हिंदी दलित साहित्य का विकास और ‘हंस’ की भूमिका: (2001-2008):प्रिया कौशिक
हिंदी दलित साहित्य का विकास और ‘हंस’ की भूमिका: (2001-2008)
प्रिया कौशिक
दलित साहित्य मूलतः मुक्ति एवं
समतामूलक साहित्य है। दलित साहित्य में दलित अन्याय का प्रतिकार करने हेतु एकजुट
होकर यथास्थितिवादी वर्चस्वशाली समाज से लड़ता है। वह एक ऐसा भारत बनाने में सहयोग
देता है, जो समानता,
स्वतंत्रता, बंधुत्व पर आधारित हो,
न कि असमानता, विषमता और शोषण पर। दलित
साहित्य दलितों द्वारा भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति का और दलितों द्वारा लिखे
गये अनुभवों का साहित्य है। यह समाज में व्याप्त वर्णाश्रम व्यवस्था,
जातिवाद,
छुआछूत से मुक्ति हेतु संघर्षरत है।
दलित साहित्य के ऐसे समतामूलक समाज को
बनाने में कथाकार राजेन्द्र यादव संपादित ‘हंस’
पत्रिका की अहम भूमिका है। ‘हंस’
सामाजिक विसंगतियों से सीधे टकराती है और दलित साहित्य की सम्पूर्ण पहचान करने का
प्रयास करती है। ‘हंस’
ने समाज में व्याप्त छुआछूत,
जातिवाद जैसे सामाजिक विसंगतियों पर प्रश्न चिह्न लगाया और खासकर हिंदी के पाठकों
को बिना किसी पूर्वाग्रह के दलित साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित किया। दलित साहित्य
में समय समय पर होने वाली बहसों, संगोष्ठियों
के जरिए ‘हंस’
ने दलित साहित्य की वैचारिकी को मजबूत किया है। ‘मेरी-तेरी
उसकी बात’ नामक
कॉलम में छपने वाले राजेन्द्र यादव के संपादकीय ‘हंस’
की वह वैचारिक धारा है जो पाठकों को नई ऊर्जा से भर देती है। ‘हंस’
के माध्यम से राजेन्द्र यादव ने दलित साहित्य को मुख्यधारा में मजबूती से स्थापित
करने का प्रयास किया है। दलित साहित्य सवर्णों द्वारा स्थापित परंपरा को नकारता है
और सवर्णों द्वारा लिखित ग्रंथों, वेद,
स्मृतियों को भी सिरे से ख़ारिज करता है,
क्योंकि ऐसी ही परम्पराएं एवं ग्रंथ सवर्ण पारित मानसिकता को बढ़ावा देते हैं।
कथाकार एवं ‘हंस’
के संपादक राजेन्द्र यादव के शब्दों में-
“मैं हमेशा से कहता हूँ कि दलितों
और स्त्रियों का कोई इतिहास नहीं है। जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है वह तो सवर्ण
एवं पुरुषों का इतिहास है। उसमें दलित कितना मालिक के लिए वफादार रहा या कितना
मालिक के कहने पर बस्तियों जलाई,
कैसे उसने मालिक की जगह अपने सीने पर गोलियों खाई ये दलित का इतिहास है,
स्त्री कितनी पतिव्रता थी,
निष्ठावान थी,
हमारे लिए सती हो जाती थी,
कैसे उसने राजवंश को बचाने के लिए अपने बच्चे की बलि दे दी यह स्त्री का इतिहास है।
यानी इनका नहीं बल्कि इनकी वफादारी का इतिहास है,
दरअसल इतिहास उसका होता है जो अपने फैसले खुद लेते हैं,
दलित और स्त्री अपने फैसले नहीं ले सकते थे।” (‘हंस’
जनवरी 2001, पृ. 4)
नब्बे के दशक में हिंदी में उभरने
वाले दलित साहित्य को साहित्यिक विमर्श के केंद्र में लाने का श्रेय ‘हंस’
पत्रिका को जाता है। अगस्त 1992 में ‘हंस’
के तत्वाधान में दिल्ली में दलित साहित्य पर केन्द्रित एक गोष्ठी आयोजित हुई।
उसमें हिंदी के अनेक दिग्गज साहित्यकारों ने भाग लिया यद्यपि उस गोष्ठी का मूल
स्वर दलित साहित्य पर आधारित नहीं था लेकिन उसमें एक बात स्पष्ट थी कि हिंदी में
दलित साहित्य का प्रवेश हो गया है। दलित लेखक श्यौराज सिंह बेचैन के अनुसार- “1990
के बाद सामाजिक लोकतंत्र की चेतनाजन्य विवशता के चलते विशेषकर ‘हंस’
के संपादक राजेन्द्र यादव ने दूरदृष्टि से समझा और गैर दलित स्त्री लेखन के
साथ-साथ दलित लेखन को भी आंशिक मंच देना शुरू किया।”(
श्यौराज सिंह ‘बैचैन’
: समकालीन हिंदी पत्रकारिता में दलित उवाच,
पृ. 177).
