फोर्टविलियम कॉलेज की भाषा-नीति: संदर्भ आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का साहित्येतिहास:
फोर्टविलियम कॉलेज की भाषा-नीति: संदर्भ आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य
हजारीप्रसाद द्विवेदी का साहित्येतिहास
रीतिकाल समाप्त
होते-होते अंग्रेजों का राज्य देश में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो गया था। अतः
अंग्रेजों के लिए यहाँ की भाषा सीखने का
प्रयत्न स्वाभाविक था। पर उन्हें शिष्ट समाज के बीच में दो तरह की भाषाएं चलती मिलीं।
एक तो खड़ी बोली का सामान्य देशी रूप, दूसरा वह दरबारी रूप जो मुसलमानों ने उसे दिया था और उर्दू
कहलाने लगा था।
अंग्रेज यद्यपि विदेशी थे पर उन्हें यह स्पष्ट लक्षित हो
गया था कि जिसे उर्दू कहते हैं वह न तो देश की स्वाभाविक भाषा है, न उसका साहित्य देश का
साहित्य है, जिसमें जनता के भाव और विचार रक्षित हों। इसलिए जब उन्हें देश की भाषा सीखने
की आवश्यकता हुई और वे गद्य की खोज में पड़े तब दोनों प्रकार की पुस्तकों की
आवश्यकता हुई -उर्दू की भी और हिंदी (शुद्ध खड़ी बोली) की भी। पर उस समय गद्य की
पुस्तकें वास्तव में न उर्दू में थी और न हिंदी में। लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं
है कि अंग्रेजों की प्रेरणा से ही गद्य की शुरुआत हुई। ऐसा माननेवालों को सावधान
करते हुए शुक्लजी लिखते हैं –
“जिस समय फोर्ट विलियम कॉलेज
की ओर से उर्दू और हिंदी गद्य की पुस्तकें लिखने की व्यवस्था हुई उसके पहले हिंदी
खड़ी बोली में गद्य की कई पुस्तकें लिखी जा चुकी थीं”1
अर्थात शुक्लजी गद्य की शुरुआत में अंग्रेजों की प्रेरणा को
स्वीकार नहीं करते।
द्विवेदी जी ने भी इस संबंध में लिखा है –
“कुछ विदेशी विद्वानों का ऐसा
विश्वास था कि अंग्रेजों के आने के बाद उन्हीं की प्रेरणा से हिंदुओं ने इस भाषा
में साहित्य लिखना शुरू किया, पर यह बात गलत है”2
अर्थात दोनों ही आचार्य इस बात का खंडन करते हैं कि
फोर्टविलियम कॉलेज में ही खड़ी बोली गद्य की शुरुआत हुई।
उदाहरण के तौर पर दोनों ही आचार्य रामप्रसाद निरंजनी के ‘भाषा योगवाशिष्ठ’ तथा पंडित दौलतराम कृत ‘जैन पद्मपुराण’ का उल्लेख करते हुए बताते
हैं कि फोर्ट विलियम कॉलेज के पहले से ही खड़ी बोली अपने स्वाभाविक रूप में
प्रचलित थी।
रामप्रसाद निरंजनी ने संवत 1798 में बहुत ही साफ-सुथरी खड़ी
बोली में रचना की। इनकी भाषा के संबंध में शुक्लजी लिखते हैं –
“इनके (रामप्रसाद निरंजनी के)
ग्रंथ को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि मुंशी सदासुख और लल्लूलाल से 62 वर्ष पहले
खड़ी बोली का गद्य अच्छे परिमार्जित रूप में पुस्तकें आदि लिखने में व्यवहृत होता
था”3
पंडित दौलतराम ने संवत 1818 में हरिषेणाचार्य कृत ‘जैन पद्मपुराण’ का भाषानुवाद किया था, जिसकी भाषा के संबंध में
दोनों आचार्य मानते हैं कि यद्यपि इनकी भाषा योगवाशिष्ठ के समान नहीं है पर इस बात
का पूरा पता देती है कि फारसी उर्दू से कोई संपर्क न रखने वाली अधिकांश शिष्ट समाज
के बीच खड़ी बोली किस स्वाभाविक रूप में प्रचलित थी।
अर्थात यह स्पष्ट है कि फोर्टविलियम कॉलेज के पहले से ही
खड़ी बोली गद्य में रचना की जाती थी। यह अलग बात है कि उसका व्यवहार उतना अधिक
नहीं हो रहा था जितना कि ब्रजभाषा का। इसका कारण यह है कि देश के परंपरागत साहित्य
