प्रमुख हिंदी दलित आत्मकथा एवं उनमें अभिव्यक्त समकालीन प्रश्न
हिंदी दलित आत्मकथाओं में अभिव्यक्त समकालीन प्रश्न
21वीं सदी के भारत के सामने आर्थिक विषमता, सामाजिक भेदभाव, लिंग भेद, अशिक्षा, बढ़ती जनसंख्या आदि अनेक चुनौतियाँ हैं। अपने विकास के क्रम में आगे बढ़ते हुए कोई भी समाज अपने समय की चुनौतियों से बिना टकराए आगे नहीं बढ़ सकता। साहित्य मानवीय जीवन की समस्याओं से अपनी तरह से जूझता है। साहित्येतिहास में बहुत कम ऐसे अवसर आए हैं जब साहित्य ने अपने समय की चुनौतियों से बचने का प्रयास किया हो। समकालीन हिंदी साहित्य में दलित और स्त्री साहित्य की दो ऐसी धाराएँ प्रवाहित हो रही हैं जो हमारे समाज के मूलभूत और पुरातन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयत्न कर रही हैं।
दलित आत्मकथा
मराठी दलित साहित्य हिंदी समेत लगभग सभी भारतीय भाषाओं में रचे जा रहे दलित साहित्य का प्रेरणा स्रोत है। मराठी में दलित साहित्य सन् 1960 के आसपास उभरना आरम्भ होता है। लगभग तीस साल बाद 1990 के बाद हिंदी साहित्य में इसका प्रादुर्भाव होता है।
हिंदी दलित आत्मकथा
दलित साहित्य उपर्युक्त दलित समाज के सभी प्रश्नों को अपनी रचनाओं
में स्थान देता है। आत्मकथा दलित साहित्य के प्रमुख विधा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि
(जूठन), मोहनदास नैमिशराय (अपने-अपने पिंजरे), सूरजपाल चौहान (तिरस्कृत), कौसल्या
बैसंत्री (दोहरा अभिशाप) आदि दलित साहित्य के प्रमुख आत्मकथा लेखक हैं। इन सभी
रचनाओं में दलित समाज की समस्याओं को भरपूर स्वर मिला है। अभिव्यक्ति के स्तर पर
जो तीक्ष्णता और तिक्तता इन रचनाओं में दिखाई देता है वह अन्यत्र दुलर्भ है। समता स्थापना, नए
समाज का निर्माण और जाति आधारित भेदभाव का समूल नाश जैसे लक्ष्य को संबोधित करने
की दृष्टि से ये आत्मकथाएँ सफल दिखाई देती हैं। इनमें मनुष्य की अवमानना के अनेक
रूपों को देख जा सकता है। दलित आत्मकथाओं में अभिव्यक्त मनुष्य का दर्द व्यक्तिगत
पीड़ा, एहसास से आरंभ होकर अन्ततः एकताबद्ध इकाई के रूप में
परिणत हो जाता है। लेखक के निजी अनुभव अभिव्यक्ति के स्तर से ऊपर उठकर दलित आंदोलन
के अस्त्र बनते दिखाई देते हैं।
प्रमुख हिंदी दलित आत्मकथाएँ
लेखक का
नाम |
आत्मकथा
|
मोहनदास
नैमिशराय |
अपने-अपने पिंजरे |
ओमप्रकाश
वाल्मीकि |
जूठन |
कौसल्या
बैसंत्री |
दोहरा अभिशाप |
सूरजपाल
चौहान |
तिरस्कृत |
श्योराज सिंह
बेचैन |
मेरा बचपन मेरे कंधों पर |
|
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बहुत हद तक दलितों के सामने वही चुनौतियाँ हैं जिनका ग्रामीण और शहरी भारत के निर्धन सामना करते हैं। जीवन यापन की समस्या का सामना प्रत्येक जाति और वर्ग के निर्धन को करना पड़ता है लेकिन साथ ही साथ यह भी तथ्य हमारे सामने है कि अन्य जातियों के मुकाबले दलित जातियों में निर्धनता ज्यादा गहराई से पैठी हुई है। गरीबी के अलावा अस्पृश्यता, जाति प्रथा, आंतरिक सोपानीकरण, नव-ब्राह्मणवाद, रूढि़वादी मानसिकता, भाग्यवाद इत्यादि कुछ ऐसे केंद्रीय समस्याएँ हैं जिन्हें दलित समाज के समग्र विकास में प्रमुख अवरोधक माना जा सकता है। हम इनमें से कुछ पर यहाँ विचार कर रहे हैं-