दलित साहित्य मराठी में बहुत पहले से है। सन् 1920-30 में डॉ भीमराव अम्बेडकर द्वारा चलाए आन्दोलन एवं उससे विकसित दलित साहित्य अपने प्रौढ़ रूप में मराठी में उपलब्ध था। हिंदी पट्टी में दलित साहित्य को लाने की पहल ‘हंस’ ने की। शुरूआती दौर में जब दलित साहित्यकार अपनी रचनाओं को लेकर इधर-उधर भटक रहे थे और छोटी-छोटी पत्रिकाओं ने उन्हें छापने से मना के दिया तो ‘हंस’ ने उनकी रचनाओं को छापने की पहल की। हिंदी में दलित को स्थापित करने में ‘हंस’ ने एक सूत्रधार की भूमिका निभाई और लगातार निभा रही है। जब ‘हंस’ ने दलित साहित्यकारों को जगह दी तो उसे खूब आलोचना का सामना भी करना पड़ा। एक तरफ जहाँ ‘मुख्यधारा’ के लोगों ने यह कहकर राजेन्द्र यादव की आलोचना की, कि ‘हंस’ का स्तर गिरता जा रहा है, राजेन्द्र यादव जी स्त्री, दलित साहित्य के रूप में अश्लील साहित्य को तवज्जो दे रहे हैं, वहीँ दूसरी तरफ दलित लेखकों, पाठकों की यह प्रतिक्रिया रही कि दलित साहित्य के नाम पर राजेन्द्र यादव ढोंग कर रहे हैं। राजेन्द्र यादव को सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत रूप में यथास्थितिवादियों की आलोचनाओं का शिकार भी होना पड़ा, लेकिन वह अपने मोर्चे पर अडिग रहें तथा दलित साहित्य उजागर होने लगा। बाद में मुख्यधारा के लोगों ने स्वयं दलित साहित्य से जुड़ने की कोशिश की और यहीं से शुरू हुआ स्वानुभूति एवं सहानुभूति का प्रश्न।
आज जब साहित्यिक दुनिया में
नामी-गिरामी प्रतिष्ठित लेखकों की ही पूछ हो रही है और पुरस्कृत होने की होड़ मची
है, ऐसे में बिना किसी मोह के ‘हंस’
ने
अजय नावरिया, हरि भटनागर,
अर्जुन चाहवाण, विपिन चौधरी,
हरिराम मीणा, बजरंग बिहारी तिवारी,
अशोक भारती, राज वाल्मीकि आदि तमाम उभरते
युवा रचनाकारों को जगह दी है। वस्तुतः आज दलित साहित्य के पास अपनी अकादमी,
अपने प्रकाशन, अपने सम्मलेन,
अपनी पत्रिकाएँ है, फिर भी ‘हंस’ पत्रिका
का हिंदी दलित साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। इस विषय में यह कहा जा
सकता है कि ‘हंस’
मुख्यधारा की पहली ऐसी पत्रिका है,
जिसके पाठक देश के कोने-कोने में मौजूद हैं,
दलित साहित्य को ‘हंस’
ने देश के जन-जन तक पहुँचाया है, दलित
वर्ग के सच को मुख्यधारा से जुड़ा है, क्योंकि
दलित साहित्य के नाम पर छापी गयी दलित पत्रिकाएँ मुख्यधारा में दलितों जैसी ही
अछूत मानी जाती हैं। श्यौराज सिंह बैचैन के अनुसार-
“ ‘हंस’ (सं. राजेन्द्र यादव) के
संपादकीय व प्रकाशित सामग्री ने दलित लेखन को मुख्यधारा की राष्ट्रीय बहस के
केंद्र में ला दिया है, ‘हंस’
ने थोडा पारिश्रमिक भी दिया है, यह
किसी से छिपा नहीं है। ‘हंस’
के दलित लेखकों व संपादक पर वर्णवादी व यथास्थितिवादियों का कोप किस तरह बरसता रहा
है। वह पत्र-पत्रिकाओं से जाहिर है।” (श्यौराज
सिंह ‘बैचैन’
: समकालीन हिंदी पत्रकारिता में दलित उवाच,
पृ.167)। ‘हंस’ ने समय-समय दलित साहित्य पर लेख,
कविताओं, आत्मकथात्मक अंशों,
लघुकथाओं कहानियों को छापा है और उनसे प्रश्नों व समस्याओं को बहसों के माध्यम से
