अमनदीप कौर की कविताएँ
काट लो
वक़्त
रहते ही
बदज़ुबानी
के नाख़ुन
जब
जब बढ़ते हैं
आख़िरकार
चेहरा
अपना ही ज़ख़्मीं करते हैं ।
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बड़े
खनकते हैं
शब्द
हैं कि सिक्के
क्या
टकसाल में घढ़ते हो ?
ख़ैर
!
निज़ाम
का हुक़्म आया है
पिटारी
में बंद करके
अलमारी
में रखदो ये सिक्के
बड़ा
शोर करते हैं
जमहूरियत
सो रही है
नींद
में उलझन होती है।
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फूट
पड़ता है दर्द
पथरीली
आँखों से
किसी
झरने की मानिंद
दर्द
!
जो
ख़ुद एक समंदर है
जिसमें
तुम्हें डूबना ही होगा
जब
तक कि
तुम्हें
तैरना नहीं आ जाता।
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वो
कौन चली जा रही है ?
कौन
?
अच्छा
वो ?
कोई
ख़ास नहीं
बंजारन
है
यूँही
पैरों में ख़्वाब बाँधे फिरती है...
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तुम्हारे
साथ
मेरी
गुफ़तगू भी तो
नज़्म
ही होती है
कभी
लिख कर देखना ...
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ये
जानते हुए भी
कि
उधर
से कोई नहीं बोलेगा
इंतज़ार
रहता है
जवाब
का
सवाल
का
बात
का
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मोतिया
बेला
रात
की रानी
खुली
किताबें
क़लम
स्याही
नज़म
ग़ज़ल
किस्से
कहानी
आलम
से कह दो
दे
धुऐँ का सामाँ
कि
तेरे लबों पे
रक्स
करता ये धुआँ
इधर
दूर कहीं
किसी
सीने में सुलगता है।
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सच
के लिए
तय
करना होता है
एक
लम्बा सफ़र
एक
अनंत यात्रा
सच
शब्दों में नहीं
शब्दों
के बीच के अंतरालों में है
कुछ
ऐसा जो
लिखते
लिखते छूट जाता है
यां
फिर
छोड़
दिया जाता है जानबूझकर
सच
दो पंक्तियों के मध्य
रिक्त
स्थान में है
तुम्हारी
दृष्टि पैनी हो
कि
जो पढ़ सके
शब्दों
और पंक्तियों के बीच के खाली स्थानों को
तुम्हारी
मेधा इतनी प्रखर हो
कि
जो भांप सके
कि
जो लिखा गया है
वो
क्यों लिखा गया है
और
जो छोड़ दिया गया
वो
क्यों छोड़ा गया
सच
का सफ़र है
यकीनन
बहुत लम्बा और जोखिम भरा है
बेहतर
होगा तुम आरामदायक जूते पहनकर निकलो ...
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कौर
अमनदीप
चण्डीगढ़
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