नये संघर्ष -निराला की साहित्य साधना ::रामविलास शर्मा : समीक्षक - डॉ ज्ञान प्रकाश
नये संघर्ष -निराला की साहित्य साधना ::रामविलास शर्मा : समीक्षक - डॉ ज्ञान प्रकाश
रामविलास शर्मा छायावादी कवि निराला के काव्य और जीवन के गम्भीर और लगभग आधिकारिक अध्येता के रूप में प्रतिष्ठित हैं । रामविलास शर्मा स्वातंत्र्योत्तर हिंदी आलोचना और साहित्यिक वैचारिकता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं ।
निराला के जीवन संघर्ष और निराला की कविताओं को बारीक ढंग से पाठकों के सम्मुख रखने और सहेजने का एक बड़ा और महत्वपूर्ण काम उन्होंने सफलतापूर्वक किया है जिसके लिए हिंदी जगत उनका ऋणी है और रहेगा ।
'निराला की साहित्य साधना' (तीन भागों में )नामक जीवनी -ग्रन्थ उनकी कीर्ति गाथा का महत्वपूर्ण पड़ाव है । इस ग्रन्थ का प्रकाशन 1969 में हुआ था और इसके लिए 1970 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।इस वृहद ,विस्तृत और गहन -वैचारिकता से सम्बद्ध जीवनी में निराला के संघर्षपूर्ण विराट जीवन यात्रा के अलग अलग पड़ावों के साथ ही उनकी कविता में मौजूद विविधतापूर्ण भावों को संजीदगी के साथ पिरोया गया है ।
'जीवनी' नामक साहित्यिक विधा के आवश्यक तत्वों जैसे - जीवन से गहरी निकटता, निरपेक्षता, घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण , तथ्यपरकता,आत्मीयता, साहस, सहज भाषा शैली , आदि के मानकों पर भी यह अपने आप मे बेजोड़ रचना है । साहित्यकार के ऊपर लिखे गए अन्य जीवनियों को एकतरफ रख देने पर भी इस ग्रन्थ का वजन बीस ही नज़र आता है ।
फिलहाल हमारे लिए पाठ्यक्रम के लिहाज से, पाठ-विश्लेषण के संदर्भ में इस 'तीन-खंडीय' जीवनी के पहले भाग का एक उप-अध्याय -'नये संघर्ष ' उपस्थित है ।
'नये संघर्ष 'अध्याय में निराला जीवन के उस पड़ाव या उस जीवन संघर्ष का वर्णन-विश्लेषण अंकित है जहां निराला के जीवन में रोटी ,रोग और साहित्यिक- राग सम्बन्धी संकट खड़ा है ।
जीवनी के इस भाग की शुरुआत निराला के कलकत्ता से गढ़ाकोला लौटने की घटना से होती है । इस प्रसंग में रामविलास शर्मा ने तात्कालीन साहित्य दुनिया मे पत्र-पत्रिकाओं और संपादकों की भूमिका का तथ्यात्मक व ऐतिहासिक वर्णन करते हैं । द्विवेदी जी 'जूही' ,तो कवि-संपादक बालकृष्ण शर्मा नवीन 'प्रभा' नामक पत्रिका के संपादक थे और इनदोनो पत्रिकाओं अथवा संपादकों के बीच निराला और निराला की कविताओं को लेकर बहुत उत्साह नही बच गया था । फिर भी नवीन और द्विवेदी के मन मे निराला के प्रति वैमनस्य नही दिखाई पड़ता ,जबकि आज रॉयल्टी /छपने आदि की जोड़-तोड़ में ही संपादक-लेखक के बीच मारक-कटुता के हज़ारों उदाहरण मिल जाएंगे । निराला और नवीन के मुलाकात और मुलाकात के बाद पूर्व-ग्रह संचित मैल मिटकर मित्रता में बदल जाती है और निराला यहां भी अपने बड़प्पन