जाति प्रथा
जाति
के लिए अंग्रेजी में ‘कास्ट’ शब्द का प्रचलन है जो पूर्तगाली भाषा के ‘कैस्टा’
शब्द से बना है। कैस्टा का अर्थ नस्ल
या वर्ग होता है। लेकिन भारतीय संदर्भ में ‘जाति’ शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त होता है उसका पर्याय संसार
की अन्य किसी भाषा में नहीं ढूँढ़ा जा सकता। जाति विशुद्ध भारतीय संकल्पना है।
भारत में जाति व्यवस्था जितनी जटिल,
सुव्यवस्थित और रूढ़ है उसकी
तुलना शेष विश्व की किसी भी सामाजिक व्यवस्था से नहीं की जा सकती। भारत में लगभग 3000 जातियाँ हैं। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जाति प्रथा पर
विचार करते हुए लिखा है कि,
‘‘जाति प्रथा ने हिंदुओं को एक समाज
बनने से रोका है। इस धर्म में अनेक अंतर्विरोध हैं और हरेक जाति पहले अपना स्वार्थ
साधती है। हिंदुओं का साहित्य जातिवाद से भरा पड़ा है। हर प्रकार के सुधारों को
रोकने का काम जाति करती है। जाति रूढि़वादियों के हाथ में एक ऐसा शक्तिशाली अस्त्र
है जिसका प्रयोग करके वे आवश्यक परिवर्तनों को रोकते हैं।’’1 वर्ण और जाति में भिन्नता होते हुए भी ये एक-दूसरे से
गहरे रूप में जुड़े हैं। अक्सर दोनों का समान अर्थ में प्रयोग होता है लेकिन
तात्विक रूप से इन दोनों अवधारणाओं में पर्याप्त अंतर है। पांडुरंग वामन काणे के
अनुसार, ‘‘वर्ण की धारणा वंश, संस्कृति, चरित्र(स्वभाव) एवं व्यवसाय पर मूलतः आधारित है। इसमें
व्यक्ति की नैतिक और बौद्धिक योग्यता का समावेश होता है और यह स्वाभाविक वर्गों की
व्यवस्था का द्योतक है। स्मृतियों में भी वर्णों का आदर्श है कर्तव्यों पर, समाज या वर्ग के उच्च मापदंड पर बल देना - न कि जन्म से प्राप्त अधिकारों एवं
विशेषाधिकारों पर बल देना। किंतु इसके विपरीत जाति-व्यवस्था जन्म एवं आनुवांशिकता
पर बल देती है और बिना कर्तव्यों के आचरण पर बल दिए केवल विशेषाधिकारों पर ही
आधारित है।’’2
एम.एन.श्रीनिवास का मानना है कि,-----वर्तमान वास्तविक सोपान में जाति का स्थान बदलने की
संभावना रहती है, जबकि वर्ण-व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण का स्थान सदा के लिए निर्धारित है। यह
सचमुच आश्चर्य की बात है कि वर्ण आदर्श में निहित यथार्थ की विकृति के बावजूद यह
अभी तक जीवित रहा आया है।’’3
वर्ण और जाति में सोपानीकरण
अपरिहार्य रूप में मौजूद रहता है और दोनों ही में ब्राह्मण सबसे ऊपरी पायदान पर
रहता है।
जाति
का संबंध पेशे से जुड़ा हुआ है। प्रत्येक जाति का अपना विशिष्ट पेशा है और हर जाति का व्यक्ति अपनी निश्चित सीमाओं के
भीतर रहकर काम करता है। जाति की परिभाषा देते हुए रिजले का कथन है, ‘‘जाति ऐसे परिवारों या परिवार समूहों का संग्रह है
जिनके समान नाम हों,
जो एक ही पुश्तैनी व्यवसाय का
