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हिंदी आलेख- गांधी आज के संदर्भ में

निबंध :

गांधी से अनुबंध यानी गांधी आज के संदर्भ में

शहंशाह आलम        

गांधी मेरे सपनों में अनेक बार आते रहे हैं। गांधी बीता हुआ कल नहीं हैं बल्कि गांधी आज हैं, वर्तमान हैं, सामयिक हैं, तभी तो मेरे सपनों में आते रहते हैं।

     मेरे सपनों में गांधी का आना बस सपने में किसी का आ जाना भर कभी नहीं रहा। मैं जब-जब संकट के चरम पर रहा, गांधी मेरे सपने में आए। संकट भी कैसे — जब आपको लगता है कि आप सपनों को मारने वालों के ख़िलाफ़ विद्रोह करेंगे और मार डाले जाएँगे। यह मार डाला जाना सबसे ख़तरनाक क्रिया है। इस क्रिया का सीधा संबंध जब सीधे आपसे जुड़ जाता है, तब आप यही सोचते हैं कि आप ख़ुद को मारने वाले को मार डालेंगे। और यह जायज़ भी है। लेकिन गांधी मेरे सपने में आकर कहते हैं, ‘कि नहीं, किसी को मारना कभी जायज़ हो ही नहीं सकता।’ कोई आपकी हत्या के लिए आया है और आपके हाथों वही हत्यारा मारा जाता है, तो हत्यारे को मार डालना ग़ैरमुनासिब नहीं कहा जाएगा। लेकिन गांधी के अनुबंध की दृष्टि से देखें, तो यह बात भी अनुचित है कि किसी वजह से किसी की हत्या हो। गांधी हमेशा जीवन के पक्ष में रहते जो थे। और इंसाफ़ के पक्ष में रहते थे। और इंसाफ़ उनका ऐसा था कि हत्यारे तक से हिंसा को छोड़ देने का आह्वान करते थे।

     आज गांधी के जीवन के पक्ष में रहने वाले विचारों के विरुद्ध बहुत सारे लोग खड़े दिखाई देते हैं। ऐसा है, तभी न कोई भीड़ आती है और किसी को भी मारकर फिर वापस वहीं लौट जाती है, जहाँ भीड़ को हत्या करने की बाज़ाब्ता ट्रेनिंग दी जाती है। आज ऐसी घटनाएँ लगातार घट रही हैं। यानी ऐसी हत्याएँ अपने देश में लगातार हो रही हैं। गांधी ऐसी निर्मम घटनाओं के साथ कभी खड़े दिखाई नहीं देते -– न तब, जब उन्हें ट्रेन से धक्का देकर बाहर फैंका गया। न तब, जब उन्हें लोक-कल्याण के कार्यों से रोकने का प्रयास किया गया। न तब, जब आज़ादी के बाद मार-काट मची थी। न तब, जब उनके समय में दंगे हुए। और न अब, जब देश में इतने सारे नामुनासिब काम हो रहे हैं। गांधी ऐसा इसलिए करते रहे, क्योंकि उनके सपनों का भारत एक सर्वोदयी भारत था, जिसमें सभी लोगों का उदय, उन्नति और उत्थान होना था।


     गांधी मेरे सपनों में आकर यही सब तो बतियाते रहे हैं कि उनके सपनों का भारत ऐसा कभी नहीं था, जैसा अब है। जैसा आज है। अपने गांधी मुझको यह भी बताते रहे हैं कि अपने भारत का यथार्थ यही तो है कि गांधी को बार-बार मारो। गांधी की हत्या बार-बार करो। यानी गांधी का किया-धरा, गांधी का लिखा-पढ़ा, गांधी का हँसा-हँसाया, सब मिटा दो। सब ख़त्म कर दो। सबकुछ को चलता कर दो। स्थापित करो तो बस उन्हें, जो हत्यारे हैं, जो उन्मादी हैं, जो आयुध के ख़रीददार हैं। जो सिर्फ़ ढहाने का काम जानते हैं।

     यह ढहाए जाने का कार्य कोई नया कार्य नहीं हैं।

     गांधी की प्रार्थना-सभाओं में हर तरह के लोगबाग आया करते थे। भले भी और कुछ कम भले भी (प्रार्थना-प्रवचन, प्रकाशक : सस्ता साहित्य मण्डल, वर्ष : 1948, पहला संस्करण, खण्ड : प्रथम)। इस पुस्तक का आरंभ ही कुछ कम भले लोगों से हुआ है, ‘वायसराय-भवन से देर से लौटने के कारण कल गांधीजी शाम की प्रार्थना में शामिल नहीं हो सके थे। आज एशियाई सम्मेलन से समय पर लौटे और प्रार्थना ठीक समय पर आरंभ हुई, लेकिन क़ुरान की आयत शुरू होते ही कुछ शोर हुआ और प्रार्थना रोकनी पड़ी। इससे पहले प्रार्थनाओं में ऐसा कभी नहीं हुआ (वही, पृष्ठ : 1)। यह घटना 1 अप्रैल, 1947 की है। देश में तोड़फोड़ का काम यहीं से शुरू हुआ मान लिया जाए, तो अनुचित न होगा। इस घटना ने गांधी को चौंका दिया था, जब उसने गांधीजी को चले जाने के लिए कहा तो गांधीजी ने उससे कहा, ‘आप जा सकते हैं। आपको प्रार्थना न करनी हो तो दूसरों को करने दें। यह जगह आपकी नहीं है। यह ठीक तरीक़ा नहीं है (वही, पृष्ठ : 2)।’

