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समालोचकों की दृष्टि में त्रिलोचन - सच्चिदानन्द पाण्डेय


समालोचकों की दृष्टि में त्रिलोचन

-      सच्चिदानन्द पाण्डेय

त्रिलोचन प्रगिशील कविता के एक ऐसे हस्ताक्षर हैं जिनकी लेखनी से ग्रामांचल का शायद ही कोई विषय छूटा हो | लोक तो उनकी रग-रग में समाया हुआ था | उन्हें लोक की अनेक विधाएँ कंठस्थ थी | लोक गीतों से बहुत लगाव होने के कारण कभी-कभी वे स्वयं भी गुनगुनाने लगते थे | उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व लोक तात्विक गुणों से लबरेज था | उनके यहाँ धरती की सोंधी-सोंधी खुशबू भरपूर मिलती है | मात्रात्मकता किसी भी कविता को महान नहीं बनाती बल्कि उसकी महानता तो उसके गुणात्मकता में है | जिसकी ओर इशारा करते हुए ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में डॉ. नगेन्द्र लिखते हैं- “इनकी कविताओं में बड़ी सादगी है और हर कविता में धरती की सोंधी गंध मिलती है | ये कविताएँ प्रायः आकार में छोटी और प्रभाव में तीव्र होती हैं |”1

ग्राम्य जीवन के प्रति उनके मन में बड़ा सम्मान था | वे आधुनिकता और परंपरा के मंजुल समन्वय की पक्षधरता रखने वाले कवि  हैं | उनकी कविताओं में जन-जीवन की आशा -आकांक्षा व्याप्त है तथा वह सामाजिक लोक चेतना से परिपूर्ण है | उन्होंने अभावों से ग्रस्त पीड़ित एवं शोषित ग्रामीणों की वेदना को अनुभावित कर उसे आवाज़ दी | डॉ.शिवप्रसाद सिंह  त्रिलोचन के विषय में ठीक ही कहते हैं- “शास्त्री को लोकजीवन से उत्पन्न स्नेहगंधी मानस मिला है | वे निराला की तरह इस मानस में बोह लेते रहे हैं और रह-रह कर गर्दन उठाकर लम्बी साँसें खींचते रहे हैं | गँवई-गॉव की डगर,धान पोखर, बातचीत,पुराने लोगों के बेशकीमती अनुभव से प्रसूत उक्तियाँ,घरेलू दुःख-दर्द की अबूझ समझ और खांटी धरती की कास उजास में फूटते मुहावरों और शब्दों की गमक उनकी अपनी बेशकीमती धरोहर है | वे चिल्ले जाड़े में कुहरे में लिपटे गँवई वातावरण में ‘अतवरिया’ को देखकर लाचारी की मार का राग अलापें या भिखारियों की अकिंचनता पर तरस खाएँ लगेगा कि ,यह सारा कुछ आत्मवेदना का इजहार है |”

त्रिलोचन लोक चेतना से संपृक्त कवि हैं | उनकी दृष्टि अत्यंत सजग सूक्ष्म एवं व्यापक है | वे गॉव गली की बात करते हैं और आम जनता की भाषा में करते हैं | बिना लाग लपेट के अपनी बात को कहने में वे सिद्धहस्त थे | अपने काव्य प्रयोगों में त्रिलोचन कबीर, तुलसी ग़ालिब और निराला की जातीय परंपरा में हैं | समकालीन आलोचक निर्मला जैन लिखती हैं- “निराला ग़ालिब, तुलसी, कबीर की जातीय परम्परा में हैं | उसी में आगे चलकर त्रिलोचन हैं, केदारनाथ अग्रवाल हैं, नागार्जुन हैं | और ये तीनों कवि निराला के “बहुविध काव्य प्रयोगों से –सर्जनात्मक रूप में प्रेरित हैं, “बल्कि निराला से पहले की काव्य परम्परा से जुड़े हैं | इतना ही नहीं उन्हें साम्राज्य विरोधी साहित्य की रूपगत परम्परा का बढ़ाव भी त्रिलोचन में दिखाई पड़ता है |”3