सुलझाया है। सैकड़ों साल के परम्परावादी साहित्य में यह सेंध मारना,
कम परिवर्तनीय नहीं है,
परन्तु ऐसे ही परिवर्तन क्या दलित साहित्य में हो रहे हैं,
इसकी पड़ताल हम इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में ‘हंस’ में छपे दलित साहित्य से
कर सकते हैं।
‘हंस’ ने समय-समय पर दलित कवियों की
कविताओं को छापा है। ‘हंस’ के अक्टूबर 2001 के अंक में छपी जय प्रकाश कर्दम की
कविता ‘लाठी’
वर्णवादी सामंती व्यवस्था को उजागर करती है। नवंबर 2001 के अंक में मदन वीरा की
चार कविताएँ प्रकाशित हुई, ‘कलारसिक’,
‘हिजरत’, ‘घोडा’,
‘धुंध के पार’। ‘कलारसिक’
नामक कविता मुख्यधारा से अलग हाशिये के सौंदर्यशास्त्र को रेखांकित करती है। हिजरत
में अच्छी जिन्दगी की तलाश में गाँव से शहर की ओर पलायन करने की व्यथा वर्णित है। ‘घोडा’
प्रतीकात्मक रूप में दलितों में छिपी शक्तियों की याद दिलाता है। चौथी कविता ‘धुंध
के पार’ में ‘कर्म
कर फल की चिंता मत कर’ का उपदेश देने वाले
ग्रंथ ‘भगवतगीता’
पर व्यंग्य किया गया है। परन्तु जनवरी 2002 में छपी राज वाल्मीकि की ग़ज़ल यह दिलासा
देती है कि हमेशा ऐसी स्थिति नहीं रहेगी-
“आज
नहीं तो कल निकलेगा
कुछ
न कुछ तो हल निकलेगा।”
(जनवरी ‘हंस’2002
पृ.90)
फरवरी 2002 के अंक में छपी सूरजपाल
चौहान की कविता ‘कलात्मक के नाम पर’,
जुलाई 2002 के अंक में ओम प्रकाश वाल्मीकि की तीन कविताएँ ‘गीली
ज़मीन’, ‘स्याही में रंगा शब्द’,
और ‘हमलावर’
प्रकाशित हुई। इन कविताओं में अनुभूति की गहनता और शिल्प की प्रौढ़ता दोनों देखने
को मिलती है। फरवरी 2003 में शैलेन्द्र चौहान की कविता ‘दया’
दलित के संदर्भ में सवर्णों द्वारा दलितों पर दया दृष्टि के खिलाफ है।
‘हंस’
का अगस्त 2004 का अंक दलित विशेषांक के रूप में छपा। इस विशेषांक में दलित
कहानियां, आत्मकथांश,
कविताएँ, साक्षात्कार आदि छापे गये।
कविताओं में अछूतानन्द ‘हरिहर’,
श्यामलाल शमी, संगीता नौहियता,
कृष्ण परख, सत्यप्रकाश और राजेश चन्द्र की
कविताएँ छपी हैं। अक्टूबर 2008 के अंक में पवन करण की कविता ‘सीवर लाइन’
एक समूह की पीड़ा को अभिव्यक्त करता है। इसी अंक में सुधीर कुमार ‘ परवाज’
की कविता ‘गाय’ और ‘मैं’
इस अमानवीयता की पुष्टि करती है। दलित कवियों ने अपनी अपनी कविताओं के माध्यम से
सामाजिक, ऐतिहासिक,
वर्णव्यवस्था, धर्म संस्कृति,
राजनीति में दलितों के प्रति होने वाले अन्यायों का मुंह तोड़ जवाब देकर खंडन किया
है और मानवता का पाठ सिखाया है। दलित कविताएँ दलितों की यथास्थिति से विद्रोह की
कविताएँ हैं।
आत्मकथाओं के महत्व को रेखांकित करते
हुए कथाकार राजेन्द्र यादव लिखते हैं कि “यह संयोग नहीं है कि दलित और
स्त्री साहित्य भी प्रथमत: अपनी आत्मकथाओं को अपना प्रस्थान बिंदु मानते
हैं दलित आत्मकथाओं अपनी यातनाओं की सीधी सपाट और इकहरी कथाएँ हैं,
और उस बिंदु पर खत्म होती हैं कि दलित नायक अपनी यातनाओं को लगभग अपनी भाषा में कह
सकने का साहस जुटा सका है।” (हंस. दिसम्बर,
2006, पृ.
