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हिन्दी साहित्य में उभरता प्रवासी साहित्य -राजपाल (Pravasi Sahitya)

हिन्दी साहित्य में उभरता प्रवासी साहित्य (Pravasi Sahitya)

राजपाल



सारांश: भारतीयों के विदेश आगमन, उनके संघर्ष और विकास का दस्तावेज़ ’प्रवासी साहित्य’ अपने अस्तित्व को कायम कर एक नये आयाम को गढ़ने की ओर अग्रसर है, क्योंकि भारतवंशियों ने हिन्दी को वैश्विक पटल पर इस कद्र स्थापित कर दिया है कि उसकी छोटी-सी सुगबुगाहट नित-नये बड़े रूप में परिवर्तित होकर परिचर्चाओं का विषय बन रही है। प्रवासी लेखक अनेक बार स्वदेश-परदेश के द्वन्द्व में जीता हुआ नई-नई अनुभूतियों, तनावों और विसंगतियों से गुजरता है और जिस को साहित्य में नए भाव बोध, नए दृष्टिकोण तथा नए जीवन मूल्यों के साथ सर्जन कर देता है। अतः प्रवासी साहित्यकारों की साहित्यिक परम्परा हिन्दी साहित्य को समृद्ध और विकसित बनाने में अपनी महत्ती भूमिका अदा करते हुए विदेश धरती पर अपनी संस्कृति, भाषा और संस्कारों को कायम रख रही है। देश से इतर विदेशों में हिन्दी साहित्य के विकास के साथ नई दशा व दिशा भी तय कर रहे है।
                                        

बीज शब्द: प्रवास, प्रवासी साहित्य, प्रवासी रचनाकार। 


प्रस्तावना: हिन्दी के साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में ’प्रवासी साहित्य’ शब्द अपने अस्तित्व को कायम कर एक नये आयाम को गढ़ने की ओर अग्रसर है, क्योंकि भारतवंशियों ने हिन्दी को वैश्विक पटल पर इस कद्र स्थापित कर दिया है कि उसकी छोटी-सी सुगबुगाहट नित-नये बड़े रूप में परिवर्तित होकर परिचर्चाओं का विषय बन रही है। ’प्रवास’ शब्द का मूल अर्थ विस्थापन से जुड़ा है, जब व्यक्ति अपनी मातृभूमि, जन्मस्थान और देश को छोड़कर नई भूमि और नए आवास के साथ नये भाव विचारों के धरातल पर पहँुचता है और उसे अभिव्यक्ति का विषय बनाता है। उस अभिव्यक्ति में संस्कृति, सभ्यता, साहित्य व अस्तित्व को कायम रखने का स्तुत्य प्रयास रहता है, और इसी प्रयास से ’प्रवासी साहित्य’ का उदय होता है।

’प्रवासी भारतीय हिन्दी साहित्य का इतिहास लगभग डेढ़ सौ वर्षों का है और यह साहित्य प्रधानतः भारतीयों के विदेश आगमन, उनके संघर्ष और विकास का दस्तावेज़ कहा जा सकता है। प्रवासी भारतीय साहित्य के सृजनात्मक हिन्दी साहित्य की मूल संवेदना प्रवास की पीड़ा है जो साहित्य में आद्यन्त देखने को मिलेगी यद्यपि उसका स्वरूप विविध सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों के कारण बदलता हुआ दिखता है। प्रवास में जहाँ व्यक्ति के मन में एक ओर नई जगह जाने का उत्साह है, चुनौती है, नई आशाएँ और कामनाएँ हैं वहीं दूसरी और बिछोह की पीड़ा है, विस्थापन का कष्ट है और भविष्य की आशंकाएँ हैं। इन भावों में डूबता उतराता मानव प्रवास का निश्चय करता है। अपनों का विछोह, अपनी मिट्टी का विछोह प्रवासी के मन में एक गहरी कसक उत्पन्न करता है। इस कसक को व्यक्ति नए सुखमय भविष्य की आशा में भुलाने की चेष्टा करता है। यदि नया वातावरण अधिक सुख-सुविधा संपन्न है तो प्रवासी धीरे-धीरे नए वातावरण में रस जाता है और विछोह की पीड़ा धीरे-धीरे कम होती जाती है। वहीं दूसरी ओर यदि प्रवास वह वातावरण नहीं दे पाता जिस आशा से व्यक्ति अपना घर-बार छोड़कर विदेश गया है तो प्रवास बड़ा कष्टकर लगता है, उसका मन क्षोभ और ग्लानि से भर जाता है। न वह अपने देश को जा सकता है और न ही उसका मन यहाँ लगता है।’1


