हिंदी आलेख- उच्च रक्तचाप का प्रबंधन: अनुलोम-विलोम, भ्रामरी और शवासन के विशेष संदर्भ में
उच्च रक्तचाप का प्रबंधन:
अनुलोम-विलोम, भ्रामरी
और शवासन के विशेष संदर्भ में
दिनेश कुमार
शोध-सार:
वर्तमान समय में प्रत्येक मनुष्य अपने को स्वस्थ्य एवं सुंदर देखना चाहता
है, जो बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि वह जिस पर्यावरण में रह रहा है वह स्वास्थ्य
के अनुकूल नहीं है। उसकी जीवन चर्या इतनी व्यस्त हो गई है कि वह तनावग्रस्त जीवन
जीने को विवश है, जिससे हमारे सामाजिक एवं पारिवारिक रिश्ते निरंतर खराब हो रहे हैं। इन सब
का समाधान योग एवं प्राणायाम है। योग के नियमित अभ्यास से शरीर रोगों के प्रति
प्रतिरोधी हो जाता है और साथ ही शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक असुंतलन को ठीक
करता है। प्राणायाम के माध्यम से शरीर के सम्पूर्ण विकारों को जड़ से खत्म किया जा
सकता है। वर्तमान समय में मनुष्य इतना व्यस्त है कि वह सही समय पर खान-पान एवं
आराम भी नहीं कर पाता है। हमारा परिवेश इतना अधिक असुंतलित हो गया है जिसके परिणामस्वरूप
विभिन्न बीमारियां हमारे सामने विकराल समस्या उत्पन्न कर रही हैं, जिनमें एक मुख्य बीमारी उच्च- रक्तचाप की
है। यह बीमारी ही नहीं बल्कि देखा जाए तो बीमारियों की जड़ है। उच्च-रक्तचाप को नियमित
योग एवं प्राणायाम के माध्यम से समूल खत्म किया जा सकता है। यह बात ध्यान देने
योग्य है कि जहाँ सभी औषधियां कार्य करना बंद कर देती हैं वहाँ हम योग एवं
प्राणायाम के माध्यम से निदान कर सकते हैं।
इस शोध-पत्र के माध्यम
से अनुलोम-विलोम, भ्रामरी और शवासन के माध्यम से उच्च-रक्तचाप को नियंत्रित करने के उपायों
को सुझाया गया है। इन प्राणायामों का नियमित अभ्यास करने से उच्च एवं निम्न
रक्तचाप नियंत्रित किया जा सकता है।
मुख्य शब्द:
प्राणायाम, भ्रामरी, उच्च-रक्तचाप, परिवेश, समाधान, प्राचीनकाल, आध्यात्मिक, जलवायु, पर्वत, अनुकूल, भागदौड़, खतरनाक, तनावपूर्ण आदि।
भूमिका:
भारतवर्ष प्राचीनकाल से ही धन-धान्य से परिपूर्ण रहा है। यहाँ का परिवेश
एवं जलवायु दोनों ही आध्यात्मिक चिंतन के अनुकूल रहे हैं जिन्हें भारत के उत्तर
में चिरकाल से खड़ा हिमालय पर्वत एवं भारत की अनेकों कंदराएं निरंतर अनुकूलन प्रदान
करते हैं। भारतमाता ऋषियों-मुनियों एवं तपस्वियों की भूमि रही है, जिन्होंने अपनी ध्यान-साधना द्वारा
सम्पूर्ण मानव जगत को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। संसार के सारे सुखों
में आध्यात्मिक सुख सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। आध्यात्मिक आनंद को प्राप्त करने के
लिए योग एवं प्राणायाम को करना पड़ेगा।1
प्राणायम दो शब्दों से
मिलकर बना है- प्राण और आयाम। प्राण का अर्थ ऊर्जा और आयाम का अर्थ ऊर्जा को
नियंत्रित करने वाला है। इस प्रकार कह सकते है कि जिसके माध्यम से प्राण (ऊर्जा)
का प्रसार और विस्तार कर उसे नियंत्रित किया जाए उसे ही प्राणायाम कहा जाता है। प्राण
ही वह अदृश्य शक्ति है, जो हमारे शरीर को स्वस्थ्य एवं कार्यशील बनाकर हमारे शरीर में नई ऊर्जा का
प्रसार कर हमारे मन को शांति प्रदान करता है। हम नाड़ी शोधन प्राणायाम, कपालभाति प्राणायाम, भस्त्रिका प्राणायाम, उज्जायी प्राणायाम, शीतली प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम, शीतकारी प्राणायाम, सूर्यभेदी प्राणायाम करके अपने मन को
शांत एवं एकाग्र कर सकते हैं।
प्राणायाम के आसन में
बैठकर अनुलोम-विलोम प्रणायाम करते हैं। इस प्राणायाम में दायें हाँथ से नाक
की दाईं तरफ के छिद्र को अपने अंगूठे से बंद करते हैं। नाक के बायें छिद्र से
सर्वप्रथम हवा लेना प्रारम्भ करते है और कुछ देर हवा भरने (कुम्भक)के पश्चात दाईं
तरफ के नाक के छिद्र से हवा निलाते है। पुन: दाई से श्वसन लेते हैं और कुछ देर
भरने के पश्चात इसे बाये छिद्र से निकाल देते हैं। अनुलोम विलोम के माध्यम से
हमारा शारीरिक एवं मानसिक तनाव दूर हो जाता है। फेफड़े एवं हृदय शक्तिशाली होते
हैं। इस प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने के साथ ही प्रकृति से अपना लगाव रखते हुए
हम अनेक शारीरिक व्याधियों को जड़ से खत्म कर सकते है। इस प्राणायाम के निम्नलिखित
लाभ हैं-
1.
