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हिन्दी साहित्य में आदिकालीन प्रमुख कवियों का प्रदान

Hindi Sahitya Ka itihas Adikal

“हिन्दी साहित्य में आदिकालीन प्रमुख कवियों का प्रदान”

डॉ.नयना डेलीवाला.
अहमदाबाद.


आदिकाल का परिचय एवं प्रमुख कवि 

हिंदी भाषा औऱ साहित्य का आरंभ दसवीं शताब्दी से माना जाता है। इस प्रकार हिंदी साहित्य का इतिहास भी करीब 1000 वर्षो का है। इसके अध्ययन की सरलता हेतु काल में विभाजित किया गया।डॉ.ग्रियर्सन,मिश्रबंधु,एफ.ई,आ.शुक्लजी, डॉ.रामकुमार वर्मा,आ.हजारी प्रसाद आदि ने अपने-अपने मतानुसार काल विभाजन किया, अपितु आ.शुक्लजी ने तत् युगीन प्रवृतियों को आधार बनाकर काल विभाजन किया। उन्होंने आदिकाल को वीरगाथा काल नाम की संज्ञा से अभिहित किया है।यही काल-विभाजन हिंदी साहित्यकारों के बीच बहुमान्य है।

1 वीरगाथा काल -----संवत 1050 से1375 तक
 2 भक्तिकाल ----1375 से 1700 तक,
3 रीतिकाल ------- संवत 1700 से 1900 तक, 
 4 आधुनिक काल ----संवत 1900 से अब तक.


किसी भी युग की पहचान उसकी परिस्थितियों पर आधारित होती है।ठीक वैसे ही इस युग की राजनीतिक,सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियाँ साहित्यिक वातावरण निर्माण में सहयोगी बनी है।इस युग में तीन धाराएँ प्रवर्तमान थीं,संस्कृत में ज्योतीष,दर्शन,साहित्य आदि विषयों को लेकर संपन्नता रही। प्राकृत अपभ्रंश में भी साहित्य रचनाएं होती थी। जैन और बौद्ध धर्म के साहित्य की रचना अत्यधिक होती थी। भाषा की द्रष्टि से भी ये काल विशेष रहा। इस काल में जो विशेषता है उसके कारण आज भी कवि--ग्रंथ पठनीय एवं दिशा दर्शक रहें है, उनका साहित्यिक प्रदान अतुल्य एवं अमूल्य है, जिनकी बात मैं रख रही हूँ।
adikal ke pramukh kavi



आ. हेमचंद्र 

इनका जन्म गुजरात में अहमदाबाद से करीब धंधूका नगर में हुआ था, समय विक्रम संवत 1145 में, पिता चाच और माता पाहिणी देवी थे। इनका बचपन का नाम था चांगदेव। वे 1089 – 1173 शती के विद्वान माने जाते थे। माता पाहिणी और मामा नेमिनाथ जैन थे। खंभात में 9 वर्ष की आयु में जैन संघ द्वारा दीक्षा संस्कार हुए। बाद में नाम रखा गया सोमचंद्र। तन से तेजस्वी और शशि समान कांतिवाले होने के कारण हेमचंद्र कहलाए। वे एक प्रतिभाशाली मनीषी थे। राजा सिद्धराज जयसिंह और उनके भतीजे कुमारपाल के यहाँ बड़ा सम्मान था इनका । संस्कृत कोशकारों में हेमचंद्र का विशेष महत्व था। वे कवि थे,काव्य-शास्त्र के आचार्य थे,योगशास्त्र मर्मज्ञ,जैन धर्म और दर्शन के प्रकांड पंडित, एक अनोखे प्रकार के टीकाकार थे। तो दूसरी ओर वे नाना भाषाओं के मर्मज्ञ, उनके व्याकरणकार तथा अनेक भाषाओं के कोशकार भी थे।

