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प्रमुख हिंदी उपन्यास और उपन्यास विधा की एक संक्षिप्त यात्रा

उपन्यास विधा की एक संक्षिप्त यात्रा

डा.सुमा.एस

उपन्यास का परिचय 

   आधुनिक जीवन की गद्यात्मक गाथा और मानव जीवन का बहुआयामी एवं विश्वसनीय महाकाव्य उपन्यास, आज साहित्य की समस्त सर्जनात्मक विधाओं में सबसे लोकप्रिय है। मानवजीवन की बहुमुखी छवी का चित्रण जितने सफल ढंग से उपन्यास में कर पाता है उतना अन्य विधाओं में नहीं। उपन्यास में समय एक तरह से थमा रहता है और जब वह पाठक के हाथों पहुँच जाता है तो समय बहने लगता है। पात्रों के विचारों से ही उपन्यास में वर्णित जीवन का समय बहता  है। यहीं पर रचना में पात्रों की भूमिका का महत्व है।

उपन्यास का स्वरूप 

              उपन्यास की कथा को आगे ले जाने में नायक का महत्व सर्वोपरि है। नायक का अर्थ होता है ले जानेवाला, नेता,मार्गदर्शक,संवाहक या प्रधान पुरुष। साहित्य में नायक एक पारिभाषिक शब्द है और उसका अर्थ नियत है। आधिकारिक कथासूत्र को जो पात्र आदि से अंत तक ले जाता है और जो उसके फल का भोक्ता होता है ,वह नायक कहलाता है। भारतीय परंपरा में नायक के चार भेद –धीरोदात्त, धीरललित, धीरोद्धत और धीर प्रशांत – माना जाता था। नायक –नायिका भेद ग्रंथों में उनकी संख्या 100 से भी ऊपर है। लेकिन युग बदला ,परिस्थितियाँ बदलीं ,साथ –साथ साहित्यिक मान्यताएं भी बदलीं। आधुनिक साहित्य में नायक के स्थान पर प्रतिनिधि पात्र की चर्चा विशेष रूप से हुई। यथार्थवादी रचनाओं के दौर में प्रतिनिधि पात्र की चर्चा को खूब महत्व भी  मिलने लगा। नायक की अवधारणा जहां वर्णगत यानि जातिगत है तो प्रतिनिधि पात्र की अवधारणा वर्गगत है।

यह देखें-                     हिन्दी उपन्यासों पर आधारित शोध 

हिंदी उपन्यास साहित्य 

             अब हिंदी उपन्यासों के नायक की बात ले लें। हिंदी उपन्यास का विकास भारतेंदु काल से शुरू तो हो जाता है ,पर इस विधा का सही विकास प्रेमचंद युग में ही हुआ। प्रेमचंद के पूर्व जितने ही उपन्यास रचे गए वे या तो सुधारवादी या उपदेशवादी प्रवृत्तियों से परिचालित थे या वे जनजीवन से प्रत्यक्ष  सम्बन्ध रखनेवाले नहीं थे। इसलिए ही हम प्रेमचंद युग के उपन्यासों की चर्चा से शुरू करेंगे।

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प्रमुख हिंदी उपन्यास pramukh hindi upanyas 


लेखक

उपन्यास

प्रेमचंद

सेवासदन, कर्मभूमि, गोदान

अज्ञेय

शेखर एक जीवनी

फणीश्वर नाथ रेणु

मैला आँचल

भीष्म साहनी

तमस

कृष्णा सोबती

मित्रो मरजानी, ‘सूरज मुखी अँधेरे की

राजू शर्मा

हलफनामे’