’प्रवासी साहित्य ने हिन्दी साहित्य के उन सरोकारों को भी साहित्य की परिधि में समाहित किया है, जिनका भौगोलिक प्रसार तो बहुत विस्तृत है, किन्तु संवेदना के धरातल पर वह विदेशों में बसे पूरे वर्ग विशेष का प्रतिनिधि करते है, जो विदेशों में बसा है। प्रवास साहित्य वास्तव में भारत की उस मानसिकता का द्योतन कर रहा है, जो प्रवास में रहकर आर्थिक रूप से सम्पन्न हो रहा है। भारतीय मुद्रा की तुलना में विदेशी मुद्रा का भारीपन युवा वर्ग को और भी अधिक आकर्षिक कर रहा है, परन्तु इस आकर्षण के पीछे का घोर यथार्थ कुछ और ही है। विदेश में पहँुचते ही व्यक्ति उन सब कामों को भी करने के लिए तत्पर हो जाता है, जो अपने देश में उसे बहुत तुच्छ प्रतीत होते हैं।’2

अपनी भूमि को छोड़कर विदेश गया व्यक्ति पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवासी ही रहता है। उसके मन में प्रवास की पीड़ा होती है। उसके मन में एक दुविधा निरंतर बनी रहती है कि यह नई दुनिया उसके लिए अधिक अच्छी हैं कि नहीं वह अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने जीवन मूल्यों को बराबर पकड़े रहना चाहता है क्योंकि यही दूसरे देश में उसकी अपनी पहचान है। नए देश के मूल निवासी कभी भी उसे पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं पाते। रूप रंग भेद ही नहीं भाषा, खान-पान, आचार-विचार, रीति-रिवाज, जीवन मूल्य का अंतर विदेश में उसे अलग बनाए रखता है। यही प्रवासी का दंश है।3 प्रवासी भारतीय सारी दुनिया में फैले हुए हैं। लगभग तीन करोड़ प्रवासी तथा भारतवंशी आज विश्व के लगभग चालीस देशों में रहते हैं। जिनको दो वर्गों में रख कर देखा जा सकता है-पहला वर्ग ऐसे भारतीयों का जिन्हें अंग्रेज, डच व फ्रांसीसी शासक अपने-अपने गुलाम देशों में धोखे से गिरमिटिया मजदूर बनाकर ले गए थे। भारत से फीजी, सूरीनाम, माॅरीशस, त्रिनिदाद गए इन गिरमिटिया मजदूरों ने हिम्मत नहीं हारी। तमाम कष्टों, तिरस्कार, परेशानियां और शोषण सहकर भी परायी भूमि में अपनी पहचान को बनाए रखा। ये लोग अपने साथ विरासत के रूप में धर्मग्रंथ, लोकगीत, स्वभाषा, संस्कृति और परम्पराओं को लेकर गए थे और तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद उन्होंने इन्हें सुरक्षित रखा। यहीं कारण कि देश से दूर विदेशों में भारतीय भाषा व संस्कृति अक्षुण्ण रही।4 दूसरे वर्ग में वे भारतीय शामिल है जो अपनी इच्छा से देश छोड़कर विदेशों में बस गए हैं। देश की आजादी से बहुत पहले ही भारतीयों ने विदेशों में जाकर बसना शुरू कर दिया था। बेशक वे विदेशों में जाकर बस गए हो पर अपनी जड़ों से नहीं कटे हैं। भारतीय संस्कार और भाषा उनकी आत्मा में रच-बस रही है। विदेशों में रहने वाले प्रवासी लेखकों ने अपनी लेखनी को माध्यम बनाकर न केवल भारतीय परिवेश, संस्कारों, यहाँ की मिट्टी की गंध, पर्व-त्योहारों को जीवित रखा वरन् विदेशों के परिवेश, संस्कारों, समस्याओं, परिस्थितियों एवं भाषा से भी हिन्दी पाठकों को रूबरू करा हिन्दी का अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप विकसित किया है।5 