     दूसरों के धर्म को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखना, गांधी के समय में था, तो असम्मान की यह भावना आज भी कम नहीं हुई है। बल्कि बढ़ गई है। गांधी ने अपनी प्रार्थनासभा से उस तोड़फोड़ में विश्वास रखने वाले लड़के को चले जाने को कहा था। आज कोई इस तरह की असम्मान वाली बात करता है, तो उसको इसी बात के लिए सम्मानित किया जाता है। इससे सिद्ध यही होता है कि आज मूल्य बदल रहे हैं, मूल्य की दृष्टि बदल रही है, बोध बदल रहा है। यानी जो मानव-मूल्य हम सबमें हुआ करते थे, वे मूल्य हमारे अंदर से नष्ट होते चले जा रहे हैं। इसका अर्थ यह भी निकलता है कि गांधी के सारे असली कार्य अब भी अधूरे रह गए हैं। उनके कार्य अधूरे हैं, तभी गांधी की उपयोगिता आज भी बनी हुई है। गांधी प्रार्थना-प्रवचन में मानव-मूल्य की उपयोगिता के बचाव में वे स्पष्ट कहते दिखाई देते हैं, ‘यह आपने ठीक नहीं किया। उस लड़के को आपने ज़बरदस्ती से निकाल दिया। ऐसा नहीं करना चाहिए था। अब वह यही कहेगा कि मैंने विजय पाई है। वह ग़ुस्से में था। प्रार्थना नहीं सुनना चाहता था; पर मैं जानता हूँ कि आप सब तो प्रार्थना सुनना चाहते हैं। मैं किसी का विरोध करके प्रार्थना नहीं करना चाहता। अब आगे की प्रार्थना मैं छोड़ देना चाहता हूँ। जो प्रार्थना मैं करता हूँ वह आप सब जानते हैं। नोआख़ाली जाने से पहले भी आपने प्रार्थना सुनी है। उसमें इस मुसलमानी प्रार्थना के बाद पारसी प्रार्थना है। बाद में यह लड़की आपको मधुर भजन सुनाती और फिर रामधुन होती। मैं अब रामधुन भी छोड़ता हूँ, पारसी प्रार्थना भी छोड़ता हूँ (पृष्ठ : 2)।’

     गांधी उन सभी मानव-मूल्यों को बचाए रखने का नाम है, जिनसे मानव सचमुच का मानव बनता आया है। गांधी को ऐसे मूल्यों से अलग करके देखा नहीं जा सकता, जिन मूल्यों के बचे होने से देश बचता है। जिस दिन ऐसा हो जाएगा, समझिए भारत की सच्ची अस्मिता समाप्त हो जाएगी। कुछ लोग, जिनकी राजनीति ही विघटनकारी है, वे ऐसा ही चाहते हैं। वे देश को खंड-खंड करके देखने में माहिर हैं। वे गांधी को गांधी नहीं स्वीकारते। वे गांधी के सारे विचारों को अस्वीकार करते हैं। तब भी उनके लिए गांधी के विचारों को छिन्न-भिन्न करना इतना आसान नहीं है, जितना आसान वे समझते चले आ रहे हैं। जबकि गांधी सभी धर्मों का प्रेमपूर्वक आलिंगन चाहते रहे हैं। और जिनकी राजनीति विघटनकारी है, वे ख़ुद के अलावे किसी दूसरे के धर्म का सम्मान नहीं करते।

     अज्ञेय ने कहा है, ‘हमें यथार्थ की पहचान हो, हमें अस्मिता की पहचान हो और हम में मूल्य-बोध हो (अज्ञेय के उद्धरण, प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ : 46)।’ सच यही है कि आज हमसे यही सब ज़रूरी बातें छूटती चली जा रही हैं। न हमारे अंदर यथार्थ को पहचानने की शक्ति है, न हम अपनी अस्मिता को पहचानने की चेष्टा करते हैं और न हम में मूल्य-बोध दिखाई देता है। इसके प्रमाण इधर की मानव-विरोधी घटनाएँ हैं। हालत इतनी ख़राब है कि अब रोज़ कहीं-न-कहीं दंगे होते हैं। रोज़ कहीं-न-कहीं हत्याएँ होती हैं। रोज़ कहीं-न-कहीं बलात्कार होता है। रोज़ कहीं-न-कहीं आत्महत्याएँ होती हैं। रोज़ कहीं-न-कहीं संदेह और शंका में किसी-न-किसी की पिटाई होती है। क्या हिंसा ही गांधी का सपना था? नहीं था, लेकिन आज हिंसा ही सबको प्रिय है। कारण यही है कि हममें अब धीरज नहीं रह गया है। धीरज नहीं है, तभी हम भारतीय होते हुए पश्चिम वाला जीवन जीना चाहते हैं। आधुनिक होना और बात है। आधुनिक होने का यह अर्थ क़तई नहीं है कि सारे ठाठ, सारे साज़ो-सामाँ, सारे सुख हमको मिल जाएँ और बाक़ी बचे हुए लोगबाग अभावों में जीते रह जाएँ। हो मगर ऐसा ही रहा है -– पैसे वाले और अधिक पैसे इकट्ठे करने में लगे हैं। जो रुपए-पैसे वाले लोग हैं, उनको तो जाने दीजिए। राजनीति में अब जो लोग आते हैं, राजनीति में आते ही, चाहे वे सत्ता पक्ष के हों या विपक्ष के या निर्दलीय, वे ग़रीब से अमीर किस तरह हो जाते हैं। क्या राजनीति में भी मुनाफ़ा है? या सक्रिय राजनीति में आते ही इनका गठजोड़ बड़ी-बड़ी मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनियों, बड़ी-बड़ी मुनाफ़ा कमाने वाली फैक्टरियों, बड़ी-बड़ी मुनाफ़ा कमाने वाली शोषक-शक्तियों से हो जाता है? ऐसा है, तभी न मुनाफ़ा कमाने वाले ये लोग राजनीति को अपना तथाकथित संरक्षण प्रदान करते हैं। मेरा मानना है कि राजनीति की यह गंदगी गांधी से सच्ची मुहब्बत रखकर दूर की जा सकती है। गांधी कहते भी हैं, ‘भारत अपने मूल स्वरूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं (मेरे सपनों का भारत, प्रकाशक : नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, पृष्ठ : 3)।’