त्रिलोचन शास्त्री विचारधाराओं में जीवन की खोज नहीं करते है अपितु आम  जिंदगी के बीच रहकर उनसे बातचीत करते हुए उनकी परेशानियों, कठिनाइयों और जीवन-संघर्षों को समझते हुए उनकी जिंदगी से रूबरू होते हैं | वे संवेदनशील कवि हैं | जन-जीवन की प्रत्येक हलचलों को बड़े ही सिद्दत के साथ महसूस करते एवं उसमें साझीदार बनते हैं | वे यथार्थवादी साहित्यकार हैं, जैसा समाज में देखते हैं वैसा ही अपनी लेखनी को आकर देते हैं | किसी भी मजलूम को देखते हैं तो उनके मन में मदद का भाव स्वतः ही फूट पड़ता है | वे हमेशा सत्य की पक्षधरता रखने वाले कलमकार और समाज सुधारक रहे हैं | त्रिलोचन की लड़ाई समाज के वंचितों और पिछड़ों को शोषण तंत्र से मुक्ति दिलाने की रही है | उनकी आत्मा दीन-दुखियों और गरीबों की पीड़ा से कराहती रहती है | वे मानवता के मुक्ति की कामना करते हैं जिससे सारा समाज ख़ुशहाल रहे | इन पंक्तियों में यही कामना अन्तर्निहित है- “अपनी मुक्ति कामना लेकर लड़ने वाली / जनता के पैरों की आवाजों में मेरा ह्रदय धड़कता है / पग में गड़ जाने वाली नोकें काँटों की / कोमल चमड़े का घेरा मेरा फाड़ दिया करती हैं / जहाँ अँधेरा सदियों का है / वहाँ जो न घट जाए वही कम |”4

त्रिलोचन प्रकृति के अनेक रूपों का अवलोकन बहुत ही सूक्ष्मता से करते हैं | वे गॉव की पगडंडियों पर भी अपनी निगाह रखते हैं अर्थात प्रत्येक की चिंता उनके ज़ेहन में रहती है | एक-एक रेखा में वे जीवन का स्पंदन महसूस करने वाले साहित्यकार हैं | वे अभावग्रस्त अपढ़ और जन सामान्य को नायकत्व प्रदान करते हैं | चम्पा,नगई महरा आदि की मनोभावना एवं जीवन प्रणाली का यथार्थ चित्रण अपनी कविता में करते हैं | चम्पा छोटी और नटखट लड़की है उसे कवि जब पढ़ने के लिए कहता है तो उसका जवाब सुन कवि अचंभित रह जाता है उसमें तमाम गॉवों की स्त्रियों की मनोव्यथा चित्रित हो उठती है जिनके पति उन्हें छोड़कर अर्थाजन करने के लिए परदेश चले जाते हैं | अपढ़ होने के कारण ग्रामीण स्त्रियाँ अपने पति को चिट्ठी-पत्री नहीं लिख भेज सकती | साथ ही चम्पा उत्तर-औपनिवेशिकता से उपजी बाजार व्यवस्था पर भी करारा प्रहार करती  है जिसने भौतिकता की अंधी दौड़ में गला काट प्रतियोगिता को जन्म देकर मानव-मानव में पार्थक्य स्थापित कर दिया है | चम्पा पढ़े लिखे को भी प्रश्नांकित करती है जिनमें पढ़ने लिखने के बाद भी विवेक का आभाव हो | दूसरे के दुःख-सुख को महसूसने की क्षमता न हो | उसकी बातें कितनी  मार्मिक हैं – “मैंने कहा कि चम्पा,पढ़ लेना अच्छा है / ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी / कुछ दिन बालम संग साथ रह चला जाएगा जब कलकत्ता / बड़ी दूर है वह कलकत्ता / कैसे उसे संदेसा दोगी / कैसे उसके पत्र पढ़ोगी / चम्पा पढ़ लेना अच्छा है|

चम्पा बोली: तुम कितने झूठे हो, देखा /हाय राम, तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो / मैं तो ब्याह कभी न करुँगी / और कहीं जो ब्याह हो गया / तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूँगी / कलकत्ता मैं कभी न जाने दूंगी / कलकत्ता पर बजर गिरे |”5  