से नवीन को ताउम्र के लिए अपना बना लेते हैं । जीवनीकार ने बहुत रोचक ढंग से एक 'उथल-पुथल' के सर्जक और एक नए 'क्रांति-जागरण ' के कवि के बीच लोमहर्षक भेंट को वर्णित किया है । नवीन के द्वारा अपनी प्रशंसा में नोट लिखे जाने पर निराला का उत्तर ,निराला के फक्कड़ व्यक्तिव को हमारे सामने उभारता है जो अपनी बड़ाई में लिखे शब्दों की छंटाई स्वयं करते दिखते हैं । आज हमारे साहित्यिक दुनिया की हालत यह है कि थोड़ी सी प्रशंसा के लिए लोग जमीन में नाक घुसेड़ देते हैं ।
आगे जीवनीकार ने निराला के भाग्यवादिता , पोंगा-पंथ और जड़-परम्पराओं के प्रति विद्रोही व्यक्तिव को उदघाटित किया है ,जहाँ ससुराल पक्ष ,कुंडली आदि तमाम तरह के घेरे को तोड़ स्नेहभाजन प्रिय पुत्री 'सरोज' के लिए कुंडली तक फाड़ डालते हैं और दूसरे विवाह प्रस्ताव को ठुकरा कर आगे बढ़ जाते हैं ।'सरोज स्मृति', 'कुल्लीभाट', 'बिल्लेसुर बकरिहा' आदि रचनाओं में निराला के इसी व्यक्तिव की प्रखर झलक मिलती है । वे सरोज ,अपने भतीजे, भतीजियों के लिए ताउम्र अर्थ-अर्जन में संघर्षरत रहे -यह आगे के विवरण में रचनाकार ने संकेत किया है ।बहरहाल निराला गृहस्थी का बोझ लिए कलकत्ता लौटे परन्तु स्वाभिमानी मन 'मतवाला'के प्रेस मालिक महादेव प्रसाद सेठ के व्यवहार से अब तक खिन्न था । वे मतवाला दफ्तर न जाकर अनुवाद जैसे कार्य के लिए इधर उधर चक्कर लगाते रहे । शिवपूजन सहाय उस समय 'मतवाला' में वापस लौट आए थे । परंतु निराला और निराला की कविताओं के बिना 'मतवाला' सूना था । अंततः सेठ और मतवाला मंडल के सदस्यों के हस्तक्षेप से निराला की वापसी मतवाला में हुई और पुनः वे अपने क्रांतिकारी कविता कर्म में लीन हो गए । इस अवतरण से स्पष्ट है कि निराला स्वाभिमान से समझौता न करने वाले व्यक्तिव थे परंतु जिद्द से बंधे हुए नही ।
आगे रामविलास शर्मा ने कवि निराला के कविताओं में परिस्थिति-जन्य उपजे बदलावों को सूक्ष्मता से परखा है । उनके अनुसार निराला की मतवाला में छपने वाली कविताओं में विषाद, सौंदर्य के प्रति मंद आकर्षण और जीवन -यथार्थ की कड़वाहट का दर्शन होता है, छंदों में भी पहले वाली राग-जन्य पल्लव -पुष्प अर्थात सजावट नही रही । पत्नी की मृत्यु और आर्थिक स्थिति से उपजे मानसिक तनाव ने निराला की कविताओं पर भाव और शिल्प दोनों पर गहरा प्रभाव डाला । 'यमुना के प्रति' कविता में संकेतित अवसाद और तुकांत छंदों का उद्धरण देते हुए जीवनीकार ने निराला की कविताओं और स्वयं निराला के मानसिक जगत में व्याप्त आंतरिक-बाह्य संघर्ष को बारीकी से ,आत्मीयता के साथ अंकित किया है ।