     प्रार्थना-प्रवचन में गांधी का जो आत्मबल प्रकट होता हुआ दिखाई देता है, गांधी का यह आत्मबल उन सभी मानव-जाति का अपना आत्मबल है, जो सभी धर्मों और सभी जातियों को साथ लेकर चलना चाहते हैं। जिनको गांधी के आत्मबल से घृणा है, ऐसे लोग गांधी के हर सपने को झूठा सपना बताते रहे हैं। और ये वे लोग हैं, जिन्हें सत्य का ज्ञान नहीं है और ज्ञान है भी, तो इस सत्य से मुँह मोड़ते रहे हैं।

     एक ऐसा भी समय था, जब जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ़ हिटलर की हिंसावादी नीतियों के विरुद्ध गांधी ने हिटलर को पत्र लिखकर उससे हिंसा छोड़ने की अपील की थी। हिटलर अपने अत्याचार को ही अपना आदर्श माना करता था। लेकिन गांधी ऐसे महामानव थे, जिस व्यक्ति की हिंसावादी नीति से घृणा की जानी चाहिए थी, एक ऐसे व्यक्ति को गांधी ने अपने पत्र में मित्र कहकर संबोधित किया। गांधी ने हिटलर 24 दिसंबर, 1940 को लिखा, ‘प्रिय मित्र, मैं आपको मित्र के रूप में संबोधित कर रहा हूँ, ये कोई औपचारिकता नहीं है। मेरा कोई शत्रु नहीं। पिछले तैंतीस बरस के दौरान मेरे जीवन का एक ही मक़सद रहा है कि जाति, नस्ल या रंगभेद पर ध्यान दिए बिना पूरी मानवता से मैत्री क़ायम करके अपने मित्रों की संख्या बढ़ाता चलूँ।’ गांधी की पूरी मानवता से मैत्री वाली बात अब समाप्त होती दिखाई देती है। गांधी ने हिटलर जैसे तानाशाह को मित्र संबोधित यही सोचकर किया होगा न कि उनके मित्र संबोधित करने से हिटलर के अंदर का हिटलर थोड़ा-सा नम्र, थोड़ा-सा विनम्र, थोड़ा-सा विनीत महसूस करेगा। आज हालत ऐसी है कि हम अपने किसी पड़ोसी मुल्क से अच्छा संबंध बनाए हुए नहीं रख सकते -– न पाकिस्तान से, न चीन से और न नेपाल से। असल में, अच्छे रिश्ते के लिए रिश्ते की जो शिष्टता है, सुशीलता है, शालीनता है, उसको निभाना होती है। अब हम किसी को मित्र बनाना ही नहीं चाहते। गांधी के विचारों से हम आज भी सीख लें, तो ऐसा नहीं है कि पड़ोसी मुल्कों से हमारे संबंध ठीक नहीं हो सकते। हम गांधी का दामन सच्चे मन से थामकर देखें तो। प्रतिक्रियावादी होकर कोई कुछ भी ठीक नहीं कर सकता है। हाँ, युद्ध और उन्माद ज़रूर पैदा कर सकता है। और गांधी ऐसा कभी नहीं चाहते थे। गांधी प्रार्थना-प्रवचन में यही सबकुछ समझाते दिखाई देते हैं, ‘बिहार ऐसा सूबा है, जहाँ हिंदू-मुसलमान एक साथ मिलकर रह सकते हैं। वहाँ भी औरतों-बच्चों पर कम अत्याचार नहीं हुआ। क्रोध में भरकर लोगों ने मासूम बच्चों को मार डाला और औरतों को मारकर कुओं में डाल दिया। यह मैं हवाई बातें नहीं करता; ये सब सिद्ध हो सकने वाली बातें हैं। तब मुसलमान ज़रूर कहेंगे हम यहाँ नहीं रहने वाले हैं; परंतु जब उनको यह भरोसा हो जाए कि अब हमारे साथ दुबारा ऐसा बर्ताव नहीं होगा तो वे लौटकर आ जावेंगे (पृष्ठ : 5)।’

