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हिंदी आलेख- भारतीय लोकतंत्र में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की प्रासंगिकता

भारतीय लोकतंत्र में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक  साथ कराने की प्रासंगिकता

अरविन्द प्रसाद गोंड

भारत दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र देश है।जिसे सदियों से विभिन्न राजाओं सम्राटों द्धारा शासित और यूरोपीय द्धारा उपनिवेश किया गया । भारत वर्ष 1947 में अपनी आजादी के बाद एक लोकतंत्र राष्ट्र बन गया था उसके बाद भारत के नागरिकों को वोट देने और उन्हें अपने नेताओं का चुनाव करने का अधिकार दिया गया। दूसरी सबसे अधिक आबादी वाला देश भारत क्षेत्रफल की दृष्टि से दुनिया का सांतवा बड़ा देश हैं। वर्ष 1947 में देश को स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भारतीय लोकतांत्रिक सरकार का गठन किया गया था।केंद्र और राज्य सरकार का चुनाव करने के लिये हर साल में संसदीय और राज्य विधासभा चुनाव आयोजित किये जाते है। भारत में सबसे ज्यादा मतदाता है और चुनावों में होने वाले खर्चों कें मामले में भी भारत आगे हैं।

इसी संदर्भ में पिछले कुछ वर्षों से भारत में लोकसभा, विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का मुद्दा लगातार चर्चा में रहा है।कभी यह बात कानून एवं कर्मिक मामलों की स्थाई संसदीय समिति की रिपोर्ट 2015 में उजागर होती है तो कभी प्रधानमंत्री के भाषणों में ,कभी इस मुद्दा पर नीति आयोग द्वारा पहल की जाती है तो कभी विधि आयोग व चुनाव आयोग द्वारा। हाल मे 29 जनवरी 2018 को संसद के संयुक्त सत्र में दिये जाने वाले राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी लोकसभा और विधान सभा चुनाव एक साथ कराने की प्रक्रिया पर जोर दिये।देश में बार बार होने वाले चुनावों को विकास प्रक्रिया में बाधक बताया लेकिन इसमें कई पेंच हैं और इसके सियासी नतीजे भी पेचीदा हैं।जिसके सूत्र कई घटनाओं के बीच उलझे हुए है।इसके संवैद्यानिक पहलू भी आसान नहीं हैं।आइये पहले इस बहस के इतिहास को जाना जाए कि देश की आजादी के बाद भारत में वर्ष 1952 के पहले आम चुनाव से लेकर वर्ष 1967 तक लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ संपन्न होते रहे हैं लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय वर्ष 1970 में लोकसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव कराने के फैसले और फिर आगे चलकर दलबदल और कुछ अन्य कारणों से भी राज्य सरकारों के गिरने और वहां राष्ट्रपति शासन लागू होते रहने के कारण लोकसभा और विधान सभा के चुनाव अलग-अलग होने की परम्परा बन गयी। और अब तो तकरीबन प्रत्येक साल और किसी-किसी साल तो दो तीन बार किसी न किसी राज्य में चुनाव होते ही रहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि एक बार चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाने और चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता लागू हो जाने के कारण संबंधित राज्य में कल्याण कारी कार्यकमों र्और विकास परियोजनाओं पर एक तरह का विराम लग जाता हैं। इस तरह देखे तो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की चिन्ता कहीं न कहीं जायज हमें प्रतीत होती है।

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हांलाकि इस मुद्दे पर सबसे पहले चर्चा की शुरूआत वर्ष 1999 की विधि आयोग ने सुझाव दिया कि देश में हर साल चुनाव कराने के छुटकारा मिल सके इसलिए एक साथ चुनाव कराया जाये।यदि देश में होने वाले चुनावों का जायजा लिया जाये तो प्रतिवर्ष किसी न किसी राज्य में चनाव होते ही रहते हैं।कहने का मतलब यह है कि चुनावों की निरंतरता और बारम्बारता से भारत हमेशा इलेक्शन मोड में ही रहता है। इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं ,बल्कि राष्ट्रीय संपंत्ति और जनता के पैसों का भी नुकसान होता है।

इसलिए नीति निर्देशक के मन में यह विचार आया कि क्यों न लोकसभा और विधानसभाओं  के चुनाव साथ -साथ कराये जाए। यह अच्छा है या बुरा यह तो अब एक चर्चा या विमर्श का मुद्दा बन चुका है।