प्रदर्शन करते हों और जिन्हें ऐसे सभी दूसरे व्यक्ति, जो
इस संबंध में राय देने के अधिकारी हों,
एक समांगी बिरादरी मानते हों।’’4 स्पष्ट है कि जाति की आंतरिक संरचना को सुदृढ़ बनाए
रखने में उस जाति के पेशे का महत्वपूर्ण योगदान रहता है लेकिन आधुनिक समाज में कई
जातियाँ अपने परंपरागत पेशों से बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रही हैं और कुछ काफी
हद तक इसमें सफल भी हो गई हैं।
जाति
का आधार जन्मना है। किसी का जिस जाति में जन्म होता है वह चाहकर भी उसका त्याग
नहीं कर सकता। जन्म के अतिरिक्त किसी जाति में प्रवेश का कोई अन्य मार्ग नहीं है।
आदमी अपना धर्म तो बदल सकता है लेकिन जाति नहीं। समकालीन समाज में पेशेगत शिथिलता
के कारण कोई अपना आर्थिक स्तर तो सुधार सकता है लेकिन सामाजिक स्तर को सुधारना आज
भी संभव नहीं है। इस संदर्भ में शेरिंग का कथन बहुत रोचक है जिसमें वह कहता है कि, ‘‘जाति व्यवस्था में समझौते की गुंजाइश नहीं। अनपढ़ से
अनपढ़ हिंदू भी सबसे बुद्धिमान व्यक्ति से इसके नियम मनवा सकता है।’’5 जाति एक ऐसा दिशासूचक यंत्र है जो व्यक्ति के सामाजिक
जीवन की दिशा को निर्धारित कर देता है। अगर कोई उस राह से अलग जीवन जीना चाहे तो
इसकी छूट जाति-व्यवस्था में नहीं है। उसी राह पर उसे अपनी जीवन साथी, अपने मित्र, अपना
काम और अपने धार्मिक रीति-रिवाज मिलते हैं। प्रत्येक जाति अपने सदस्यों की जीवन
पद्धति को पूरी तरह नियंत्रित करती है।
हिंदी
दलित आत्मकथाएँ डॉ. भीमराव अंबेडकर के जाति व्यवस्था विषयक विचारों से प्रेरणा
ग्रहण करती हैं। ‘अपने-अपने पिंजरे’ में
जाति व्यवस्था से घायल मन की व्यथा मुखर करते हुए मोहनदास नैमिशराय का कथन है कि, ‘‘हम लम्बे समय से अपमान सहते आए थे, पर गुनहगार न थे हम। हम हारे हुए लोग थे जिन्हें
आर्यों ने जीतकर हाशिए पर डाल दिया था। हमारे पास अंग्रेजों के द्वारा दिए गए तमगे, मेडल,
पुरस्कार न थे। हमारे पास था
सिर्फ कड़वा अतीत और जख्मी अनुभव।’’6
एक दूसरा उदाहरण देखिए, ‘‘हमारी जात के योद्धा कितनी बार हारे होंगे, कितनी बार टूट-टूटकर बिखरे होंगे। जब इस देश में आर्य
आए होंगे। कितनी यातनाएँ सहनी नहीं पड़ी इस देश के मूल निवासियों को। वही यातनाएँ
हज़ारों सालों से आज भी झेल रहे हैं।’’7
इन आत्मकथाओं में लेखकों ने
स्थान-स्थान पर जाति प्रथा के दंश को अभिव्यक्त किया है। ‘जूठन’
में ओमप्रकाश वाल्मीकि युवावस्था
में अपनी प्रेमिका के साथ हुए संवाद का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि, ‘‘मैंने साफ शब्दों में कह दिया था कि मैंने उत्तरप्रदेश
के चूहड़ा परिवार में जन्म लिया है।
सविता
गंभीर हो गई थी। उसकी आँखें छलछला आईं। उसने रुआँसी होकर कहा , ‘‘झूठ बोल रहे हो न?’’ ‘‘नहीं
सवि----यह सच है---जो तुम्हे जान लेना चाहिए----’’ मैंने
उसे यकीन दिलाया था।
वह
रोने लगी थी। मेरा एस.सी. होना जैसे कोई अपराध था। वह काफी देर सुबकती रही। हमारे
बीच अचानक फासला बढ़ गया था। हज़ारों सालों की नफरत हमारे दिलों में भर गई थी। एक
