुचि यथा-खानपान, वेशभूषा, पारिवारिक सुख सुविधा आदि का जितना तीव्र बोध प्रवास के क्षणों में होता
है उतना परिजनों और आत्मीय बंधुओं के साथ रहते नहीं होता !”16
वर्णन की रोचकता यात्रावृतान्त्त का
मूल तत्व है। पढ़ते समय जो चीज मन में रोमांच पैदा कर दे तथा पाठक की जिज्ञासा
शब्द-दर-शब्द बढती ही जाये। रोचकता ही ऐसा तत्व है जो यात्रा साहित्य की पुस्तक को
पर्यटन पुस्तिकाओं से अलगाता है। यात्री का उद्देश्य समय निकलने के लिये घूमना–फिरना
नहीं होता। वह सैर किए गए क्षणों को अनुभव करता हैं उनसे आत्मीयता स्थापित करता
है। यात्राकार का जुड़ाव इस कदर गहरा होता है कि वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य जनजीवन,
समस्याएँ आदि से वह संवेदना के गहरे स्तर पर तादात्म्य तो स्थापित
करता ही है साथ ही साथ एक कलाकार की भेदक दृष्टि द्वारा कलात्मक वर्णन से वहाँ के
दृश्यों को प्रत्यक्ष कर देता है। संवेदना के गहरे स्तर पर जुड़कर सौन्दर्य दृष्टि
वृत्तान्त को साहित्यिक रूप देती है।
लेखक का ज्ञान और अनुभव यात्रा में
पड़ने वाली प्रत्येक चीज को समझने में सहायक होता है। वह अपने अनुभवों के आधार पर
निष्कर्ष निकालता है, तुलना करता है और कारणों की खोज करता है। ज्ञान और अनुभव के बिना यात्रा
फीकी लगने लगती है और वह वस्तु वर्णन सा प्रतीत होने लगता है। लेखक के अनुभव ही
महत्वपूर्ण नहीं होते बल्कि अभिव्यंजना कोशल भी महत्वपूर्ण होता है। भाषा और शैली
का प्रयोग ही वर्णन की रुक्षता से बचाता है। लेखक प्राय: लोटकर स्मृति के आधार पर
या यात्रा में लिखी गई डायरी के माध्यम से ही बाद में संपादित करके यात्रावृत्त की
रचना करते हैं। वे यात्रा के समय अपने परिजनों या परिचितों को लेखे गये पत्रों को
यात्रानुभवों के रूप में काम में लेते हैं। इससे शैली में आत्मीयता या रोचकता आ
जाती है। “सामान्य घटनाओं के वर्णनों में बोलचाल की भाषा की
सहजता, प्रकृति या भावनात्मक क्षणों के वर्णन में कलात्मकता, दृश्यों के मूर्तिकरण में चित्रात्मकता और बिम्बधर्मिता, विचारों की अभिव्यक्ति में गाम्भीर्य तथा स्थितियों के विश्लेषण में भाषा
का प्रोढ़, प्रांजल और बोधगम्य रूप दिखाई पड़ता है !”17 शैली
की ही विशेषता है कि पाठक निरंतर जुड़ा रहता है !
किसी दृश्य का मूर्तिकरण करना
चित्रात्मकता या बिम्बधर्मिता है। लेखक द्वारा यात्रा स्थल का वर्णन इस प्रकार
करना की पढ़ते समय दृश्य आँखों के सामने जीवंत हो जाये। बिंब निर्माण करना किसी
यात्रा लेखक की सबसे बड़ी सफलता है। यात्रा वृत्त का एक और महत्त्वपूर्ण तत्त्व जो
उसका आधार है–समसामयिकता। उपर्युक्त तत्त्वों के बिना तो यात्रावृत्त का निर्माण हो ही
सकता, परन्तु उसमे कालगत बोध स्वभाविकता ला देता है। इससे यह
अहसास नहीं होता कि हम इतिहास की कोई घटना पढ़ रहे है। हम समय के साथ–साथ यात्रा करने लगते हैं।
संदर्भ
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हिंदी शब्द कोश, कमल प्रकाशन, नवीन
संस्करण
2.
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3.
हरदेव बाहरी, हिंदी शब्द कोश,
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4.
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यात्रा साहित्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, बुक पब्लिकेशन,
2015 पृष्ठ – 15
5.
अद्यतन हिंदी शब्द सागर, साहित्यागार
प्रकाशन पृष्ठ –782
6.
डॉ संध्या शर्मा, हिंदी
यात्रा साहित्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, बुक पब्लिकेशन,
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7.
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8.
राहुल सांकृत्यायन, घुमक्कड़
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9.
डॉ हरसिमरन कोर भुल्लर, समकालीन
यात्रा वृत्तों में सांस्कृतिक सन्दर्भ, के.के. पब्लिकेशन 2009,
पृष्ठ – 1
10.
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11.
डॉ संध्या शर्मा, हिंदी
यात्रा साहित्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि,
बुक पब्लिकेशन, 2015 पृष्ठ -29
12.
राहुल सांकृत्यायन, घुमक्कड़ शास्त्र, हिंदी समय.कॉम से
13.
मोहन राकेश,परिवेश,
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14.
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15.
डॉ हरिमोहन, साहित्यिक विधाएं : पुनर्विचार, वाणी प्रकाशन 2005 पृष्ठ – 276
16.
डॉ संध्या शर्मा, हिंदी यात्रा साहित्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, बुक
पब्लिकेशन, 2015 पृष्ठ - 22
17.
डॉ हरसिमरन कोर भुल्लर, समकालीन यात्रा वृत्तों में सांस्कृतिक सन्दर्भ,के.के.
पब्लिकेशन 2009, पृष्ठ-
25
[साभार: जनकृति के अप्रैल 2019 अंक में प्रकाशित]
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बहुत बढ़िया रचना सर जी
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