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हिंदी आलेख- अस्मिता एवं अस्मितामूलक-विमर्श की अवधारणा एवं सिद्धांत

अस्मिता एवं अस्मितामूलक-विमर्श की अवधारणा एवं सिद्धांत

                                              पीयूष राज,

शोध सारांश

अस्मितामूलक-विमर्श एक नवीन साहित्यिक विमर्श है। अस्मिता-विमर्श के नाम पर चलने वाले विभिन्न साहित्यिक आंदोलनों के कारण इस संदर्भ में किसी विशेष अवधारणा का निर्धारण कर पाना एक कठिन कार्य है। कई बार एक अस्मितामूलक-विमर्श दूसरे अस्मितामूलक-विमर्श के विरुद्ध भी बौद्धिक एवं साहित्यिक स्वरूप ग्रहण करता है। ऐसी स्थिति में अस्मितामूलकविमर्श संबंधी कुछ सामान्य तथ्यों को चिह्नित करना ही इस आलेख का उद्देश्य है ताकि किस तरह के विमर्श को अस्मितामूलकमूलक-विमर्श माना जाए और किसे नहीं। इसके साथ-साथ अस्मितामूलक-विमर्श पर कई तरह के विचारधाराओं एवं सिद्धांतों का भी प्रभाव है। इस आलेख में अस्मितामूलक-विमर्श के विकास में विभिन्न विचारधाराओं एवं सिद्धांतों के योगदान की भी चर्चा की गई है।

बीजशब्द

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आमुख

अस्मितामूलक-विमर्श एक नवीन विमर्श है। इस विमर्श पर कई विचारधाराओं का प्रभाव देखा जाता है। इस पर अस्तित्वाद, मार्क्सवाद, आधुनिकतावाद, संरचनावाद, उत्तर-संरचनावाद, उत्तर-आधुनिकतावाद, उत्तर-औपनिवेशवाद, नव-मार्क्सवाद या सबाल्टर्न दृष्टि जैसे कई विचारधाराओं एवं सिद्धांतों का प्रभाव है। परन्तु मुख्य रूप से उत्तर-आधुनिकतावाद, उत्तर-औपनिवेशवाद और सबाल्टर्न दृष्टि ही अस्मितामूलक-विमर्श संबंधी अवधारणाओं एवं सिद्धांतों का निर्माण करती है।

अस्मितामूलक विमर्श संबंधी अवधारणाओं एवं सिद्धांतों पर विचार करने से पूर्व अस्मिता और विमर्श शब्द के अर्थ एवं उसके विविध आयामों का एक सामान्य परिचय आवश्यक है।

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अस्मिताया अस्मिता-बोध

हिंदी शब्दकोशों के अनुसार अस्मिता का अर्थ आत्मश्लाघा, अहंकार, मोह, अपनी सत्ता का भाव, आपा इत्यादि है। अस्मिता का सीधा संबंध पहचान है। इस पहचान के कई रूप हो सकते हैं। इसमें राष्ट्र, जाति, नाम, क्षेत्र, धर्म, वंश, लिंग, वर्ग, व्यवसाय आदि शामिल होते हैं। यानी अस्मिता व्यक्तिगत भी हो सकती है और सामूहिक भी। हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार राजेंद्र यादव अस्मिता के बारे में कहते हैं – “ ‘अस्मिता जितनी मेरी है, उतनी ही मेरे परिवेश और परंपरा की भी। उसमें वर्ग, वर्ण, क्षेत्र, धर्म लिंग, परंपराएँ सभी कुछ घुसे और घुले-मिले हुए हैं।[1] वे अस्मिता को एक मानसिक संरचना के रूप में व्याख्यित करते हुए कहते हैं – अस्मिता अपनी निजी पहचान के साथ-साथ उस क्षेत्र और समाज के पहचान की भी है जो हमारे संदर्भ तय करते हैं। ये संदर्भ जाति, रंग, वर्ग, नस्ल, क्षेत्र, भाषा, जेंडर, पेशे इत्यादि के रूप में हमारे अंतरंग (साइकी) के हिस्से हैं।[2]