झूठ को हमने संस्कृति मान लिया था।’’8
हालाँकि इन लेखकों के मन में अपनी
जाति को लेकर कोई हीनताबोध नहीं है। वे अपनी रचनाओं में अपनी जाति के भीतर फैली
कुरीतियों का खुलकर वर्णन करते हैं।
अशिक्षा
विषमतामूलक
समाज के चरित्र की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि उसमें शिक्षा के स्तर पर भी
पर्याप्त विषमता होती है। शिक्षा वर्चस्ववादी वर्ग का सबसे सूक्ष्म अस्त्र होती
है। इस क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता कायम रखने का अर्थ जीवन के हर क्षेत्र में
कब्जा होना है। यही कारण है कि समाज परिवर्तन
के लक्ष्य को लेकर चलने वाले अधिकांश विचारकों ने निम्नवर्ग को इसका
महत्त्व समझाने का प्रयास किया है। दलितों की शिक्षा के बारे में सवर्णों की
मानसिकता को ‘जूठन’
में आए प्रसंग से देखा जा सकता
है। झाडू न लगाने देने के पिता के फैसले के बाद लेखक को स्कूल से निकाल दिया जाता
है। लेखक का पिता गाँव के बड़े लोगों के पास जब अपने बच्चे की सिफारिश के लिए
पहुँचता है तो उनकी तरफ से होने वाली प्रतिक्रिया देखिए, ‘‘जिसका भी दरवाजा खटखटाया यही उत्तर मिला, ‘‘क्या करोगे स्कूल भेजके’’ या ‘‘कौवा बी कबी हंस बण सके’’, ‘‘तुम
अनपढ़ गँवार लोग क्या जाणो,
विद्या ऐसे हासिल ना होती।’’, ‘‘अरे! चूहड़े के जाकत कू झाडू लगाने कू कह दिया तो
कोण-सा जुल्म हो गया’’,
या फिर ‘‘झाडू ही तो लगवाई है, द्रोणाचार्य
की तरियों गुरु-दक्षिणा में अँगूठा तो नहीं माँगा’’ आदि-आदि।9 एक अन्य प्रसंग में सूरजभान तगा के बेटे बृजेश द्वारा
कीचड़ में धकेल दिए जाने पर भी लेखक शिक्षा के प्रति अपनी आस्था को डगमगाने नहीं
देता। वह लिखता है कि ‘‘स्कूल के नल पर मैंने हाथ-पाँव धोए थे। किताबें
कापियाँ धूप में सुखाई थीं। मेरा मन बहुत दुःखी हो गया था उस रोज। लग रहा था जैसे
पढ़ना-लिखना अपने हिस्से में नहीं है। लेकिन पिताजी का चेहरा सामने आते ही उनकी
बातें याद आने लगी थीं,
‘पढ़-लिखकर जाति सुधारनी है।’’10 शिक्षा विकास करने का एकमात्र रास्ता है इस तथ्य को एक
बार समझ लेने के बाद रास्ते में आने वाली रुकावटों से निपटने में आसानी हो जाती
है।
अस्पृश्यता
अस्पृश्यता
का सामान्य अर्थ ‘अस्पृश्य या अछूत होने की अवस्था या भाव, धार्मिक और सामाजिक दृष्टियों से किसी अस्पृश्य को न
छूने का विचार या भाव’11
होता है। अंग्रेजी में अस्पृश्यता
के लिए ‘अनटचेबिलिटी’ शब्द
का प्रयोग किया जाता है। सन् 1931 की जनगणना के अधीक्षक जे.एच. हटन ने जनगणना अधीक्षकों
को हिदायत देते हुए लिखा कि,
‘‘ये वे जातियाँ हैं जिनके स्पर्श
से स्वर्ण हिंदुओं को स्नानादि कर शुद्ध होने की आवश्यकता होती है। हमारा यह
अभिप्राय नहीं है कि इस शब्द को व्यवसायों के संदर्भ में लें। किन्तु इसका संबंध
उन जातियों से है जिनको हिंदू समाज में उनकी परंपरागत स्थिति के कारण कुछ
अयोग्यताओं का सामना करना पड़ता है-
उदाहरणार्थ उन्हें मंदिरों में