     गांधी का हर अनुबंध अहिंसा से था। यह सच है, हिंसा ने पूरे समाज को नुक़सान के अलावा कुछ भी नहीं दिया है। आज़ादी के बाद से अब तक देश भर में जितने दंगे हुए, आप आँकड़े उठाकर देख लीजिए न, कितनों की जानें गई हैं। कुछ प्रतिक्रियावादियों की राय कुएँ में बाँस डालकर बस इतनी भर निकलती रहती है कि जानें किनकी ज़्यादा गईं, हिंदुओं की अथवा मुसलमानों की या किन्हीं दूसरे धर्मों के लोगों की। उनको इस बात से संतुष्टि मिलती रही है कि हमारे दस मरे तो उनके सौ। यह हिंसा का कैसा हिसाब है? ऐसे लोगों की मान्यता यही है कि जानें हर हाल में जाती रहनी चाहिए। इस संबंध में मेरा साफ़ मानना है कि अहिंसा भी और हिंसा भी, दोनों समाज से ही निकलती है। हिंसा वाला समाज और अहिंसा वाला समाज, दोनों समाज बनाते भी तो हमीं हैं। अगर हमीं यह सब करने वाले हैं, तो हम अहिंसा छोड़ क्यों नहीं देते? क्यों हम रात-दिन इसी चिंता में घुले जाते हैं कि अब किसको मारें और कौन-से तरीक़े से मारें? आदमियों को मारने के कई नए-नायाब तरीक़े निकाले भी गए हैं। आदमियों को मारने के तरीक़े आज ख़ूब उपयोग में भी हैं। जब तक मारे जाने वालों की संख्या एक साथ नहीं गिनी जाएगी, तब तक हम ऐसे बेजा काम करते रहेंगे और ऐसे बेजा काम करके हम इस बात के लिए अपनी पीठ ख़ुद थपथपाते रहेंगे कि उनके सौ मरे और हमारे बस दस गए। गांधी भी तो इन्हीं बातों पर अपनी चिंताएँ व्यक्त करते रहते थे, ‘यदि भारत तलवार की नीति अपनाए, तो वह क्षणस्थायी विजय पा सकता है। लेकिन तब भारत मेरे लिए गर्व का विषय नहीं रहेगा। मैं भारत की भक्ति करता हूँ, क्योंकि मेरे पास जो कुछ है, वह सब उसी का दिया हुआ है। मेरा पूरा विश्वास है कि उसके पास सारी दुनिया के लिए एक संदेश है। उसे यूरोप का अंधानुकरण नहीं करना है। भारत के द्वारा तलवार का स्वीकार मेरी कसौटी की घड़ी होगी। मैं आशा करता हूँ कि उस कसौटी पर खरा उतरूँगा। मेरा धर्म भौगोलिक सीमाओं से मर्यादित नहीं है। यदि उसमें मेरा जीवंत विश्वास है, तो वह मेरे भारत-प्रेम का भी अतिक्रमण कर जाएगा। मेरा जीवन अहिंसा-धर्म के पालन द्वारा भारत की सेवा के लिए समर्पित है (मेरे सपनों का भारत, पृष्ठ : 4)।’

     गांधी की विशेषताओं से हम जितना मुँह मोड़ेंगे, हम अपने भारत की जनता को उतना अधिक संकट में डालेंगे। लेकिन इस बात की चिंता न करते हुए आज हो यह रहा है कि एक वर्ग ऐसा भी है, जो गांधी के विचारों को नहीं, गांधी के हत्यारे गोडसे के विचारों को भारत में स्थापित करने में लगा है। अब क्या शहर और क्या देहात, हर जगह गोडसे की हिंसा देखने को मिल रही है। इस हिंसा की शक्ल ज़्यादा डरावनी है। गोडसे ने तो एक गांधी की हत्या की थी। गोडसे भक्त रोज़ किसी-न-किसी की हत्या करते हैं और इसके एवज़ में सम्मान-पुरस्कार पाते हैं। ऐसे लोग अब शहर और देहात से निकलकर भारत की विधायिका यानी विधान परिषद, विधान सभा, राज्य सभा और लोक सभा तक पहुँच गए हैं। वे मीडिया में भी हैं, फ़िल्म में भी हैं, साहित्य में भी हैं, पत्रकारिता में भी हैं। ऐसे लोग वामधारा में भी छिपकर रह रहे हैं। इतना ही नहीं, गोडसे के नाम पर की जाने वाली हत्याओं के हत्यारों को जेलों से वे देशभक्त कहकर छुड़वा भी रहे हैं। यह दुखद है। देश के हालात ऐसे किए जा रहे हैं कि अब गांधी के विचारों के मानने वालों को एक लड़ाई ऐसे लोगों से भी लड़ने की तैयारी करनी होगी, जो देश में अहिंसा को ही अपना परमकर्तव्य, परमधर्म, परमविचार मान रहे हैं। और यह लड़ाई तलवार से नहीं, बल्कि गांधी के विचारों की तेज़ धार से, लड़ी जानी चाहिए। और ऐसा करने से ही गांधी की सार्थकता हमेशा बनी रहेगी।