इससे मन को शांत
कर अपने व्यवहार में सौम्यता ला सकते हैं।
2.
रक्त वाहिनियां
साफ एवं स्वच्छ हो जाती हैं जिससे रक्त प्रवाह सामान्य गति से होता है।
3.
रक्त में विजातीय
तत्व बाहर निकालने में उपयोगी होता है।
4.
उच्च रक्तचाप कम
करके सामान्य स्थिति में लाने में उपयोगी है।
5.
फेफड़े स्वच्छ तथा
शक्तिशाली होते हैं।
भ्रामरी प्राणायाम
जिसका अर्थ भ्रमर अथवा भंवरा होता है। इस प्राणायाम को करने पर भ्रमर के
भुन-भुनाने जैसी आवाज निकलती है। इसे करने के लिए शांत, एकांत, स्वच्छ अर्थात प्राकृतिक वातावरण में
पद्मासन या सुखासन में एकाग्रचित्त होकर बैठ जाते हैं। दोनों नेत्र और मुख बंद कर
लेते हैं तत्पश्चात अपना ध्यान केंद्रित करते हैं और सहज रूप से सच्चिदानंद (ईश्वर)
में अपना ध्यान लगाते है। मन शांत होने के पश्चात अपने हाँथ के अंगूठों कि सहायता
से कान की उपास्थि को सहजता से बंद करते हैं तथा तरजनी उंगली को मत्थे पर रखते है
और शेष तीन अंगुलियों को नाक के मूल भाग से सहजता से दबाते हैं। नासिका से सांस
लेंगे (पूरक) और नासिका से ही सांस छोड़ेगे (रेचक)। सांस निकालते समय भौंरे के
भिनभिनाने की जैसी आवाज निकलनी चाहिए। जब रेचक करते है, तो जो ध्वनि निकलती है इन्हीं ध्वनि
तरंगों को हमारा मस्तिक अनुभव करता है। जिसके माध्यम से हमारी मस्तिक कोशिकाओं को
ऊर्जा मिलती है। भ्रामरी प्राणायाम करने से हमारी निगेटिव ऊर्जा खत्म होती है जिसकी
जगह पाजिटिव ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो हमारे मस्तिष्क एवं शरीर को सही दिशा में कार्य करने को प्रेरित करती
है। इस प्राणायाम के निम्नलिखित लाभ हैं-2
1.
भ्रामणी
प्राणायाम चिंता, क्रोध, उत्तेजना तथा मानसिक तनाव को नियंत्रित करता है।
2.
उच्च एवं निम्न
रक्तचाप में सुधार होता है।
3.
गले के रोग ठीक
होते हैं।
4.
शरीर में
स्फूर्ति आती है।
5.
मस्तिष्क
कोशिकाओं को अतिरिक्त ऊर्जा मिलती है।
6.
आज्ञाचक्र में
अनुकूलन के साथ ही वाणी में भी मधुरता आती है।
7.
