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रुक रुक ठहर ठहर

जब से लगी नज़्ररों को, बढ़ती उम्र की नज़र
बस एक सी लगती हैं, मुझे शाम औ’ सहर

लगते थे फरिश्ते से , रिश्तों की ओट ले
कभी से दे रहे थे  , मीठा सा एक जहर

हो गया बदरूप सा ,विकसित हुआ जब गाँव
न गाँव का होकर रहा, न ही बन सका शहर

लचक है जिंदगी का ,अकड़ मौत का निशान
इस ऐंठ ने मिटा दिये, कितने ही सिकंदर

’ओंम’ की भी हो गयी, गति मंथर बहुत यहाँ
वक्त ही चलता नहीं ,रुक रुक कर ठहर ठहर
-ओंम प्रकाश नौटियाल
(पूर्व प्रकाशित-सर्वाधिकार सुरक्षित)
Mob. 9427345810

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