     क्या आपको अजीब बात नहीं लगती कि गांधी इन दिनों मेरे सपने में आते हैं, तो युद्ध पर ज़्यादा बात करते हैं। युद्ध को लेकर अधिक दुःख जताते हैं। गांधी ऐसा क्यों कर रहे हैं? मैं सोकर उठता हूँ, तो नहाने-धोने से लेकर दफ़्तर जाने तक यही सोचता हूँ। जो गांधी हिंसा के विरुद्ध हैं, ऊँच-नीच के विरुद्ध हैं। जो गांधी ग़रीबी के विरुद्ध हैं। जो गांधी अमन की इज़्ज़त करते हैं, वही गांधी युद्ध को लेकर क्यों चिंतित दिखाई देते हैं … क्या युद्ध फिर से होने वाला है? युद्ध तो दुनिया में रोज़ कहीं-न-कहीं होते रहते हैं। लेकिन गांधी के चेहरे पर दुनिया भर में होने वाले युद्ध को लेकर चिंताएँ दिखाई नहीं देतीं। गांधी के माथे पर चिंता की ये रखाएँ अपने भारत में होने वाले युद्ध को लेकर मेरी समझ से हैं। तो क्या दुनिया एक और युद्ध की विभीषिका से गुज़रने वाली है? और क्या गांधी से जो भारत का हमेशा शांति बनाए रखने की संधि है, क्या यह संधि भारत तोड़ देगा? क्या युद्ध रोके नहीं जा सकते? यह मैं नहीं, गांधी पूछते हैं मुझसे। गांधी यह सब मुझी से क्यों पूछते हैं — न मैं सत्ता के शीर्ष पर बैठा हुआ कोई सत्ताधीश हूँ, न मैं अपने देश का वज़ीरे दाख़िला हूँ और न मैं अपने देश का सेनापति हूँ। फिर गांधी मुझी से युद्ध को लेकर चिंता क्यों व्यक्त करते हैं, वह भी भारी मन से? मैं तो बस अपने भारत का एक नागरिक हूँ, तो क्या गांधी को अपने देश के शीर्ष पर बैठे हुए सत्ताधीशों पर भरोसा नहीं है? भरोसा हो भी कैसे, अब सत्ताधीश ही तो युद्ध लादते हैं, उन्माद लादते हैं, हिंसा लादते हैं। पाब्लो नेरूदा की एक कविता है वियतनाम में। गांधी से सपने में बातचीत के बाद मुझे नेरूदा की यह कविता शिद्दत से याद आती है। शायद इसकी एक ही वाजिब वजह है कि नेरूदा की इस कविता में मुझे गांधी के देखे सपने दिखाई देते हैं। और युद्ध को लेकर गांधी की फ़िक्र भी दिखाई देती है। और अकसर इस कविता को पढ़ते हुए मुझे गांधी के वक्तव्य याद भी आते हैं, ‘और युद्ध किसने बनाया / यह पिछले से / पिछले दिनों तक का / युद्ध / मैं डरता हूँ / दीवार पर पत्थर की / चोट जैसा युद्ध / मरते पहाड़ / की तरह / बिजली और ख़ून / की तरह / यह दुनिया है जो मैंने नहीं बनाई / तुमने भी नहीं / उन्होंने बनाया युद्ध / कौन काँपती अंगुलियों से / धमकाता है / यह वंचना भी / जन्म के विरुद्ध / कौन मारता है / सद्य: जनमे हुए को / साइकिल सवार को डर है / वास्तुविद को भी / माँ बच्चे के साथ / और स्तनों के साथ / कीचड़ में पनाह पाती है / माँ गुफ़ा में पाती है पनाह / और अचानक युद्ध शुरू हो जाता है / लम्बा युद्ध / आग से भरा / मृत्यु से भरा / माँ दूध और बच्चे के साथ / मर चुकी है / कीचड़ में मौत / तब से अब तक का दारुण दुःख।’

     सवाल यह है कि हम हिंसा को किस तरह से रोकें, क्योंकि हिंसा करने वाले ख़ुद को क्रांतिकारी मानते हैं। उनकी हिंसा से कितनों को दुःख पहुँचता होगा, उन्हें किन्हीं के दुःख से कोई लेना-देना नहीं है, उन्हें तो बस हिंसा करनी है। जब हिंसा को कोई क्रांति मानने लगे, तो हिंसा को रोकने के क्या उपाय हैं — कोई तो नहीं। जिस तरह आतंकवादियों का मानना है कि वे आतंकवादी नहीं, जेहादी हैं। तो आतंकवाद भी इसीलिए नहीं रुक रहा। ‘क्रांति’ और ‘जेहाद’ के सही मर्म को समझना होगा कि असल में क्रांति क्या है और असल में जेहाद क्या है, यही वे नहीं समझते और समझना भी नहीं चाहते। वे समझ लेंगे, तो हिंसा करना ख़ुद छोड़ देंगे। हिंसा रुक नहीं रही, तो इसका अर्थ यही है कि अहिंसा बहुतों को स्वीकार नहीं है। गांधी को प्रार्थना या प्रवचन करने से भी बहुत सारे लोग इसी वास्ते रोका करते थे कि उनके इस प्रयास से देश में एका की भावना पैदा होती थी। और जिन्हें एका की यह भावना पसंद नहीं थी, वे गांधी के हर अच्छे कार्य में अवरोध डालते थे। गांधी मगर अपने अच्छे मार्ग से कहाँ हटने वाले थे, ‘मैं आज भी पूछूँगा कि प्रार्थना करूँ या न करूँ? पर यह पूछने से पहले मैं एक बात और पूछूँगा कि आप कल की मेरी बात समझे हैं या नहीं? अगर आप समझे हैं, तो आपको पता लग गया होगा कि मैंने प्रार्थना क्यों रोक दी। अगर कोई कहे कि आप प्रार्थना करें या न करें, तो क़ुरान की न करें, तो क्या मैं अपनी जीभ कटवाकर प्रार्थना करूँगा? मेरा सिर भले चला जाए, पर मैं प्रार्थना छोड़ने वाला नहीं हूँ। जो इस तरह प्रार्थना रोकते हैं वे हिंदू धर्म को बढ़ाते नहीं, काटते हैं। ऐसा करने वाले कल दो-तीन ही थे, आज ज़्यादा हैं।

