किसान आत्महत्या एवं सरकारी योजनाए: समाजशास्त्रीय विश्लेषण (विदर्भ के विशेष संदर्भ में): अभिषेक त्रिपाठी
किसान आत्महत्या एवं सरकारी योजनाए: समाजशास्त्रीय विश्लेषण
(विदर्भ के विशेष संदर्भ में)
अभिषेक त्रिपाठी
पी-एच.डी. शोधार्थी
प्रवासन एवं डायस्पोरा अध्ययन विभाग
म. गा. अं. हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)
मो. 09405510301
Email- abhisheksocio1991@gmail.com
सारांश -
आज, सरकार और समाज के सामने यक्ष-प्रश्न है कि आखिर कब तक, मजबूर होकर, अन्नदाता किसान, सल्फास का जहर खाकर या फंदे से लटक कर, आत्महत्या करता रहेगा? खेती किसी भी मुल्क के जिंदा रहने की बुनियाद होती है। जब बुनियाद ही नहीं रहेगी, तो ढांचा बिखर जायेगा। हम चाहे जितनी तरक्की कर लें, लेकिन किसानों की तरक्की के बगैर सही मायने में देश खुशहाल नहीं होगा। आज, खेती मौत की फसल में बदल चुकी है। आंकड़े भयावह हैं। वर्ष 2013 में कुल 23,544 किसानों ने आत्महत्या की। यह घोर विडंबना है कि कृषि प्रधान भारत में, आर्थिक दिवालियेपन से पीड़ित, प्रति 22 मिनट में एक अन्नदाता किसान खुदकुशी कर रहा है। राष्टीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरों के अनुसार सन् 1995-2010 के पंद्रह वर्षों में 2 लाख 56 हजार 949 किसानों ने आत्महत्या की।
मुख्य शब्द -
आत्महत्या, विदर्भ, किसान, सरकारी योजनाए।
भूमिका -
भारत देश की सबसे बड़ी इकाई गांव है। गांव में सामुदायिक भावना होती है। हमारा देश प्राचीनकाल से ही कृषि प्रधान देश है, उस समय लोगो का मुख्य पेशा पशुपालन व खेती उद्योग था। देश के किसान गरीब को पेट भरने के लिए अन्न, वस्त्र निवारा साहूकार और महाजनों ने छिना है। धूप तथा वर्षा से बचने के लिए उनके सिर पर छप्पर नहीं है। बंजर भूमि को समतल करके खेती योग्य बनाया। जहां सिचाई के लिए पानी एवं उपजाऊ भूमि थी। किसानों के लिए खेती 1965-66 में आई हरित क्रांति की दें है। जैविक खेती दूसरी हरित क्रांति भरपूर सिचाई पर आधारित है। फसल सूखने तथा कर्ज के तले दबने से किसान आत्महत्या कर रहा है। आज भारतीय किसान भयावह आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है। किसान विविध समस्याओं से ग्रस्त है। भारत में कृषि के पिछड़े होने की समस्या महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसके पीछे प्राकृतिक कारण, जनसंख्या विस्फोट, परम्परागत अनुपयोगी कृषि तंत्र, आर्थिक साधनों की कमी, ग्रामीण ऋणग्रस्तता की समस्या, ग्रामीण बेरोजगारी, तथा प्राकृतिक प्रकोप, आधुनिक खेती तकनीकी ज्ञान का अभाव, सरकार की उदासीनता, सरकारी योजनाओं का सही तरह से क्रियान्वयन न होना इन कारणों से किसान आत्महत्या कर रहा है।
आज भी, किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला जारी है। ‘ह्यूमन सिक्युरिटी एण्ड द केस आफ फार्मर स्यूसाइड इन इंडिया-एन एक्सपोलोरेशन’ (डॉ. ऋतंभरा हैब्बार, 2007) के अनुसार आत्महत्या करने वाले किसानों में ज्यादातर नकदी फसल की खेती करने वाले थे। मिसाल के तौर पर महाराष्ट के कपास, कर्नाटक के सूरजमुखी, मूंगफली और गन्ना बोने वाले। आत्महत्या का मुख्य कारण खेती की उत्पादन लागत का बढ़ना और साहूकारों से कर्ज लेना था। कीटनाशक और उर्वरक बेचने वाली