उनकी व्याकरणपरक रचनाओं में शब्दानुशासन तथा सिद्धराज के समय की सिद्ध हेमचंद्र शब्दानुशासन हैं। सिद्ध हेमचंद्र शब्दानुशासन में संस्कृत,प्राकृत एवं अपभ्रंश तीनों को सम्मिलीत किया गया। साथ ही उन्होंने पूर्वाचार्यों के ग्रंथों का अनुशीलन कर के एक सरल व्याकरण की रचना कर संस्कृत-प्राकृत दोनों ही भाषाओं को अनुशासित किया है। हेमचंद्र ने सिद्धहेम नामक नूतन पंचांग व्याकरण तैयार किया।

आ.हेमचंद्र के अलंकारग्रंथ काव्यानुशासन है। आठ अध्यायो में विभाजित है, जिसमें सूत्र, व्याख्या औऱ सोदाहरण-वृत्ति। इस प्रकार तीन भाग है।इसके 208 सूत्रो में काव्य शास्त्र के सारे विषयों का प्रतिपादन किया है। इस तरह काव्यानुशासन एक संग्रह ग्रंथ है।सूत्रों की व्याख्या करनेवाली रचना अलंकारचूडामणी है और इसे अधिक स्पष्ट करने के लिए विवेक नामक वृत्ति भी लिखी गई।

संस्कृत में अनेक कोशों की रचना के साथ साथ प्राकृत और अपभ्रंश कोश देशीनाममाला का भी संपादन किया। अभिधानचिंतामणी नाममाला इनका प्रसिद्ध पर्यायवाची कोश है। इसके छह कांड है जिनका प्रथम कांड सिर्फ जैन देवों और जैनमतीय या धार्मिक शब्दों से संबद्ध है। लिंगनुशासन एक पृथक ग्रंथ है। अभिधानचिंतमणी पर उनकी स्वरचित यशोविजय टीका है। इसके अतिरिक्त व्युत्पत्तिरत्ना- कर और सारोद्धार प्रसिद्ध टीकाएँ है।

आ.हेमचंद्र का प्रमाणमीमांसा अपूर्ण दार्शनिक ग्रंथ है। जिसका संपादन प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलालजी द्वारा पूरा हुआ। आ. हेमचंद्र के अनुसार प्रमाण दो ही है प्रत्यक्ष और परोक्ष। जो एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न है। प्रमाणमीमांसा से संपूर्ण भारतीय दर्शन शास्त्र के गौरव में अभिवृद्धि हुई है।

योगशास्त्र ग्रंथ की शैली पतंजलि योगसूत्र के अनुसार है। किंतु विषय और वर्णन क्रम में मौलिकता एवं भिन्नता है। योगशास्त्र नीति विषयक जैन संप्रदाय का धार्मिक एवं दार्शनिक, उपदेशात्मक काव्य कोटी का, अध्यात्मोपनिषद ग्रंथ है। इस ग्रंथ के द्वारा आचार्य ने गृहस्थ जीवन में आत्मसाधना की प्रेरणा दी। पुरूषार्थ के लिए प्रेरित किया।इनका मूल मंत्र है स्वावलंबन।

आ. हेमचंद्र ने ग्रंथ रचना के द्वारा भक्ति के साथ श्रवण धर्म तथा साधना युक्त आचार धर्म का प्रचार किया। सात्विक जीवन स् दीर्घायु बनने के उपाय बताये। सदाचार सा आदर्श नागरिक निर्माण कर समाज को सुव्यवस्थित करने में अपूर्व योगदान दिया।