प्रवेश नहीं दिया जाता या उन्हें पृथक कुओं का इस्तेमाल करना पड़ता है या जिन्हें
स्कूलों में अन्य बच्चों के साथ बैठने नहीं दिया जाता और उन्हें भवन से बाहर रहना
पड़ता है या जो इसी प्रकार की अयोग्यताओं का शिकार हैं।‘‘12 अस्पृश्यता
के आरंभ और विकास के बारे में कोई निश्चित मत नहीं मिलता है। डॉ. भीमराव अंबेडकर
ने 400 ईसा पूर्व से अस्पृश्यता का आरंभ माना है। लेकिन यह
तो तय है कि उससे पहले भी अस्पृश्यता किसी न किसी रूप में विद्यमान रही होगी।
अस्पृश्यता
के आरंभ पर विचार करते हुए वामन पांडुरंग काणे ने पाँच कारण गिनाए हैं। उन्होंने माना
है कि अस्पृश्यता केवल जन्म से ही उत्पन्न नहीं होती बल्कि इसके उद्गम के कई अन्य
स्रोत भी हैं। मनुस्मृति को आधार बनाकर उन्होंने पहला कारण बताते हुए लिखा है कि, ‘‘ब्रह्म हत्या करने वाले, ब्राह्मणों
के सोने की चोरी करने वाले या सुरापान करने वाले लोगों को जाति से बाहर कर देना
चाहिए, न तो कोई उनके साथ खाए, न
उन्हें स्पर्श करे,
न उनकी पुरोहिती करे और न उनके
साथ कोई विवाह संबध स्थापित करे,
वे लोग वैदिक धर्म से विहीन होकर
संसार में विचरण करें।’’13
दूसरा कारण उन्होंने धार्मिक
विद्वेष और घृणा को माना है। ‘‘बौद्धों पाशुपतों, जैनों, लोकायतों,
कापिलों(सांख्यों), धर्मच्युत ब्राह्मणों, शैवों
एवं नास्तिकों को छूने पर वस्त्र के साथ स्नान कर लेना चाहिए।’’14 अस्पृश्यता का तीसरा कारण उन्होंने व्यवसाय को माना
है। ‘‘कुछ लोगों को जो साधारणतः अस्पृश्य नहीं हो सकते थे, कुछ विशेष व्यवसायों का पालन करना, यथा देवलक (जो धन के लिए तीन वर्ष तक मूर्तिपूजा करता
है।), ग्राम के पुरोहित, सोमलता
विक्रयकर्ता को स्पर्श करने से वस्त्र परिधान सहित स्नान करना पड़ता था।’’15 कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में भी अस्पृश्यता के विधान
को चौथा कारण माना जाता था। ‘‘रजस्वला स्त्री के स्पर्श, सूतक
में स्पर्श, शव स्पर्श आदि में वस्त्र सहित स्नान करना पड़ता था।’’16 इसका विधान भी मनुस्मृति(5/85) में
मिलता है। उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त पाँचवे कारण के रूप में दूसरे देशों के
निवासियों मुख्यतः मुसलमान को भी अस्पृश्य माना जाता था। एक समाज को अलग-थलग करने
में व्यवसाय सबसे बड़ा कारण बनकर उभरा। कुछ व्यवसायों को निकृष्टता के भाव से देखा
जाने लगा। शास्त्रों में ही ऐसा विधान किया गया कि कुछ व्यवसायों को अपनाने पर
व्यक्ति को अस्पृश्य मान लिया जाता था। ‘‘स्मृतियों
के अनुसार कुछ ऐसे व्यक्ति जो गंदा व्यवसाय करते थे अस्पृश्य माने जाते थे, यथा कैवर्त(मछुआ), मगृयु(मृग
मारने वाला), व्याघ(शिकारी), सौनिक(कसाई), शाकुनिक(बहेलिया), धोबी, जिन्हें छूने पर स्नान करके ही भोजन किया जा सकता था।’’17 इन व्यवसायों के अलावा सफाई, चर्मशोधन और श्मशान इत्यादि के कार्यों की गणना भी
निकृष्ट व्यवसायों में की गई। उपर्युक्त कथनों से ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दू