त्रिलोचन की रचनाधर्मिता मानव के संघर्ष से शुरू होकर उसके मुक्ति का आख्यान रचती है | वे जितना मानव जीवन के करीब हैं उससे कहीं अधिक मानवेतर प्राणियों की भी चिंता उन्हें सताती है | वे एक संघर्षधर्मी कलाकार हैं | इसीलिए उनकी कविताओं में प्रकृति रची-बसी है | समकालीन कवि, चिंतक और आलोचक केदारनाथ सिंह का वक्तव्य ध्यातव्य है-  “त्रिलोचन जितने मानव-संघर्ष के कवि हैं, उतने ही प्रकृति की लीला और सौंदर्य के भी | इसीलिए प्रकृति बहुत गहराई तक उनकी कविताओं में रची बसी है | प्रकृति के बारे में त्रिलोचन का दृष्टिकोण बहुत कुछ उस ठेठ  भारतीय किसान के दृष्टिकोण जैसा है जो कठिन श्रम के बीच भी उगते हुए पौधों की हरियाली को देखकर रोमांचित होता है | निराला की तरह त्रिलोचन ने भी पावस के अनेक चित्र अंकित किए हैं और बादलों के कठोर संगीत को अपनी अनेक कविताओं में पकड़ने की कोशिश की है | परन्तु ऐसा करते हुए वे किसी विलक्षण सौन्दर्य-लोक का निर्माण नहीं करते, बल्कि अपनी चेतना के किसी कोने में दबे हुए किसान का मानो आह्वान करते हैं |-उठ किसान ओ, उठ किसान ओ,बादल घिर आये | प्रकृति और जीवन के प्रति यह किसान सुलभ दृष्टि त्रिलोचन की एक ऐसी विशेषता है, जो सिर्फ उनकी अलग पहचान ही नहीं बनाती, बल्कि उनकी विश्व-दृष्टि को समझने की कुंजी भी हमें देती है |”6

त्रिलोचन सामाजिकता के पक्षधर थे, वैयक्तिकता का वे प्रतिपक्ष रचते थे | कहीं-कहीं वे दार्शनिकता का सहारा भी लेते दिखाई पड़ते हैं | उनका मानना है कि-जीवन से कटकर रहना पलायन है और पलायन एकाकीपन को जन्म देता है जो मनुष्य के लिए किसी भी प्रकार से हितकर नहीं है | सम्पूर्ण सृष्टि और उसके नियामकों से जमाना नहीं चलने वाला | समाज चलता है मनुष्यों की आपसी समझदारी से, विवेक सम्मत फैसले से जिससे किसी का कोई अहित न हो सके | मनुष्य का जन्म ही कष्टों से छुटकारा दिलाने के लिए हुआ है न कि दूसरों को दुःख देने के लिए जैसा कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है- वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे | सम्पूर्ण सृष्टि चेतनाशील है मनुष्य यदि विराट के एकाकार के साथ जीवन जीता है तो वह जीवन सार्थकता को प्राप्त होता है | वह इसलिए कि मनुष्य अपने कर्म, धर्म, और नैतिक चरित्र से समस्त विश्व को आलोकित करता है | एकता के इसी सूत्र को पकड़े हुए त्रिलोचन कहते हैं- “कौन सत्य था जो मन की लहरों में जागा / अहम् तत इदम् लगें लेकिन अलगाये कभी नहीं जा सकते / इन सब का रस पागा है ऐसा कि अनेक एक के तन में आए / घुल मिलकर तल्लीन हुए, पल-पल अपनाए गए और आँखों ने देखा जग का बाना / मन का एक सत्य है श्वासों ने दुहराए / गान उसी के, अब हमको है उसको पाना / सूरज एकाकी है लेकिन जब आता है / पृथ्वी का कण-कण तब नया गान गाता है |”7