इसी संदर्भ में स्थाई संसदीय समिति ने यह व्यवस्था दी कि चुनाव दो चरणों में संपन्न कराये जाए।पहले चरण में लोकसभा की मध्यावधि में आधी विधानसभाओं के लिए चुनाव कराये जाए और बाकी बची विधानसभाओं का चुनाव लोकसभा के साथ संपन्न कराये जाये। विधि आयोग ने अपनी 170 वीं रिपोर्ट में इस संदर्भ में यह प्रस्ताव दिया कि जिन विधानसभाओं के कार्यकाल आम चुनाव के 6 महीने बाद खत्म होने वाले हो उनका चुनाव, आम चुनाव के साथ ही करा दिया जाए पर उनके परिणाम की घोषणा 6 महीने बाद नियत समय पाने के लिए एक साथ देश में लोसभा और विधानसभा चुनाव कराने की सिफारिश की थी। उसके बाद वर्ष 2002 में संविधान समीक्षा आयोग या वेंकटचेलैया समिति ने यह सुक्षाव दिया कि लोकसभा और विधान सभा चुनाव एक साथ कराया जाए। जो कि अब एक विस्तृत रूप ले चुका है।

मुख्य सवाल यह है कि भारतीय लोकतंत्र में लोकसभा और विधान सभा चुनाव एक साथ कराए जाने का मुद्दा है या यह भारत में कितना कारगर सिद्ध होगा ? क्या यह देश के संघीय ढांचे के विरूद्ध तो नहीं है ? क्या इससे चुनावी खर्च और भ्रष्टाचार को कम किया जा सकता है ? क्या यह भारत को विकास के पथ पर अग्रसर करने में सहायक सिद्ध होगा? क्या इसे भारतीय लोकतंत्र को एक नई गति और उर्जा मिलेगी इस पर विचार करने योग्य है ? यह देश हित में है या नहीं अतः इस पर गम्भीर विचार की आवश्यकता है।

किसी भी जींवत लोकतंत्र में चुनाव एक आवश्यक प्रक्रिया है और एक उत्सव भी है।स्वस्थ्य एंव निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारशिला होती है।भारत जैसे देश में अबाध चुनावी प्रक्रिया संपन्न कराना हमेंशा से एक टेढ़ी खीर रहा है।  इसके अलावा नीति आयोग ने यह विचार दिया कि वर्ष 2024 में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाना राष्ट्रहित में होगा। इसके लिए कुछ विधानसभाओ के कार्यकाल में कटौती करनी होगी व कुछ के कार्यकाल में विस्तार करना होगा। चुनाव आयोग ने भी इस विचार को सराहनीय बताते हुए इस संदर्भ में वर्ष 2018 के सितम्बर माह तक अपनी सहमति व्यक्त करने की बात की है। बशर्ते सभी राजनीतिक दल इस मुद्दें पर एकमत हो तो अधिकांश सरकारी अमला दो चरणों मेंचुनाव करवाकर इसे वर्ष 2024 तक सुचारू बनाने के पक्ष में है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यहइतना आसान है?

एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में तर्क

लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के पक्ष का सबसे पहले पहला तर्क दिया जाता है कि यह विकासोन्मुख विचार है। क्योंकि चुनावों की बारम्बारता के कारण बार-बार आदर्श आचार संहिता यानी माँडल  कोड ऑफ  कंडक्ट लगाना पड़ता है। जिससे सरकार आवश्यक नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती है और विभिन्न योजनाओं- परियोजनाओं की गतिविधियां प्रभावित होती है। इससे विकास अवरूद्ध होता है। आदर्श आचार संहिता चुनावों की शुचिता बरकरार रखने हुते बनाया गया एक विधान है। इसके तहत निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव की अधिसूचना जारी होने के उपरान्त सत्ताधारी दल मंत्रियों या लोक प्राधिकारियों द्धारा किसी नियुक्ति प्रक्रिया परियोजना की घोषणा, वितीय मंजूरी या नई स्कीमों आदि की शुरूआत की मनाही रहती है। इसके पीछे उदेश्य यह है कि इससे सत्ताधारी दल को चुनाव में अतिरिक्त लाभ न मिले। यदि देश में एक ही बार लोकसभा और विधानसभा के चुनाव संपादित किए जाये तो अधिकतम दो मीहने ही आदर्श आचार संहिता लागू रहेगी। बाकी के चार साल दस महीने तो निर्बाध रूप से विकासात्मक परियोजनाओं को संचालित किया जा सकता है। अतः देश को  विकास पथ पर तीव्रता से अग्रसर करने हेतु देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराना आवश्यक है। हांलाकि इस संदर्भ में एक सवाल यह जरूर उठता है कि आज चनावों के विकास में बाधक होने का तर्क स्वीकार कर लिया गया तो क्या कल समुचे लोकतंत्र को ही विकास विरोधी ठहराने वाले लोग आगे नहीं आ जायेगें ? अतः इस मुद्दे पर भी सचेत रहने की जरूरत है। देश में एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में -:

दूसरा तर्क

यह दिया जाता है कि इससे चुनावों पर होने वाले भारी खर्च में कमी आएगी और राष्ट्रीय कोष में वृद्धि होगी।क्योंकि चुनावों की अधिकता से देश पर अतिरिक्त धन का बोझ पड़ता है। इसे कम करने के लिये देश में लोकसभा और विधान सभा चुनाव एक साथ कराये जायें।

तीसरा तर्क

यह दिया जाता है कि एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव होने से काले धन पर रोक लगेगी और भ्रष्टाचार पर लगाम कसने में भी मदद मिलेगी । यह चुनाव सुधार की दिशा में भी कारगर सिद्ध हो सकता है। सर्वविदित है कि हमारी अर्थव्यवस्था काले धन की चपेट में बुरी तरह फंसी हुई है और चुनावों के दौरान इस काले धन का खेल खुलकर खेला जाता है। हमारे देश में प्रत्याशियों द्धारा चुनावों में किये जाने वाले खर्च की सीमा तो निर्धारित है लेकिन राजतीतिक दलों द्धारा किये जाने वाले व्यय की कोई सीमा निर्धारित नहीं है। वही दूसरी तरफ लोक प्रतिनिधित्व की धारा 29-ब अनुसार बीस हजार रूपये तक के कैश डोनेशन का व्यौरा रखने की आवश्यकता नहीं होती है, लेकिन बार -बार होने वाले चुनाव राजनीतिक पार्टियों के व्यय को बढ़ाते हैं परिणाम स्वरूप यह कॉर्पोरेटव राजनीतिक दलों के अंतसम्बंध को प्रगाढ करता है अतः जनप्रतिनिधित्व कानून में सुधार के साथ- साथ यदि सारे चुनावों को एक साथ करवाये जाये तो इससे राजनीतिक दलों द्धारा चुनावों पर व्यय की जाने वाली राशि भी कम हो जायेगी। जिससे काले धन के प्रवाह एंव कॉर्पोरेट व राजनीतिक पार्टियों  के अंतसंबधों को नियंत्रित करने में सहुलियत होगी।

चौथा तर्क

यह दिया जाता है कि लोक सभा और विधान सभा चुनाव एक साथ कराये जाये तो कर्मचारियों के मूल कृत्यों के निर्वहन में तीव्रता आयेगी,साथ ही लोगों के सार्वजनिक जीवन के व्यवधान में भी कमी आएगी। जैसा कि हमारे यहां चुनाव कराने हेतु शिक्षकों एंव सरकारी सेवा में कार्यरत कर्मचारियों की सेवा ली जाती है।जिससे उनका मूलकार्य प्रभावित होता है इतना ही नहीं चुनाव सुरक्षित हो तथा अवांछनीय तत्वों द्धारा इसे प्रभावित न किया जायें। इसके लिए भी भारी संख्या में पुलिस एंव सुरक्षा बलों की सहायता ली जाती है।इससे शिक्षा एंव सुरक्षा व्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।इसके साथ ही साथ चुनावी रैलियों व प्रचारों से यातायात की परेशानियों में वृद्धि होती है और आम जन जीवन प्रभावित होता है इस कारण लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हो तो मानव संसाधन के प्रयोग तथा लोक जीवन की सुगमता की दृष्टि से कहीं ज्यादा बेहतर विकल्प होगा।

देश मेंलोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के विपक्ष में तर्क-:

पहला तर्क

यह देश के संघीय ढांचे के विरूद्ध होगा तथा संसदीय लोकतंत्र के लिए धातक कदम होगा तथा एक साथ लाकेसभा और विधानसभा के चुनाव करवाने में बहुत सी विधानसभाओं की मर्जी के खिलाफ उनके कार्यकाल को घटाया या बढ़ाया जायेगा, जिससे राज्यों की अपनी स्वायत्ता प्रभावित हो सकती है भारत का संघीय ढांचा संसदी प्रणाली से प्रभावित- प्रेरित है