कवि धनपाल-

 11 वीं शती के अपभ्रंश भाषा के कवि का आदि काल में गौरव पूर्वक नाम लिया जात है। उनका ग्रंथ भविष्यतकहा के विषय में माना जाता है कि जर्मन विद्वान हर्मन जैकोबी ने इनके ग्रंथ को सर्व प्रथम अहमदाबाद के जैन ग्रंथ भंडार में पाया। वे दिगम्बर जैन थे। उनके बोलचाल की भाषा अपभ्रंश के निकट थी। भविष्यतकहा 22 संधियों का काव्य है, जिसमें गजपुर के नगरसेठ के पुत्र की लौकिक कथा है। जैकोबी ने इस ग्रंथ का गहन अध्ययन कर पांडित्यपूर्ण भूमिका के साथ म्यूनिख में प्रकाशित कराया। प्रो.भायाणी के अनुसार—इस ग्रंथ की भाषा के आधार पर यह रचना स्वयंभू के पश्चात और हेमचंद्र के पूर्व की मानी जाती है।

महाकवि विद्यापति-

 विद्यापति का वंश ब्राह्मण और उपाधि ठाकुर की थी। महाकवि विद्यापति के जीवन संबंधी कोई स्वलिखित प्रमाण प्राप्त नहीं होते। इन्होंने ओईनवार राजवंश के अनेक राजाओं के शासनकाल में अपना कवि कर्म किया है।वे राजाओं के नाम है देवसिंह, कीर्तिसिंह,शिवसिंह,पद्मसिंह,नरसिंह,धीरसिंह भैरवसिंह,चन्द्रसिंह।

महाराजा देवसिंह की आज्ञा से भूपरिक्रमा नामक ग्रंथ की रचना की। इसमें नैमिषारण्य से मिथिला तक की सारी तीर्थस्थली का विशद वर्णन मिलता है।भाषा और शैली की द्रष्टि से ये महाकवि का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। वे कई भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने अवहट्ट और संस्कृत में अनेक रचनाएँ की है। कीर्लतता औऱ कीर्तिपताका की रचना अवहट्ट में की है जिसमें राजा कीर्तिसिंह की गुणग्राहकता का चित्रण है। पदावली ग्रंथ की भाषा ब्रज मिश्रित मैथिली है।हिंदी साहित्य के अभिनव जयदेव के नाम से वे अधिक प्रशंसनीय रहे हैं।महाकवि के काव्य में वीर श्रृंगार के साथ भक्ति एवं गीति तत्व की बहुलता प्राप्त होती है।यही गीतात्मकता उन्हें कवि पंक्तियों से अलग स्थान दिलाती है।

पुरूष-परीक्षा,लिखनावली,शैव-सर्वस्व-सार, गंगा वाक्यावली, दान वाक्यावली, दूर्गाभक्ति तरंगिणी,विभाग-सार,वर्ष कृत्य, और गया-पतन आदि अनेक रचनाएँ हैं। गोरक्ष—विजय उनका प्रसिद्ध नाटक है।मणिमंजरी एक लघु नाटिका है,जिसमें चंद्रसेन और मणमंजरी के प्रेम का वर्णन है।

विद्यापति की पदावली नाम से प्रसिद्ध रचना में राध-कृष्ण से संबंधित मैथिलि भाषा में रचे पदों का संकलन है।ये गेय पद है जिसमें राधा-कृष्ण के प्रेम के श्रृंगारिक मार्मिक वर्णन है। इनके पद्यो में कहीं अत्यधिक भक्ति उभरती है तो कहीं श्रृंगार बाहुल्य द्रष्टिगत होता है अतः उनके समय के पक्ष का विवाद यथातथ असमंजस में ही रहता है।

विद्यापति ने सिर्फ राधा-कृष्ण को ही नहीं विष्णु, राम, शिव आदि देवताओं को भी काव्य में स्थान दिया है, यहाँ तक कि आज भी उडीसा के शिव मंदिरों में उनके द्वारा रचित महेश भक्ति गाई जाती है। इनकी पदावली में जहां भावात्मकता, संक्षिप्तता,स्वाभाविकता संगीतात्मकता,सुकुमारता पाई जाती है वहां रससिद्धि,श्रृगारिकता,पाठक के हृदय को भावविभोर करनेवाले स्रष्टा, सिद्धहस्त कलाकार के दर्शन होते है।