कंपनियों ने कर्नाटक और महाराष्ट के किसानों को कर्ज बांटे, जिससे किसानों पर कर्ज भार बढ़ा। ‘सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स ऐंड ग्लोबल जस्टिस’ के मुताबिक किसानों की हालत बेहद चिंताजनक है, क्योंकि भारत में 1995 के बाद से करीब डेढ़ लाख छोटे किसान खुदकुशी को मजबूर हुए हैं, उनमें से ज्यादातर कर्ज के बोझ से दबे हुए थे। साल-दर-साल हजारों किसान बढ़ते कर्ज का बोझ वहन नहीं कर पाते और खुद को मार डालते हैं। चाहे यह फसल की विफलता हो, लागत में वृद्धि, या बिचौलियों के हाथों शोषण हो, सबकी कहानी समान है। पराधीन भारत में कर्ज एवं शोषण के चक्र में फंसा ‘होरी’ अपनी छोटी-सी ‘गोदान’ की लालसा पूरी करने की प्रक्रिया में कारूणिक मौत का शिकार होता है। लेकिन, आज पूरा देश किसान आत्महत्याओं से अटा पड़ा है। यदि कोई किसान आत्महत्या को बाध्य होता है, तो यह समूचे मुल्क की हार है। पंजाब में, कभी संपन्नता का प्रतीक ट्रैक्टर, अब आत्महत्या का संकेतक बन गया है। पिछले एक दशक से सूखे की मार झेल रहे किसानों को बैंक कर्ज अदा करने के लिये अपने टैक्टर बेचने पड़ रहे हैं या फिर नीलाम हो रहे हैं। बैंक व टैक्टर एजेंसियों के दलाल, सूखे से जूझ रहे किसानों का खून चूसने पर आमादा हैं। कर्ज लेकर लिया गया टैक्टर किसानों के लिये दोहरी मार साबित हो रहा है। कर्ज अदायगी के लिये किसानों के टैक्टरों की ही नीलामी हो रही है। सूखे से जूझ रहे किसानों पर कर्ज अदायगी के लिए बैंकों का बर्बर व्यवहार मुश्किलें बढ़ा रहा है। जो लोग कर्ज नहीं अदा कर पा रहे हैं, वे अपने टैक्टर और जमीन बेच रहे हैं। जिनके पास बेचने के लिए कुछ नहीं है, वो मौत को गले लगा रहे हैं। आज, सरकार और समाज के सामने यह-प्रश्न है कि आखिर कब तक, मजबूर होकर, अन्नदाता किसान, सल्फास का जहर खाकर या फंदे से लटक कर, आत्महत्या करता रहेगा? खेती किसी भी मुल्क के जिंदा रहने की बुनियाद होती है। जब बुनियाद ही नहीं रहेगी, तो ढांचा बिखर जायेगा। हम चाहे जितनी तरक्की कर लें, लेकिन किसानों की तरक्की के बगैर सही मायने में देश खुशहाल नहीं होगा। इन किसानों में खेतिहर मजदूर भी हैं, जो भूमिहीन हैं। किसान के पसीने से नहाकर ही धरती सोना उपजती है। कृषि में लगे परिवार बर्बाद हो गए, अनगिनत महिलाएं विधवा हो गईं, गांव के गांव निराशा में डूब गए। इतना होने पर भी राजनीतिक सत्ता कारगर कदम उठाने को तैयार नहीं है। किसान के सिर पर सूखे और बाढ़ का प्रकोप तो तलवार बन कर लटकता ही रहता है, लेकिन इसके साथ-साथ कभी फसल अच्छी हो गई तो पैदावार का सही मूल्य दिलाने में सरकार उत्साहित नहीं होती। खराब और घटिया प्रकार का बीज उसका दुर्भाग्य बन जाता है। लागत की तुलना में जब आय ठीक नहीं होती है तो वह सरकारी कर्ज चुकाने में असफल रहता है। देश के गांवों में मौत का तांडव चल रहा है, किन्तु सरकारों को जैसे इससे कोई मतलब ही नहीं है।
उद्देश्य -