वैश्विक पटल पर प्रवासी हिन्दी साहित्य की चर्चा में पहला नाम माॅरीशस का आता है। जहाँ पर पं. बासदेव बिसुनदयाल तथा श्री हेमराज सुन्दर आदि साहित्यकारों ने हिन्दी साहित्य का आरम्भ कर हिन्दी भाषा को विदेशों में स्थापित करने का प्रयास किया। माॅरीशस के प्रेमचन्द के नाम से विख्यात अभिमन्यु अनत इस अभियान के सबसे बड़े महारथी है उनके नाम से प्रवासी साहित्य की अवधारणा ही जीवंत हो उठती है। साथ ही रामदेव धुरधर, वीरसेन जगा सिंह, ब्रजेन्द भगत मधुकर, डाॅ. मुनीश्वरलाल चिंतामणि, इन्द्रनाथ भोला, बेणीमाधव, रामखिलावन, सुमति बुधन, पूजानंद नेमा, महेश रामजियावन, प्रहलाद रामशरण, के. हजारी सिंह, सोमदत्त बखौरी और राजेन्द्र अरुण जैसे सितारे चमकते दिखाई देते हैं। माॅरीशस के प्रथम प्रवासी कवि के रूप में पं. लक्ष्मी नारायण चतुर्वेदी का नाम बडे. आदर से लिया जाता है। इनकी प्रथम रचना का नाम ’रसपुंज कुण्डलियां’ है इसके अतिरिक्त चतुर्वेदी ने अनेक सृजनात्मक लेखन कार्य कर हिन्दी को समुन्नत किया है। 

फीजी में पत्रकारिता से अपने कैरियर से आरम्भ कर हिन्दी साहित्य का विस्तार करने वाले श्री दिवाकर प्रसाद और श्री भास्कर मिश्र ने फीजी रेडियों में हिन्दी को प्रतिष्ठित किया। डाॅ.मणिलाल ने माॅरीशस एवं फीजी में दलित प्रवासी भारतीयों को सम्मान दिलाने के लिए लंबा संघर्ष किया। गिरमिटिया मजदूरों को संगठित करने हेतु उन्होंने अंग्रेजी ’द सेटलर’ के नाम से वर्ष 1913 में समाचार पत्र प्रकाशित किया। पंडित शिवराम शर्मा ने इसी का हिन्दी संस्करण बाद में निकाला, जो फीजी का पहला प्रकाशित हिन्दी समाचार पत्र माना जाता है। बाबू राम सिंह ने फीजी समाचार, वैदिक संदेश, शांतिदूत आदि का प्रकाशन, संपादन किया। पाक्षिक समाचार पत्र शांतिदूत को विदेश में हिन्दी पत्रकारिता का सशक्त हस्तााक्षर माना जाता है जो अभी भी प्रकाशित हो रहा है। इसके अतिरिक्त कमला प्रसाद मिश्र, विवेकानंद शर्मा, महावीर मित्र, काशीराम कुमुद, ज्ञानीसिंह सुब्रमणी आदि ने भारी संख्या में सृजनात्मक लेखन किया है। आपदाओं से रहित और सम्पदाओं से युक्त सूरीनाम से मुंशी रहमान खान पहले हिन्दी कवि है। उनकी ’रहमान दोहा शिक्षावली’ प्रमुख काव्य संग्रह है। जिनकी कविताओं में भारत के प्राचीन कवियों की झलक मिलती है। इसके अतिरिक्त अमर सिंह रमण, सुरजन परोही, त्रिनिदाद की ममता लक्ष्मना, हरिशरि आदेश, गुयाना के रंडल बूटी सिंह, राम लाल, दक्षिण अफ्रीका के पंडित तुलसी राम, प्रो. रामभजन सीताराम, उषा देवी शुक्ल, भवानी प्रीतिपाल, मालती रामबली आदि साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। 