त्रिलोचन की प्रगतिशीलता के विषय में जब हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि उनकी कविता का फलक बहुत विस्तृत है | विस्तृत होने के साथ-ही साथ वह विविधवर्णी गुणों से परिपूर्ण है | कविता का वह एक ऐसा समय है जब अनेक धाराएँ उफान मार रही थीं, कई पीढ़ियाँ एक साथ अपनी रचनात्मक ऊर्जा के साथ लगी हुई दिखाई देती हैं | सब जन-सामान्य के दुःख दर्द को अपनी लेखनी द्वारा एक आकार दे रहे थे | त्रिलोचन की भाषा जीवन की अनेक क्रियाओं और उसके संबंधों से निकली हुई भाषा है जो विविध आयामों को साथ लेकर चलती है | उन्होंने तुलसी बाबा से भाषा सीखी और लोक शब्दों के काव्यात्मक प्रयोग में वे जायसी के अधिक नजदीक हैं | भाषा प्रयोग में कुशलता के कारण ही वे सब कुछ भाषा में ही उपलब्ध कराते हैं | मनुष्य की महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए वे भाषा का सहारा लेकर मानव ह्रदय टटोलने का भगीरथ प्रयास करते हैं | ध्वनि-प्रतीकों और बिम्बों का बहुत ही सार्थक और सारगर्भित प्रयोग करते हैं | जो काव्य में प्रभावशाली सिद्ध होता है | सॉनेट त्रिलोचन की महत्त्वपूर्ण  विधा है जिसमें कवि अपनी सृजनात्मकता को एक आधार भूमि प्रदान करता है | समकालीन कविता के आयाम पुस्तक में शांती नायर लिखती हैं - “सॉनेट के कवि त्रिलोचन स्पष्ट घोषित करते हैं कि तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी | यहाँ हमें इस बात पर गौर करना होगा कि त्रिलोचन ने यह बात किस अर्थ में कही | तुलसी ऐसे कवि थे जो भाषा के हर उस रूप को स्वीकार करते थे जो कि भावों को ग्राह्य बनाने में सहायक हो | त्रिलोचन ने भी कहीं भी वर्जना का रुख नहीं अपनाया | इसी कारण कवि की भाषा एकायामी नहीं है, वरन जीवन की क्रियाओं और संबंधों के बीच से निकलती नज़र आती है |”8

त्रिलोचन की रचनाओं में सामान्य जन की पीड़ा, गवई गॉव की समस्याएँ उनकी रचनाओं में अंकित होती हैं | धर्म और ईश्वर के प्रति वे अंधश्रद्धा नहीं रखते | अपने तेवर और विचारों से वे प्रगतिवादी प्रतीत होते हैं | प्रगतिवादी होते हुए भी वे खेमे से बाहर दिखाई देते हैं | जिस कवि को सम्पूर्ण समाज की चिंता हो वह किसी विशेष के प्रति आग्रही कैसे हो सकता है इसी कारण वे प्रगतिशील कवियों के वर्ग में होते हुए भी गणना से बाहर कर दिए जाते हैं | त्रिलोचन एक ऐसे कवि और चिंतक हैं जो अपने लाभ के लिए किसी की चाटुकारिता नहीं कर सकते अपितु उन्हें समाज में जो बुरा लगता है वे उसकी खुलकर आलोचना करते हैं | उन्हें वे लोग बिल्कुल पसंद नहीं हैं जो अपने लाभ के लिए समझौता कर लेते हैं | वे खरी-खोटी सुनाने वाले कवि हैं | उनकी एक कविता द्रष्टव्य है –

 “प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट निकली है / उसमें कहीं त्रिलोचन का तो नाम नहीं था / ऑंखें फाड़-फाड़ कर देखा दोष नहीं था / पर आँखों का | सब कहते हैं कि प्रेम छली है / नहीं, तुम्हारा सुन सुन कर सपक्ष आलोचना / कान पक गए थे ,मैं ऐसा बैठाठाला / नहीं तुम्हारी बकझक सुना करूँ पहले से / देख रहा हूँ , किसी जगह उल्लेख नहीं है / तुम सागर लांघोगे ? डरते हो चहले से / बड़े-बड़े जो बात कहेंगे – सुनी जाएगी / व्याख्याओं में उनकी व्याख्या चुनी जाएगी |”9