8)
‘हंस’ ने समय-समय पर दलित आत्मकथाओं
के अंशों को छापा है। ‘हंस’ पत्रिका ने जुलाई 2001 के अंक में श्यौराज सिंह द्वारा
अनूदित दलित लेखक हजारी की आत्मकथा ‘कर्मवाद’
से परिचय कराया। यह आत्मकथा स्वतंत्रता पूर्व की दलितों की परिस्थितियों को
दर्शाती है। ‘हंस’ ने प्रसिद्ध दलित लेखक सूरजपाल चौहान की आत्मकथा ‘तिरस्कृत’
और ‘संतप्त’
दोनों आत्मकथाओं को छापा है। उनका पहला आत्मकथांश अक्टूबर 2001 के ‘हंस’ में ‘मुंह
से निकली चीख और ‘आंसू’
तिरस्कृत से लिया गया है। इसमें सवर्णों के सामंती चरित्र वर्णित है। दूसरा अंश ‘जो
कहा नहीं गया’ आत्मकथा संतृप्त से लिया गया
है। 2005 अप्रैल में छपा यह आत्मकथांश दलित समाज को एक नयी सच्चाई से रूबरू कराता
है। दिसंबर 2005 के अंक में छपा सूरजपाल चौहान का आत्मवृत ‘माँ
और मैं’ भी संतृप्त से ही लिया गया है।
तीसरी आत्मकथा नवेंदु की ‘रुकी
हुई रोशनी’ 2002 के अंक में प्रकाशित हुई।
अगस्त 2004 के दलित विशेषांक में ‘स्वानुभूति’
नामक
अंश में बहुत से दलित लेखकों के संस्मरण,
यात्रावृतांत आदि को छापा है,
परन्तु आत्मकथांश में श्यामलाल जैदिया के आत्मकथांश अंश ‘एकभंगी
कुलपति का बचपन’ नामक शीर्षक से छपा है। ‘हंस’
के जून 2005 अंक में प्रकाशित श्यौराज सिंह बैचैन का आत्मकथांश ‘राहें
बदली कि जीवन बदलता गया’
शिक्षा के प्रति लेखक की जीवटता को उजागर करती है। इनका दूसरा आत्मकथांश ‘यहाँ
एक मोची रहता था’ शीर्षक से जुलाई 2007
अंक में प्रकाशित हुआ। ‘हंस’ 2005 के सितम्बर अंक के विशेषांक ‘नैतिकता
के टकराव II’ में लेखक दया
पवार की आत्मकथा ‘अछूत’ से, शरणकुमार लिम्बाले की ‘अक्करमासी’ से, पंजाबी लेखक बलबीर माधोपुरी की ‘छांग्यारुक्ख’ से एक-एक अंश प्रकाशित किया गया है।
इन आत्मकथाओं में दलित स्त्रियों की स्थिति को बड़ी ही शिद्दत से उकेरा गया है।
‘हंस’
सितम्बर 2006 में छपा रूपनारायण सोनकर का आत्मकथांश ‘नागफनी’ साहित्य को
एक अलग संघर्ष से रूबरू करता है। इसके बारे में राजेन्द्र यादव ने अपने संपादकीय
में लिखा गई- “इस बार दलित लेखक रूपनारायण सोनकर की आत्मकथा के वे अंग दिए जा रहे हैं, जहाँ हाय मार डाला के चीत्कार नहीं हैं मगर संघर्ष है कि दैनिक जीवन के
साथ जुड़ा है। सोनकर की आत्मकथा उस परिवर्तन का हिस्सा है, जिसे अंग्रेजी में
‘साइलेंट रेवोल्यूशन’ कहा जाता है”। (‘हंस’ सितम्बर
2006 पृ. 4) हिंदी में यह पहली आत्मकथा है, जिसमें सिर्फ
सोनकर के साथ हुए अन्याय, अत्याचार का रोना नहीं है। इसमें पूरे दलित समाज की पीड़ा
को अभिव्यक्ति करने का प्रयास किया गया है।
‘हंस’
में प्रकाशित प्रत्येक आत्मकथा में दलित समाज के संघर्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई
है।
हिंदी
दलित साहित्य के विकास में ‘हंस’ यें प्रकाशित दलित कहानियों का महत्वपूर्ण योगदान
रहा है। इसकी शुरुआत हिंदी साहित्य के आठवें दशक में उभरे सामान्तर कहानी आन्दोलन
से माना जा सकता है। ‘हंस’ में छपी दलित कहानियों में लगभग दलित समाज का संघर्ष
देखने को मिलता है। ‘हंस’ में छपी कहानियां दलित समाज से जुड़ी सच्चाई को उकेरती
हैं। ‘हंस’ 2001 के अंक में मराठी लेखिका उर्मिला पवार,
मराठी लेखक बाबूराव बागूल एवं हिंदी लेखक हरि भटनागर की कहानियां विशेष रूप से
उल्लेखनीय रहीं। इन तीनों कहानीकारों ने दलित स्त्री की समस्याओं की तहें खोलने का
प्रयास किया है, और साथ ही उसके स्वाभिमान को भी उजागर किया है। 2002 के फरवरी अंक
में हरीभटनागर की कहानी ‘बदबू’
दलितों में खासकर युवाओं में सवर्णों के प्रति प्रतिरोध की भावना को रेखांकित करती
है। ‘पुनर्जन्म’ शरण कुमार लिम्बाले की कहानी दलित साहित्य के अबतक के सफ़र को
वर्णित करती है। ‘हंस’ के पाठक अरुण अभिषेक
पूर्णिया से लिखते है- “कहानी ‘पुनर्जन्म’ दलित विमर्श की कहानी है देखो
देखो, दलित किस मुस्तैदी से आगे बढ़ रहे हैं,
कहाँ से कहाँ पहुँच गये,
तुम सवर्ण ऐसे क्यों नहीं बनते,
बस जनेऊ तोड़ डालो। हो गये उनकी जमात में। क्या यह मौजू पहल है कथाकार महोदय। क्या
समाज की विसंगतियां इसी तरह दूर होगीं? व्यवस्था और राजनीति की जड़ पकड़े बिना क्या
सवर्ण मानसिकता खत्म हो सकती है?”
