स्त्री-विमर्श का वैचारिक परिप्रेक्ष्य
स्त्री-विमर्श का वैचारिक परिप्रेक्ष्य Stri Vimarsh ka vaicharik pariprekshya
राम बचन यादव
भारत ही नहीं संसार के सभी धर्म व संस्कृतियाँ स्त्री की आजादी के विरोध में खड़ी दिखती हैं। सभी धर्म के धार्मिक ग्र्रन्थों में धर्म के ठेकेदारों ने स्त्री के लिए अमानवीय नियम बनाकर उन्हें सदा के लिए मानसिक व शारीरिक गुलाम बना दिया। उसने जब भी इन अमानवीय बन्धनों व कुरीतियों को तोड़ने का प्रयास किया तो इसे तिरिया चरित्तर की संज्ञा मिली। कहने को तो कहा गया कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ लेकिन हकीकत यह है कि पूरे भारतीय इतिहास में स्त्री की उपस्थिति दोयम दर्जे की रही है। वह पूरी मानवता का आधा हिस्सा होते हुए भी पूरी एक जाति नहीं बन पायी। वैसे तो स्त्री प्रतिरोध की एक लम्बी परम्परा रही है लेकिन बीसवीं सदी में यह प्रतिरोध एक आन्दोलनकारी रूप में सामने आता है। उन्नीसवीं व बीसवीं सदी में स्त्री के अधिकारों को लेकर कई महत्त्वपूर्ण स्त्रीवादी आन्दोलन हुए और पश्चिम में सीमोन द बोउवार, जर्मेन ग्रीयर, कैट मिलेट जैसी नारीवादी चिन्तकों ने स्त्री की आजादी के लिए वैचारिक संघर्ष किया। सीमोन द बोउवार ने पहली बार कहा कि ‘‘स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि उसे बना दिया जाता है।’’ वह अपनी बात को विस्तार देते हुए आगे कहती हैं कि, ‘‘औरत जन्म से ही औरत नहीं होती बल्कि बढ़कर औरत बनती है। कोई भी जैविक मनोवैज्ञानिक या आर्थिक नियति आधुनिक स्त्री के भाग्य की अकेली नियंता नहीं होती। पूरी सभ्यता ही इस अजीबोगरीब जीव का निर्माण करती है।’’
स्त्री विमर्श का परिचय stri vimarsh ka parichay
स्त्री की इस आजादी में जहाँ उसके आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक अधिकारों के संरक्षण की बात थी, वहीं पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरूद्ध भी तीव्र स्वर था। इसीलिए स्त्री-विमर्श का मूल स्वर प्रतिरोध का रहा। वह पुरुषवादी मानसिकता को प्रतिपक्ष के रूप में खड़ा करता है। जैसा कि डाॅ0 प्रभा खेतान लिखती हैं कि, ‘‘स्त्री की स्थिति वह चाहे पश्चिमी हो या तीसरी दुनिया की, अब भी बड़ी भंगुर है।........... पहले हमें यह देखना है कि इन सारे विमर्शों का उत्पादक एवं चिन्तक कौन है? वही श्वेत मध्यवर्गीय सत्ता, जो अब अपने आपको उत्तर आधुनिक कह रही है। यही वह सवर्ण पुरूष है, विशिष्ट लोग जो अकादमिक दुनिया में जगह खोज रहे हैं। नारीवाद के आदर्श इन पुरूषों के आदर्श से अलग हैं, इन पुरुषों ने व्यक्तिगत स्तर पर निजी क्षेत्र में दलन को नहीं झेला है, उन्हें पता नही है शारीरिक, असुरक्षा किसे कहते हैं, बलात्कार की त्रासदी क्या है? दलित पति भी अपनी पत्नी से वही अपेक्षा रखता है जो कि सवर्ण रखता है।’’