त्रिलोचन की कविता भावगर्भित तो है ही साथ ही उसमें विवेक तत्व का भी समुचित प्रयोग है | वे किसी रूढ़ परंपरा के पोषक नहीं वरन जहाँ भी उन्हें समाजोपयोगी सामग्री मिलती है उसका वे अपने काव्य में बिना किसी संकोच के प्रयोग करते हैं | समकालीन कवि एवं आलोचक मुक्तिबोध ने त्रिलोचन की कविता के बारे में लिखा है – “प्राच्य क्लासिकल स्ट्रेन और पाश्चात्य प्रोज टेक्नीक का वे समन्वय करना चाहते हैं|उसका प्रथम चरण ही धरती का काव्य है, हम केवल इतना कह सकते हैं | साथ ही साथ एक बात यह भी सही है  कि भाषा के सुपरिष्कृत रूप और स्वर की गीतात्मकता के पीछे जो गीतात्मक भाव है, वह बुद्धि द्वारा काफी अनुशासित है |  यह भी कदाचित निराला जी की ही एक विशेषता है, जो त्रिलोचन में भी मिलती है |  परन्तु यह बुद्धि वृत्ति उनके काव्य को नहीं बिगाड़ती, केवल उन्हें इस श्रेणी के कवियों से कुछ भिन्न कर देती है | इसको संयम और अनुशासन भी कह सकते हैं | और इसके दो बहुत बड़े लाभ भी हैं, एक तो यह कि जीवन की समग्रता के प्रति कवि की नित्य दृष्टि रहती है, दूसरे उस भावना में एक प्रकार की मूल आलोचक दृष्टि भी मिली रहती है |”10

त्रिलोचन हिंदी में सॉनेट के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं | यह अंग्रेजी भाषा की कविताओं का एक ऐसा प्रारूप है जिसमें चौदह पंक्ति होती है | कवि अपनी संवेदना ज्ञान और बोध की परख बहुत ही प्रभावी ढंग से इन्हीं निश्चित पंक्तियों में करता है जिसे हिंदी में सॉनेट कहा जाता है | श्री चन्द्रबली सिंह त्रिलोचन के सॉनेट की महत्ता बतलाते हुए उसकी ओर सबका ध्यान खींचना चाहते हैं– “त्रिलोचन के सॉनेटों  में मधुरता है | लेकिन वह स्निग्ध और कोमल स्वरों का नहीं | उसमें चिंतन के दृढ़ कठोर स्नायु हैं | रोला छंद हिंदी का अत्यंत गेय छंद रहा है, लेकिन त्रिलोचन ने जानबूझ कर उसमें भावों की इकाइयों को एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति में खींचकर संगीत की समान्तर इकाइयों की जगह यतियों की विविधता का सौन्दर्य पैदा किया | इस तरह बेतुकों के बंधन में रहकर भी अंग्रेजी के अतुकांत काव्य के संगीत अनुच्छेद की सृष्टि कर सके हैं | त्रिलोचन ने कुण्डलियाँ,बरवै आदि पुराने छंदों का प्रयोग किया है | उन्होंने मुक्त छंदों का भी सृजन  किया है | शब्दों में छंद की गति और लय के संधान के प्रति जागरुक रचनाकार हैं त्रिलोचन |”11

त्रिलोचन का जुड़ाव सामान्य जन-जीवन के प्रति अकारण ही नहीं है | उनकी चेतना और जीवनानुभव में मध्यवर्गीय जीवन की जीवटतावादी सोच भी है | किन्तु समाज में एक ऐसा वर्ग भी है जो अपनी बहसों से ही क्रांति लाने की बात करता है | यही वर्ग जनता को हाशिये पर ढकेलता है| कवि की सारी बहसें जनता के बीच से उनकी समस्याओं को लेकर शुरू होती हैं| चूँकि कवि धीरे-धीरे जनता के बीच से गुजरने वाली पगडण्डी से चलता है इसलिए वह क्रांतिधर्मी घुड़सवारों का साथ नहीं दे पाता | ‘स्पष्टीकरण’ शीर्षक कविता में कवि इसी बात की ओर  इशारा करता है- “मुझमें जितना बल था / अपनी राह चला |/आँखों में रहे निराला / मानदण्ड मानव के तन के मन के तो भी / पीस परिस्थितियों ने डाला, सोचा जो भी / हो आँखों की करुणा का यह शीतल पाला /मन को हरा नहीं करता है पहले खाना /मिले करें तो कठिन नहीं है बात बनाना |”12