धर्मग्रंथों ने अस्पृश्यता की ऐसी मजबूत दीवार का निर्माण किया कि उसको पार करके
कोई भी सवर्णों की श्रेष्ठता के अभेद्य किले में प्रवेश न कर सके। अस्पृश्यता के
कड़े नियमों ने एक बहुत बड़ी जनसंख्या को आर्थिक दृष्टि से विकास करने से वंचित
करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
यह
व्यवस्था मध्यकाल तक आते-आते इतनी रूढ़ हो गई कि ‘‘बहुत
सी जातियों को मध्यकाल में कोढि़यों की भाँति बाहर निकलने पर घंटियाँ बजानी पड़ती
थीं ताकि सवर्ण हिन्दू सावधान हो जाएँ और उन्हें भूल से स्पर्श न कर लें।’’18 अंग्रेजों
के आगमन के बाद भी इस व्यवस्था में उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ। महात्मा गांधी का
विश्वास था कि अस्पृश्यता जाति-प्रथा की आंतरिक ऊँच-नीच का परिणाम ही है। 10 फरवरी,
1946 को हरिजन पत्रिका में
उन्होंने लिखा कि, ‘‘हिन्दू धर्म में अस्पृश्यता को कोई स्थान नहीं है।
अस्पृश्यता हिन्दू धर्म पर लगा एक कलंक है। यदि यह अस्पृश्यता प्रथा न गई तो
हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा।’’ अस्पृश्यता के धुर विरोधी होने पर भी उन्हें
वर्ण-व्यवस्था में पूर्ण विश्वास था। ये इसे आदर्श व्यवस्था मानते थे। गांधी जी का
प्रसिद्ध कथन है, 'मैं दुबारा जन्म लेना नहीं चाहता लेकिन अगर मुझे
दुबारा जन्म लेना पड़े तो मैं एक अछूत के घर पैदा होना चाहूँगा ताकि मैं उनके
दुःखों, तकलीफों और सरेआम बेइज्जती का भागीदार होकर स्वयं को
और उन सबको इस दारुण स्थिति से मुक्ति दिला सकूँ। इसलिए मेरी कामना है कि मैं
दुबारा जन्म लूँ। मैं ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र नहीं बल्कि अतिशूद्र के रूप में जन्म
लूँ।' संविधान में प्रावधान किए जाने से हमारे समाज कुछ इस
तरह का भ्रम फैला कि राजनीतिक प्रयासों से समाज में अस्पृश्यता की भावना समाप्त हो
गई है। लेकिन यथार्थ के धरातल पर यह सच्चाई नहीं थी। सामाजिक समस्याओं के निवारण
में राजनीति एक सीमा तक ही मददगार हो सकती थी। दलित साहित्यकारों की रचनाओं में
अस्पृश्यता की घिनौनी तस्वीर को हमारे सामने प्रस्तुत किया गया है। ‘जूठन’
में ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने
अनुभवों को अभिव्यक्त करते हुए लिखते हैं कि, ‘‘अस्पृश्यता
का ऐसा माहौल कि कुत्ते-बिल्ली,
गाय-भैंस को छूना बुरा नहीं था
लेकिन यदि चूहड़े का स्पर्श हो जाए तो पाप लग जाता था। सामाजिक स्तर पर इंसानी
दर्जा नहीं था। वे सिर्फ जरूरत की वस्तु थे। काम पूरा होते ही उपभोग खत्म।
इस्तेमाल करो दूर फेंको।’’19 ठीक
इसी पीड़ा को स्वर देते हुए मोहनदास नैमिशराय लिखते हैं कि, ‘‘हमारी जात के हिस्से में थी तो कंगाली की ऐसी चादर
जिसमें से एक के बाद एक संकट झांक रहे थे। संकटों के साथ-साथ हम अस्पृश्यता के भी
शिकार थे। उन संकटों से बाहर आने का रास्ता भी न था। मुक्तिद्वार हमारे लिए बंद
थे। हम केवल तड़प सकते थे,
रो सकते थे, सिसक सकते थे। हमारे भीतर बाहर अजीबोगरीब हाहाकार थे।
पर उन्हें सुनने के लिए वहां फुर्सत किसे थी?’’20