अमेरिका में बसे प्रवासी भारतीयों में बाहर रहने का दर्द महसूस किया जा सकता है। उन्नीसवीं सदी के आरम्भ तक भारतीय अमेरिका एवं कनाडा में जाकर रहना आरम्भ कर चुके थे। इनमें से अधिकतर पंजाब के थे। 18 अक्टूबर 1980 को अंतरराष्ट्रीय हिन्दी समिति की स्थापना अमेरिका में हुई। विश्व हिन्दी समिति यहाँ की प्रमुख संस्था है जो हिन्दी को शिक्षा के माध्यम से विस्तारित करती है। बहुचर्चित पत्रिका विश्वा तथा सौरभ, हिन्दी चेतना, विज्ञान प्रकाश, हिन्दी जगत्, बाल जगत्, अन्यथा आदि कनाडा तथा अमेरिका की प्रमुख पत्रिकाएँ है। अमेरिका के उमेश अग्नि होत्री, गुलाब खण्डेलवाल, डाॅ. विजय कुमार मेहता, श्री ओम प्रकाश गौड़ प्रवासी, रामेश्वर अशांत, डाॅ. वेद प्रकाश वटुक तक नई शृंखला में सुधा ओम ढींगरा, हिमांशु पाठक, धनंजय कुमार, राकेश खण्डेलवाल, सुरेन्द्र कुमार तिवार, अनंत कौर, अंजना संधीर और नरेन्द्र सेठी हिन्दी प्रवासी कविता के स्थापित नाम हैं। सोमा वीरा, उषा प्रियंवदा, सुषम बेदी, सुदर्शन प्रियदर्शिनी आदि कथा साहित्य के बहुत चर्चित नाम है। इसके अलावा कनाडा में सुमन घई, मधु वाष्र्णेय, श्री नरेन्द्र भागी, आचार्य शिव शंकर द्विवेदी, राज शर्मा, श्री श्याम त्रिपाठी, श्री नाथ द्विवेदी, श्री समीर लाल, जसवीर कलरवी, डाॅ. भूपेन्द्र सिंह, हरदेव सोढ़ी, श्री ललित अहलूवालिया, श्री भुवनेश्वरी पांडेय, श्री अमर सिंह जैन और डेनमार्क से अर्चना पैन्यूली जैसे साहित्यकारों ने हिन्दी के गौरव को बढ़ाया है।

इंग्लैंड को कर्मभूमि बनाकर प्रवासी हिन्दी साहित्यकारों ने काफी सक्रियता दिखाई है। इनके साहित्य में भारत, भारतीय संस्कृति, सभ्यता और भाषा के प्रति हर तरह विचार और अनुभव प्रकट होते दिखाई देते है। प्रमुख साहित्यकारों में डाॅ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव, उषा राज सक्सेना, डाॅ. कृष्ण कुमार, तेजिन्द्र शर्मा, डाॅ. कविता वाचक्नवी, डाॅ. निखिल कौशिक, मोहन राणा, श्रीमती दिव्या माथुर, डाॅ. गौतम सचदेव, डाॅ. पद्मेश गुप्त, श्री महेन्द्र दवेसर दीपक, रमेश पटेल, शैल अग्रवाल, प्रियवंदा मिश्रा, उषा वर्मा, कादम्बरी मेहरा, पुष्पा भार्गव, विद्या मायर, कीर्ति चैधरी, अरुणा सभरवाल, श्यामा कुमार, डाॅ. इंदिरा आनन्द, वेद मित्र मोहला, नीना पाॅल, नरेश अरोड़ा, अचला शर्मा, चंचल जैन, डाॅ. कृष्ण कन्हैया, जय वर्मा, सुरेन्द्र नाथ लाल, सोहन राही, रमा जोशी, श्रीपति उपाध्याय, एस.पी. गुप्ता, यश गुप्ता आदि का नाम शामिल किया जाता है।’6 प्रवासी साहित्य के वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए यह बात पूरी मजबूती से साथ कही जा सकती है कि पिछले कुछ दशकों से प्रवासी साहित्य ने हिन्दी को वैश्विक रूप प्रदान किया है। हिन्दी का प्रवासी साहित्य भारतेतर देशों को भारत से जोड़ने का एक सेतु बनाता है, जिसके मूल में भारतवंशियों के स्वदेश प्रेम, भाषा प्रेम, संस्कृति प्रेम उनकी संलग्नता, सहभागिता एवं सहयोग अटूट रूप से संबद्ध है। यह सेतु विश्वव्यापी हिन्दी साहित्यिक समाज का निर्माण करता है। विभिन्न देशों के लेखक एवं हिन्दी समाज भारत के हिन्दी समाज से जुड़े है और परस्पर एक-दूसरे के निकट आकर हिन्दी विश्व को स्थापित करते हैं। इस प्रवासी हिन्दी साहित्य ने प्रदेश में रहते हुए स्वदेश को देखने का दृष्टिकोण बदला है और वहाँ की परिस्थितियों, जीवन संघर्ष आदि को देखने, समझने, जीने के दृष्टिकोण में क्रांतिकारी रूप से उद्वेलन एवं परिर्वतन उत्पन्न किया है। प्रवासी लेखक अनेक बार स्वदेश-परदेश के द्वन्द्व में जीता है। नई-नई अनुभूतीय तनावों और विसंगतियों से गुजरता है और उसके साहित्य में नए भाव बोध, नया दृष्टिकोण तथा नए जीवन मूल्यों की सर्जना की जाती है। प्रवासी लेखक में फिर भी अपनी मातृभूमि और अपने देश का मनोभाव रहता है।’7