अस्मिता-बोध की तभी आवश्यकता पड़ती है, जब हमारी पहचान पर खतरा हो। तात्पर्य यह कि अगर किसी व्यक्ति या समुदाय के जाति, धर्म, कुल, वंश, राष्ट्र, भाषा, लिंग आदि पहचानों को मिटाने या हीन साबित करने की कोशिश की जाती है तो वह अमुक व्यक्ति या समुदाय इन पहचानों को बचाने की चेष्टा करता है। यह चेष्टा आंदोलन, साहित्य, विचारधारा, कला, इतिहास-लेखन आदि अनेक रूपों में अभिव्यक्त होती है। अस्मिता के इस स्वरूप को व्याख्यायित करते हुए अभय कुमार दुबे लिखते हैं – यह (अस्मिता) एक ऐसा दायरा है जिसके तहत व्यक्ति और समुदाय यह बताते हैं कि वे खुद को क्या समझते हैं। अस्मिता का यह दायरा अपने-आप में एक बौद्धिक, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक संरचना का रूप ले लेता है जिसकी रक्षा करने के लिए व्यक्ति और समुदाय किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।[3] इस उक्ति की अंतिम पंक्ति गौरतलब है -  जिसकी रक्षा करने के लिए व्यक्ति और समुदाय किसी भी सीमा तक जा सकते हैं’; अर्थात् अस्मिता की रक्षा करने के लिए व्यक्ति और समुदाय आक्रामक रुख भी अपना सकते हैं। यही कारण है कि अस्मितामूलक-विमर्श का एक गुण इसकी आक्रामक प्रवृत्ति भी है। यहाँ आक्रामकता नकारात्मक अर्थ में नहीं है, यह आक्रामकता किसी के विध्वंस के लिए नहीं बल्कि अपनी अस्मिता (व्यक्तिगत या सामुदायिक) की रक्षा के लिए है। अस्मिता प्राप्ति के संघर्ष की शुरुआत व्यक्तिगत या सामुदायिक तौर पर अपने वंचित, पीड़ितऔर प्रताड़ित होने के अहसास से ही होती है। इसमें अपनी पहचान प्राप्त करना ही सबसे बड़ा उद्देश्य हो जाता है। अधिकारों से वंचित वह (व्यक्ति या समुदाय) समाज के द्वारा किए गए अन्याय और सदियों से होते आ रहे शोषण के खिलाफ खड़ा हो जाता है। अस्मिता प्राप्ति के लिए किए गए संघर्ष या प्रयास व्यक्ति और समुदाय को जागरुक बनाते हैं और यह जागरुकता उन्हें दिशाहीन होने से बचाती है।

यह अस्मिता-बोध का सकारात्मक पक्ष था। परंतु कई बार अस्मिता-बोध समाज में गैर-जरूरी हिंसा एवं संघर्ष को भी बढ़ावा देती है। समूह आधारित अस्मिता-बोध सामुदायिक एकता एवं पहचान की भावना को जन्म देने के साथ-साथ दूसरों से भिन्न या अलग होने के बोध को भी जन्म देती है। कई बार यह भिन्नता बोध भयंकर स्वरूप भी ले सकता है। इतिहास में इसके कई उदाहरण मौजूद हैं। धार्मिक, भाषायी और जातीय दंगे या एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र से युद्ध जैसे कई हिंसक टकराव के मूल में यह अस्मिता-बोध ही रहा है। इस तरह के टकरावों के उदाहरण समकालीन विश्व के लगभग हर हिस्से में मिल जाएँगे। अस्मिता-बोध के इस पक्ष पर प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन लिखते हैं – ...पहचान की भावना हत्याएँ भी करवा सकती हैं – क्रूर से क्रूर हत्याएँ। किसी समूह के अंग होने की पहचान और यह कि हम दूसरे समूहों से अलग हैं, कई दफा दूसरे समूहों से दूरियाँ और उनसे भिन्न होने का भाव पैदा करती हैं।[4]

अस्मिता के बारे में विचार करते समय इसके इस पक्ष को अनदेखा नहीं किया जा सकता। अस्मिता के मूल में ही संघर्ष है। अस्मिता-विमर्श के विद्वानों का इस संदर्भ में मानना है, जब तक अस्मिता का उपयोग दमन, उत्पीड़न, शोषण एवं अन्य तरह के भेदों के विरुद्ध संघर्ष में हो रहा है, वहाँ अस्मिता-बोध का होना इसका सकारात्मक पक्ष कहा जाएगा। लेकिन जहाँ अस्मिता के नाम पर अन्य अस्मिताओं का दमन, उत्पीड़न एवं शोषण किया जाए वहाँ यह अस्मिता-बोध का स्याह पक्ष ही कहा जाएगा। अर्थात् अस्मिता-बोध का संबंध दमन से नहीं है बल्कि वंचितों की मुक्ति से है। अस्मिता-विमर्श पर बहुत अधिक नहीं लिखने-बोलने वाले प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह भी इस संदर्भ में कहते हैं – अस्मिता दया नहीं चाहती है। अस्मिता हक चाहती है।[5]

