विकास राय की कविताएँ
1. बुना हुआ स्वेटर
बहुत
छोटा था तो माँ ने एक स्वेटर बुना
आसमानी
रंग का,
आसमान
जितने ही असीम सपने बुने माँ ने उसमें
दो
सलाइयों से बुन रही थी वो मेरा बड़ा ओहदा,
दुनिया
में मेरा नाम,
एक भारी भरकम तनख्वाह,
आज
वो स्वेटर छोटा पड़ने लगा है मुझे
माँ
उघाड़ रही है वो स्वेटर और
तैयारी
कर रही है दुबारा बुनने की,
और बड़ा बुनने की
मैं
डरने लगा हूँ बुने हुए स्वेटर से…
माँ
उसमें उम्मीदें बुन देती है यार।
2. मेरा चाँद
यादें
जब से याद रहने लगीं,
तब
से याद है चाँद
याद
है मुझे,
कि
पहले वो सिर्फ मेरा था
उसकी
ठंढी रौशनी,
सिर्फ
मेरे लिए धरती तक आती थी
मेरे
ही पीछे पड़ा रहता था,
चेपू
साला
कहीं
भी जाऊं,
वो मेरे साथ होता था
तो
चलो...
मुझे
भी प्यार हो ही गया उससे
पर
भला हो उन किताबों का,
जिन्होंने
मुझे चाँद कि सच्चाई बताई
उम्र
करोड़ वर्ष,
आकार
मेरी
कल्पनाओं से कहीं ज्यादा बड़ा,
और
इससे कहीं बड़ी बात
की
वो मेरे नहीं,
धरती
के चारों ओर घूमता है
उसकी
सारी शीतलता,
धरती
की गर्मी के लिए है
मैं
ठगा सा खड़ा हूँ सब कुछ जान कर
चाहता
तो हूँ कि चाँद का इतिहास मिटा दूं
उसे
आज पैदा करूँ,
सिर्फ अपने लिए,
या
फिर मान लूं कि किताबें झूठी हैं
सच
वही है जो मैंने जिया है।
3. जूता, पैर और पैरों का मरना
जूतों
में रखे मेरे पांव
नंगे
पैरों को नहीं छूते
एक
खाल जो किसी और खाल से घिरी हो
एक
और खाल को कैसे महसूस करे वो ...
जिसे
छूना है और जिसको छूना है
उनकी
खालें सांस लेती हैं
पर
वो बीच का जूता
जो
मैंने बनाया है,
ताकी हवा, पानी, धूप
सबसे
बचाए रखूँ अपने पैर।
वो
बेजान खाल आती है,
मेरे
और तुम्हारे जिंदा खालों के बीच,
और
रोक देती है साँसों का बहाव।
मेरे
पैर यूँ ही मर गए घुटन से इन जूतों में,
और
तुम्हारे मरे तब,
जब मैं इन जूतों समेत
तुम्हारे
पैरों से होकर गुज़रा।
मैंने
बताया ना !
इस
दौरान मुझे महसूस नहीं हुए
तुम्हारे
पांव।
4. मौन स्वीकृति
सोते
हुए तुम्हारा चेहरा बहुत अच्छा लगता है,
मेरी
हर बात पर तुम्हारी मौन स्वीकृति...
चाँद
सुन्दर है,
तुम सुन्दर हो,
दुनिया
सुन्दर है,
मैं
उतना सुन्दर नहीं हूँ.
भगत
सिंह बहुत अच्छे थे,
गांधी जी भी बहुत अच्छे थे,
मैं
उतना अच्छा नहीं हूँ.
फिर
अचानक तुम कहती हो कि सो गयी हो तुम.
मेरे
भगत, मेरे गांधी, मेरी खूबसूरत दुनिया,
और
थोड़ा कम खूबसूरत मैं,
हम
सब सो जाते हैं साथ-साथ.
5. रंग
मैंने
सपने में देखा था तुम्हें पेंट करते कभी
वहाँ
मटमैले कैनवस पर ठीक वैसे ही ब्रश चला रही थी तुम
जैसे
किसान धान उगा रहा हो,
रोपनी, सोहनी
और कटाई करके।
पर
इस दौर में जहाँ हरियाली उदास है,
जहाँ
गाँव हताश हैं
तब
तुम्हारे कैनवस झक्क़ सफ़ेद कैसे पड़े हैं ?
इन्हें
रंगो ना धान की हरियाली से
या
सरसो का पीलापन रंग दो
या
उड़ेल दो आल्ते की शीशी हीं
पर
सफ़ेद मत रहने दो कैनवस,
ये
सफ़ेद इस दौर का मातम है,
ऐसा
ही चलता रहा तो एकदिन
तुम्हारे
हरा, पीला, चम्पई, नीला,
कुछ
भी रंगने से पहले
कैनवस
पर पड़ी होंगी लाल छींटें
और
याद रखना
इस
बार वो आल्ते वाली लाली नहीं होगी।
- विकास राय
15
/801 वसुंधरा, गाज़ियाबाद
उत्तर
प्रदेश- 201012
मो.
9958271277
ईमेल-
contactvikasrai@gmail.com
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