(हंस,
जुलाई 2002, पृ. 13) दिसम्बर 2002 में
सूरजपाल चौहान की ‘अहल्या’
कहानी पुनर्जन्म का प्रतिउत्तर कही जा सकती है। 2003
के ‘हंस’ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित संजीव और प्रहलादचंद दस की कहानियां दलित
वर्ग के लोगों का एक और सच सामने रखती हैं। वह सच है आर्थिक मजबूती होने पर
ब्राह्मणवाद को अपनाना और अपनी ही जाति और वर्ग के लोगों का शोषण करना यानि दलितों
में मनुवाद का स्थापित होना। संजीव की कहानी ‘योद्धा’ और प्रह्लादचंद दस की कहानी
‘गलत हिसाब’ दोनों में यह सच देखने को
मिलती है। दिसम्बर 2003 के ‘हंस’ में छपी युवा दलित लेखक अजय नावरिया की कहानी ‘एस
धम्म संन्तानों’ शहरी दलितों के अनुभवों और उनकी प्रगतिशीलता को रेखांकित करती है।
यह कहानी उन सच्ची घटनाओं पर आधारित है,
जिसमें दलित सवर्णों के जुल्म से तंग आकर गाँव से शहर की ओर पलायन कर जाता है।
चंद्रकिशोर जायसवाल की कहानी ‘डोम पहलवान’
जुलाई 2004 में प्रकाशित हुई इसमें सामाजिक दुर्व्यवहार के खिलाफ लड़ने वाली कहानी है।
आज के दलित समाज में ‘डोम पहलवान’ जैसे
लोगों की जरुरत है। दलित साहित्य की ऐसी कहानियां परिवर्तित जनचेतना का
प्रतिनिधित्व करती है। इसी अंक में छपी रत्नकुमार संभारिया की कहानी ‘चमरवा’
जातिप्रथा के घिनौना रूप को दर्शाती है।
इस कहानी में ‘चमरवा बाभन’ में
जाति व्यवस्था की अमानवीयता और घृणित पक्ष की अभिव्यक्ति है। यहाँ पर एक पाठक
हरेराम सिंह की यह प्रतिक्रिया सटीक जान पड़ती है- “आज के समाज में ‘डोम पहलवान’
की तरह के व्यक्ति की जरुरत है चमरवा बाभन की तरह नहीं।” (हंस,
जुलाई 2004, पृ.77).
‘हंस’
अगस्त 2004 का अंक ‘सत्ता विमर्श और दलित’
के नाम से दलित विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ। यह स्वानुभूति,
वैचारिकी, कहानियों,
कविताओं, साक्षात्कार का बेजोड़ संयोजन
है। इस अंक में बीस कहानियां संकलित है। ओम प्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘चिड़ीमार’
सवर्ण समाज के एक घिनौने सच को दर्शाती है। वैसे भले ही सवर्ण दलितों के साथ
भेदभाव रखते हैं, परन्तु दलितों की
सुन्दर लड़की को देखते ही लार टपकाने लगते हैं। इस कहानी में इसी को दिखाया गया है।
‘दिवंगत’ कहानी के माध्यम से राजेन्द्र
यादव यह विचार रखते है कि आरक्षण के आधार पर चयनित लोगों की योग्यता पर संदेह
प्रकट किया जाता है, परन्तु जो सवर्ण घूस
और सिफारिश के बल पर नियुक्त होते है उन पर कोई उंगली क्यों नहीं उठता?