अस्मिता संबंधी इसी पहचान या हक के लिए विमर्श की आवश्यकता पड़ती है। बिना विमर्श के किसी भी पहचान को निर्मित करना या स्थापित करना असंभव है।

विमर्श

हिन्दी में विमर्श शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के डिस्कोर्स (Discourse) शब्द के लिए किया जाता है। अस्मिता-विमर्श को अंग्रेजी में Identity Discourse कहते हैं। अंग्रेजी में Discourse शब्द का प्रयोग लिखित या वाचिक संप्रेषण या बहस के लिए किया जाता है। इसे हम वाद-विवाद और संवाद भी कह सकते हैं। बहस या संप्रेषण के लिए कम से कम दो पक्षों का होना अनिवार्य है। इस विमर्श या संवाद से ही किसी किसी तर्क-संगत निष्कर्ष या निर्णय या ज्ञान पर पहुँचा जा सकता है।  दुनिया में ज्ञान-सृजन की प्रक्रिया में प्राचीन काल से ही बहुपक्षीय विमर्शों की अहम भूमिका रही है। तात्पर्य यह कि विमर्श शब्द जागरुकता का परिचायक है और बिना जागरुकता के अस्मिता-बोध संभव नहीं है।

अतः हम यह कह सकते हैं कि व्यक्तिगत या सामुदायिक अस्मिता के बोध को जागृत करने के लिए किया गया विमर्श ही अस्मिता-विमर्श है। अस्मिता जब संकट में होती है, तभी विमर्श की स्थिति उत्पन्न होती है। उपेक्षित वर्ग को अपनी पहचान को बनाए रखने और अपने दमित-वंचित होने के अनुभव से ऊपर उठने के लिए विमर्श की आवश्यकता पड़ती है। इस विमर्श के द्वारा ही उपेक्षित वर्ग समाज की मुख्यधारा में अपना स्थान बनाने का प्रयास करता है। चूँकि समाज में कई तरह के पहचान हैं, इस कारण कई तरह के उपेक्षित वर्ग भी हैं। इन सभी उपेक्षित वर्गों द्वारा अपनी पहचान स्थापित करने के लिए किए गए विमर्शों को समन्वित रूप से अस्मिता-विमर्श या अस्मितामूलक-विमर्श की संज्ञा दी जाती है। प्रसिद्ध कवयित्री अनामिका अस्मिता-विमर्श के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखती हैं – ये ही तो मंशा है अस्मिता-विमर्श की कि जो कभी नहीं बोले, वे बोलें, अपना दुःख-दर्द कहें ताकि उन अंधों की आँख और बहरों के कान जिनके बारे में बाइबिल में बहुत पहले ही लिखा गया है – Seeing that don’t see, hearing they don’t hear.”[6]

अर्थात् अस्मिता-विमर्श का उद्देश्य उपेक्षित वर्गों की पीड़ा, दुःख, उत्पीड़न, शोषण इत्यादि से समाज की मुख्यधारा का परिचय करवाना और उन्हें उनका वाजिब हक तथा समाज की मुख्यधारा में पहचान दिलाना है। अस्मितामूलक-विमर्श एक तरफ समाज की मुख्यधारा को उपेक्षित वर्गों की पीड़ा से परिचित करवाते हैं तो दूसरी तरफ इन उपेक्षित वर्गों को एक सामूहिक अस्मिता के सूत्र में बाँधने का कार्य भी करते हैं। यह एक तरह की पहचान या अस्मिता वालों को एकजुट कर, उन्हें संगठित होकर अपने हक के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा भी देता है।

अस्मिता-विमर्श और अस्मिता संबंधी सिद्धांत

अस्मितामूलक-विमर्श के बारे में अब तक हुई चर्चा से अस्मिता-विमर्श के बारें में निम्नलिखित बातें कही जा सकती हैं –

·       यह विमर्श किसी उपेक्षित समुदाय की जागरुकता का परिचायक है।

·       उपेक्षित वर्गों की मुख्यधारा में पहचान को स्थापित करने का प्रयास है।

·       उपेक्षित वर्गों को संगठित करता है।

·       उपेक्षित वर्गों के अनुभवों एवं यंत्रणा से समाज की मुख्यधारा को परिचित करवाता है।

