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‘रामचरितमानस की उपलब्ध विविध पांडुलिपियाँ और उनका रचनाक्रम’- अमन कुमार

 


 रामचरितमानस की उपलब्ध विविध पांडुलिपियाँ और उनका रचनाक्रम
 

अमन कुमार

सहायक प्रोफेसर,

 हिन्दी विभाग

किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

 

सारांशप्रस्तुत शोध आलेख में गोस्वामी तुलसीदास विश्वप्रषिद्ध महाकाव्य रामचरितमानस की उपलब्ध विविध पाण्डुलिपियों और उसके रचनाक्रम पर विचार विमर्श कर कुछ निष्कर्ष निकाला गया है। रामचरितमानस भारतीय जनमानस में सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला ग्रंथ है । इसकी लोकप्रियता का प्रमाण यह है कि इसकी अनेकों पांडुलिपियाँ देश भर में पायी गई हैं । इस शोध आलेख में प्रामाणिक पाण्डुलिपियों पर चर्चा की गयी है और रामचरितमानस का रचनाक्रम निर्धारित करने का प्रयास किया गया है।

 

प्रमुख शब्द:-  रामचरितमानस, अयोध्या , वाराणसी,  श्रावणकुंज मंदिर , राजापुर , तुलसीघाट , पाण्डुलिपि , काशी नरेश ,

 

शोध प्रविधि:- प्रस्तुत शोध आलेख में आलोचनात्मक प्रविधि का प्रयोग किया गया है।

 

गोस्वामी तुलसीदास लोकदर्शी एवं लोक मर्मज्ञ कवि हैं। उनका रामचरितमानसविद्वानों के लिए गूढ़तम है, तो बिना पढ़े लिखे लोगों के लिए आज भी पग-पग पर राह दिखाने वाला मार्गदर्शक है। प्रत्येक परिस्थिति में मानस की चौपाईयाँ आम जन के कंठ से स्वतः फूट पड़ती है। गोस्वामी जी की यह महानतम कृति श्रेष्ठ साहित्यिक तत्त्वों के मानक पर खड़ी उतरते हुए भी जीवन के अन्य पक्षों जैसे- आचार, धर्म, संस्कृति, राजनीति आदि व्यवहारिक पक्षों से पूर्ण है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रामचरितमानस की महत्ता पर लिखा है - भारतवर्ष के जिस कोने में लोग इस ग्रंथ को पूरा-पूरा नहीं समझ सकते, वहाँ भी वे थोड़़ा बहुत जितना समझ पाते हैं, उतने ही के लिए इसे पढ़ते हैं। कथाएँ तो

और भी कही जाती है, पर जहाँ सबसे अधिक श्रोता देखिए और उन्हें रोते और हँसते पाइए, वहाँ समझिए कि तुलसीकृत रामायण हो रही है। साधारण जनता के मानस पर तुलसी के मानसका अधिकार इतने से ही समझा जा सकता है।”[i]

            आखिर तुलसी के सभी ग्रंथों में रामचरितमानस की ऐसी धूम क्यों मची? क्यों मॉरिशस जाते समय मजदूर अपने साथ उसकी एक प्रति लेकर गये? क्यों उन्हें अन्य ग्रन्थों से मानस श्रेष्ठ कर प्रतीत हुई! वह इसलिए कि रामचरितमानस मानव धर्म की विराट चेष्ठा का काव्य है। जब जीवन पर अझेल हमलें हो रहें हों तो तुलसी की यह कृति उस अझेल हमलों से लड़ने की ताकत देती है। वह मानव जीवन और उसकी महानता स्थापित करने वाला काव्य है और तुलसी के राम की इस मानव तन को पाकर अपने को भाग्यशाली समझते हैं

बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा॥ [ii]

           

 

 

 