निष्कर्ष: अतः प्रवासी साहित्यकारों की साहित्यिक परम्परा हिन्दी साहित्य को समृद्ध और विकसित बनाने में अपनी महत्ती भूमिका अदा करते हुए विदेश धरती पर अपनी संस्कृति, भाषा और संस्कारों को कायम रख रही है। देश से इतर विदेशों में हिन्दी साहित्य के विकास के साथ नई दशा व दिशा भी तय कर रहे है। हिन्दी भाषा के वैश्विक सन्दर्भ के विषय में डाॅ. करुणाशंकर उपाध्याय कहते है- यह सच है कि वर्तमान वैश्विक परिवेश में भारत की बढ़ती उपस्थिति हिन्दी की हैसियत का भी उन्नयन कर रही है। आज हिन्दी राष्ट्र भाषा की गंगा से विश्वभाषा का गंगासागर बनने की प्रक्रिया में है।’8 वो दिन दूर नहीं जब प्रवासी साहित्यकार अपनी सृजनात्मक लेखनी से हिन्दी को वैश्विक पाठकों तक पहुँचाते हुए ऊँचे सिंहासन पर विराजमान कर उसे गौरवान्वित करेंगे।


सन्दर्भ ग्रंथ:
1. संध्या गर्ग (संपा) प्रवासी साहित्य भाव और विचार, दिल्ली: साहित्य संचय, प्रथम संस्करण 2017, पृ. 76. 
2. रमा (संपा) प्रवासी हिन्दी साहित्य विविध आयाम, दिल्ली: साहित्य संचय, प्रथम संस्करण 2017, पृ. 59. 
3. संध्या गर्ग (संपा) प्रवासी साहित्य भाव और विचार, दिल्ली: साहित्य संचय, प्रथम संस्करण 2017, पृ. 76. 
4. संध्या गर्ग (संपा) प्रवासी साहित्य भाव और विचार, दिल्ली: साहित्य संचय, प्रथम संस्करण 2017, पृ. 118. 
5. संध्या गर्ग (संपा) प्रवासी साहित्य भाव और विचार, दिल्ली: साहित्य संचय, प्रथम संस्करण 2017, पृ. 119.
6. रमा (संपा) संपादकीय, प्रवासी हिन्दी साहित्य विविध आयाम, दिल्ली: साहित्य संचय, प्रथम संस्करण 2017. 
7. संध्या गर्ग (संपा) प्रवासी साहित्य भाव और विचार, दिल्ली: साहित्य संचय, प्रथम संस्करण 2017, पृ. 146.
8. करुणाशंकर उपाध्याय, हिन्दी का विश्व सन्दर्भ, पृ. 11

सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
डी.ए.वी. काॅलेज, अबोहर (पंजाब) 
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