·       उपेक्षित वर्गों को अपने अधिकारों एवं पहचान के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देता है।

ये सारे कार्य तभी हो सकते हैं, जब इनके पीछे किसी सिद्धांत या विचारधारा हो। समाज की मुख्यधारा से बहस एवं संवाद के साथ-साथ एक जैसे पहचान या अस्मिता रखने वाले लोगों को संगठित तभी किया जा सकता है, जब इसके पीछे एक निश्चित तर्क प्रणाली से संचालित कोई विचारधारा और सिद्धांत हो। हम यह चर्चा कर चुके हैं कि अस्मिताएँ कई प्रकार की होती हैं और इन अस्मिताओं के निर्माण की प्रक्रिया और प्रकृति भी अलग-अलग है। इस कारण अस्मितामूलक-विमर्श को प्रेरित करने में भी कई तरह की विचारधाराओं एवं सिद्धांतों का योगदान रहा है। अकादमिक जगत में वर्तमान अस्मितामूलक-विमर्श के पीछे उत्तर आधुनिकतावादी, उत्तर-उपनिवेशवादी एवं सबाल्टर्न और नवमार्क्सवादी विचारधाराओं के सिद्धांतों को मुख्य प्रेरणा माना जाता है। परंतु अस्मिता एवं अस्मिता-विमर्श संबंधी अभी तक हमने जितनी भी चर्चा की है, उनका आरंभ इन विचारधाराओं के उदय से कहीं पहले हो चुका था। इन विचारधाराओं ने पहले से चले आ रहे अस्मितामूलक-विमर्शों को तीव्र गति एवं दिशा प्रदान जरूर किया है और कुछ नई अस्मिताओं के विमर्श को प्रारंभ किया है। उदाहरणस्वरूप स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श या अमेरिका में अश्वेत-आंदोलन इत्यादि की शुरुआत 19 वीं और 20 वीं सदी में ही हो गई थी। तब इन विचारधाराओं का अस्तित्व ही नहीं था। अगर हम भारतीय संदर्भ में देखें तो दलित-विमर्श की शुरुआत ज्योतिबा फूले एवं सावित्रीबाई फूले के विचारों से मानी जाती है। दलित-विमर्श के अन्य दो प्रमुख विचारक भीमराव अंबेडकर एवं ई. रामास्वामी पेरियार भी इन विचारधाराओं के उदय से पहले ही सामाजिक और वैचारिक रूप से दलित-विमर्श की जमीन तैयार कर चुके थे। इसी तरह स्त्री अधिकारों की माँग फ्रांसीसी क्रांति के दौरान ही शुरू हो गई थी। जिसने 19 वीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत तक स्त्री-विमर्श या नारीवाद का स्वरूप ग्रहण कर लिया था।

अपनी अस्मिता या स्व की पहचान को लेकर वैसे तो मानव-समाज में बहुत पहले से चर्चा होती रही है परंतु अस्मिता संबंधी विमर्शों के जन्म सीधा संबंध यूरोप के पुनर्जागरण या नवजागरण के फलस्वरूप उत्पन्न हुई आधुनिकता से जोड़ा जा सकता है। पुनर्जागरण ने धर्म के स्थान पर तर्क को वरीयता दी और पुरानी धार्मिक मान्यताएँ ध्वस्त हुईं। अलग-अलग पहचान समूहों के लोगों ने अपने शोषण और पीड़ा के कारणों को धार्मिक ग्रंथों की जगह इतिहास और स्मृति के आईने में देखना शुरू किया।

आगे बढ़ने से पहले आधुनिक, आधुनिकीकरण, आधुनिकता तथा आधुनिकतावाद पर संक्षेप में चर्चा करेंगे। आधुनिक शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप में परंपरा से विद्रोह या प्राचीन के विपरीत नवीन रुझानों के लिए होता है। आधुनिकीकरण का संबंध पूँजीवादी व्यवस्था के तहत किए जा रहे यंत्रीकरण तथा औद्योगीकरण से है। आधुनिकता का संबंध आधुनिकीकरण के फलस्वरूप प्राचीन तथा पारंपरिक विचारों एवं मूल्यों, धार्मिक विश्वासों और रूढ़िगत रीति-रिवाजों के विरुद्ध नवीन आविष्कारों, विचारों, मूल्यों और व्यवहारों से है। यही नवीन विचार, मूल्य और व्यवहारों ने जब आंदोलन एवं विचारधारा का स्वरूप ले लिया तो उसे आधुनिकतावाद कहा जाने लगा।