रामचरितमानस की अपार लोकप्रियता के कारण उसकी बहुसंख्यक पांडुलिपि देश के विभिन्न भागों से मिली। उन पांडुलिपियों से मानस का शुद्ध पाठ उपलब्ध करना- उसके योग्य संपादकों के द्वारा - यह प्रयत्न श्लाघ्य है। मानस का शुद्ध पाठ तैयार  करके उसे संपादित करने वाले वि़द्वानों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल , शंभुनारायण चौबे, डॉ. माता प्रसाद गुप्त और आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यहाँ रामचरितमानस की कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण पांडुलिपियों का उल्लेख किया जा रहा है।

 

            रामचरितमानसकी सबसे प्राचीन प्रतिलिपि संवत् 1661 की बताई जाती है। परन्तु डॉ. गुप्त का कहना है कि यह वस्तुतः संवत् 1691 की है। इसमें दहाई का अंक बदल दिया गया है।[iii] यह पांडुलिपि इस समय श्रावणकुंज मंदिर अयोध्या में है। जिसमें बालकाण्ड ही प्राचीन है।

 

2.  इस क्रम में दूसरी प्रतिलिपि संवत् 1721 की है। जो भारत कला भवन काशी में है। इसमें अयोध्याकांड नहीं है।

3.तीसरी महत्त्वपूर्ण प्रति पं. शंभुनारायण चौबे (भूतपूर्व पुस्तकाध्यक्ष्, नागरी प्रचारिणी सभा काशी) के निजी संग्रह में थी, जो अब भारत कला भवन काशी में रख दी गई है।  

 

4. इसी क्रम में महाराजा काशीराज के निजी संग्राहलय में संवत् 1704 की प्रति बालकांड की प्रति को छोड़कर यह रामचरितमानस की प्राचीनतम उपलब्ध प्रति है। परन्तु  इस प्रति की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसके अयोध्याकांड वाली पांडुलिपि की पुष्पिका में संशोधन किया गया है।और अरण्य तथा किष्किंधा काण्ड की प्रक्षिप्त पंक्तियों के कारण डॉ. गुप्त ने इसकी प्रमाणिकता पर कुछ संदेह व्यक्त किया है।[iv]

5. डॉ. माता प्रसाद गुप्त के खोजी अभियान में उन्हें मिर्जापुर से मानस की एक प्रतिलिपि प्राप्त हुई थी। जिसका लिपिकाल संवत् 1878 है।

6. रामचरितमानस की अब तक उपलब्ध पांडुलिपि में सबसे अधिक खोज राजापुर वाली प्रतिलिपि की हुई है। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि स्वयं गोस्वामी जी ने इस प्रति को लिखकर अपनी पत्नी रत्नावली को भेजा था। और उसी प्रतिलिपि से अन्य प्रतियाँ  जन्मी है। क्योंकि इस प्रतिलिपि से एक प्रति बनाकर पुनः गोस्वामी जी को भेजी गई थी (उनके ग्रन्थ के चोरी हो जाने के बाद) और वह प्रति अभी वर्तमान में तुलसीघाट पर स्थित हनुमान जी के मंदिर में रखी हुई है।  इस महत्त्वपूर्ण प्रति का उल्लेख डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने गुरुवर पर लिखें संस्मरण- व्योमकेश दरवेश-में किया है। इसमें उन्होंने राजापुर के जिलाध्यक्ष महोदय के वक्तव्य का उल्लेख किया है। जिसमें  जिलाध्यक्ष महोदय ने यह स्वीकार किया कि उन्होंने रत्नावली के वंशजों - जिनके पास तुलसी लिखित प्रतिलिपि थी- से कई बार उस पांडुलिपि को सरकारी संग्रहालय में जमा कराने की गुहार लगाई थी। परन्तु वंशजों ने उनकी इस गुहार को कई बार ठुकरा दिया। अंत में जिलाधीश महोदय ने उनके घर चोरी करवा कर वह पांडुलिपि हासिल की और उसे सरकारी संग्रहालय में भेज दिया। अब अनुमान यह है कि यह प्रति भारत के राष्ट्रपति के निजी संग्राहलय में रखवा दी गई है।

            पांडुलिपियों की इस जानकारी के बाद अब हम रामचरितमानस के  रचना क्रम पर बात करते हैं। मानस के रचना क्रम को समझने के लिए हम इसे चार भागों में बाँट लेते हैं-

