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कलाकार कहानी की समीक्षा: ज्ञान प्रकाश

'कलाकार' कहानी की संक्षिप्त समीक्षा ......... 
 
रचनाकार- राजेन्द्र यादव 
समीक्षक-डॉ ज्ञान प्रकाश 


स्वातंत्र्योत्तर भारत में आर्थिक ,सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तन के साथ साहित्य के भाव (विषय ) और शिल्प (रूप ) के स्तर पर व्यापक बदलाव हुए ।
 
 विभाजन से उपजे दर्द, विस्थापन , पारिवारिक संरचना में बदलाव और एकल परिवार -सम्बद्ध समस्याएं, नगरीय बोध से उपजा अजनबीपन ,अकेपालन , आदि के साथ परम्परागत कला-मूल्यों में स्खलन को साहित्य की तमाम विधाओं ने आत्मसात किया । कहानी नामक विधा में यह परिवर्तन अन्य विधाओं की अपेक्षा ज्यादा तीव्र दिखाई देता है । विभाजन की त्रासदी, परिवार-विघटन, यथार्थ की टीस, समाज विमुख व्यक्ति का द्वंद आदि को कहानीकारों (रेणु, मन्नू भंडारी, कमलेश्वर, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा , राजेन्द्र यादव आदि ) ने नए शिल्प में गढ़ना शुरू किया । कहानी के इस नए मिज़ाज़ को ही बाद में चलकर नई कहानी आंदोलन का नाम मिला ।

 प्रेमचंद -जैनेंद्र की कहानियों से अलग नए सामाजिक -आर्थिक-राजनीतिक यथार्थ को नए शिल्प में -नई भाषा में गूंथ कर प्रकट करने में नए कहानीकार सफल रहे और इस रूप में हिंदी कहानी एक नए रास्ते की ओर आगे बढ़ गयी । राजेन्द्र यादव इस नए रास्ते के एक संकल्पित कथा-यात्री के रूप में प्रतिष्ठित हैं ।

राजेन्द्र यादव एक कहानीकार के साथ साथ 'हंस' नामक प्रतिष्ठित पत्रिका के विवादित सह लोकप्रिय सम्पादक के रूप में ख्यातिप्राप्त हैं । सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों के प्रति बेबाक और सपाट टिप्पणी के कारण उनकी कहानियों पर कम और उनकी संपादकीय टिप्पणियों पर आलोचकों की नज़र गड़ी रही । परन्तु उनके कथा -संसार की अपनी एक खास पहचान और विशिष्टता है जो उन्हें नई कहानी के कहानीकार-वर्ग में शान के साथ शामिल करता है ।

राजेन्द्र यादव मूलतः सामाजिक चेतना के रचनाकार हैं यानी सामाजिक बदलाव के प्रति सजग ।उनके कथा साहित्य में स्वातंत्र्योत्तर भारत सामाजिक परिवर्तन के चिन्ह बिना लाग-लपेट अंकित हैं । कला अथवा लेखन को स्वधर्म के रूप में ग्रहण करने वाले राजेन्द्र की कहानियों में शिल्प के प्रति उत्साह कम और सामाजिक-पारिवारिक  विघटन के प्रति ज्यादा लगाव दिखता है ।

'टूटना', 'अभिमन्यु की आत्महत्या', 'मेहमान', 'कला ,अहम और विसर्जन', 'जहां लक्ष्मी कैद है', 'छोटे -छोटे ताजमहल', 'ढोल', 'भय', 'बिरादरी बाहर' ,'खेल-खिलौने' आदि दर्जनों कहानी -संग्रह उनके कहानीकार रूप को प्रकट करते हैं । 

खैर ,
हमारे सामने उनकी कहानी 'कलाकार' है जिसकी समीक्षा की जानी है । 

'ढोल' कहानी संग्रह में संकलित यह कहानी 'कला' के प्रति 'कलाकार' के समर्पण और ईमानदारी को हमारे सामने आदर्श रूप में रखती है । आम तौर पर राजेन्द्र यादव की कहानियों का कलेवर(आकार) थोड़ा बड़ा होता है लेकिन यह बहुत छोटे आकार की कहानी है । इस कहानी को परम्परागत कहानी अर्थात प्रेमचंद-शैली के अंतर्गत ही रखा जाना ज्यादा उचित है । नई कहानी की विशेषताओं और नई कहानी के मानकों पर इस कहानी को देखने पर थोड़ी निराशा हाथ लगेगी । कहन -शैली (गल्प) में रची इस कहानी को आदर्शवादी या उपदेशात्मक नज़रिए से ही देखना ज्यादा उचित होगा -ऐसा मेरा मानना है । 

कथानक के स्तर पर महज़ कुछ घटनाएं वर्णित हैं । 'बहुरूपिया' कलाकार का 'साधू ' रूप में प्रकट होना, नगरवासियों के लिए पहुंचे हुए साधू के रूप में साबित कर अपने कला का प्रदर्शन करना, नगर-सेठ की पत्नी की बीमारी और उसका स्वस्थ हो जाना,सेठ द्वारा अपनी सम्पूर्ण सम्पति को त्याज्य कर साधू को समर्पित करना, बहरूपिये द्वारा धन-का परित्याग करना, और साधू रूप में अपनी कला का चरम-उत्कर्ष दिखाकर बहुरूपिया का अपने असल रूप में प्रकट हो जाना - बस इतनी सी घटनाएं कहानी का फलक तैयार करती हैं जहां कलाकार की ईमानदारी और अपने कला-मूल्यों के प्रति निष्ठा का परिचय प्राप्त होता है । 