प्रदीप सौरभ

तीसरी ताली

 प्रेमचंद के उपन्यास 

              प्रेमचंद के आदर्शवादी उपन्यासों में जैसे सेवासदन हो या कर्मभूमि या प्रतिज्ञा ,उनमें पात्र उच्च आदर्शों से परिचालित दिखाई देते हैं। सेवा सदन वैसे नायिका प्रधान है ,पर कर्मभूमि के नायक को देखो ,वह आदर्शवादी है,कमजोरियों से मुक्त है और हमेशा गरीबों की सहायता करनेवाला है। लेकिन उनके अंतिम उपन्यास ‘गोदान’ का नायक होरी भारतीय परंपरा के नायकों से एकदम भिन्न है। अवध प्रांत के बेल्लारी गाँव की पांच बीधे ज़मीन का कृषक होरी पूरे भारतीय कृषक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। गोदान के कथा सूत्र को आगे ले जानेवाला होरी ज़रूर है ,पर वह वर्णगत नायक नहीं बल्कि वर्गगत प्रतिनिधि पात्र है। होरी को अपने जीवन में एक सामान्य कृषक की सभी समस्याओं से गुज़रना पड़ा था। प्रेमचंद ने होरी को नायक के रूप में चित्रित नहीं किया है। परम्परागत नायकत्व की कोई भी पहचान होरी में शेष नहीं है। न तो वह धीरोदात्त गुणों से संपन्न है और न ही उसे अंतिम फल की प्राप्ति हिती है। लेकिन उसकी मनुष्यता उसे एक अलग पहचान देती है। वह किसी के संकट का लाभ नहीं उठाता। निराश्रित झुनिया और सिलिया को वह अपने घर में पनाह देता है ,पुनिया की खेती की देखभाल करता है और घर के मुखिया की ज़िम्मेदारी यथासंभव निभाता है। एक ओर वह निहायत ईमानदार है ,परोपकारी है तो दूसरी ओर वह स्वार्थी भी है। बांस बेचते समय अपने भाई का हिस्सा मारने हेतु वह बनसोर से सौदा करता है। जीवन भर गाय की अभिलाषा पालनेवाला होरी गाय के कारण ही कर्जदार बना ,कर्ज चुकाने के लिए किसान से मजदूर बना और अंत में अथक परिश्रम और वेदना से उसकी जान चली जाती है। जीवन में असफलता ही असफलता मिलनेवाला यह नायक  परम्परागत मान्यताओं का अनुसरण भले ही न करता है ,पर होरी जैसा कोई पात्र शायद ही हिंदी साहित्य में दुबारा आयेगा।

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 प्रेमचंदोत्तर उपन्यास एवं उपन्यासकार

              प्रेमचंदोत्तर उपन्यासकारों में प्रमुख रूप से अज्ञेय और जैनेन्द्र का नाम आता है। दोनों ने प्रेमचंद के सामाजिक यथार्थ के मार्ग को नहीं बल्कि व्यक्ति मन की उलझनों एवं शंकाओं का निरूपण करनेवाले मनोविश्लेषण के मार्ग को अपनाया। जैनेन्द्र जहां आधुनिक समाज में नारी की स्थिति का यथातथ्य निरूपण अपने उपन्यासों द्वारा किया वहां अज्ञेय ने शेखर जैसे अमर पात्र की  सृष्टि द्वारा हिंदी उपन्यास साहित्य में नयी प्रयोगशीलता की नींव डाली। एक क्रांतिकारी युवक शेखर जो असामान्य प्रतिभाशाली है और साधारण व्यक्तित्व के धनी है यही ‘शेखर एक जीवनी’ का नायक है। शेखर मात्र कथा सूत्र को आगे ले जानेवाला ही नहीं बल्कि उपन्यास की सम्पूर्ण घटनाओं एवं सम्पूर्ण पात्रों का नियोजन भी शेखर के लिए किया गया है। शेखर का चित्रण वैयक्तिकता के धरातल पर हुआ है। सिगमंड फ्रोयड के यौन सिद्धांत के अनुरूप शेखर के व्यक्तित्व का विकास होता है। उसके सम्पूर्ण जीवन में यौन भाव किसी न किसी रूप में व्याप्त होता है। जहां कहीं शेखर किसी अनुचित अथवा वर्जित ह्रदय को देखता है उसका मन यौन भाव से आंदोलित हो उठता है। अपने चारों ओर के वातावरण से हारकर कछुए की तरह अपने अहम् के खोल में प्रविष्ट हो जानेवाला शेखर परम्परागत नायकों से एकदम भिन्न है। माँ के साथ उसका सम्बन्ध कटुता और घृणा का होता है पर बड़ी बहन से मधुर सम्बन्ध बनाए रखने में वह सफल हो जाता है। बहन सदृश्य सरस्वती के प्रति शेखर का प्रेम प्रचलित नैतिक मान्यताओं के प्रतिकूल होने पर भी मनोविज्ञान समर्थित है।शेखर के जीवन में आनेवाली अन्य स्त्रियाँ हैं शारदा और शशि। शशि के साथ उसका रिश्ता बहुत ही अन्तरंग हो जाता है। उपन्यास पढने के बाद  स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता  है कि क्या शेखर हमारे सामने कोई आदर्श प्रस्तुत करता है ?इसका उत्तर हम ठीक तरह से दे नहीं पायेंगे। क्यों कि मानव मन की गुत्थियों को सुलझाने हेतु ही लेखक ने ऐसे पात्र की सृष्टि की है। निस्संदेह शेखर एक व्यक्ति का अभिन्नतम निजी दस्तावेज़ है।