 

 

 

(1)        रचना आरंभ की तिथि और स्थान

(2)        आरम्भिक पंक्तियाँ

(3)        रचना की समाप्ति में लगा समय

(4)      ग्रंथ की प्रस्तावना

 

(1)               रचना आरंभ की तिथि और स्थान - गोस्वामी जी ने रामचरितमानस के बालकाण्ड - जो कि ग्रंथ की प्रस्तावना है - में रचना आरंभ की तिथि और स्थान का उल्लेख कर दिया है। बालकाण्ड के इस प्रसंग को  देखें –

 

सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥
संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥
नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥[v]

 

            इन चौपाईयों में संवत् तिथि और दिन का उल्लेख किया गया है, किन्तु पक्ष का नहीं। परन्तु राम जन्म की नवमी का संबंध तुलसीदास के अनुसार शुक्ल पक्ष से है - नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता।”[vi] उन्होंने गीतावली में भी इसका स्पष्ट निर्देश कर दिया है-

‘चैत चारु नौमी तिथि सित पख मध्य गगन गत भानु।।’[vii] इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार रामचरितमानस की रचना का आरम्भ संवत् 1631 ई. में चैत्र शुक्ल नवमी मंगलवार को हुआ। विद्वानों में इस तिथि यानी मंगलवार को लेकर कुछ विवाद है। सर्वप्रथम माता प्रसाद गुप्त ने लिखा - क्या तिथि का यह सारा विस्तार ठीक है। सूर्योदय-व्यापिनी तिथि को ही सारे दिन की तिथि मानने के सर्वमान्य भारतीय सिद्धांत के अनुसार सन् 1631 ई. के चैत्र शुक्ल में नवमी बुधवार की होनी चाहिए, गणना से यह स्पष्ट ज्ञात होता है।[viii]

            परन्तु मानस पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण टीका- मानष-पीयूषलिखने वाले महात्मा अंजनीनंदनशरण ने जोड़  देकर कहा- नवमी इस दिन भी थी और दूसरे दिन भी। पर दूसरे दिन उनके इष्ट देव हनुमान जी का दिन न मिलता, नवमी तो जरूर मिलती और अपने तीनों इष्टों का जन्मदिन, मंगलवार होने से वह दिन उन्हें अतिप्रिय अवश्य होना चाहिए, उसे वह क्यों हाथ से जाने देते? अतएव ग्रन्थ रचने के लिए मंगलवार के मध्याह्नकाल में नवमी पाकर ग्रन्थ रचा।[ix]

            आरम्भ स्थान - रामचरितमानस की रचना आरंभ स्थान का उल्लेख, गोस्वामी जी ने स्वयं किया है- 

‘नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥’

कवि ने निश्चय ही रामचरितमानस अयोध्या में लिखना आरम्भ किया परन्तु शेष अंश काशी में रचे गए हैं। किष्किंधा काण्ड का प्रथम सोरठा इस बात का प्रमाण है-

मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर।

जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न ।[x]

           

 

 

 

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भी इस बात से सहमत है। उन्होंने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा ‘रामायण का कुछ अंश विशेषत:  किष्किन्धा काण्ड काशी में रचा गया।’|[xi] किष्किन्धा के बाद सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड और उत्तरकाण्ड और बालकांड का पूर्वाद्ध काशी में रहकर ही पूरा किया गया।

(2)        आरम्भिक पंक्ति  - अब प्रश्न यह है कि मानस की प्रथम रचना किस दोहे या सोरठे या चौपाई से माना जाए। हमारे पास निम्न विकल्प सामने आते हैं।

            प्रथम विकल्प – द्वितीय सोपान यानी अयोध्याकांड का प्रथम दोहा

            श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
          बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥[xii]

            दूसरा विकल्प -

            संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥
           नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥[xiii]  

           तीसरा विकल्प

            ‘भए प्रकट कृपाला दीनदयाला’[xiv]