कुशललाभ-

 11वींशतीं में रचित एक लोक-भाषा काव्य है ढ़ोला-मारू रा दूहा, जो दोहे में रचित है।इस काल में स्वच्छंद रुप से लौकिक विषयों पर ग्रंथ लिखने की प्रवृति द्रष्टिगत होती है। इस लोक काव्य को 17वीं शती में कुशललाभ वाचक ने कुछ चौपाईयां जोड़कर विस्तार दिया। इसमें मूलतः राजकुमार ढ़ोला और राजकुमारी मारवणी की प्रेमकथा का वर्णन है। राउलवेल के कवि रोडा ने प्रेम काव्य की जो परंपरा हिंदी में प्रारंभ की थी उसमें इस रचना के द्वारा विकास की एक नई दिशा प्राप्त हुई। इस काव्य में श्रृंगार और वीर परस्पर गड्डमड्ड दिखाई पड़ता है। इस रचना में नारी हृदय की मार्मिक व्यंजना,प्रेम का सात्विक, सरस पक्ष, सुंदरता सः अभिव्यक्त हुआ है।कवि ने मारवणी के मृदु भावों की व्यंजना में संस्कृत काव्य की परंपरा का प्रभाव ग्रहण किया है। ऋतुओं की सरसता के संदर्भ में विरह वर्णन अपना अनोखा रुप पेश करता है।

कवि स्वयंभू-

वे अपभ्रंश भाषा के महाकवि थे।इन्हें हिंदी के प्रथम कवि भी माना जाता है।उनकी रचनाओं द्वारा उनके विषय में कमो-बेश जानकारी उपलब्ध होती है।इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हुई है—पउमचरिउ(पद्मचरित),रिट्ठणेमिचरिउ(अरिष्टनेमि चरित), औऱ स्वयंभूछंदस्। उनकी प्रथम दो सर्वप्राचीन रचनाओ के आधार पर उन्हें महा कवि माना जाता है।

पउमचरिउ में पांच कांड है—विध्याधरकांड, अयोध्याकांड, सुन्दरकांड, युद्धकांड और उत्तरकांड।महापंडित रहुजीने तुलसीदासजी को इनसे प्रभावित कहा है।रामचरित मानस की चौपाइयों और इसकी चौपाइयों में वहुत साम्य नज़र आता है।

रिट्ठणेमिचरिउ में यादव,कुरू,युद्ध और उत्तर नामक चार कांड है। इसका आधार महाभारत और हरिवंश पुराण है, किंतु जैन धर्म की रक्षा के लिए कुछ परिवर्तन अवश्य किया गया है।

कवि पुष्पदंत---- वे अपभ्रंश के महा कवि थे। उनके तीन ग्रंथ उपलब्ध है। महापुराण, जसहरचरित, णायकुमारचरिअ। इन ग्रंथों की उत्थानिका एवं प्रशस्तियों में अपना वैयक्तिक परिचय दिया है।इसके अनुसार वे काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे।उन्हें तत्कालीन राष्ट्रकुल नरेश कृष्णराज तृतीय के मंत्री भरत ने आश्रय दिया और काव्य के लिए प्रेरित किया। इसके फलस्वरुप महापुराण की रचना हुई।

महापुराण में कुल 102 संधिया है,जिनमें 24 जैन तीर्थंकरों,12 चक्रवर्तियों, 9 वासुदेवों, 9 प्रतिवासुदेवों और 9 बलदेवों कुल मिलाकर 63 शलाकापुरूषों का वर्णन है। पुष्पदंत का महापुराण महाभारत की शैली का विकासशील महाकाव्य है।स्वंयभू में सहज स्वाभाविकता है पर पुष्पदंत में सायास अलंकृति नज़र आती है।

जसहरचरित की रचना पुष्पदंत अपने समकालीन सोमदेवकृत यशस्तिलकचम्पू के आधार पर की है।चार संधियों से इस काव्य में यशोधरा का जीवन और जन्म-जन्मांतर के वर्णन है, जिसके द्वारा हिंसा से होनेवाली हानियां और अहिंसा के गुणों का प्रभुत्व दिख- लाना है।

