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हिंदी आलेख- साहित्य के परिप्रेक्ष्य में ‘तुलना’ के घटक

साहित्य के परिप्रेक्ष्य में तुलना के घटक

धर्मेन्द्र प्रताप सिंह

सारांश

            तुलनात्मक साहित्य सम्पूर्ण विश्व को एकता के सूत्र में पिरोकर सहधर्म और वसुधैव कुटुम्बकम के भाव को विकसित करते में सहायक है। आज वैश्वीकरण के दौर में दिनोंदिन क्षीर्ण होती मानवीय संवेदना को बचाने के लिए ऐसी अध्ययन शाखाओं को विकसित करना जरूरी है। इस प्रक्रिया में हमें उन तत्वों की पहचान करना होगा जो मनुष्य को एकता का पाठ पढ़ा सकें। सतत् गंभीर चिन्तन से ही मानवता के गुण विकसित हो सकते हैं जो साहित्य का उद्देश्य है, चाहे वह जिस देश या भाषा का हो। तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा ही हम अलग-अलग देशों और भाषाओं में रचित साहित्य के मर्म को पहचान सकते हैं।

बीज शब्द

घटक, तुलनात्मक साहित्य, विश्व साहित्य, अंतःसाहित्य, अध्ययन शाखा, समाज-संस्कृति, लोक मान्यताएँ, रीति-रिवाज, भाषाई वैशिष्ट्य, सृजन, आस्वाद।

आमुख

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1907 में तुलनात्मक साहित्य के संदर्भ में विश्व साहित्यका प्रयोग किया जो इस अध्ययन-शाखा की व्यापकता को रेखांकित करता है। तुलनात्मक साहित्य अंग्रेजी के कम्पैरेटिव लिटरेचरका हिन्दी अनुवाद है। तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन करते समय सबसे पहले तुलनापद मिलता है जिसका आशय एक से अधिक वस्तुओं के मध्य गुण, मान, अच्छा, बुरा, कम या अधिक आदि को आधार बनाकर किया जाने वाला अध्ययन है। तुलनात्मकपद तुलना का ही विशेषण है जो ऐसी प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है जिसमें एक से अधिक वस्तुओं के मध्य साम्य-वैषम्य दिखाने का प्रयास किया जाता है। तुलना के विचार से किया जाने वाला कार्य तुलनात्मककहलाता है। हेनरी एच एच रेमाक तुलनात्मक साहित्य को परिभाषित करते हुए इसे राष्ट्र की सीमा से बाहर किया जाने वाला अध्यनन स्वीकार करते हैं- ‘‘तुलनात्मक साहित्य एकक राष्ट्र के साहित्य की परिधि के परे दूसरे राष्ट्रों के साहित्य के साथ तुलनात्मक अध्ययन है तथा यह अध्ययन कला, इतिहास, समाज विज्ञान, धर्मशास्त्र आदि ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के आपसी संबंधों का भी अध्ययन है।’’1

tulnatmak sahitya

रेने वेलेक तुलनात्मक साहित्य की व्यापकता की ओर संकेत करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मूल्यांकित करते हुए कहते हैं कि- ‘‘तुलनात्मक साहित्य के समग्र रूप का अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करता है जिसके मूल में यह भावना निहित रहती है कि साहित्य सृजन और आस्वाद की चेतना जातीय एवं राजनैतिक, भौगोलिक सीमाओं से मुक्त एक रस अखंड होती है।’’2

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा. नगेन्द्र तुलनात्मक साहित्य के महत्त्वपूर्ण अध्येताओं में माने जाते हैं।  उनका मानना है कि- ‘‘तुलनात्मक साहित्य एक प्रकार का अंतः साहित्य अध्ययन है जो अनेक भाषाओं को आधार मानकर चलता है और जिसका उद्देश्य अनेकता में एकता की साधना है।’’3  

प्रसिद्ध अध्येता डा. इंद्रनाथ चौधुरी तुलनात्मक साहित्य को स्पष्ट करते हुए इसे राष्ट्र की सीमा से पार की भाषाओं में लिखे साहित्य को शामिल करते हैं कि ‘‘जब तुलना किसी एक राष्ट्र की परिधि को पार करके दूसरे राष्ट्र की भाषाओं में लिखित साहित्य को अपने में समेट लेती है। एक से अधिक भाषाओं में रचित साहित्य के साथ तुलना की जाती है। उसको निश्चय ही तुलनात्मक साहित्य कहा जाएगा।’’4