            अब तीनों विकल्पों पर गंभीरता से विचार करने पर हम पाते हैं कि प्रथम विकल्प यानी अयोध्या कांड के प्रथम दोहे से ही मानस की रचना  आरंभ होती है और यही आरम्भिक दोहा है। क्योंकि दूसरे विकल्प को मानस के आरंभ की चौपाई नहीं माना जा सकता। इसके दो महत्त्वपूर्ण कारण डॉ. उदय भानु सिंह ने गिनाये हैं। उनका तर्क इस प्रकार है -

            कवि ने तिथि का उल्लेख 7 श्लोकों 10 सरोठों 44 दोहों 1 छंद और 328 अर्धालियों के बाद किया है। अतएव तिथि निर्देश के पूर्व इस अंश की रचना स्वयं सिद्ध है। विश्वास नहीं होता कि अयोध्या में रामनवमी की चहल-पहल के दिन कुछ ही घंटों में इतनी काव्य-रचना की गई होगी।[xv] अब नीचे दिये गये पदों पर ध्यानपूर्वक पढ़ने के बाद यह साफ़ स्पष्ट हो जाता है कि तुलसीदास ने अयोध्याकाण्ड के प्रथम दोहे से ही अपने ग्रन्थ की रचना आरम्भ की , लेकिन 7 श्लोक 10 सरोठे 44 दोहे 1 छंद और 328 अर्धालियां उसी दिन नहीं लिखी गई; बल्कि यह बाद में ग्रन्थ की भूमिका या प्रस्तावना लिखते समय लिखा गया है  (जो की प्रथम सोपान यानि बालकाण्ड का पूर्वाद्ध भाग है)  प्रस्तावना लिखते समय तुलसीदास ने भूतकालिक क्रिया एवं वर्तमान कालिक क्रिया का प्रयोग कर अपने ग्रन्थ की प्रस्तावना में यह बता दिया है यह कृति सर्वप्रथम अवधपुरी में प्रकाशित हुई– ‘अवधपुरीं यह चरित प्रकासा’।अब प्रथम सोपान यानि बालकाण्ड के पूर्वाद्ध भाग के इन पदों को देखें -

 

1.      संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥

2.      नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं॥
सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी॥
बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत

नसाहिं काम मद दंभा॥

 

 

3.      रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥

जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥

 

डॉ. उदय भानु सिंह ने अपने दुसरे तर्क में यही दिखाया है।उनका दूसरा तर्क अधिक प्रवल है।प्रस्तुत  पंक्तियों को उद्घृत करते हुए उन्होंने लिखा - इसमें देशकाल का व्यावधान दिखाई देता है। पहली इकाई में वर्तमान कालिक किया करौंका दूसरी में भूतकालिक क्रिया कीन्हका और तीसरी में वर्तमान कालिक किया कहौका प्रयोग किया गया है। दूसरी इकाई में दूरता-सूचक ‘तहाँ’ अवेक्षणीय है। उससे अवगत होता है  कि वह इकाई अयोध्या में न लिखी जाकर किसी अन्य स्थान पर लिखी गई है।[xvi] 

            डॉ. उदय भानुसिंह का दूसरा तर्क ठीक मालूम पड़ता है। वहीं तीसरे विकल्प भए प्रकट कृपालासे मानस का आरम्भ मानने में सबसे बड़ा बाधक अयोध्या काण्ड का प्रथम दोहा यानी विकल्प एक ही है। अगर यह बाधक न होता तो, मानस का आरंभ यहीं से माना जा सकता था।

            अब प्रश्न यह है कि तुलसी को अपने ग्रन्थ  आरंभ की तिथि कैसे याद रही होगी ? प्रथम पांडुलिपि में तिथि का उल्लेख नहीं है। वह आखरी पांडुलिपि में है। इसका उत्तर तुसली की रामभक्ति में है, वह दिन उनके राम का है यानी राम के जन्म का दिन और तुलसी उसे कभी भूल नहीं सकते थे। इसलिए ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखते समय उन्हांने भूतकालिक क्रिया कीन्ह- बिमल कथा कर

 