पच्चास से साठ के दशक में हिंदी उपन्यास

            सन पच्चास से साठ के दशक में हिंदी उपन्यास का एक नया रूप हमारे सामने आया जिसे आंचलिक उपन्यास कहा गया। 1954 में प्रकाशित फणीश्वर नाथ रेणु के ‘मैला आँचल’ को प्रथम आंचलिक उपन्यास की संज्ञा भी दी गयी। इन उपन्यासों की खासियत यह है कि ये नायक विहीन उपन्यास हैं। उपन्यास का नायकत्व ‘लोक’ को दिया जाता है ,किसी पात्र को नहीं। समग्र उपन्यास में लोक संस्कृति ,लोक विश्वास,लोक शब्दावली, लोक कथाएँ और लोकगीत बिखरे पड़े हैं। एक व्यापक फलक लेकर रेणुजी ने पूर्णिया जिल्ले के मेरीगंज गाँव के जीवन में पनपनेवाली आर्थिक,सामाजिक और राजनैतिक चेतना को उजागर किया है। इसी शैली  में रचा गया एक अन्य उपन्यास है नागार्जुन द्वारा रचित ‘बाबा बटेश्वर नाथ‘| इसमें एक इच्छाधारी बाबा है जो बरगद भी बन जाता है और इंसान भी। एक पुराने वट वृक्ष को नायक के रूप में प्रस्तुत करनेवाला यह उपन्यास हिंदी साहित्य की अनूठी रचना है।

 साठ –सत्तर के बाद हिंदी उपन्यास 

            1973 में निकले भीष्म साहनी का ‘तमस’ भारत –पाकिस्तान विभाजन के समय हुए साम्प्रदायिक दंगों की पृष्टभूमि पर आधारित उपन्यास है। उपन्यास मेंप्रत्येक पात्र की भूमिका महत्वपूर्ण है , इसलिए ही इसमें किसी एक को नायक का दर्जा नहीं दे पायेगा। या यूं भी कह सकते हैं इसके प्रत्येक पात्र नायक है।

              साठ –सत्तर के बाद हिंदी उपन्यास विविध विमर्शों के घेरे में पड़कर विकेन्द्रीकृत हो गया। नारी विमर्श,दलित विमर्श,पारिस्थितिक विमर्श,उत्तराधुनिक विमर्श आदि विषयों के आधार पर उपन्यास को देखने की परम्परा चली तो पात्रों की प्रधानता नहीं रही, समस्याओं को महत्व मिलने लगी। नारी विषयक उपन्यासों में नायक की भूमिका नारी ही निभाने लगी। कृष्णा सोबती का ‘मित्रो मरजानी’ , ‘सूरज मुखी अँधेरे की’ आदि रचनाओं में नारी अपने छिपे हुए चेहरों को बाहर लाने की कोशिश करती नज़र आती हैं। दलित रचनाओं में नायक स्वयं लेखक ही होता है। समाज से तिरस्कृत ,पद दलित जीवन बितानेवाला नायक पाठक की सहानुभूति पानेवाले पात्र रह जाता है। परिस्थिति को विषय बनाकर लिखे गए उपन्यासों में भी नायक की कोई संकल्पना नहीं।