     आज जो बात मैंने सुनी वह मुझे खटक रही है — मैं चाहता हूँ वह बात सही नहीं हो — वह यह कि वे जो अड़चन डालने वाले लोग हैं वे एक बड़े संघ के हैं। परंतु जो लोग रोज़ सबेरे यहाँ क़वायद-व्यायाम करते हैं और जो उनके मेम्बर हैं वे मुझसे मुहब्बत रखते हैं। अगर वे सब मुझे यहाँ रहने नहीं देना चाहते तो मेरा रहना फ़िज़ूल हो जाता। मुझे यहाँ रहना ही नहीं चाहिए, लेकिन उनके नेता से मेरी बात हुई । उन्होंने ने कहा कि हम किसी का कुछ बिगाड़ना नहीं चाहते। हमने किसी से दुश्मनी करने के लिए संघ नहीं बनाया है। यह सही है कि हम लोगों ने आपकी अहिंसा को स्वीकार नहीं किया, फिर भी हम सब कांग्रेस की क़ैद में रहने वाले हैं। कांग्रेस जब तक अहिंसा का हुक्म करेगी हम शांति से रहेंगे। इस तरह बड़ी मुहब्बत से मीठी बातें कीं।

     इतने पर भी आप मुझे रोक देते हैं, तो फिर कल से आप यहाँ न आएँ। मैं इस तरह की प्रार्थना करना नहीं चाहता। मैं और ही क़िस्म का बना हुआ हूँ। मैं हिंदू हूँ, तो मुसलमान भी हूँ और सिक्ख तो क़रीब-क़रीब हिंदू ही हैं। मैंने ग्रंथ साहब को देखा है। उसमें काफ़ी हिस्से ज्यों-के-त्यों हिंदू धर्म के हैं — उसी धर्म के, जिस धर्म का मैं पालन करने वाला हूँ। इसलिए आपसे अदब के साथ मेरी विनती है कि एक बच्चे के कहने पर भी अगर मैं प्रार्थना रोक देता हूँ, तो आप शांत रहिए। यदि आपसे झगड़ा करके ईश्वर का नाम लेना है, तो वह नाम तो ईश्वर का होगा, पर काम शैतान का होगा। और मैं कभी शैतान का काम नहीं कर सकता। मैं ईश्वर का ही भक्त हूँ।

     आप इसे बुज़दिली न समझें। जब आप बड़ी तादाद में होते और सब कहते कि प्रार्थना मत करो, तो मैं ज़रूर करता। तब मैं कहता कि आप मेरा गला काटिए, मैं प्रार्थना करता हूँ, पर यहाँ आप सबके बीच में दो-पाँच आदमी मुझे रोकना चाहते हैं। आप उन्हें दबा लें और मुझसे कहें कि प्रार्थना करो, तो वह शैतानी होगी। और शैतान के साथ मेरी निभती नहीं (प्रार्थना-प्रवचन, पृष्ठ : 11-12)।’

     गांधी की शांति का तरीक़ा यह था कि कोई भय उनको भयभीत नहीं कर सकता था। जिस तरह हम अकसर किसी अत्याचारी के आगे दब जाते हैं, तो इसी वजह से वह हमको और डराता जाता है और हम पर अत्याचार करता जाता है और हमको नेस्तनाबूत करता जाता है। गांधी के आज का अर्थ यही है कि तुम सच्चे हो, तो किसी झूठे आदमी से मत डरो। डराने का काम तो मुद्दतों से होता आया है। आगे भी यह काम मुद्दतों तक किया जाता रहेगा। यही सब मुहम्मद साहब के साथ, यीशु मसीह के साथ, गौतम बुद्ध के होता रहा है। अपने गांधी इन्हीं सबकी शक्ति से खड़े होते रहे हैं। गांधी की अपेक्षा सबसे यही है कि हम भी अपनी ताक़त को पहचानें। कोई हत्यारा किसी की हत्या कर रहा होता है, तो वह अकेला रहता है और हत्या की उस जगह पर हमारी असंख्य भीड़ रहती है, तब भी हम किसी की हत्या होने से रोक नहीं पाते। हम हत्यारे से डर जाते हैं कि वह हमको भी मार डालेगा। एक हत्यारा हमेशा अपनी पैदा की हुई ख़ौफ़ की वजह से ही तो बचकर भाग निकलता है। हिंसा में विश्वास रखने वाली सत्ता भी इसी बात का लाभ उठाती है। वह आपके भीतर यह भय भर देती है कि मैं जो आपसे कम संख्या में हूँ, अगर आप मुझे मार डालें, तो मेरे हिस्से का खाना और पहनना। मेरे हिस्से का जागना और सोना। मेरे हिस्से का घर और मेरे हिस्से का काम-धंधा सब आप ही का तो हो जाएगा। और आप भीड़ में घेरकर मेरी हत्या कर डालते हैं। ‘मॉब लिंचिंग’ के नाम पर आज यही तो हो रहा है। भीड़ यही कर रही है। जबकि आपकी भीड़ किसी निहत्थे को मारे जाने से बचा सकती थी। मगर लोग ऐसा नहीं करके उस मार दिए जा रहे आदमी का लाइव वीडियो बनाने में लग जाते हैं। गांधी यही तो बतलाते हैं, हिंसा करने वालों के आचरण के बारे में। और यह आप भी ख़ूब जानते हैं कि हिंसा करने वालों का आचरण कभी सही नहीं रहता। हमको यह बात अच्छी तरह से दिमाग़ में बिठानी पड़ेगी कि मुल्क कोई हो, उसका एक ही मज़हब होता है कि उस मुल्क में सभी मज़हब के लोग रहते हैं। यह बात हम समझ लेंगे, तो कोई मुस्लिमराष्ट्र अथवा हिंदूराष्ट्र अथवा यहूदीराष्ट्र अथवा कोई चीनीराष्ट्र या कोई और राष्ट्र बनाने के बारे में नहीं सोचेगा।