की- जो संवत 1900 के पूर्व तक पद्यमय ही रहा- भाषा ब्रज भाषा ही रही और खड़ी बोली
वैसे ही एक कोने में पड़ी रही जैसे और प्रांतों की बोलियाँ। साहित्य या काव्य में उसका
व्यवहार नहीं हुआ। पर किसी भाषा का साहित्य में व्यवहार न होना इस बात का प्रमाण
नहीं है कि उस भाषा का अस्तित्व ही नहीं था। अतः खड़ी बोली भी अपने स्वाभाविक रूप
में रचनाओं में व्यवहृत होती थी।
इसके साथ साथ
ही यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि जब अंग्रेजों की ओर से पुस्तकें लिखने की
व्यवस्था हुई उसके दो एक वर्ष पहले ही मुंशी सदासुखलाल की ज्ञानोपदेश वाली पुस्तक
और इंशा की ‘रानी केतकी की कहानी’ लिखी जा चुकी थी। अतः
“यह कहना की अंग्रेजों की
प्रेरणा से ही हिंदी खड़ी बोली का प्रादुर्भाव हुआ ठीक नहीं है”4
द्विवेदीजी लिखते हैं –
“यह समझना ठीक नहीं है कि फोर्टविलियम
कॉलेज के अधिकारियों की प्रेरणा से ही आधुनिक हिंदी गद्य का निर्माण हुआ”5
अर्थात द्विवेदीजी भी फोर्टविलियम कॉलेज की प्रेरणा से ही
हिन्दी खड़ी बोली गद्य की शुरुआत नहीं मानते।
दरअसल जिस समय दिल्ली के उजड़ने के कारण उधर के हिंदू व्यापारी
तथा अन्य वर्ग के लोग जीविका के लिए देश के भिन्न-भिन्न भागों में फैल गए और खड़ी
बोली अपने स्वाभाविक देशी रूप में शिष्टों की बोलचाल की भाषा में हो गई उसी समय
में लोगों का ध्यान उस में गद्य लिखने की ओर गया। इसीलिए जब संवत 1860 में फोर्टविलियम
कॉलेज के हिंदी उर्दू के अध्यापक जॉन गिलक्राइस्ट ने देशी भाषा की गद्य पुस्तकें
तैयार कराने की व्यवस्था की तब उन्होंने उर्दू और हिंदी दोनों के लिए अलग-अलग
प्रबंध किया। इसका अर्थ यही है कि उन्होंने उर्दू से स्वतंत्र खड़ी बोली का
अस्तित्व भाषा के रूप में पाया।
खड़ी बोली गद्य को एक साथ आगे बढ़ाने वाले चार महानुभाव हुए
हैं – मुंशी सदासुखलाल, सैयद इंशा अल्ला खां, लल्लूलाल और सदल मिश्र।
मुंशी सदासुखलाल ने विष्णु पुराण से कोई उपदेशात्मक प्रसंग
लेकर एक पुस्तक लिखी थी, जो पूरी नहीं मिली। इस पुस्तक की भाषा के संबंध में दोनों
आचार्य एकमत हैं। वे मानते हैं कि मुंशीजी ने यह गद्य न तो किसी अंग्रेज अधिकारी
की प्रेरणा से और न किसी दिए हुए नमूने पर लिखा। एक भगवद्भक्त व्यक्ति थे। अपने
समय में उन्होंने हिंदुओं की बोलचाल की जो शिष्ट भाषा चारों ओर- पूरबी प्रांतों
में भी- प्रचलित पाई उसी रचना की। आचार्य शुक्ल तो इनकी भाषा की तुलना रामप्रसाद
निरंजनी की भाषा से करते हुए बताते हैं कि कुछ दूर तक सफाई चलाने वाला गद्य जैसा ‘योगवाशिष्ठ’ का था वैसा ही मुंशीजी की इस
पुस्तक में दिखाई पड़ा।
अर्थात मुंशीजी यद्यपि अंग्रेजों के अधीन थे पर रचना उन्होंने
अपने मन की स्वाभाविकता के आधार पर की। किसी की प्रेरणा से नहीं। इसीलिए दिवेदी जी
को उनकी रचना में स्वाभाविकता और अस्पष्टता झलकती है।
इंशा ने ‘उदयभान चरित या रानी केतकी की कहानी’ 1855 और 1860 के बीच लिखी
होगी। दोनों ही आचार्य यह मानते हैं कि इंशा का उद्देश्य ऐसी भाषा लिखने का था, जिसमें ‘हिंदी छुट और किसी बोली का पुट’ न हो। स्वयं इंशा कहानी
लिखने का कारण बताते हैं कि
“एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने
ध्यान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदवी छुट और किसी बोली का पुट न
मिले तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ
उसके बीच में ना हो”6