तुलनात्मक अध्ययन अलग-अलग भाषाओं में रचित साहित्य और उनके घटकों की तुलना है। घटक का आशय किसी घटना या रचना में योगदान देने वाले तत्त्वों से है। इसे आसानी से समझने के लिए रचना करने वाला (रचनाकार), बनाने या निर्माण करने वाला (शिल्पकार), प्रस्तुत करने वाला (प्रस्तुतकर्ता) आदि को संदर्भ लिया जा सकता है। अंग्रेजी में इसके लिए फैक्टर, एलीमेंट आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। घटक उन तत्त्वों के संदर्भ में प्रयोग होता है जिससे मिलकर किसी वस्तु का निर्माण होता है। घटक घटऔर शब्दों से मिलकर बना है। संस्कृत में घटका आशय घड़ा या शरीर और का अर्थ सम्बन्ध से है। इस तरह घटकका आशय घड़े या शरीर की संरचना से सम्बन्धित है। यदि घड़े की संरचना पर विचार किया जाय तो कुम्भार, चाक, मिट्टी, पानी और आग घड़े के घटक कहलायेंगे। इसी तरह शरीर के घटक के रूप में तुलसीदास की उक्ति को लिया जा सकता है- छिति जल पावक गगन समीरा, पंच तत्व मिलि बना शरीरा।इसे आसानी से समझने के लिए आज के सर्वाधिक प्रचलित पेय पदार्थ चाय को लिया जा सकता है जिससे प्रायः सभी परिचित हैं। चाय के घटक के रूप में चाय बनाने वाला व्यक्ति, दूध, चीनी, चायपत्ती और अग्नि शामिल है।

घटक दो होते हैं- अनिवार्य और सहायक। अनिवार्य कारक के बिना सम्बन्धित वस्तु का निर्माण ही संभव नहीं होता और इसके नष्ट होने पर कारण भी नष्ट हो जाता है जबकि सहायक के अभाव में वस्तु का निर्माण तो हो जाता है लेकिन अनुपस्थित तत्त्व की कमी महसूस होती रहती है। जैसे चाय में चाय की पत्ती और पानी अनिवार्य घटक है जिसके बगैर चाय बन ही नहीं सकती जबकि चीनी और दूध सहायक के अंतर्गत आयेंगे।

तुलनात्मक साहित्य के घटक के अंतर्गत वे बिन्दु आयेंगे जिसके बिना तुलनात्मक का अध्ययन सम्भव नहीं है। यदि हम ध्यानपूर्वक विचार करें तो तुलनात्मक अध्ययन के लिए सम्बन्धित क्षेत्र या विषय के परिवेश, समाज-संस्कृति, लोक मान्यताएँ, रीति-रिवाज, भाषागत वैशिष्ट्य, तुलनीय के मध्य साम्य-वैषम्य और उसके कारणों की पड़ताल को शामिल किया जा सकता है।

            दो तुलनीय बिन्दुओं का परिवेशगत जानकारी होना आवश्यक है। परिवेशगत जानकारी के अभाव में तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन असंभव है। परिवेश किसी भी रचना के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में जाना जाता है। यहाँ परिवेश से आशय रचना के आस-पास के वातावरण से है जिसे केन्द्र में रखकर रचनाकार ने सृजन किया है। परिवेश ही किसी कृति को जीवंतता प्रदान करता है और रचना पाठक को जनसमुदाय से जोड़ती है।

            तुलनात्मक अध्ययन के लिए उस समाज और संस्कृति के बारे में ज्ञान होना बहुत आवश्यक है जिसे आधार बनाकर तुलनात्मक अध्ययन किया जाना है। समाज में ही मानव समुदाय को विकास होता है और उसी के मध्य उसकी संस्कृति निर्मित होती है। प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति होती है जिसमें वहाँ का आचार-विचार, पहनावा, खान-पान, जलवायु आदि प्रभावित करते हैं। बिना इसके सम्यक् ज्ञान के तुलनात्मक अध्ययन सम्भव नहीं है। जैसे महाकाव्य की अवधारणा की व्याख्या अधिकांश पश्चिम देश होमर के इलियडया ओडसीको आधार बनाकर करेंगे जबकि भारत में इसकी व्याख्या रामायणऔर महाभारतके आधार पर होगी।