यूरोप में पुनर्जागरण के कारण जो आधुनिक चेतना पैदा हुई, उसके कारण स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के नारे के साथ 1789 ई. में फ्रांसीसी क्रांति हुई। रुसो, वाल्तेयर जैसे विचारकों ने व्यक्ति-स्वातंत्र्य की अवधारणा रखी। फ्रांसीसी क्रांति ने आधुनिकतावाद, मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद, उदारतावाद, राष्ट्रवाद, नारीवाद, अश्वेत-आंदोलन जैसे कई विचारधाराओं की नींव तैयार की। इन अलग-अलग विचारधाराओं ने व्यक्ति-अस्मिता एवं सामूहिक अस्मिता को अपने-अपने तरीके से व्याख्यायित किया।

आधुनिकतावाद के कारण धार्मिक ग्रंथों की पुर्नव्याख्या हुई। इन्हें तर्क की कसौटी पर कसा गया। भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो फुले, अंबेडकर और पेरियार ने हिंदू धर्म ग्रंथों में अभिव्यक्त पुनर्जन्म एवं कर्मफल के सिद्धांतों को चुनौती दी। मनुस्मृति एवं अन्य स्मृतियों पर आधारित वर्णाश्रम एवं जाति-व्यवस्था के सिद्धांतों को अपने तर्कों से ध्वस्त किया। इन्होंने अब तक अछूत समझने वाली जातियों को एक अस्मिता के सूत्र में बाँधने का प्रयास किया, जिसे दलित अस्मिता कहा गया। इस तरह भारत में दलित-विमर्श की शुरुआत हुई। इसी तरह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हुए स्वाधीनता आंदोलन ने भारत को एक राष्ट्र के रूप में स्थापित किया।

मार्क्स ने समाज को दो वर्गों में विभाजित माना- पूँजीपति और सर्वहारा। मार्क्सवाद ने अपने   श्रम से उत्पादन करने वालों को सर्वहारा कहकर एक सामूहिक पहचान देने का कार्य किया। मार्क्स ने मजदूरों को एक वर्गीय अस्मिता के रूप में चिह्नित किया। मार्क्सवाद के अनुसार मजदूरों के शोषण का अंत वर्ग-संघर्ष द्वारा ही संभव है। नारीवाद के विकास में भी मार्क्सवादी सिद्धांतों की अहम भूमिका रही है। स्त्रियों हेतु समान काम के लिए समान वेतन, मातृत्व अवकाश, काम के घंटों को कम करना इत्यादि माँगों के पीछे मार्क्सवाद के मुक्तिकामी सिद्धांत ही थे। इस संदर्भ विशेष चर्चा स्त्री-विमर्श संबंधी पाठ में किया जाएगा।

अस्मिता-विमर्श के संदर्भ में अस्तित्ववाद का प्रमुख स्थान है। वैयक्तिक अस्मिता को लेकर सबसे पहले अस्तित्ववाद में ही गहराई से विचार मिलता है। अस्तित्ववाद मूलतः आधुनिक जीवनशैली एवं मार्क्सवाद के विरोध में पैदा हुआ दर्शन है। यह विचारधारा यह मानती है कि व्यक्ति के विकास एवं निर्माण को समाज विभिन्न वर्जनाओं एवं निषेधों से अवरुद्ध करता है।[7]

अस्तित्ववाद के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के सामने विभिन्न संभावनाएँ या रास्ते हैं। मनुष्य इन संभावनाओं या रास्तों में से एक या अधिक का चयन करता है। इस चयन की स्वतंत्रता के परिणास्वरूप ही मनुष्य अपने अस्तित्व को न केवल प्रमाणित करता है बल्कि उसे प्रामाणिक भी बनाता है। अस्तित्ववाद के अनुसार मनुष्य अपनी विषम और पीड़ादायक स्थितियों के लिए स्वयं उत्तरदायी है। अस्तित्ववाद इस जीवन को निस्सार मानता है। कीर्केगार्ड, नीत्शे, सार्त्र और हाइडेगर ने अस्तिववाद के प्रमुख चिंतक हैं।