इससे स्पष्ट है कि इंशा का उद्देश्य हिंदी लिखने का था।
लल्लूलाल जी ने 1860 में कोलकाता के फोर्ट विलियम कॉलेज के
हिंदी उर्दू के अध्यापक जान गिलक्राइस्ट के आदेश से खड़ी बोली गद्य में ‘प्रेमसागर’ लिखा, जिसमें भागवत दशमस्कंध की
कथा वर्णन की गई। आचार्य शुक्ल ने इनकी भाषा के संबंध में लिखा है –
“इंशा के समान इन्होंने केवल
ठेठ हिंदी लिखने का संकल्प तो नहीं लिया था पर विदेशी शब्दों के न आने देने की प्रतिज्ञा
अवश्य लक्षित होती है। यदि ये उर्दू न जानते होते तो अरबी फारसी के शब्द बचाने में
उतने कृत कार्य कभी न होते जितने हुए”7
अर्थात लल्लूलाल ने यद्यपि ठेठ खड़ी बोली हिंदी लिखने का
संकल्प तो नहीं किया पर विदेशी शब्दों से अपनी रचना को अलग रखने का प्रयत्न अवश्य
किया जो इस बात का प्रमाण है कि वे खड़ी बोली का गद्य लिखना चाहते थे, यद्यपि यह पूरी तरह संभव ना
हो सका क्योंकि वे अंग्रेजों के अधीन रचना कर रहे थे।
आचार्य द्विवेदी भी यह मानते हैं कि इनकी भाषा में यद्यपि
विदेशी शब्द आ गए हैं पर प्रयत्न उनसे बचने का ही है।
सदल मिश्र ने
भी लल्लूलाल की ही तरह अंग्रेजों की प्रेरणा से खड़ी बोली गद्य की पुस्तक तैयारी
की। लेकिन इनकी भाषा में और लल्लूलाल की भाषा में अंतर है। यह अंतर बताते हुए
आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि लल्लूलाल के समान इनकी भाषा में न तो ब्रजभाषा के रूपों
की वैसी भरमार है और न परंपरागत पदावली का स्थान-स्थान पर समावेश। इन्होंने व्यवहारोपयोगी
भाषा लिखने का प्रयत्न किया है और जहां तक हो सकता है खड़ी बोली का ही व्यवहार
किया।
इससे स्पष्ट है कि सदल मिश्र ने खड़ी बोली का ही अधिक
व्यवहार किया है।
द्विवेदी जी ने सदल मिश्र की भाषा को व्यवस्थित, साफ और चुस्त कहा है। अतः –
“यह कहने की गुंजाइश जरा भी
नहीं रही कि खड़ी बोली गद्य की परंपरा अंग्रेजों की प्रेरणा से चली”8
उपर्युक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि यद्यपि अंग्रेजों ने
खड़ी बोली के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है
कि उन्हीं की प्रेरणा से फोर्टविलियम कॉलेज में खड़ी बोली की शुरुआत हुई। बल्कि
उसके पहले से ही हिंदी खड़ी बोली गद्य पुस्तकें लिखी जाती थी। डॉ. लक्ष्मीसागर
वार्ष्णेय फोर्टकॉलेज की कार्यवाहियों के विवरण के अध्ययन से इस नतीजे पर पहुंचे
हैं कि कॉलेज की नीति हिंदी के बहुत अनुकूल नहीं थी। अतः यह कहा जा सकता है कि उस
समय हिंदी गद्य अपनी भीतरी प्राणशक्ति के बल पर ही आगे बढ़ रहा था किसी की प्रेरणा
से प्रेरित होकर नहीं।
संदर्भ ग्रंथ:
1.
आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, द्वितीय पेपरबैक संस्करण, पृ.सं., 227)
2.
हजारीप्रसाद
द्विवेदी, हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, राजकमल प्रकाशन, चौथा संस्करण: 2013, पृ.सं., 458)
3.
आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, द्वितीय पेपरबैक संस्करण, पृ.सं., 225)
4.
वही, पृ.सं. 227
5.
हजारीप्रसाद
द्विवेदी, हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, राजकमल प्रकाशन, चौथा संस्करण: 2013, पृ.सं., 460)
6.
आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, द्वितीय पेपरबैक संस्करण, पृ.सं., 229)
7.
वही, पृ.सं. 230
8.
वही, पृ.सं. 279
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