इस
अंक में प्रहलद चंद दस की ‘अब का समय’, जय
प्रकाश कर्दम की कहानी ‘लाठी’ का
प्रसंग, कंचनलता की कहानी ‘बाप’, राजेन्द्र
कुमार की कहानी ‘ सत्तूमघैया’,
अनीता रश्मि की ‘मिरग-मरीचा’
कहानी, रजतरानी की ‘मीनू’, राम
निहोर विमल की ‘दस्यु’ का प्रसंग, मुशर्रफ़
अली का कहानी ‘पिघलता हुआ शीशा’, शिव
कुमार की ‘रात’, अजय नावरिया की ‘उपमहाद्वीप’, सरिता भारत की कहानी ‘मैं मइया थी’
आदि कहानी प्रकाशित हुई जो दलित साहित्य के विकास में सहायक हुई।
‘हंस’
के फरवरी 2005 के अंक में छपी वेणुगोपाल की कहानी ‘अंताक्षरी’
दलित साहित्य में उपजे व्यक्तिवाद को रेखांकित करती है। सितम्बर 2005 के में अंशू
मालवीय की कहानी ‘14 अप्रैल’
जातिवाद एवं छुआछूत को लेकर गैर दलितों की पीढ़ी दर पीढ़ी में हो रहे परिवर्तन को
रेखांकित करती है। अजय नावरिया की ‘चीख’, ओम
प्रकाश वाल्मीकि की ‘रिहाई’,
प्राइवेट वार्ड’, अनिल चमड़िया की ‘जो हत्यारा नहीं था’, 2007 के
अंक में उर्मिला पवार की चौथी दिवार’, अजय
नावरिया की ‘चियर्स’ दिसम्बर 2007 में
बौद्ध शरण ‘हंस’ की ‘कामरेड’ और
टेकचंद को ‘अम्बेडकर जयंती’ प्रकाशित
हुई। ‘हंस’ अक्टूबर 2008 में सुशीला टाकभौरे की कहानी ‘बदला’
में दलितों में आयी चेतना को रेखांकित करती है।
‘हंस’
में छपी दलित साहित्य की कहानियां दलित समाज की अलग अलग परिशिष्ट से ली गयी हैं।
‘हंस’ ने कहानियों के माध्यम से कई
नए दलित कहानीकारों को प्रतिष्ठित किया है। ‘हंस’
के पाठक मास्टर सूरजदीन ने लिखा है- “‘हंस’ एक विश्वविद्यालय है जिसमें
राजेन्द्र यादव वाइसचांसलर हैं। रूप नारायण सोनकर,
अजय नावरिया व शैलेन्द्र सागर जैसे साहित्यकार पैदा हो रहे हैं।”
(हंस, दिसम्बर 2004, पृ. 4)
‘हंस’
ने जिस तरह से दलित कविताओं,
आत्मकथाओं, कहानियों को छापकर हिंदी
साहित्य को जन जन तक पहुँचाया है, उसी
तरह दलित साहित्य के वैचारिक लेखों को छापकर दलित सोच,
उसमें हो रहे परिवर्तन को भी रेखांकित किया है। दलित साहित्य प्रारंभ से ही
विवादों के घेरे में रहा है। इसकी स्वतंत्र अस्मिता प्रश्नों के कटघरे से दो चार होती रहती है। ‘हंस’ ने समय
समय पर लेखों, बहसों के माध्यम से सुलझाने
की कोशिश की है। ‘हंस’ जनवरी 2001 में प्रकाशित लेख ‘हिंदी उपन्यास: दलित विमर्श
का पुराख्यान’ में तेजसिंह ने दलित विमर्श और दलित चेतना के अंतर को स्पष्ट किया
है। इस लेख के आधार पर कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य गैर दलितों की वर्चस्वशाली
संस्कृति से लबरेज है। दलित साहित्य इसी वर्चस्वशाली संस्कृति के विरुद्ध आम आदमी
की चीख है जो निरंतर अपने परिष्कार से क्रांति का रूप ले रही है। ‘दलित साहित्य का
सृजन उतरदायित्व किसका है’ नामक
लेख जो 2001 अप्रैल में प्रकाशित हुआ उसमें बंशीधर त्रिपाठी मूल बात यही स्वीकारते
हैं कि दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य कहा जा सकता है,
क्योंकि
दलितों की अनुभूति ज्यादा प्रमाणिक है। परन्तु वे यह भी स्वीकारते हैं कि दलित
साहित्य में अनुभूति की पूँजी होने के बावजूद अब भी उसमें कच्चापन दिखाई देता है।
रुद्रकांत अमर का लेख ‘बेदों के विरुद्ध उपनिषद’
में उपनिषदों को वेदांत न मानकर वेदों के विरोध में खड़ा एक ऐसा दर्शन मन गया है
जिसमें वैदिक कुरीतियों पर प्रहार किया है। ब्रजरंजन मणि का लेख ‘ब्राह्मणवादी
राष्ट्रीयता और फासीवाद’ भी ‘हंस’ पत्रिका में छपा। ‘हंस’ने चालीस साल पहले 1962
में कल्पना में छपे ओमप्रकाश दीपक के लेख ‘जाति व्यवस्था और साहित्य’
को अप्रैल 2001 के अंक में पुनः प्रकाशित कर दलित साहित्य को और समृद्ध बनाया है। आश्चर्य
है कि जब दलित साहित्य अस्तित्व में भी नहीं आया था उस समय एक सवर्ण लेखक ने