हृदय सम्बंधी रोग
ठीक हो जाते हैं।
दौड़ भाग में लोग
शारीरिक एवं मानसिक थकान अनुभव करते हैं और ज्यादातर तनावग्रस्तरहते है जिससे
उच्च-रक्तचाप जैसी अनेकों बीमारियां हो जाती हैं। शरीर की थकान एवं तनाव दूर करने
के लिए शरीर को शिथिल करने की आवश्यकता होती है जिसमें शवासन अत्यंत
लाभकारी है।
आधुनिक परीक्षणों
से ज्ञात हुआ है कि शवासन से हृदयगति, श्वास गति व मस्तिष्क की विद्युत सक्रियता न्यूनतम हो जाती है और रक्त
प्रवाह अत्युत्तम होता है।3 शवासन में शरीर मुख्य रूप से शिथिल हो जाता
है जिसमें श्वास की गति 18 से घटकर 6-7 प्रति मिनट हो जाती है। इसमें O2 व्यय की दर घट
जाती है और रक्तचाप भी घट जाता है। उच्च-रक्तचाप पीड़ित व्यक्तियों के लिए यह आसन
सर्वाधिक उपयुक्त है। मानसिक विकारों को दूर करने के लिए भी य उपयोगी है।
इसमें पहले चटाई
पर सीधे पीठ के बल लेट जाते है और धीरे-धीरे बंद आंखों से अपने शरीर के एक-एक अंग
को देखते हुए धीरे-धीरे शिथिल करते जाते है और उस अंग को भूलते जाते हैं। अंतिम
में अपना सारा ध्यान मस्तिष्क पर केंद्रित करते है। मन ही मन दिव्य अलौकिक
परमात्मा को देखने का प्रयास करते हैं जिसके माध्यम से मन ही मन खुश होना चाहिए और
सम्पूर्ण चिंताओं का त्याग करते हुए। इससे शरीर अत्यंत शूक्ष्म एवं हल्का होता है।
शवासन समाप्त करने के पश्चात सम्पूर्ण शरीर को धीरे-धीरे हिलाते है और मानो अचेतन
में चेतना उत्पन्न करते हैं तत्पश्चात अपनी हथेली को आपस में रगड़ते हैं और धीरे-
धीरे आंखों पर लगाकर आंखे खोलते हैं इस प्रकार शु:खद महशूस होता है।
उद्देश्य:
प्रस्तुत शोध-पत्र के
माध्यम से उच्च-रक्तचाप पर अध्ययन किया गया है और उच्च-रक्तचाप का नियंत्रण
अनुलोम-विलोम, भ्रामरी और शवासन के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है।
शोध-प्रविधि:
प्रस्तुत शोध-पत्र व्याख्यात्मक एवं विश्लेषणात्मक प्रकार का है। इस
शोध-पत्र में उल्लिखित तथ्यों को विषय सम्बंधित शोध-पत्रों, पुस्तकों के साथ ही प्राथमिक एवं
द्वितीयक स्रोतों का प्रयोग किया गया है। इसमें तथ्यों की विवेचना करते हुए उनके
वैचारिक विश्लेषण को व्याख्यायित करने का प्रयास किया गया है। शोधार्थी ने गहन
अध्ययन के द्वारा उत्पन्न विचारों एवं अपने व्यक्तिगत अनुभवों को भी इस शोध-पत्र
में मानव कल्याणार्थ उल्लिखित किया है।
निष्कर्ष:
स्वस्थ्य एवं सुंदर शरीर के साथ ही सुख की लालसा मानव की स्वाभाविक
प्रवृत्ति है परन्तु आधुनिक जीवन की भाग-दौड़, आहार-विहार, एवं विश्राम की अतिआवश्यक क्रियाओं में
प्रकृति के साधारण नियमों का निरंतर दीर्घकाल तक उल्लंघन करने से शरीर अस्वस्थ्य
हो जाता है। मानव के लिए सामान्य रक्तचाप होना अति आवश्यक है, जिसके लिए आवश्यक है शरीर का संतुलित एवं
स्वस्थ्य होना। इसके लिए मनुष्य को नियमित प्राकृतिक आहार के साथ ही योग करना
आवश्यक है। उच्च रक्तचाप से देश में लगभग 12 करोड़ लोग पीड़ित हैं, जिसका मुख्य कारण तनाव है।4
आधुनिक समय में मानव की भागदौड़ रूपी जिंदगी एवं आस-पास कोलाहल पूर्ण एवं असंतुलित
वातावरण के कारण मानव का जीवन तनावपूर्ण है। इसी तनावपूर्ण जीवन के कारण उसका शरीर
अनेक खतरनाक बीमारियों की शरण स्थली बन जाती है, जिसमें एक सामान्य बीमारी है उच्च
रक्तचाप। उच्च रक्तचाप को संतुलित करने के लिए विभिन्न योग एवं प्राणायाम
पद्धतियां हैं, जिसमें यहां हम सिर्फ तीन प्राणायाम पद्धतियों- अनुलोम-विलोम, भ्रामरी प्राणायाम और शवासन का विस्तार
से शोधपरक अध्ययन कर उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करने के उपाय सुझाने का प्रयास
करेंगे ताकि उच्च रक्तचाप से निदान पा सकें। इसके साथ ही साथ योग के माध्यम से
मानव जीवन स्वस्थ्य एवं खुशहाल बनाकर आनन्दपूर्ण जीवन जिया जा सकता है।
संदर्भ:
1. सिंह सुरेंद्र: योग एक परिचय, सुलभ प्रकाशन, अशोक मार्ग लखनऊ, 2013, पृ० 90-91.
2. वही, 93.
3. वही, 114.
4. नगेंद्र कुमार नीरज, जटिल रोगों की सरलतम चिकित्सा, निरोगी दुनिया प्रकाशन, जयपुर, 2002, पृ० 80-87.
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