अनास्था, अजनबीपन, अलगाव, एकाकीपन, संत्रास, चिंता आदि जैसे शब्द अस्तित्ववाद से ही निकले हैं। साहित्य पर भी अस्तित्ववाद का गहरा प्रभाव पड़ा है। हिंदी साहित्य में प्रयोगवाद, नई कविता और नई कहानी आंदोलन से जुड़े कई लेखकों पर अस्तित्ववाद का सीधा-सीधा प्रभाव देखा जा सकता है। अज्ञेय हिंदी साहित्य में अस्तित्ववाद के प्रतिनिधि साहित्यकार कहे जा सकते हैं। शेखर : एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने अपने अजनबी, अंधा युग, आधे-अधूरे आदि रचनाओं पर अस्तित्ववादी चिंतन का स्पष्ट प्रभाव है। नई कविता के दौर में अनुभूति की प्रामाणिकता पर दिया जाने वाला बल इसी अस्तिववादी चिंतन का प्रतिफल था। अलग-अलग प्रकार के अस्मिता-विमर्श में भी अनुभूति की प्रामाणिकता को महत्त्वपूर्ण माना गया है। चाहे वह अस्तित्वादी चिंतन से प्रभावित वैयक्तिक अस्मिता हो या दलित, स्त्री, आदिवासी आदि जैसी सामूहिक अस्मिता दोनों जगहों पर भोगे हुए यथार्थ एवं स्वानुभूति को प्रमुखता दी जाती है। यानी इन विमर्शों पर भी अस्तित्ववादी चिंतन के प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता। भले ही यह प्रभाव छाया मात्र ही क्यों न हो।

अस्मिता-विमर्श पर जिन विचारधाराओं एवं सिद्धांतों का सबसे तीक्ष्ण प्रभाव पड़ा है, वे हैं – उत्तर-आधुनिकतावाद, उत्तर-उपनिवेशवाद और सबाल्टर्न दृष्टि।

उत्तर-आधुनिकतावाद (Post Modernism) आधुनिकतावाद और मार्क्सवाद के विरोध में पैदा हुई विचारधारा है। इस विचारधारा का जन्म बीसवीं शताब्दी के 50 और 60 के दशक में हुआ। यह आधुनिकतावाद के तर्क पद्धति का विखण्डन करती है। यह आधुनिकता एवं आधुनिकतावाद पर प्रश्नचिह्न लगाती है। यह मार्क्सवाद के व्यापक सर्वहारा वर्ग की एकता के विरुद्ध सर्वहारा के भीतर विद्यमान अलग-अलग अस्मिताओं की पहचान करती है। इसके अनुसार कुछ भी संपूर्ण नहीं है। यह संपूर्णता का खंडन करती है। इस कारण यह केंद्रीयता के स्थान पर विकेंद्रीयता, स्थानीयता या क्षेत्रीयता, विभिन्नता आदि पर जोर देती है। यह बहुलतावाद या बहु-संस्कृतिवाद पर आधारित है।

अस्मिता-विमर्श के दृष्टिकोण से उत्तर-आधुनिकतावाद इस कारण महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह केंद्र से परिधि की ओर यात्रा करता है। उत्तर-आधुनिकतावादी विचारधारा के लिए समाज के वे विभिन्न समूह जो हाशिये पर हैं या जिन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया है, वे महत्त्वपूर्ण हो गए। इस विचारधारा ने हाशिए पर स्थित समूहों जैसे – अश्वेत, दलित, आदिवासी, स्त्री, धार्मिक एवं भाषायी अल्पसंख्यक, समलैंगिक, मूलवंशी, वृद्ध, विकलांग (दिव्यांग) आदि और हर तरह से विपथगामी लोग जिनकी अब तक कोई पहचान या आवाज, समाज और सत्ता में भागीदारी नहीं थी; उन्हें वचर्स्व के संघर्ष के नए समूहों के रूप में देखा। समाज और साहित्य में चलने वाले नित्य नए विमर्शों के पीछे इस विचारधारा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

उत्तर आधुनिकतावाद की तरह उत्तर-उपनिवेशवाद (Post Colonialism) भी अस्मिता-विमर्श से गहरे से जुड़ा है। उत्तर-उपनिवेशवाद की अवधारणा यूरोपीय उपनिवेशों से आजाद होने वाले देशों में स्वत्व की तलाश से पैदा हुई है। अपनी अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान को हासिल करने की छटपटाहट उत्तर उपनिवेशवाद के केंद्र में है।[8]