आंतरिक सोपानीकरण
दलित
आंदोलन और साहित्य के लिए यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि उनके बीच में भी सवर्ण
समाज की तरह एक श्रेणीबद्ध जाति व्यवस्था काम करती है। आंतरिक सोपानीकरण और जाति
भेद दलितों में एक बहुत बड़ी चुनौती है। 1919 में
डॉ. अम्बेडकर ने साउथ बरो आयोग के सामने माँग की था कि अछूतों के लिए अलग मतदाता
मंडल बनाए जाने चाहिए। इस घटना को हम दलित आंदोलन का प्रस्थान बिन्दु मान सकते
हैं। डॉ. अम्बेडकर के इस कदम के पीछे
दलितोद्धार की भावना काम कर रही थी। लेकिन दलित समाज उनकी इस भावना को ठीक से नहीं
समझ पाया और वह ब्राह्मणवाद के सोपानीकरण का शिकार हो गया। सन् 1931 की जनगणना के अधीक्षक जे.एच. हटन ने अपनी प्रसिद्ध
पुस्तक ‘भारत में जाति प्रथा’ में
भारतीय जाति प्रथा के बारे में लिखा था कि, ‘‘भारत
में जाति व्यवस्था जितनी जटिल,
सुव्यवस्थित और रूढ़ है उसकी
मिसाल विश्व के किसी भी भाग में कहीं नहीं मिलेगी। वस्तुतः जब हम गहराई से सोचते
हैं तो यही पाते हैं कि यह भारत में ही मिलती है अन्यत्र नहीं।’’21 दलित आंदोलन जिस जातिवाद के विरोध में खड़ा हुआ था वह
स्वयं जातिगत अंतर्विरोधों से ग्रस्त हो गया। ये अन्तर्विरोध इस आंदोलन की सतह पर
दिखाई भी देने लगे हैं। ऊँच-नीच के भेदभाव को यहाँ सहज ही देखा जा सकता है। ‘वाल्मीकि’
और ‘जाटव’ जातियाँ एक-दूसरे को हीन दृष्टि से देखती हैं। इसका
संकेत कई साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में दिया है। दलित समाज में व्याप्त जातिगत
भेदभाव का मोहनदास नैमिशराय ने विस्तार से वर्णन किया है, ‘‘दलितों में ही जाटव और वाल्मीकि जातियों में संवाद का
अभाव तो था ही साथ ही आपस में घृणा और तनाव का वातावरण भी रहता था। कभी-कभी तो
मारपीट भी हो जाती थी। दोनों जातियों के व्यवसाय/रहन-सहन/खान-पान तथा धार्मिक
परंपराओं में जमीन आसमान का अंतर था। एक जाति के लोग सुअर खाते थे, दूसरी जाति के लोग सुअर देखना भी नहीं चाहते। पर दोनों
की आर्थिक स्थिति में भी फर्क था। वाल्मीकि समाज के लोग आर्थिक दृष्टि से कमजोर थे
जबकि जाटवों की माली हालत लगभग ठीक-ठाक ही थी। हालाँकि देश को आजादी मिलने तक
दोनों ही जातियों के अधिकांश लोग गुलाम जैसा जीवन जीने को बाध्य थे। आजादी के बाद
भी पूर्वी उत्तरप्रदेश के कुछ गाँव/कस्बों में यह स्थिति बंधुआ मजदूरों की तरह भी
थी। पर दुखद आश्चर्य की बात तो यह भी थी कि वहीं एक जाति दूसरी जाति के साथ गुलामों
और जानवरों जैसा व्यवहार करती थी। इसका मुख्य कारण था कि जाटवों में से कुछ जो
बौद्ध हो गए थे उन्होंने पूरी तरह से बाबा साहेब के दर्शन को आत्मसात नहीं किया
था। और वे उसी वर्ण व्यवस्था-परंपरा तथा जातिभेद को आँख मींचकर मानते थे।’’22 स्पष्ट है कि दलित समाज में भी ब्राह्मणवादी ढाँचे का ज्यों का त्यों अनुसरण
किया गया है। इस बात को और अधिक स्पष्ट
करते हुए नैमिशराय जी ने लिखा है कि,
‘‘हमारी जात के घरों में भी सफाई