निराला को अपने समय के समाज, युग-यथार्थ ,साहित्य के साथ साथ राजनीति की गहरी समझ थी । यह वह समय था जब गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन और चरखा सत्याग्रह चरम पर था । यह वही समय था जब 'मुस्लिम लीग' के समांतर 'हिन्दू सभा' जैसे सम्प्रदाय-आधृत संगठनों ने अपने कट्टर सोच से गांधी -आंदोलन को कमजोर किया । साहित्य की दुनिया इस राजनैतिक हलचल से अछूता न रहा । निराला 'रामकृष्ण मिशन' के विचारों और गांधी -मूल्यों के प्रति आकृष्ट थे । यही वजह है कि गुरु रविन्द्र नाथ टैगोर द्वारा जब गांधी आंदोलन और चरखा सत्याग्रह का मखौल उड़ाया गया तो निराला ने भी 'माधुरी' जैसे पत्रिकाओं में लेख लिखकर रविन्द्र नाथ की जमकर खबर ली । साम्प्रदायिक गुटबाज़ी उस समय का (1926-1930) अपना सच था ,जाहिर है कि नेता, लेखक, संपादक इस गुट की अगुआई कर रहे थे । महादेव सेठ की 'मतवाला' और दूसरी ओर नावजादिक शाह संचालित बांग्ला के 'सुल्तान' पत्रिका ने अपने स्तर पर इस सम्प्रदाय-युद्ध को हवा दी । निराला थोड़े से हिले जरूर लेकिन मानवता प्रेमी कवि मन अंततः गांधी मूल्यों के प्रति अपनी संवेदना पोषित और पुष्ट की । रामविलास शर्मा ने बताया है कि उस समय मतवाला में हिंदू सभा समर्थित और समाजवाद समर्थित दोनों प्रकार के लेख छप रहे थे ,निश्चित रूप से निराला दूसरे प्रकार के लेखक मंडली में शामिल थे । कट्टरता निराला के व्यक्तित्व और कृतित्व का अंग कभी न रहा ,चाहे वह साहित्यिक मान्यताओं के प्रति हो या राजनीतिक मूल्यों के प्रति ! निराला ने अपने लेखों में हिंदी के प्रति संकुचित बंगाली प्रांतीयता की जमकर आलोचना की और यहां तक कहने में न हिचके कि - बंगाली प्रांतीयता का जहर ने उन्हें अपनी भाषा के प्रति भी कठोर बनाया । यह आत्मस्वीकृति निराला जैसे विराट साहसी व्यक्तिव से ही सम्भव था । आज जरा सा विवाद हुआ तो खंडन-मंडन के बाद माफी सह हस्त-चुम्बन के साथ वक्तव्य और विचार दोनों ढेर हो जाते हैं । आचार्य शुक्ल सम्बन्धी वर्तमान बहस को इस निराले- साहस के बरक्स देखा जा सकता है ।
आगे के घटनाक्रम का वर्णन करते हुए रामविलास शर्मा ने निराला के समय में साहित्यिक गुटबाज़ी,लेखकीय दम्भ और संपादकों की मनमर्ज़ी ,साहित्यिक चाटुकारिता का वर्णन बहुत निरपेक्षता के साथ किया है । साहित्य की दुनिया के उपरोक्त दोषों ने साहित्य और भाषा दोनों को क्षति पहुंचाई है ,और दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज के वर्तमान हिंदी साहित्य परिसर में गुटबाज़ी अब कोठी-बाज़ी (पॉकेट वार ) में तब्दील हुई नजर आती है ।
उग्र, महादेव सेठ और शिवपूजन सहाय के त्रिकोण में घिरे निराला जीवन प्रसंग में जीवनीकार ने बड़ी निष्पक्षता और बेबाकी के साथ उपरोक्त-हिंदी समुदाय दोष को वर्णित किया है ।'