दलितों की आवाज़ को उठाने की ईमानदार कोशिश की है। इसके बारे में वीरभारत तलवार ने
लिखा है कि – “चालीस साल पहले 1962 में कल्पना में ( हैदराबाद) में छपा ओम
प्रकाश दीपक का यह लेख ऐतिहासिक महत्व का है। उस जमाने में हिंदी में दलित साहित्य
का कोई आन्दोलन नहीं था और न हिंदी प्रदेश में दलितों की कोई अलग प्रभावशाली
राजनीति थी,
जैसी आज बहुजन पार्टी है।” (हंस, अप्रैल 2002,
पृ. 29) ऐसे में एक सवर्ण लेखक द्वारा जातिवाद व्यवस्था पर खुलकर लिखना समन्वयवादी
विचारधारा को बढ़ावा देता है। तेजसिंह के ‘दलित धर्म और दर्शन’
नामक
लेख में डॉ. धर्मवीर व जय प्रकाश कर्दम के विचारों की पड़ताल की गयी है। अशोक भारती
के लेख ‘शहीद भगत सिंह और दलित’ में
दलितों के प्रति भगत सिंह के विचारों को रेखांकित किया गया है। मार्च 2003 के लेख
‘दलित साहित्य: पहचान और पूर्वानुमान’ में सुरेन्द्र ‘अज्ञात’
ने दलित साहित्य की वैचारिकी और उद्देश्य को बड़े ही सारगर्भित रूप में प्रस्तुत
किया है। जुलाई 2003 में वीरभारत तलवार का लेख ‘दलित अंग्रेज और हिंदी’
प्रकाशित हुआ। नवम्बर 2003 के अंक में छपे लेख ‘बैंकूवर में दलित सम्मलेन’ में
श्यौराज सिंह ‘बैचैन’ बताते है कि भारतीय
दलितों की स्थिति में अब तक कोई सुधार नहीं हुआ है,
जबकि जो दलित विदेशों में जा बसे हैं,
उन्होंने अपनी दशा में गज़ब का सुधार किया है। 2004 अगस्त में डॉ. तुलसीराम का
बौद्ध धर्म तथा वर्ण व्यवस्था’ छपा है। चन्द्रभान प्रसाद के लेख ‘बौद्धिकता के
अंकुर अभिजात वर्ग से’ प्रकाशित हुआ।
यह देखें-
हंस पत्रिका के दलित विशेषांक 2004 और 2019 अब पुस्तकाकार रूप में उपलब्ध है। दोनो विशेषांक दो-दो में विभाजित है। पुस्तक खरीदने हेतु कवर पर क्लिक करें-
2005 अगस्त-सितम्बर
के दोनों अंक ‘नैतिकता का टकराव’ नाम
से प्रकाशित हुए। ‘बौद्ध धम्म में नैतिकता’
लेख में लेखक आनंद श्रीकृष्ण बौद्ध धम्म की नैतिकता के बारे में बताते हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ‘दलित नैतिकता बनाम वर्चस्ववादी’ लेख लिखा है। 2008 के अंक में मनोज कुमार
श्रीवास्तव अपने लेख ‘संत कवि रैदास और घेरने की बाजीगरी’
में डॉ. धर्मवीर की पुस्तक संत रैदास का निवर्ण सम्प्रदाय’
की समीक्षा की है। इन लेखों के माध्यम से हिंदी दलित साहित्य में सहानुभूति,
ब्राह्मणवादी बनाम श्रमणवादी संस्कृति, दलित
धर्म और दर्शन को रेखांकित किया गया है।
‘हंस’ पत्रिका ने अपने हर
कालम में हिंदी दलित साहित्य को बखूबी उभारा है। दलित साहित्य में वैचारिकी विकास
में, विषय सूची के संपादकीय कालम- ‘मेरी तेरी उसकी बात’, ‘बीच बहस में’ के माध्यम
से देखने की कोशिश की जा रही है सर्वप्रथम ‘मेरी तेरी उसकी बात’
नामक ‘कालम’ में राजेन्द्र यादव की
संपादकीय का हिंदी दलित साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। यह ‘हंस’ की
वैचारिक धारा है जो पाठक को भीतर से झकझोरती है जो पाठक इससे सहमत नहीं होते,
वे तो तिलमिला उठते हैं,
लेकिन जो इस धारा को आत्मसात करते हैं, उन्हें एक नई ऊर्जा मिलती है। अतएव किसी भी
पत्रिका की नींव संपादक द्वारा तैयार की जाती है। संपादक के महत्वपूर्ण योगदान के
लिए दलित लेखक श्यौराज सिंह बैचैन ने लिखा है- “जनचेतना की मासिक पत्रिका ‘हंस’
1990 के बाद वास्तव में. या कहें वस्तु में लोकतांत्रिक हो रही है। संपादक
राजेन्द्र यादव की एक माह की अस्वस्थता ने यथास्थितिवादी सामग्री पर आधारित ‘हंस’ के
दो अंक निकले गये। अतिथि संपादक ने तो हद ही कर दी। असल में जब आप समझते ही नहीं
हैं इस दलित रचनात्मकता की गंभीरता को तो क्यों टांग अड़ाते हैं। दलित साहित्य
प्रक्रिया में?......