त्रिलोचन अपनी भाषा में विराट और व्यापक अनुभवों को समेटने का संकल्प लेते हैं | उनका रचना संसार अपने घर तक ही सीमित नहीं है अपितु इतना व्यापक है कि उसमें सम्पूर्ण जगत समाया है | उनकी रचनात्मक विशेषता यह है कि अति साधारण अनुभव के सूत्र को पकड़कर असाधारण कल्पना एवं अनुभव के क्षितिज तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं | घरेलू स्थितियों और अनुभूतियों के क्रम में जीवन व जगत की शाश्वत सचाई को उकेरने की कला त्रिलोचन की कविताओं में मौजूद है | वरिष्ठ आलोचक विजय बहादुर सिंह ने त्रिलोचन की लोकतात्विक विशेषताओं को वर्णित किया है –“सधी हुई गहरी साँस की यह सहजता शब्दों के उन उस्तादों की याद दिलाती है जिनकी साधना का इतिहास कई मोड़ों से होकर गुजरा है| अंधेरों की दुर्गम रातों की नीरवता और उजाले  की सुबहों की हलचल यहाँ एक साथ है|शब्द की वह तपस्या जो डिगना नहीं जानती, किन्तु जिसे अहंकार पालना भी वाजिब नहीं जान पड़ता | परंपरा की लम्बी श्रृंखला की एक बेजोड़ और ताज़ी कड़ी,जिसका नाम है त्रिलोचन| बकौल केदारनाथ सिंह –वह होगा ज़रूर जस का तस, कहीं-न-कहीं /किसी कुम्हार की आँखों में / अपनी चंपा और नगई महरा से उनका हालचाल पूछते हुए |”13

अंततः त्रिलोचन लोकतात्विक चेतना के कवि हैं | उनकी कविता में समाज के प्रत्येक वर्ग की चिंता निहित है| वे एक ऐसे समाज की परिकल्पना करते हैं जिसमें सभी की समाज पक्षधरता और भागीदारी हो| त्रिलोचन अपने समकालीनों की तुलना में अधिक स्वदेशी और लोकधर्मी हैं ऐसा मेरा विश्वास है |

 

सच्चिदानन्द पाण्डेय

                                                                                     शोधार्थी

महात्मा ज्योतिबा फुले

 रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय,

बरेली, उत्तर-प्रदेश

                                                                                     मोब. 9956179730

सन्दर्भ-

1.हिन्दी साहित्य का इतिहास-(सं)डॉ.नगेन्द्र,डॉ.हरदयाल,मयूर पेपरबैक्स नोएडा,पृष्ठ सं. 610

2.आधुनिक कवि-(सं)विश्वम्भर’मानव’-लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद, पृष्ठ सं. 215-216

3.हिन्दी आलोचना की बीसवीं सदी-निर्मला जैन,राधाकृष्ण नईदिल्ली, पृष्ठ सं. 74

4. आधुनिक कवि-(सं)विश्वम्भर’मानव’-लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद, पृष्ठ सं. 217

5.समकालीन हिंदी कविता-(सं)परमानंद श्रीवास्तव,साहित्य अकादमी दिल्ली,पृष्ठ सं. 58

6.प्रतिनिधि कविताएँ-त्रिलोचन(सं)केदारनाथसिंह,राजकमल प्रकाशन,दिल्ली,पृष्ठ सं. 6

7. आधुनिक कवि-(सं) विश्वम्भर’मानव’-लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद,पृष्ठ सं. 218

8.समकालीन कविता के आयाम-पी.रवि,लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद पृष्ठ सं. 185

9. प्रतिनिधि कविताएँ-त्रिलोचन(सं)केदारनाथसिंह,राजकमल प्रकाशन,दिल्ली,पृष्ठ सं.119

10. आधुनिक कवि-(सं) विश्वम्भर’मानव’-लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद,पृष्ठ सं. 222

11.वही, पृष्ठ सं. 222 – 223

12. वही, पृष्ठ सं. 216 – 217

13.कविता और संवेदना- विजय बहादुर सिंह,सस्ता साहित्य मण्डल,दिल्ली, पृष्ठ सं.105

 

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