            साहित्य के भीतर लोक और उसकी मान्यताओं का चित्रण किया जाता है। समय के साथ-साथ लोक के भीतर ही इन मान्यताओं का पुष्पन-पल्लवन और परिवर्तन होता है। भारत के अलग-अलग राज्यों/प्रान्तों की लोक मान्यताएँ पृथक हैं जो स्थानीय कारकों से प्रभावित होती हैं। स्थानीय कारकों के बदलने पर इन मान्यताओं में भी परिवर्तन होता जाता है और ये मान्यताएँ जनमानस से सीधे जुड़ी होती हैं। तुलनात्मक अध्ययन इन लोक मान्यताओं के ज्ञान के बिना संभव नही। भारत में हमारी लोककथाएं, मिथक आदि का अध्ययन तुलनात्मक साहित्य के अंतर्गत किया जा सकता है।

            अधिकांश तुलनात्मक साहित्य के अध्येताओं का मानना है कि तुलनात्मक अध्ययन के लिए दो भिन्न भाषाओं का होना आवश्यक है। भाषा मनुष्य के विचार विनिमय का साधन होने साथ ही मनुष्य को एकता के सूत्र में बांधती हैं। एक ही भाषा के दो रचनाकारों या रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन उपयुक्त नहीं माना जाता है। अतः तुलनात्मक अध्ययन के लिए एक से अधिक भाषाओं का ज्ञान न केवल आवश्यक है बल्कि तुलनीय कृति या रचनाकार का भाषागत वैशिष्ट्य का सूक्ष्म रेखांकन भी आवश्यक है। बहुभाषा विद् ही तुलनात्मक अध्ययन के लिए उपयुक्त है।

            कोई भी महाकाव्यात्मक या महत्त्वपूर्ण रचना का फलक बहुत व्यापक होता है और इस सम्पूर्ण व्यापकता में तुलनात्मक अध्ययन संभव नहीं है। तुलनात्मक अध्ययन के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि रचनाफलक के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का चयन कर उसके आधार पर तुलना की जाय जिससे रेखांकित बिन्दुओं के साथ न्याय हो सके और पाठक इस तुलना से लाभान्वित हो सके। महत्त्वपुर्ण बिन्दुओं का चयन कर उसमें साम्य-वैषम्य के रेखांकन के द्वारा ही तुलनात्मक अध्ययन अपने ध्येय में सफल होगा और अध्ययन का उत्स पाठकों तक पहुँच सकेगा। तुलनात्मक बिन्दुओं के साम्य-वैषम्य के अवलोकन के साथ ही समानता और विषमता के कारणों का परीक्षण भी तुलनात्मक अध्ययन के लिए आवश्यक हो जाता है। बिना परीक्षण के तुलनात्मक अध्ययन अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता। मानव जिज्ञासु प्राणी है और कारणों के परीक्षण के बिना उसकी जिज्ञासा का समाधान संभव नहीं।

निष्कर्ष :

            तुलना के लिए निर्धारित बिन्दुओं का गंभीरतापूर्वक विश्लेषण के उपरान्त अंत में तुलनीय बिन्दुओं से प्राप्त निष्कर्ष और इस अध्ययन के महत्त्व पर प्रकाश डाला जाता है जिससे तुलनात्मक अध्ययन की उपादेयता सिद्ध हो सके। इस से यह स्पष्ट होता है कि तुलनात्मक अध्ययन के लिए सम्बन्धित क्षेत्र या विषय के परिवेश या वातावरण, वहाँ की समाज-संस्कृति, लोक मान्यताएँ, रीति-रिवाज, भाषाई वैशिष्ट्य, तुलनीय के मध्य साम्य-वैषम्य और इस साम्यता और विषमता के कारणों की पड़ताल आवश्यक है। यही तुलनात्मक साहित्य के घटक या तत्व कहलाते हैं।

संदर्भ सूची

1.      इंद्रनाथ चौधरी- तुलनात्मक साहित्य की भूमिका, पृष्ठ- 04, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1999.

2.      भ. ह. राजूरकर और राजमल बोरा- तुलनात्मक अध्ययन : स्वरूप समस्याएं, , पृष्ठ-34, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007.

3.      डा० नगेंद्र - तुलनात्मक साहित्य- पृष्ठ-7, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 2005.

4.      इंद्रनाथ चौधरी- तुलनात्मक साहित्य की भूमिका- पृष्ठ-7, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1999.

 सहायक आचार्य

हिन्दी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग

केरल केन्द्रीय विश्वविद्यालय, कासरगोड

dpsingh777@gmail.com

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