    प्रार्थना-प्रवचन का पहला खंड दिल्ली की प्रार्थना-सभाओं में दिए गए 1 अप्रैल, 1947 से 29 जनवरी, 1948 तक के गांधी के प्रवचनों का है और दूसरा खंड 27 अक्तूबर, 1947 से 29 जनवरी, 1948 तक दिए गए प्रवचनों का। ये प्रवचन हमारे अंदर एक नई तहज़ीब को जन्म देते हैं। हालाँकि तहज़ीबें अब अपने यहाँ रोज़ मिटाई जाती हैं, रोज़ बिगाड़ी जाती हैं, रोज़ हटाई जाती हैं। जो अच्छी तहज़ीबें हमारी रही हैं, यानी गांधी ने जो तहज़ीब हमको बताई है, यह अब उनको रास नहीं आती। उन्हें लगता है, यह तहज़ीब उनको ग़लत रास्ते पर चलना नहीं बताती है और उनको तो अच्छे रास्ते पर चलना ही कभी नहीं आया। आता तो हमारी जो अच्छी वाली तहज़ीबें हैं, इनको वे ख़त्म करके किसी हिटलर वाली या किसी मुसोलिनी वाली तहज़ीब अपने भारत में खड़ी नहीं करते यानी स्थापित नहीं करते। आप कहेंगे, ऐसा नहीं है। मैं कहता हूँ, अगर ऐसा नहीं है, तो उनमें से कोई-न-कोई रोज़ अपना यह बयान क्यों देता रहता है कि जो उनकी विचारधारा के नहीं हैं, वे पाकिस्तानी हैं और उनको वहीं चले जाना चाहिए। यह कितनी गंदी बात है। हमारी आज़ादी को इतने वर्ष और दिन हो गए और वे हमको वहीं ले जाकर खड़ा कर देते हैं। यह ऐसी घृणा है जिससे मुक्ति आवश्यक है। यह सब गांधी के वक़्त में भी होता रहता था। गांधी इस बात का विरोध उस वक़्त भी करते थे और मेरे सपने में आकर ऐसी अनर्गल बातों का विरोध अब भी करते हैं। गांधी के शब्दों को आप सबकी समझ के लिए यहाँ टाँक देता हूँ, ‘अलीगढ़ जो यूनिवर्सिटी है, उसका एक लड़का मेरे पास आया था। वहाँ पश्चिमी पंजाब और सरहदी सूबे के भी कुछ विद्यार्थी पढ़ते हैं। वे वहाँ से वापस नहीं पहुँच पाए और जो यहाँ हैं, वे जा नहीं सकते। वे क्यों न वहाँ जाएँ और आएँ? आख़िर जो पाकिस्तान होना था, वह तो हो गया। फिर आपस-आपस में झगड़ा कैसा? क्यों यहाँ के इतने मुसलमान पाकिस्तान में जाएँ और वहाँ के हिंदू और सिख यहाँ आएँ? लेकिन उनका यह इरादा है कि हम मुसलमानों के पास से कम्बल वग़ैरह लेकर उन हिंदू और सिख शरणार्थियों को दें जो परेशान होकर कैम्पों में रह रहे हैं। अच्छा है, उनको इनकी दरकार भी है और अगर उनको मिल जाए, तो इससे उनकी मोहब्बत प्रकट होगी। लेकिन सच्चा काम तो यह है कि वे पाकिस्तान में मुसलमानों से जाकर कहें कि हिंदू और सिखों को वहाँ से आना ही क्यों पड़ता है (प्रार्थना-प्रवचन, प्रकाशक : सस्ता साहित्य मण्डल, वर्ष : 1961, तीसरा संस्करण, खण्ड : द्वितीय)।