प्रस्तुत शोध पत्र का उद्देश्य यह जानना है कि भारत में विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता होने के कारण भी किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? किसानों के कृषि करने में लागत और उत्पादन में क्या अंतर है? वर्तमान सरकार की योजनाए किसानों के अनुकूल है या नहीं? भारत के विभिन्न राज्यों में किसान आत्महत्या का स्वरूप कैसा है? आत्महत्या से प्रभावित राज्यों में सरकार की योजनाओं का विश्लेषण करना, विदर्भ में किसान आत्महत्या के कारणों एवं सरकार के सहयोग की समीक्षा करना,किसानों के प्रति मीडिया की भूमिका इस शोध पत्र का मुख्य उद्देश्य है।
शोध प्राविधि -
प्रस्तुत शोध पत्र व्याख्यात्मक प्रकार का है। तथ्यों के लिए प्रकाशित शोध ग्रंथों, पुस्तकों तथा द्वितीयक स्रोतों का उपयोग किया गया है। इसमें तथ्यों की विवेचना करते हुए उनके वैचारिक विश्लेषण को व्याख्यायित करने की कोशिश किया गया है। सरकारी आंकड़ों, समाचार पत्रों, सरकारी योजनाओं की भी मदद आंकड़ो को एकत्रित करने के लिए किया गया है।
परिणाम एवं विवेचना -
किसानों की आत्महत्या के कारण विदर्भ में दिनों दिन विधवाओं की संख्या में बढ़ोतरी होती जा रही है। पूर्व केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने इस बात का दावा किया था कि वर्ष 2010 में 365 किसानों ने आत्महत्या की थी। यानी एक दिन में एक, इनमें से मात्र 65 ने कर्ज के कारण आत्महत्या की थी। लेकिन राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो इस दावे की पूरी तरह से पोल खोल देता है। अब सवाल यह है कि जब सरकार लागत के अनुसार कपास की कीमत नहीं देती है तो फिर उसके निर्यात पर प्रतिबंध क्यों लगाती है? इस बात को समझने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। पिछले साल 2009 में यह घटना घटी। 120 घंटे तक सरकार ने कपास के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए रखा। लेकिन न जाने क्या बात है कि हड़बड़ी में लगाए गए इस प्रतिबंध को सरकार ने कुछ शर्तों के साथ रद्द कर दिया। पूर्व केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का तो कहना था कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं थी। लेकिन आनंद शर्मा ने इसका लूला-लंगड़ा बचाव किया। किन मिल मालिकों एवं धन्ना सेठों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से उन्होंने यह निर्णय लिया ये तो वे ही जानें। लेकिन जो समाचार मिल रहे हैं उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार ने कुछ शक्तिशाली लोगों के लिए यह निर्णय लिया। उसके समाचार सारे देश में पहुंचे और सरकार आलोचना का शिकार बने इससे पहले ही अपने पाप को छिपाने का भरपूर प्रयास किया। निर्यात पर प्रतिबंध लगते ही भाव घटे जिसमें दलालों और पूंजीपतियों की चांदी हो गई। पिछले वर्ष भी ऐसा ही नाटक खेला गया था, जिसमें गुजरात के ही किसानों को 14 हजार करोड़ का नुकसान हुआ था।
दूरदर्शिता की कमी पिछली बार जब यह घटना घटी थी। उस समय गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने, प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा था कि जब हमने प्रतिबंध लगाया उस समय चीन ने अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने कपास का भारी जत्था बेचने के लिए निकाला। उससे चीन को भारी आय हुई। भारत सरकार में तनिक भी दूरदर्शिता होती तो इसका लाभ भारतीय किसान को मिलता। इस प्रकार का लाभ पहुंचाकर क्या भारत सरकार ने चीन के हौसले बुलंद नहीं किये? सरकार की इस