चरित्र के स्तर पर एक कलाकार, स्वयं लेखक और नगर-सेठ, महज  तीन प्रमुख पात्र हैं और पूरी कहानी इनके ही कथन ,वर्णन और व्यवहार के इर्द-गिर्द घूमती और खत्म होती है । 
संवाद और देशकाल-वातावरण के साथ रचनाकार ने बहुत सलीके से व्यवहार किया है । साधू सन्यासियों की भाषा, उनके परिधान, नगरवासियों की सोच, उनकी अंधभक्ति और परम्परागत भेड़-चाल आदि का वर्णन कहानी के कथानक और पात्रों के साथ अनुकूलित नज़र आते हैं । 
सपाट और सहज भाषा प्रयोग राजेंद्र यादव की कहानी कला की खास विशेषता है । बीच बीच में सूक्त सामाजिक व्यंग्य का पंच देना वे नही भूलते , (हम सब मे बहुरूपिया मौज़ूद है----) । लेखक वर्णनकार अर्थात किस्सागो के रूप में स्वयं यहां उपस्थित है ,जो गल्प शैली में लिखी कहानियों की विशेषता मानी जाती है ।

'बहुरूपिया' का हमारे परम्परागत कला रूपों यानी नाटकों,लीलाओं, और महाकाव्यों आदि में बहुतायत जिक्र मिलता है ।विदूषक, हँसोड़,क्षेपक आदि को भी इसी बहुरूपिया -कलाकार के रूप में देखा जाता रहा है । नाना-नानी की कहानियों में , प्रहसनऔर नाटकों में अलग अलग रूप बदलकर मनोरंजन करने और धन कमाना उनका पेशा रहा है । आज भी फिल्मों में अभिनय करने वाले लोग एक मायने में बहुरूपिया ही तो हैं जो हर फ़िल्म में एक नए किरदार में सामने होते हैं , कई बार भेष बदलकर -कई बार बिना भेष बदले ! कहानी के शुरुआती हिस्से में कहानीकार ने व्यंग्यात्मक लहज़े में अपने समय का सच कह दिया --"हम सब मे एक बहरूपिया मौज़ूद है..." । लेखक ने मनुष्य के चेहरे के पीछे अलग चेहरे यानी चरित्र को यहां संकेतित किया है । 
सामने कुछ हैं, पीछे कुछ और ,चेहरे पर गम्भीरता -पीछे भारी लम्पटपना, कहना कुछ -करना कुछ और, चेहरे पर मासूमियत -भीतर मारक धूर्तता आदि आधुनिक मनुष्य के इस बहरूपिये- चरित्र को लेखक ने यहां सूक्ति रूप में व्याख्यायित किया है । हमे यह आत्मचिंतन करना चाहिए कि असल मे हम बहुरूपिया -कलाकार तो नही बन रहे अपने असल जीवन में? क्या इस बदलते मानव-चरित्र के पीछे उपभोक्तावादी लालची मन तो नही है? छोटे छोटे स्वार्थों के चक्कर में हरदम एक नए रूप को ढोते रहने की बेबसी और बेईमानी पर करारा चोट करता है कहानी में चित्रित -'कलाकार' बहुरूपिया द्वारा सेठ की संपत्ति को लौटा कर महज़ कला की मजदूरी/ईनाम स्वरूप दो अशर्फियों के साथ  खुश /संतुष्ट हो जाना ।

नगरवासियों द्वारा साधू बने बहरूपिये को बिना परखे भक्ति में लीन हो जाना और पहुंचा हुआ फ़क़ीर मान लेने की घटना के द्वारा लेखक ने हमारे समय और हमारे समाज के भेड़-चाल और अंधभक्ति को उज़ागर किया है । लेखक ने जानबूझकर यहां नगर को लाया है क्योंकि ग्रामीण इलाकों में अंधभक्ति या मान लेने की प्रवृत्ति सहज है, रही है परंतु खुद को विज्ञान-जीवी कहने और समझने वाले समसामयिक दृष्टि में ज्यादा नींबू-धारी अर्थात अंधभक्त बने हैं । बहुरूपिया राजनेताओं ,बहरूपिये विचारक, बहरूपिये धर्म रक्षक , सन्त, बापू टाइप पात्रों /चरित्रों से भरे पड़े आधुनिक तथाकथित सभ्य समाज के ऊपर हल्की लेकिन असरदार चोट करती है--कहानी में वर्णित 'कलाकार बहुरुपिये' का चरित्र और उसकी कलाकारगत मूल्यों के प्रति ईमानदारी ।

कहानी के अंत में लेखक ने कलाकार यानी बहुरूपिया द्वारा सेठ से ईनाम के रूप में महज़ कुछ धन मांगने और स्वयं  को सज़ा के लिए प्रस्तूत होने की घटना का वर्णन किया है ।ज़ाहिर है कि एक सच्चे कलाकार और कला के प्रति उसकी निष्ठा को लेखक ने उद्घाटित किया है ।साथ ही साथ उन्होंने यह संदेश दिया है कि मूल रूप में मनुष्यता बची रहे -यही कलाकार का ,मनुष्य का असल धर्म है । सच यह है कि घोर व्यावसायिकता में डूबे न तो कलाकार अपने कला -मूल्यों के प्रति निष्ठावान हैं न मनुष्य रूप में हम मनुष्यता /मानवता के प्रति ईमानदार ! .......


    ----ज्ञान प्रकाश

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