करनेवाले/करनेवाली आती थी,
जिन्हें अन्य की तरह हम भी अबे ओ
भंगी के , अरी ओ भंगन------ आदि-आदि नामों से पुकारने में अपना
बड़प्पन समझते थे। उन्हें बात-बात पर गालियाँ भी दे देते थे। हमारे घरों में जब
किसी की मृत्यु हो जाती तो मृतक के अन्य कपड़े, सामान
आदि उन्हें दिए जाते थे। शादी-विवाहों के अवसरों पर उनकी स्थिति दीनहीनता से भरपूर
और भी विचित्र बन जाती थी। जब सभी लोगों का भोजन समाप्त हो जाता था तब तक टोकरा, सिलवर की परात, गिलास
आदि लिए वे भिखमंगे की तरह इंतजार करते थे। बीच में उनकी औरतें चिरौरी करतीं और
हमें सेठजी, चौधरी,
माई-बाप, हजूर आदि-आदि नामों से अलंकृत करतीं। दूसरी तरफ मर्द
उन्हें डांटे-फटकारे बिना न रहते। कभी-कभी गालियाँ भी दे देते। वे विवश, भूखे पेट लिए घर बैठे बच्चों को जल्द-से-जल्द जूठन
खिलाने के लिए सब कुछ सहन करतीं। असल में इस जूठन में सब कुछ मिलकर गड़बड़ हो जाती
थी। वैसे वे अपने टोकरों में वैसे ही समेटतीं कभी-कभी वे चील, गिद्ध और कऊवे बन जाते और जमीन पर पड़ी या बिखरी जूठन
को अपनी अंगुलियों से कुरेदतीं। हमारी जात के लोग उन्हें कुत्ता/बिल्ली समझ कर
डांटते/फटकारते/तथा भगाते। पर वे वहीं जमीं रहतीं। एक-एक मुट्ठी चावल के लिए
घंटों-घंटों खुशामद कर पांवों को हाथ लगातीं। पर उसके अलावा थोड़े साफ स्वच्छ भोजन
की भी चाह उन्हें होती। जब सारे लोग भोजन कर लेते, तब
उनको थोड़ा-बहुत बांटने का समय आता था।’’23 एक ही समाज की दो जातियों के बीच के फासला इतना अधिक है कि उन दोनों जातियों
के लोग एक साथ एक पंगत में बैठकर खाना भी नहीं खा सकते।
निष्कर्ष
संदर्भ
1.
जाति-पाति
तोड़क मंडल के लिए लिखे गए अध्यक्षीय वक्तव्य (1932) का
अंश
2.
धर्मशास्त्र
का इतिहास, भाग-2,
वामन पांडुरंग काणे, पृष्ठ-119
3.
आधुनिक
भारत में सामाजिक परिवर्तन,
एम- एन- श्रीनिवास, पृष्ठ-20
4.
भारत
में जाति-प्रथा, जे-एच- हटन, पृष्ठ-46
5.
भारत
में जाति-प्रथा, जे-एच- हटन, पृष्ठ-115
6.
अपने-अपने
पिंजरे, मोहनदास नैमिशराय, भाग
1, पृष्ठ 17
7.
वही, पृष्ठ 19
8.
जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ
119
9.
वही, पृष्ठ 17
10. वही,
पृष्ठ 40
11. बृहत् प्रामाणिक हिन्दी कोश, सं.रामचन्द्र वर्मा, ग्यारहवाँ
सं. 2004,
लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 78
12. भारत में जाति प्रथा, जे-एच-
हटन, पृष्ठ 184
13. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग-1, पृष्ठ 168
14. वही,
पृष्ठ 168
15. वही,
पृष्ठ 168
16. वही,
पृष्ठ 168
17. वही,
पृष्ठ 168
18. भारत में जाति प्रथा, जे-एच-
हटन, पृष्ठ 117
19. जूठन,
ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ
12
20. अपने-अपने पिंजरे, भाग2, पृष्ठ 25
21. भारत में जाति प्रथा, जे-एच-हटन, पृष्ठ 45
22. अपने-अपने पिंजरे, भाग2, पृष्ठ 67
23. वही,
पृष्ठ 67
24. दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ
40
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