कीन्ह अरंभा  और वर्तमान कालिक क्रिया कहउँ- ‘अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु’-  का प्रयोग किया।

            (3)        रचना की समाप्ति में लगा समय -  अब विचारणीय है कि इतना विशालकाय काव्य को सम्पूर्ण करने में तुलसीदास को कितना समय लगा होगा? तुलसीदास ने अपने ग्रन्थ  की समाप्ति का उल्लेख नहीं किया है। इस सम्बन्ध में कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है। हालांकि बेनीमाधव दास द्वारा रचित मूल गोसाई चरितके अनुसार सन् 1633 ई. के अगहन में राम विवाह की तिथि पर पूर्ण हुआ; उसकी रचना में कुल दो वर्ष, सात महीने और छब्बीस दिन लगे। परन्तु रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. माता प्रसाद गुप्त और उदय भानु सिंह जैसे बड़े विद्वानों ने इस ग्रन्थ की प्रमाणिकता पर संदेह किया है। मानस कि समाप्ति पर डॉ. उदय भानु सिंह का यह मत है -  “ ‘रामचरितमानसके प्रथम भाग अयोध्याकाण्ड और बालकाण्ड उत्तरार्ध की रचना के बाद कवि थका हुआ-सा दिखाई देता है। तीसरे सोपान से उसकी अजस्त्र भावधारा का वेग कुछ मंद पड़ गया है। जटिल संविधानक और विचार बोझिल प्रसंगों के प्रयत्न-साध्य निर्वहण में निश्चय ही अधिक समय लगा होगा। इन सब बातों को दृष्टि में रखते हुए अनुमान किया जा सकता है कि उसकी रचना में लगभग पाँच वर्ष का समय लगा होगा। उसके बाद भी काट-छाँट और संशोधन और परिवर्धन का क्रम चलता रहा होगा। संवत् 1642 तक पर्वती मंगलीकी रचना के पूर्व उसे अंतिम रूप प्राप्त हो गया होगा।[xvii]

 

 

 

(4)        ग्रंथ की प्रस्तावना हम यह दिखा आयें हैं कि बाबा तुलसीदास ने अपने ग्रन्थ की प्रस्तवना सबसे अंत में लिखा – यानी  उत्तरकाण्ड पूरा हो जाने के बाद उन्हें अपने ग्रन्थ की भूमिका या प्रस्तावना लिखनी पड़ी। क्यों? तुलसीदास ने ऐसा क्यों किया?

 

इसका कारण जानने के लिए तुलसीदास के काशी निवास का अवलोकन करना पड़ेगा। तुलसी साहित्य और उन पर लिखे साहित्य में यह व्याप्त है कि शिव नगरी काशी में तुलसीदास का काफी विरोध हुआ था। कारण कई थे जिनमें उनका ब्राह्मण होने पर संदेह किया जाना, दूसरा कारण शिव की नगरी में राम नाम का बखान और तीसरा संस्कृत नगरी में भाषा में प्रबंध काव्य लिखने के कारण तुलसीदास को विरोध झेलना पड़ा। जिसका वर्णन उन्होंने कवितावली में किया है। और भी कई कारण थे  किन्तु ये तीन कारण प्रमुख हैं।

 

            बालकाण्ड के पूर्व-भाग का गहराई से अध्ययन करने से यह  पता चलता है कि तुलसीदास रूठे हुए पंडितों को मनाने और अपनी काव्य प्रतिभा का लोहा मनवाने के लिए कमरकश कर लिखने बैठे हैं। इसी सोपान में उन्होंने बताया कि रामचरितमानस उनके हृदय से कैसे फूट पड़ा और यहीं तुलसीदास ने रामचरितमानस को सरोवर स्वीकार किया तथा इसके काण्डों को उन्होंने सोपानों की संज्ञा दी।

 

            दरअसल, तुलसीदास ने समस्त ज्ञान परम्परा को अपने हृदय में उतार रखा था। उन्होंने रामरूपी सरोवर को हृदय के नेत्रों से देखा और उसमें गोता लगाकर कवि की बुद्धि निर्मल हो गई, हृदय में आनंद और उत्साह भर गया, प्रेम का प्रवाह उमड़ पड़ा –