दूसरा तर्क

यह दिया जाता है कि संविधान ने हमें संसदीय माँडल दिया जिसके तहत लोकसभा और विधानसभा पांच वर्ष के लिए चुनी जाती है। लेकिन एक साथ चुनाव करवाने के मामले में हमारा संविधान मौन है इस संविधान में तो कई ऐसे मुखर प्रवधान हैं जो इस विचार के बिल्कुल विपरित दिखाई देते हैंजैसे अनुच्छेद 83; 2 द्ध ख के अनुसार राष्ट्रपति लोकसभा को और अनुच्छेद 172 (1) कके अंतर्गत राज्यपाल विधानसभा को पांच वर्षों के पूर्व भी भंग कर सकते हैं। अनुच्छेद 356 के तहत राज्यों में राष्ट्रपपति शासन लगाया जा सकता है  और ऐसी स्थिति में संबद्ध राज्य के राजनीतिक समीकरण में अप्रत्याशित उलटफेर होने से वहां फिर से चुनाव की सम्भावना बढ़ जाती है।

तीसरा तर्क

यह दिया जाता है कि इसमें लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण होगा।अगर एक साथ दोंनो चुनाव करवाये गये तो सम्भव है कि इससे राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जायें या फिर क्षेत्रीय मुद्दों के सामने राष्ट्रीय मुद्दें अपना अस्तित्व खो दें। दरअसल, लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव का स्वरूप और मुद्दा बिल्कुल भिन्न होता है। लोकसभा का चुनाव जहां राष्ट्रीय सरकार के गठन के लिए होता है वहीं विधानसभा का चुनाव राज्य सरकार के गठन के लिए होता है । इसलिए एक में जहां राष्ट्रीय मुद्दों जैसे आंतकवाद, नक्सलवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा, कश्मीर समस्या, उर्जा सुरक्षा ,अंतराष्ट्रीय संबंध आदि प्रमुखता होती है तो दूसरे में राज्यों के क्षेत्रीय मुद्दे जैसे भूमि अधिग्रहण ,जातीय शोषण ,मजदूरों का विस्थापन ,रोजी रोटी क्षेत्रीय अस्मितायें तथा स्थानीय मुद्दे आदि महत्वपूर्ण होते हैं। यानी मुद्दे के आधार पर लोकसभा एंव विधान सभा चुनाव में भारी अंतर होता है।

निष्कर्ष

यह कहा जा सकता है कि देश में लोकसभा और विधनसभा चुनाव एक साथ कराने से हमारे देश की क्षेत्रीय पार्टियों का उल्टफेर कुछ ज्यादा हो जाएगा और इनका अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाने की सम्भावना अधिक रहेगी क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर दो ही राजनीतिक दल मजबूत स्थिति में दिख रहे हैं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी इसी को ध्यान में रखकर आम जनता अपना मत करती है आज भी । इस तरह चुनाव सुधार में जनप्रतिनिधित्व की धारा को अधतन करना काले धन पर रोक लगाना राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ सख्त कानून बनाना रचनात्मक अविश्वास की परिपाटी को बढावा देना तथा जन शिक्षण के द्धारा लोंगो मे राजनीतिक चेतना व जागरूकता का सही विकास करना जरूरी है, तभी प्रतिनिधि मूलक समावेशी और सहभागी लोकतंत्र की स्थापना सम्भव है। यदि संवैधानिक संशोधन के जरिये एक साथ चुनाव करवा दिये जाये तो फिर भी इस बात की गारंटी नहीं है कि आगे भी यह क्रम बरकरार ही रहे ।ध्यान रहे कि जब -जब नेता नीति को छोड़कर राजपाट पाने को आतुर होते  तो हैंचुनावों की अधिकता इस देश का दुर्भाग्य बन जाता है ऐसे मे भी जब ‘‘ वन नेशन वन टैक्स ‘‘ का विचार फलीभूत हो सकता है तो ‘‘ वन नेशन वन इलेक्शन ‘‘ को एक बार अजमाने में क्या परेशानी है? इस लिए मध्यममार्गी  विकल्प के तौर पर एक बार सभी राजनीतिक दलो की आम सहमती से लोकसभा और विधान सभा चुनाव एक साथ करवाया जा सकता है और पांच वर्षों तक इसमें आने वाली व्यवहारिक दिक्कतों का जायजा लिया जाना चाहिए। यदि इसके बाद सब कुछ सही रहा तो इसे आगे भी आजमाया जाये वरना इसे छोड़कर अन्य विकल्पों की ओर बढ़ा जा सकता है।


शोधार्थी

अरविन्द प्रसाद गोंड

म.गा. अ.हि .वि.वि वर्धा ( महाराष्ट्र)


संदर्भसूची:

·       RSTV Vishesh.10,2018 julywww.rajshavhatv.co.in

·       RSTV देशदेशांतर. 14Aug, 2018 www.rajshavhatv.co.in

·       RSTV सरोकार.10Sept,2018 www.rajshavhatv.co.in

·       उपाध्यया.जयजय,भारतकासंविधान,सेंट्रल लॉ एजेंसी .इलाहाबाद.

 

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