णायकुमारचरिउ—इस काव्य में नौ संधियां है,जिसमें कामदेव के अवतार नागकुमार का चरित्र वर्णन है। कवि ने इसमें पौराणिक प्रसंगों,ज्योतिष,नक्षत्रविद्या औऱ काव्यशास्त्र आदि का यथा अवसर प्रयोग किया है। हिंदी काव्य में जो प्रबंध काव्य की तथा छंद,रस, और अलंकारयोजना आदि की शैलियाँ पाई जाती है उनके ऐतिहासिक विकास को समझने के लिए पुष्पदंत के उक्त काव्य बड़े महत्वपूर्ण है।

कवि धवल--- अचर्चित कवि हैं पर जैन साहित्य में उनका अमूल्य योगदान रहा है।इनके द्वारा रचित हरिवंशपुराण 18 हजार पदों का अप्रकाशित संकलन है जिसकी 122 संधियां है। इनका समय करीब 11-12वीं शती का है।

सोमप्रभ सूरी--- ये एक जैन पंड़ित थे। इन्होंने संवत 1241 में कुमारपालप्रततिबोध नामक गद्यपद्यमय संस्कृत-प्राकृत काव्य लिखा,जिसमें समय-समय पर हेमचंद्र द्वारा कुमारपाल को अनेक प्रकार के उपदेश दिए जाने की कथाएँ लिखी है। यह ग्रंथ अधिकांश प्राकृत में रचा है पर बीच-बीच में संस्कृत और अपभ्रंश के दोहे हैं।

मुंज--- राजा भोज के चाचा मुंज के द्वारा कहे गए दोहों को भी आदिकाल के साहित्य में स्थान दिया जा सकता है।इनके दोहे अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के बहुत ही पुराने नमुने कहे जा सकते है।

अब्दुल रहमान---- संदेश रासक के अंतः साक्ष्य के आधार पर मुनि जिनविजय ने इस कवि को अमीर खुसरो से पूर्ववर्ती सिद्ध किया है और इनका जन्म 12वीं शतीं में माना जाता है। वे प्राकृत काव्य में निपूण थे। इन्होंने अपने ग्रंथ की रचना ग्राम्य अपभ्रंश में की। उनकी केवल एक ही कृति है—संदेशरासक, जिसकी हस्तप्रत पाटण के जैन भंडार में मिली है।इस रचना का समय 1100 के आस-पास का माना जाता है।यह रचना रासक काव्य स्वरुप की विशेषताओँ से युक्त तीन उपक्रमों में विभाजित 223 छंदों का एक छोटा सा विरह काव्य है। इस रचना की विशेषता उसकी कथा की अपेक्षा अभिव्यक्ति एवं कथन शैली में है। संदेशरासक श्रृंगार प्रधान रासक काव्यों का प्रतिनिधि ग्रंथ है। इसमें उत्कृष्ट काव्य कौशल और लोकतत्वों का सुंदर समन्वय है।

कवि विद्याधर---- इस कवि ने कन्नौज के किसी राठौर सम्राट के प्रताप और पराक्रम का वर्णन किसी ग्रंथ में किया था जिसके पद प्राकृत-पिंगल-सूत्र में मिलते हैं। उनका समय करीब विक्रम की 13वीं शती माना जाता है।

कवि शारंगधर---ये अच्छे कवि और सूत्रधार भी थे। इनका आयुर्वेद का प्रसिद्ध ग्रंथ है शारंगधर पद्धति। जो एक सुभाषित संग्रह है। रणथंभौर के प्रसिद्ध वीर महाराज हम्मीरदेव के प्रधान सभासदों में राघवदेव थे उनके पुत्र दामोदर के पुत्र थे शारंगधर। हम्मीरदेव संवत् 1357 में अल्लाउदीन की चढ़ाई में मारे गए, अतः इनके ग्रंथों का समय विक्रम की चौदहवीं शतीं का अंतिम चरण मानना चाहिए।