     गांधी-साहित्य समाज से निकाला हुआ साहित्य है। प्रार्थना-प्रवचन भी एक बड़ा साहित्य है। और यह साहित्य पोटली में बाँधकर रखे जाने वाला साहित्य नहीं है। गांधी-साहित्य को हम दरअसल साहित्य नहीं मानते, तभी हम इसको वक़्त-बेवक़्त देख भर लिया करते हैं। मेरे ख़्याल से ऐसा करके हम ग़लत करते हैं। गांधी-साहित्य हमको अँधेरे में उजाले की तरह रास्ता दिखाने वाला साहित्य है। यह अब अधिक गंभीर होकर सोचना होगा कि हमको अंग्रेज़ों से तो आज़ादी मिल गई है, मगर आज़ादी के बाद से भारत में इतने सारे भारतीय अंग्रेज़ शोषक इकट्ठे हो गए हैं कि इन शोषकों से एक आज़ादी की लड़ाई और लड़नी पड़ेगी। और यह लड़ाई हमको गांधी के विचारों को प्रत्यक्ष रखकर लड़नी होगी। यह चिंता बस मेरी चिंता नहीं है, अज्ञेय भी इन्हीं सब चीज़ों को महसूस रहे थे, तभी उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए लिखा है, ‘संस्कृति जीवित हो, इसके लिए उसमें एक सजग नियति-बोध — सेंस ऑफ़ डेस्टिनी — होना चाहिए। वही आज हममें नहीं है। गांधी के समय तक वह था। नेहरू में भी वह था — जब तक कि चीन ने उन्हें झँझोड़कर वह निकाल नहीं दिया (दोनों में उसके मूल-स्रोत अलग-अलग थे, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता)। आज किसी ‘नेता’ में ऐसा बोध नहीं है, न किसी समाज में है, न पूरे राष्ट्र-समाज में है; सारा देश एक टुक्कड़ख़ोर ज़िंदगी जी रहा है — क्या राजनीति में, क्या संस्कृति में, क्या शिक्षा में, क्या धर्म में … हाथ अगर टुक्कड़ मुँह तक पहुँचाने में व्यस्त नहीं है, तो टुक्कड़ ही भीख माँगने के लिए पसरा होगा (अज्ञेय के उद्धरण, पृष्ठ : 14)।’

     गांधी पहले ख़ुद उस रास्ते पर चलकर देख लेते थे, जो नेक लोगों का रास्ता था, फिर किसी को उस रास्ते पर चलने के लिए कहते थे। गांधी के बताए हुए रास्ते में सेना का कोई काम दिखाई नहीं देता। गांधी की लड़ाई अहिंसात्मक लड़ाई हुआ करती थी और ऐसी लड़ाई में सेना का क्या काम। आज हम अपनी निगाहें पूरे विश्व की तरफ़ उठाकर देखें, तो सभी देश एक-दूसरे को अपनी सेना की ही धौंस दिखाकर डराते हुए दिखाई देते हैं। इस तरह की धौंस दिखाने में भारत भी पीछे नहीं है और न चीन पीछे है और न पाकिस्तान है। चीन से भारत डरता है, तभी चीन द्वारा हड़प ली गई ज़मीन पर अपना दावा भारत नहीं करता। पाकिस्तान चूँकि एक कमज़ोर देश है विश्व के मानचित्र पर, सो भारत उसको डराता रहता है। और पाकिस्तान भारत से डरकर ‘परमाणु-परमाणु’ चिल्लाता रहता है। इस डराने-धमकाने के चक्कर में ऐसा न हो कि दोनों युद्ध लड़ना शुरू कर दें और यह युद्ध परमाणु-युद्ध पर आकर न रुक जाए। इस युद्ध से नुक़सान तो दोनों का होना तय है, किसी का थोड़ा कम नुक़सान होगा, किसी का थोड़ा ज़्यादा नुक़सान होगा। मगर दोनों देशों के साथ दिक़्क़त यही है कि कोई अवाम के लिए सार्थक कुछ करना नहीं चाहता, तो दोनों देश हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में उलझाकर अपने-अपने अवाम को एक तरह झाँसा देता रहता है कि अवाम उनसे रोज़ी-रोटी न माँगे। यह सब ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर किया जाता, जो सच्चा राष्ट्रवाद है ही नहीं, सो हमको दोनों देशों की इस तथाकथित मंशा को समझना पड़ेगा। हमारे साथ दिक़्क़त यही है कि हम समझते सबकुछ अच्छी तरह से हैं, लेकिन आज राष्ट्रवाद की अफ़ीम इस तरह से हमारे ख़ून में मिला दी गई है कि हमको और कोई सच्चाई दिखाई ही नहीं देती। आज अपने यहाँ मंदी है, हम इस मंदी के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठाते। आज अपने यहाँ बेरोज़गारी, हम इस बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते। आज अपने यहाँ ग़रीबी है, इस ग़रीबी के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते। सत्ता में बैठे हुए लोग यही तो चाहते हैं कि वे तो मौज वाला जीवन जीएँ, लेकिन अवाम राष्ट्रवाद के नाम पर सिर्फ़ मारकाट वाला जीवन जीए, किसी मनचाही वस्तु की माँग न करे।

     मुझे तो यही लगता है कि अब फिर से गांधी के द्वारा आयोजित व्यक्तिगत सत्याग्रह करने की ज़रूरत है। गांधी ने इस काम के लिए विनोबा को चुना था। अब न किसी में गांधी बनने की क्षमता है, न नेहरू बनने की और न विनोबा बनने की। सो गांधी कहते हैं कि यह काम तुम सब ख़ुद शुरू करो। गांधी कहते हैं अपने शासक से युद्ध के बदले अपने हिस्से की रोटी माँगो। गांधी का ऐसा कहने के पीछे कोई तो अर्थ ज़रूर है। इस अर्थ को समझने के लिए हम व्यक्तिगत सत्याग्रह करें, तब गांधी की रचनात्मकता के अर्थ भी हम समझ सकेंगे। गांधी का अनुबंध भी तो यही है अपने भारत से और भारत की आम जनता से। अपने गांधी के इस अनुबंध को ही हम समझ लें, तो आपस में जो भाईचारा हमने भुला दी है, वह भी पा लेंगे। और सच्चा वाला राष्ट्रवाद भी पा लेंगे। गांधी की प्रासंगिकता इसी बात में है। गांधी का आज भी हम ऐसे ही बचा सकते हैं।

 

हुसेन कॉलोनी

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