उत्तर-उपनिवेशवाद के बहस के केंद्र में संस्कृति और भाषा है। इस विचारधारा के चिंतकों का मानना है कि कोई भी साम्राज्यवादी देश अपने उपनिवेश न सिर्फ भौतिक रूप से क्षति पहुँचाता है, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी। उत्तर-उपनिवेशवाद मानता है कि उपनिवेशवाद से आजाद होने के बावजूद औपनिवेशिक अवशेष संस्कृति, भाषा, इतिहास दृष्टि आदि के रूप में बचे होते हैं। इन औपनिवेशिक अवशेषों को नष्ट करना ही उत्तर उपनिवेशवादी विचारधारा का उद्देश्य है। इसके लिए देसी बुद्धिजीवी स्थानीय साहित्य, संस्कृति, भाषा, इतिहास का पुर्ननिर्माण करने का प्रयास करते हैं, जो उस आजाद हुए देश और उसके लोगों को अलग पहचान देता है। इस प्रक्रिया में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जन्म होता है। इस राष्ट्रवाद में नस्ल, जाति, धर्म और अतीत के कई सवाल उठते हैं, जिनका उद्देश्य अस्मिता की तलाश होता है।

इसी विचारधारा से जुड़ा हुआ शब्द है – प्राच्यवाद (Orientalism)। इस शब्द को बहस के केंद्र में लाने के श्रेय एडवर्ड सईद को जाता है। प्राच्यवाद का अर्थ है कि यूरोप की निगाह में पूर्व। यानी गुलाम देशों के इतिहास को लिखने और देखने का यूरोपीय नजरिया, जिसमें यूरोपीय इतिहासकार इन गुलाम देशों को पिछड़ा, बर्बर, असभ्य आदि बताकर उन पर यूरोपीय देशों के कब्जे को न्यायोचित बताते थे। एडवर्ड सईद ने प्राच्यवाद की इस अवधारणा को खारिज कर यानी यूरोपीय इतिहासकारों के निष्कर्षों को खारिज कर स्वयं अपने विषय में इतिहास लिखने की बात कहते हैं। ताकि पश्चिम की निगाह में पूरब की जो पहचान निर्मित की गई है, उसे तोड़ कर नई पहचान या अस्मिता निर्मित की जा सके।

सबाल्टर्न दृष्टिकोण अस्मितामूलक-विमर्श को एक नया आयाम देता है। सामान्य व्यवहार में सबाल्टर्न शब्द का प्रयोग फौज में अधीनस्थ अधिकारियों के लिए किया जा रहा है। अकादमिक रूप से इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग इटली के मार्क्सवादी विचारक अंतोनियो ग्राम्शी ने किया था। सबाल्टर्न का शाब्दिक अर्थ अधीनस्थ, मातहत, उपेक्षित, निम्नवर्गीय आदि होता है।

सबाल्टर्न पर विचार करने से पहले ग्राम्शी के हेजेमनी (प्रभुत्व) के सिद्धांत पर विचार करना आवश्यक है। ग्राम्शी यह कहते हैं कि वर्गीय समाज के गठन के समय से ही शासक वर्ग हमेशा अल्पमत में रहा है लेकिन अपने वैचारिक एवं सांस्कृतिक प्रभुत्व के कारण वह बहुसंख्यक शासित जनता पर शासन करने में सफल रहा है। इस वैचारिक एवं सांस्कृतिक प्रभुत्व को चुनौती दिए बगैर वैकल्पिक समाज के निर्माण की लड़ाई असंभव है।

ग्राम्शी यह कहते हैं कि हेजेमनी के निर्माण के लिए शासक वर्ग इतिहास, विचारधारा, संस्कृति, भाषा, परंपरा आदि का सहारा लेता है। इससे अधीनस्थ वर्ग यानी सबाल्टर्न शासक वर्ग के नियंत्रण में रहते हैं। ग्राम्शी सबाल्टर्न के शोषण को आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। ग्राम्शी का सबाल्टर्न को एकरूप वर्ग के रूप में नहीं देखते हैं। ग्राम्शी सबाल्टर्न को हाशिये पर खड़े तमाम छोटी-बड़ी अस्मिताओं के रूप में देखते हैं, जिन्हें इतिहास में जगह नहीं मिली है। सबाल्टर्न दृष्टि ऐसे समुदायों और वर्गों के इतिहास लेखन पर बल देती है, जिनका अब तक इतिहास में कहीं जिक्र नहीं हुआ था या गलत रूप में चित्रण हुआ था। अर्थात् सबाल्टर्न इतिहास दृष्टि प्रत्येक देश, भाषा, धर्म, समुदायों के उप-वर्गों को चिह्नित करती है।[9] संक्षेप में सबाल्टर्न दृष्टि दलित, आदिवासी, स्त्री, प्रवासी, अल्पसंख्यक आदि की अस्मिता को इतिहास एवं संस्कृति के माध्यम से स्थापित करता है। यानी सबाल्टर्न दृष्टि के केंद्र में वे हैं – जिन्होंने अभी तक बोला नहीं है अर्थात् अपनी पहचान या अस्मिता का दावा नहीं किया था।