 

अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही।।

भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू।।[xviii]

 

            और जब प्रेम और आनंद का प्रवाह उमड़ आया तो कवि के हृदय से कविता नदी के समान बह निकली, उस नदी में उनके रामजी का निर्मल यश रूपी जल भरा है। इस नदी का नाम सरयू है, जो सम्पूर्ण सुन्दर मंगलों की जड़ है। लोकमत और वेदमत इसके दो सुंदर किनारे हैं-  

      

   चली सुभग कविता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो।।

           सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला।।[xix]

 

            इसी सोपान में उन्होंने गुरु वन्दना, ब्राह्मण-संत वन्दना, खल वन्दना, संत- असंत वन्दना, रामरूप से जीव मात्र की वन्दना, अपनी दीनता का वर्णन और अपनी कविता की महत्वता और अपने पूर्व और बाद के सभी कवियों को प्रणाम करना और आशीर्वाद माँगना, कबीर पंथियों को नाम और रूप का पाठ पढ़ाना इत्यादि सभी का मुँहतोड़ जवाब उन्होंने दिया।            

 

           

 

 

 

तुलसीदास स्मार्त वैष्णव थे।  परन्तु यह बात उन्हें सिद्ध करनी पड़ी शिव विवाह का वर्णन करके। जगत में राम और शिव को एक साथ प्रतिष्ठित करके उन्होंने अद्वितीय कार्य किया। अपने काव्य का लगातार विरोध होता देख उन्होंने अपने काव्य को शिव मुख से कहलाया और घाट मनोहर चारी की कल्पना की।

 

निष्कर्ष - रामचरितमानस का रचनाकार अपनी कृति का रचना को लेकर अत्यंत सजग है। उसने अपने काव्य को इस प्रकार रचा है कि यह आधुनिक काव्य की रचना प्रक्रिया से काफी मेल खाता है। रामचरितमानस में तीन वक्ता, तीन श्रोता हैं और तुलसीदास विशेषकर महत्त्वपूर्ण जगहों पर अपनी टिप्पणी करते हैं और सम्पूर्ण अयोध्याकाण्ड और बालकाण्ड के उत्तरार्ध में कवि स्वयं वक्ता है। ग्रन्थ की भूमिका को पढ़कर लगता है तुलसीदास अपनी रचना को लेकर सफाई दे रहे हैं। अंत में मैं तुलसी साहित्य के मर्मज्ञ डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के उस कथन से अपनी बात को यहाँ विराम दूँगा जिसमें उन्होंने कहा है - देश में कोई मन्दिर न जाए, कीर्तन न करे, तब भी उनकी कविता लोकप्रिय रहेगी, क्योंकि उनकी कविता जिन्दगी के लिए सन्दर्भवान् है।[xx]

 

संदर्भ ग्रंथ सूची:- 

1.      आचार्य  रामचन्द्र शुक्ल:  गोस्वामी तुलसीदास : 16वाँ संस्करण

2.      रामचरितमानस: सप्तम सोपान; (उत्तरकाण्ड)  - गीता प्रेस, मझला साइज, कोड 82

3.      डॉ. माता प्रसाद गुप्त: तुलसीदास ;  आठवाँ संस्करण, हिन्दी परिषद् प्रकाशन, इलाहाबाद

4.      गीतावली; बालकाण्ड ( पद सं० – २ )  गीताप्रेस, गोरखपुर कोड सं० – 106

5.      अंजनि नंदन शरण: - मानस पीयूष ; बालकाण्ड, गीताप्रेस गोरखपुर,सत्रहवाँ पुनर्मुद्रण, संवत् २०७१

6.      आचार्य रामचंद्र शुक्ल: हिंदी साहित्य का इतिहास; लोकभारती प्रकाशन

7.      डॉ. उदय भानुसिंह :  तुलसी काव्य मीमांसा ; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, दूसरी आवृत्ति 2011