प्रारम्भिक स्थिति में मातृसत्तात्मक समाज था। कई प्रमुख इतिहासकारों ने उस समय के समाज को एक लोेकतांत्रिक समाज माना है। उस समाज में स्त्री को लेकर कोई संकीर्णता नहीं थी। वह भी समाज का एक स्वतंत्र अंग थी और सभी कार्य को संपादित करने के लिए वह पुरूष के कंधे से कंधा मिलाकर चलती थी। उसके विचारों को पुरूष समाज गंभीरता से लेता था और कभी भी उस समाज में कोई चीज बलात् उस पर थोपी नहीं जाती थी। कालान्तर में पितृ सत्तात्मक समाज अस्तित्व में आया फलस्वरूप औरत की सामाजिक स्थिति गुलामों जैसी होती गई। मातृसत्ता से पितृसत्तात्मक समाज का अवतरण वास्तव में औरत जाति की सबसे बड़ी ऐतिहासिक हार थी। स्त्री की इस स्थिति पर विचार करते हुए सीमोन द बोउवार कहती हैं कि, ‘‘पुरूष की यह स्वभावगत् विशेषता है कि वह हमेशा अनन्य के संदर्भ में स्वयं के बारे में सोचता है। जगत् के बारे में उसका दृष्टिकोण द्वन्द्वात्मकता का होता है। वह हमेशा द्वैत में सोचता है, अतः उसने स्वयं के संदर्भ में औरत को अन्य की कोटि में रखा। उसके चिन्तन में यह द्वैत भाव पहले इतना स्पष्ट नहीं था। पहले तो वह एक ही तत्त्व मंे स्त्री और पुरूष, दोनों का अवतरण मान लेता था, किन्तु जैसे-जैसे औरत की भूमिका विस्तृत होती गई, वह पुरूष के लिए संपूर्ण रूप से अन्या होती चली गई। उसके नाना रूप उभरे। कभी पुरूष ने उसे देवी माना, तो कभी दानवी। वह प्रकट हुई पहाड़ों में, वन प्रदेशों में, बहती रही झरनों में हर जगह उसने जन्म दिया, उसी ने विनाश भी किया। मनमानी, वैभवशालिनी प्रकृति की तरह क्रूर वह स्त्री एक ही साथ मांगलिक और असुभ दोनों थी। कभी वह दुर्गा बनी, कभी काली। पूरे पश्चिमी एशिया में वह भिन्न-भिन्न नामों से पूजी गई।’’
स्त्री और पुरूष सम्बन्ध समाज की दो आधारशिलाएँ हैं। जब दोनों आधारशिलाओं में संतुलन और समानता होगी तभी एक स्वस्थ और शोषण मुक्त समाज की कल्पना की जा सकती है। लेकिन सदियों से स्थिति इसके उलट है। संतुलन नहीं है और नहीं है स्त्री स्वतंत्र। स्त्री को अधीन बना लिया गया है। पुरूष चूँकि हमेशा से स्त्री की स्वतंत्र सत्ता से डरता रहा है, अतः उसने सर्वप्रथम स्त्री की स्वतंत्रता को अपने आक्रमण का केन्द्र बनाया। इस संदर्भ में राजेन्द्र यादव की टिप्पणी बहुत महत्त्वपूर्ण है- ‘‘वस्तुतः इस सारे साहित्यिक और सांस्कृतिक गरिमामय शब्दजाल से आदमी ने औरत की जिस एक चीज को मारा, कुचला या पालतू बनाया है, वह है उसकी स्वतंत्रता। आदमी हमेशा से नारी की स्वतंत्र सत्ता से डरता रहा है और उसे ही उसने बाकायदा अपने आक्रमण का केन्द्र बनाया है। अपनी अखण्डता और सम्पूर्णता में नारी दुर्जेय और अजेय है। वहाँ वह ऐसी शक्ति है जो स्वतंत्र और स्वच्छन्द है, बनैली और स्वैरिणी-इसीलिए आदमी ने उसे ही तोड़ा है। तोड़कर ही किसी को कमजोर और पालतू बनाया जा सकता है। आदमी ने लगातार और हर तरह कोशिश की है कि उसे परतन्त्र और निष्क्रिय बनाया जा सके, तभी बोउवा कहती है कि ‘औरत पैदा नहीं होती, बनाई जाती है।’’
स्त्री चिन्तकों द्वारा की गई स्त्री स्वतंत्रता की माँग पितृसत्ता के हरेक पहलू से निजात दिलाने की थी। उन्होंने न केवल स्त्री देह की मुक्ति का सवाल उठाया वरन् पितृसत्ता द्वारा प्रचलित और प्रचारित ज्ञान को वैज्ञानिक तर्कोें द्वारा खारिज करने की भी कोशिश की। पुरूषवादी मनोभाषिकी का भी प्रतिरोध किया गया। जब किसी स्त्री ने बलात् थोपे गये अमानवीय नियमों को तोड़ने की कोशिश की तो उसे इस पुरूषवादी सवर्णवादी समाज ने रंडी, वेश्या, कुलटा, पतिता आदि शब्दों से नवाजा।