निष्कर्ष

निष्कर्षतः अस्मितामूलक विमर्श के निर्माण विभिन्न विचारधाराओं का योगदान है। इन विचारधाराओं ने विभिन्न प्रकार की अस्मिताओं को उभारने, उन्हें स्वर और पहचान देने का कार्य किया है। ये विचारधाराएँ समाज को समग्रता की जगह उन्हें अलग-अलग टुकड़ों में देखने का आग्रह करती हैं। इन विचारधाराओं में अस्मिता के स्वरूप को लेकर कहीं भेद है तो कहीं एकता। उदाहरणस्वरूप उत्तर आधुनिकतावाद और सबाल्टर्न दृष्टि दोनों हाशिये पर खड़ी अस्मिताओं को केंद्र में लाने पर जोर देते हैं। यहाँ प्रश्न यह है कि अगर इतनी सारी अस्मिताएँ हैं तो इनकी सामूहिक मुक्ति होगी या अलग-अलग? यहाँ पर अस्मिता-विमर्शकार मार्क्सवादी सिद्धांतों का भी सहारा लेते हैं। अभी अस्मिता-विमर्श संबंधी सिद्धांत विकासमान हैं। अस्मिताओं के आपसी संघर्ष भी अस्मिता-विमर्श के लिए एक महत्त्वपूर्ण विचारणीय बिंदु है। अस्मिता-विमर्श की दशा और दिशा दोनों अभी भी भविष्य के गर्भ में छिपे हैं। फिर भी इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अस्मितामूलक विमर्श संबंधी सिद्धांतों एवं विचारों ने उन्हें आवाज और पहचान दी, जो सदियों से समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग हो हाशिए पर खड़े थे।

संदर्भ सूची

1.      हंस, जून 2009, पृष्ठ संख्या 09

2.      वही, पृष्ठ संख्या 09

3.      दुबे, अभय कुमार (संपादक), भारत का भूमंडलीकरण, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली पृष्ठ संख्या - 455

4.      सेन, अमर्त्य, 2006, हिंसा और अस्मिता का संकट (अनुवाद : महेन्द्र कुलश्रेष्ठ), राजपाल एंड संस, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या – 19-20

5.      ठाकुर, समीक्षा (संपादक) 2006, बात-बात में बात, संपादक :, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या - 292

6.      हंस, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 56

7.      डॉ. अमरनाथ, छात्र संस्करण: 2018, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, , पृष्ठ सं. - 46

8.      वही, पृष्ठ संख्या - 80

9.      मीणा, गंगा सहाय (संपादक), 2014, आदिवासी साहित्य विमर्श, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली, पृष्ठ सं-120

 



[1] हंस, जून 2009, पृष्ठ संख्या 09

[2] वही, पृष्ठ संख्या 09

[3] दुबे, अभय कुमार (संपादक), भारत का भूमंडलीकरण, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली पृष्ठ संख्या - 455

[4] सेन, अमर्त्य, 2006, हिंसा और अस्मिता का संकट (अनुवाद : महेन्द्र कुलश्रेष्ठ), राजपाल एंड संस, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या – 19-20

[5] ठाकुर, समीक्षा (संपादक) 2006, बात-बात में बात, संपादक :, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या - 292

[6] हंस, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 56

[7] डॉ. अमरनाथ, छात्र संस्करण: 2018, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, , पृष्ठ सं. - 46

[8] वही, पृष्ठ संख्या - 80

[9] मीणा, गंगा सहाय (संपादक), 2014, आदिवासी साहित्य विमर्श, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली, पृष्ठ सं-120

अतिथि शिक्षक, बी.एन. कॉलेज, हिन्दी विभाग,

ईमेल-piyushraj2007@gmail.com,

मोबाईल- 9868030533

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