शारंगधरपद्धति में बहुत से शाबर मंत्र औऱ भाषा-चित्र-काव्य दिए है,जिसमें बीच-बीच में देशभाषा के वाक्य आए हैं।परंपरा से प्रसिद्ध हम्मीररासो की रचना शारंगधरने देश भाषा में की थी,जो आज कहीं उपलब्ध नहीं है। पर उसके अनुकरण पर लिखा गया बहुत पुराना एक ग्रंथ मिलता है। जिसमें प्राकृत-पिंगलसूत्र में हम्मीर की चढ़ाई,वीरता आदि के कई पद्य मिलते है।


उपर्युक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते है कि अपभ्रंश,प्राकृत औऱ हिंदी की क्रमशः परिपाटी में कवियों के प्रदान को देखें तो आ. हेमचंद्र का योगदान श्रेष्ठ माना जा सकता है। बेशक जिन-जिन कवियों ने तत्कालीन स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में जो अवदान दिया है, अपने-अपने स्थान पर अति महत्वपूर्ण इसीलिए है कि प्रत्येक कवि के ग्रंथो की समयानुसार लाक्षणिकता और विशेषता सिद्ध होती नज़र आती है। कई-कई रचनाएं अपने आप में युगीन परिवेश को उजागर करती है,तो कहीं पर ग्रंथ खुद एक दस्तावेज के रुप में उपस्थित है।आदिकाल की विशेष प्रवृतियों के आधार पर इन ग्रंथे का बड़ा ही महत्व है परिणाम स्वरुप हम आज अपने पाठ्यक्रमो से इसे विलगा नहीं सकते।कहते हैं न कि भविष्य हमेशा इतिहास पर निर्भर होता है। अगर ऐसा न होता तो हम परिवार की सात पुश्तों को क्यों संजोते है?

आदिकाल के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएं


अब्दुर्रहमान—संदेशरासक, नरपति नाल्ह—बीसलदेवरासो, चंदबरदायी---पृथ्वीराजरासो, दलपतविजय—खुमानरासो, जगनिक—परमालरासो,

शारंगधर—हम्मीररासो, नल्हसिंह—विजयपालरासो, जल्हकवि—बुद्धिरासो, माधवदास चारण—राम रासो, देल्हण—सुकुमालरासो, श्रीधर—

रणमलछंद,पीरीछत रायसा, जिनधर्मसूरा—स्थूलिभद्र रास, गुलाब कवि---करहिया के रायसो, शालिभद्रसूरी---भरतेश्वर बाहुअलिरास,

जोइन्दु—परमात्म प्रकाश, केदार---जयचंद प्रकाश, मधुकर कवि—जसमयंक चंद्रिका, स्वयंभू—पउमचरिउ, योगसार---सानयधम्म दोहा,

हरप्रसाद शास्त्री---बौद्धगान और दोहा, धनपाल---भविष्यतकहा, लक्ष्मीधर—प्राकृत पैंगलम, अमीर खुसरो---किस्साचाहा दरवेश,

खालिकबारी, विद्यापति---कीर्तिलता, कीर्तिपताका, विद्यापति पदावली।







संदर्भ ग्रंथ



1. हिन्दी साहित्य का इतिहास----संपा. डॉ.नगेन्द्र

2. हिन्दी साहित्य का प्राचीन इतिहास---डॉ.राजेश श्रीवास्तव

3. हिन्दी साहित्य का इतिहास---डॉ विजयेन्द्र स्नातक

4. हिन्दी साहित्य का इतिहास---आ.रामचंद्र शुक्ल




संपर्क सूत्र---- 301, आशीर्वाद फ्लैट, बी.के.सोसायटी—2, ना.न.रोड़, पालडी, अहमदाबाद---7. सचल वाक्—0-9327064948, 9727881031


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