पतिव्रता के नाम पर कई स्त्रियाँ मौत का शिकार बन गयीं तो कई को अग्नि परीक्षा जैसी यातना से गुजरना पड़ा। जब तक वह पुरूष की इच्छा और वासना के नियंत्रण में है, वह सौन्दर्य है, उद्दीपन है और ऐसा अवयव-समूह है जो वांछनीय है, अगर उससे निरपेक्ष और उसके नियंत्रण से बाहर है तो भत्र्सनीय और दण्डनीय है। राजेन्द्र यादव ने सही कहा है कि, ‘‘साहित्य और समाज की सबसे बदनाम, बहिष्कृत और गुमराह औरतें वे हैं जो अपने शरीर और मन को अपने पतियों, स्वामियों या अभिभावकों तक ही सीमित नहीं रख पाईं। यानी शरीर की माँग ने जिनके भीतर एक स्वतंत्र इच्छाशक्ति जगा दी। वे पंुश्चली, कुलटा, छिनाल, रंडी, पतिता आदि के नाम से सजा की अधिकारिणी र्हुइं। इस ‘स्वतंत्रता’ की सजा मौत ही थी। उन्हें गुपचुप या सार्वजनिक रूप से ‘सजा’ देने को हर समाज ने जायज ही माना। जहाँ वे अपने स्वामियों या अभिभावकों की इस सजा से किसी भी कारण बच निकलीं, वहाँ वे भयानक ऐयार, तेज षड्यन्तकारिणी मानी गई।’’
वर्तमान में स्त्रियों को प्रतिरोध के लिए अपनी भाषा गढ़नी होगी। उन्हें एक समर्थ भाषा की खोज करनी होगी अन्यथा उनका अस्तित्व मिटने का संकट रहेगा। पुरूषों द्वारा नियंत्रित भाषा से बाहर एक ऐसी भाषा खोजने की जरूरत है जिससे स्त्रीत्व की रक्षा हो सके। बहुत सी महिला रचनाकारों के यहाँ यह भाषा देखने को मिलती है। उनके यहाँ स्त्री विमर्श व्यापकता और गहराई के साथ प्रस्तुत हुआ है। जैसे-जैसे सभ्यता के विकास के साथ-साथ वैज्ञानिक खोजों एवं अध्ययनों का विकास होता गया, नारीवादी आन्दोलन पर भी वैज्ञानिक अध्ययनों का प्रभाव पड़ा। स्त्री वादी आन्दोलन में सदियों से प्रचलित पितृसत्ता के रूढ़ मूल्यों के विरूद्ध वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर मुखर प्रतिक्रिया हुई। पुरूष निर्मित सामाजिक एवं धार्मिक मिथकों को वैज्ञानिक तर्क की कसौटी पर कसा जाने लगा और उन्हें वैज्ञानिक तर्कों द्वारा खारिज करने की कोशिश की गई।
कुछ विद्वान ‘स्त्री-विमर्श’ को पश्चिम की मात्र नकल मानते हैं। यह मानना कि यह मात्र पश्चिम की नकल है, उनकी संकुचित विचारधारा को दर्शाता है। भारतीय स्त्री विमर्श मात्र पश्चिम की नकल नहीं बल्कि एक सुदीर्घ भारतीय चिन्तन परम्परा की देन है। यहाँ सदियों से स्त्री-शोषण के समानान्तर स्त्री प्रतिरोध की संस्कृति का इतिहास भी रहा है। आधुनिक भारतीय नवजागरण ने तो स्त्री-विमर्श की एक मजबूत नींव ही तैयार की। इस भारतीय नवजागरण की लहर में पुरूषों के अलावा कुछ चेतना सम्पन्न स्त्रियां भी ऊपर उठकर आती हैं और सदियों से शोषित-पीड़ित स्त्री समाज की आवाज बनती हैं। ये स्त्रियाँ समाज व परिवार के सारे बन्धनों को तोड़ती हुई अपने घरों से बाहर निकलकर साहित्यिक, सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में एक साथ सक्रिय हुईं। इनमें कुछ प्रमुख हैं- सावित्री बाई फुले, मां शारदा देवी, पंडिता रमाबाई, रमाबाई रानाडे, आनन्दी बाई जोशी, भगिनी निवेदिता, फ्रांसिना सोराबजी, ताराबाई शिंदे, एनी जगन्नाथन, रूक्माबाई, ऐनी बेसेण्ट, सरोजिनी नायडू, स्वर्ण कुमारी देवी, सरला देवी चैधरी, मनोरमा गुप्त आदि। नवजागरण की पृष्ठभूमि में उपजी स्त्री मुक्ति की यह चेतना बाद के दिनों में अनेक सशक्त साहित्यकारों, समाज चिंतकों से होती हुई आज समकालीन भारतीय समाज में अविरल गति से बह रही है।
शोध छात्र, हिन्दी विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
मो0 9453087972
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