8.      विश्वनाथ त्रिपाठी: लोकवादी तुलसीदास; राधाकृष्ण प्रकाशन छठा संस्करण-2016

 

 

 

 



[i] आचार्य रामचन्द्र शुक्ल: गोस्वामी तुलसीदास :16वाँ संस्करण , पृष्ठ संख्या 45,

[ii] रामचरितमानस: सप्तम सोपान; (उत्तरकाण्ड)  - गीता प्रेस, मझला साइज, कोड 82  पृष्ठ संख्या 873

[iii] डॉ. माता प्रसाद गुप्त: तुलसीदास ;  आठवाँ संस्करण, हिन्दी परिषद् प्रकाशन, इलाहाबाद , पृष्ठ संख्या 212-13,

[iv] डॉ. माता प्रसाद गुप्त: तुलसीदास ;  आठवाँ संस्करण, हिन्दी परिषद् प्रकाशन, इलाहाबाद , पृष्ठ संख्या 209,

[v]रामचरितमानस: प्रथम सोपान, बालकाण्ड; गीताप्रेस गोरखपुर, मझला साइज, कोड 82 , पृष्ठ संख्या 37, 38, -,

[vi] रामचरितमानस: प्रथम सोपान, बालकाण्ड; गीताप्रेस गोरखपुर, मझला साइज, कोड 82 , पृष्ठ संख्या 164

[vii] गीतावली; बालकाण्ड ( पद सं० – २ )  गीताप्रेस, गोरखपुर कोड सं० – 106, पृष्ठ सं० – 19

[viii] डॉ. माता प्रसाद गुप्त: तुलसीदास ;  आठवाँ संस्करण, हिन्दी परिषद् प्रकाशन, इलाहाबाद , पृष्ठ संख्या 232 ,

[ix] अंजनि नंदन शरण: - मानस पीयूष ; बालकाण्ड, गीताप्रेस गोरखपुर,सत्रहवाँ पुनर्मुद्रण, संवत् २०७१ पृष्ठ संख्या 499

[x] रामचरितमानस: चतुर्थ सोपान, (किष्किन्धाकाण्ड); गीताप्रेस गोरखपुर, मझला साइज, कोड 82 , पृष्ठ संख्या- 625

[xi] आचार्य रामचंद्र शुक्ल: हिंदी साहित्य का इतिहास; लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ संख्या-85

[xii] रामचरितमानस : द्वितीय सोपान ( अयोध्याकाण्ड), गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ संख्या 307, 

[xiii] रामचरितमानस: प्रथम सोपान, बालकाण्ड; गीताप्रेस गोरखपुर, मझला साइज, कोड 82 , पृष्ठ संख्या 37, 38

[xiv] रामचरितमानस: प्रथम सोपान, बालकाण्ड; गीताप्रेस गोरखपुर, मझला साइज, कोड 82 , पृष्ठ संख्या-165

 

 

[xv] डॉ. उदय भानुसिंह :  तुलसी काव्य मीमांसा ; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, दूसरी आवृत्ति 2011 पृष्ठ संख्या 84

[xvi] डॉ. उदय भानुसिंह :  तुलसी काव्य मीमांसा ; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, दूसरी आवृत्ति 2011 पृष्ठ संख्या 84

[xvii] डॉ. उदय भानुसिंह :  तुलसी काव्य मीमांसा ; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, दूसरी आवृत्ति 2011 पृष्ठ संख्या 84

[xviii] रामचरितमानस: प्रथम सोपान, बालकाण्ड; गीताप्रेस गोरखपुर, मझला साइज, कोड 82 , पृष्ठ संख्या

[xix] रामचरितमानस: प्रथम सोपान, बालकाण्ड; गीताप्रेस गोरखपुर, मझला साइज, कोड 82 , पृष्ठ संख्या

[xx] विश्वनाथ त्रिपाठी: लोकवादी तुलसीदास; राधाकृष्ण प्रकाशन छठा संस्करण-2016 पृष्ठ -10 (प्रथम संस्करण की भूमिका से)

 

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ईमेल amanp62@gmail.com


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