सन 2000 के पश्चात के उपन्यास: 21वीं सदी के उपन्यास  

            2000 में निकले राजू शर्मा द्वारा रचित ‘हलफनामे’ उपन्यास में कथा को आगे ले जानेवाला नायक एक मरा हुआ पात्र है। स्वामीराम – एक साधारण सा किसान,उसकी मृत्यु से उपन्यास की शुरुआत होती है। उपन्यास के अंत तक  स्वामीराम का लाश हमारा पीछा करता है।

            वर्तमान काल के सशक्त लेखकों में अग्रणी उदयप्रकाश का उपन्यास ‘मोहनदास’ उत्तराधुनिक समाज की त्रासदी का प्रतीक है। यह एक डरे हुए व्यक्ति की कहानी है जो इस उपन्यास का नायक भी है। ईमानदार होते हुए भी दर-दर की ठोकरें खानेवाला मोहनदास नायक की सारी संकल्पनाओं को तोड़ देता है। उपभोक्तावादी संस्कृति के दलदल में फंसकर अपनी अस्मिता व पहचान तक खोकर भीड़ में अकेले खड़े मोहनदास वर्तमान सामजिक विडम्बना का परिचायक है| उदयप्रकाश ने पुराने अंदाज़ में ,फैंटसी के माध्यम से यथार्थ को सबके सामने रखा है। उपन्यास के अंत में नायक मोहनदास की स्थिति इतनी दयनीय हो जाती है कि मनुष्य केजीवन की सबसे बड़ी चीज़ , उसकी पहचान तक उसे नष्ट हो जाती है। मोहन दास का यह अंत गोदान के होरी से भी बदत्तर है।

प्रदीप सौरभ का उपन्यास ‘तीसरी ताली’ 

हिंदी उपन्यास साहित्य में एक नया अध्याय खोलनेवाला उपन्यास है जिसमें नायक न पुरुष है न स्त्री। उभयलिंगों के जीवन पर आधारित इस उपन्यास में नायक की भूमिका स्वभावत: किन्नर या हिजड़ा ही निभाता है। एक ऐसी जाति की कहानी जिसे समाज में कभी स्थान नहीं मिला ,जिसे देखकर लोग दूर हट जाते हैं, उस जाति को उपन्यास में मुख्य भूमिका देकर उपन्यासकार ने सचमुच सराहनीय काम किया है। कथानक और पात्र सृष्टि की दृष्टि से यह उपन्यास साहित्य का क्रांतिकारी कदम भी है|

             आज का साहित्य सुपर हीरो का नहीं है और ना ही समाज। बदलते सामजिक परिस्थितियों का प्रतिफलन उपन्यासों में होता है ,तभी तो वह मानव जीवन की गद्यात्मक गाथा है। अपसंस्कृति ,मूल्यहीनता और इलक्ट्रोनिक दबाव के इस युग में धीरोदात्त नायकों का कोई स्थान नहीं। आज का नायक कमजोरियों से युक्त है|  वह कभी हीरो बनता है, कभी ज़ीरो तो कभी एंटी हीरो। भोगे हुए यथार्थ, संत्रास और द्वंद्व की नितांत वैयक्तिक अभिव्यक्ति के लिए यह अनिवार्य भी बन पड़ता है। यही वर्तमान समाज का कोरा चिट्ठा है और इसी का प्रतिफलन आज के उपन्यासों में चित्रित हो रहा है। आज उपन्यासों के लिए नायक एक अनिवार्य अंग नहीं रह गया है। नायक आज सभी पात्रों में एक बन गया है।

           

सन्दर्भ ग्रन्थ :

उपन्यास की संरचना : गोपाल राय

वैश्वीकरण और हिंदी गद्य साहित्य : डा . शिवप्रसाद गुप्त

असिस्टेंटप्रोफेसर, सरकारी महिला महाविद्यालय

                                                तिरुवनंतपुरम 

 

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