खैर अंदाज़ यह लगाया जाना चाहिए कि यादव जी सक्षम कलाम के बाद उनकी अनुपस्थिति में ‘हंस’
कैसा होगा?”
(समकालीन हिंदी पत्रकारिता में दलित उचाव,
पृ. 157) अतएव ‘हंस’ के प्रगतिशीलता कुछ हद तक राजेन्द्र यादव के प्रगतिशील
विचारों पर निर्भर है।
‘बीच
बहस में’ कालम के जरिए ‘हंस’ ने दलित साहित्य के उन प्रश्नों को सुलझाने की जो
कोशिश की जो प्रश्न दलितों में आज भी मौजूद है। उदाहरणस्वरुप,
जातिवाद के नाम पर प्रेमी जोड़े की हत्या, दलित
साहित्य का मुख्यधारा में प्रवेश वर्जित,
शिक्षा आदि में वर्चस्वशाली मानसिकता बदलने का प्रयास ‘हंस’ पत्रिका ने किया है।
‘हंस’
पत्रिका अगस्त 1986 से लगातार बहस के केंद्र में है। इसमें साहित्यिक समस्याओं के
सार्थ साथ सामाजिक, राजनीतिक,
सांस्कृतिक समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया गया है। ‘हंस’ में दलित साहित्य पर
छापी गयी रचनाएँ समाज, राजनीति,
संस्कृति आदि में व्याप्त घोर अपमान अराजकता एवं वर्चस्व की काली तस्वीर खींचने के
उपरांत इससे मुक्ति की संभावनाओं को भी तलाशा गया है। समाज के हाशिये पर रह रहे
दलितों को ‘हंस’ ने एक नई राह दिखाई,
प्रत्येक कालम में दलितों को बाखूबी उभारा है। चाहे वह आत्मकथा हो,
कविता हो, कहानी हो,
अथवा लेख हों। दलित समाज के सकारात्मक परिवर्तन में स्त्रियों, पिछड़ों
अल्पसंख्यकों को भी शामिल किया है और उनके राजनीतिक,
सामाजिक एवं सांस्कृतिक आकांक्षाओं को नयी दृष्टि दी है। घनघोर आलोचनाओं एवं
विरोधों के उपरांत भी ‘हंस’ ने इस कोशिश को छोड़ा नहीं है। ‘हंस’ की यही कोशिश
हिंदी साहित्य में उभरे अनेक मतभेदों के बावजूद उसे विस्तृत फलक पर ले जाती है।
संदर्भ सूची :-
आधार
ग्रन्थ :-
1. राजेन्द्र
यादव (संपादक) : ‘हंस’ पत्रिका
(2001- 2008): अक्षर प्रकाशन,
दरियागंज, नई दिल्ली
संदर्भ
ग्रन्थ:-
1. ओमप्रकाश
वाल्मीकि: दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2001
2. कंवल
भारती : दलित विमर्श की भूमिका इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहबाद, प्रथम संस्करण-2002
3. कंवल
भारती : दलित साहित्य की अवधारणा बोधिसत्व प्रकाशन, रामपुर, यू. पी. प्रथम संस्करण-2002
4. जय
प्रकाश कर्दम: जाति: एक विमर्श मुहीम प्रकाशन
हापुड़, प्रथम
संस्करण- 1991
5. श्यौराज
सिंह बैचैन : समकालीन हिंदी पत्रकारिता में दलित उवाच. अनामिका प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम
संस्करण-2007
6. सुभाष
चन्द्र: दलित आत्मकथाएं अनुभव से चिंतित इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण- 2006
शोधार्थी
पीएच.डी.(हिंदी)
हैदराबाद
विश्वविद्यालय
Contact:
8802386008
[साभार:जनकृति में प्रकाशित शोध आलेख]
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