मतवाला' और संपादक के साथ पुनः निराला की ठन आयी और एकबार पुनः निराला के सामने अर्थ का संकट आन पड़ा । निराला ने अनुवाद, ट्यूशन, आदि का सहारा लिया । अन्य समकालीन संवेदनशील लेखक मित्रों की सहायता से किसी तरह गाड़ी खींच रही थी तो दूसरी ओर वे कविता की दुनिया से स्वयं को कटा हुआ महसूस कर रहे थे । विनोद व्यास एवम अन्य पुस्तक प्रकाशकों -मित्रों के आग्रह -अनुग्रह के बावज़ूद निराला का अक्खड़, जीवट और स्वाभिमानी मन झुकने को तैयार न हुआ । एक ओर गिरता हुआ स्वास्थ्य दूसरी ओर आर्थिक जर्जरता और तीसरी ओर साहित्यिक दुनिया से बेरुखी ने निराला के जीवन -सोपान को गहन संघर्ष के दलदल में डाल दिया । इस प्रसंग में कवि पंत और निराला के बीच की साहित्यिक-तल्खी साफ देखी जा सकती है जिसका लम्बा जिक्र जीवनीकार ने दोनों के बीच हुए पत्रों के आदान-प्रदान को रखकर किया है । अपनी कटु आलोचना सहन कर भी अपने समकालीन रचनाकार के प्रति मन-भेद न रखना निराला-संघर्ष की अलग पहचान है । आज तनिक आलोचना /प्रति-पक्षीय आलोचना मात्र से गाली -गलौज, कुटम-कुटाई ,आदि से लेकर 'स्कूल-बहिष्करण' तक का प्रचलन आम हो गया है । ऐसे में निराला और पंत के बीच हुए पत्राचार (पत्रों) को देखना समीचीन होगा । रामविलास शर्मा ने उपरोक्त पत्रों के साथ अपनी टिप्पणी देकर इन पत्रों के असल मिज़ाज़ को पाठकों के सामने रखा है जो एक जीवनीकार की सफलता कही जा सकती है ।इसी आलोक में जगन्नाथ प्रसाद द्विवेदी, शिवपूजन सहाय आदि के पत्रों को भी देखना अच्छा होगा जहां निराला के प्रति उनके समकालीन लेखकों और प्रकाशक-शुभचिन्तक मित्रों का अगाध प्रेम और सम्मान संचित दिखता है ।
अध्याय के अगले हिस्से में निराला की बीमारी , आर्थिक तंगी और लाचारी के बीच कभी न थकने वाले 'निराला-मन' का आत्मिक चित्रण जीवनीकार ने किया है । आर्थिक तंगी में उन्होंने बाल साहित्य, आलोचना, टीका तक लिखा ,भले ही यह सब तंग-हालातों की रचना थी परंतु निराला का विराट-लेखक इन रचनाओं में भी पूरे मन से मौजूद रहा ।
रामविलास शर्मा ने इस अध्याय के अंतिम भाग में उल्लेख किया है कि विनोद शंकर व्यास, जयशंकर प्रसाद, राय कृष्णदास ,शांतिप्रिय द्विवेदी, आदि के साथ निराला के संबंध आखिर तक आत्मीय रहे और इनलोंगो ने निराला को संभाले रखा । रामसहाय द्वारा निर्मित कच्चे घर मे एकान्त और असहय बीमारी की पीड़ा सहते हुए निराला का संवेदनशील कवि मन अपने शुभचिन्तकों के प्रति आभार करता रहा--"रोगग्रस्त जीवन दुःसह हो रहा है, आपलोंगो के पत्रों से ही बचा हूँ "
(निराला की साहित्य-साधना ,vol 1 )
बृहद तीन खण्डों के इस जीवनी के इस छोटे से उप -अध्याय (नये संघर्ष) में न केवल निराला-जीवन का जीवट संघर्ष रेखांकित है बल्कि जीवनीकार की निराला के प्रति असाधारण आत्मीयता भी सहज द्रष्टव्य है । 'जीवनी' विधा के तमाम तत्व इस छोटे हिस्से में भी आसानी से चिन्हित किये जा सकते हैं ।
शेष विस्तार बाद में .....
फिलहाल इतना ही ......
(एक विद्यार्थी का अपने साथी के लिए लिखा गया एक संक्षिप्त नोट मात्र ।)
चित्र साभार: अमर उजाला
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