अपरिपक्वता के रहते कोई किस प्रकार विश्वास कर सकता है कि हम चीन से आगे निकलेंगे और एक दिन महाशक्ति के पद पर प्रतिष्ठित हो जाएंगे। भारत में हर समय चीन की बात होती है। दुनिया में महाशक्ति बनने के लिए सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धा चीन से है। चीन दुनिया में सबसे अधिक कपास पैदा करता है। विश्व में जितने हेक्टेयर पर कपास पैदा की जाती है उनमें हर चार में एक हेक्टेयर भारत के हिस्से में आता है। भारत में कुल 90 लाख हेक्टेयर जमीन पर कपास की खेती होती है। चीनी किसान का कपास पैदा कर के वारा-न्यारा हो जाता है, लेकिन भारतीय किसान के भाग्य में तो कपास के नाम पर आत्महत्या ही लिखी हुई है। 13 राज्यों के 40 लाख से अधिक किसान कपास की खेती करते हैं। 2009 में भारत के कुल निर्यात में 38 प्रतिशत कपास था, जिससे देश को 80 करोड़ रु. की विदेशी मुद्रा प्राप्त हुई थी। इसकी खेती के लिए मात्र कृषि मंत्रालय ही उत्तरदायी नहीं है, बल्कि वस्त्र और वाणिज्य मंत्रालया भी उत्तरदायी हैं। कॉटन कारपोरेशन आफ इंडिया की स्थापना 1970 में की गई, जो किसानों से कपास की खरीदी करती है। बेचारा किसान खुले बाजार में इसे नहीं बेच सकता है। इसलिए सरकार ही उसकी भाग्य विधाता बनकर उसका मूल्य तय करती है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार 2011 में कम से कम 14,027 किसानों ने आत्महत्या की है। इस तरह 1995 के बाद से आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 2,70,940 हो चुकी है। महाराष्ट्र में एक बार फिर आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गयी है. महाराष्ट्र में 2010 के मुकाबले 2011 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 3141 से बढ़कर 3337 हो गई. (2009 में यह संख्या 2872 थी)। बीते एक साल से राज्य स्तर पर आंकड़ों के साथ की जा रही भारी छेड़छाड़ के बावजूद यह भयावह आंकड़ा सामने आया है। आंकड़ों को कम कर बताने के लिए 'किसान' शब्द को फिर से परिभाषित भी किया गया। साथ ही सरकारों और प्रमुख बीज कंपनियों द्वारा मीडिया और अन्य मंचों पर महंगे अभियान भी चलाये गये थे। जिसमें यह प्रचार किया गया कि उनके प्रयासों से हालात बहुत बेहतर हुए हैं। महाराष्ट्र एक दशक से भी अधिक समय से एक ऐसा राज्य बना हुआ है जहां सबसे ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है।
किसान आत्महत्या से सबसे ज्यादा प्रभावित 5 राज्य 1995-2011
किसान आत्महत्या से सबसे ज्यादा प्रभावित 5 राज्य 1995-2011
वर्ष
|
महाराष्ट्र
|
आंध्र-प्रदेश
|
अर्नाटक
|
मध्य-प्रदेश एवं छत्तीसगढ़
|
इन राज्यों में
कुल आत्महत्या
|
भारत में
प्रतिवर्ष किसानों की आत्महत्या
|
पांचो राज्यों
में कुल आत्महत्या का प्रतिशत
|
1995
|
1083
|
1196
|
2490
|
1239
|
6008
|
10720
|
56.04
|
1996
|
1981
|
1706
|
2011
|
1809
|
7507
|
13729
|
54.68
|
1997
|
1917
|
1097
|
1832
|
2390
|
7236
|
13622
|
53.12
|
1998
|
2409
|
1813
|
1883
|
2278
|
8383
|
16015
|
52.34
|
1999
|
2423
|
1974
|
2379
|
2654
|
9430
|
16082
|
58.64
|
2000
|
3022
|
1525
|
2630
|
2660
|
9837
|
166603
|
59.25
|
2001
|
3536
|
1509
|
2505
|
2824
|
10374
|
16415
|
63.20
|
2002
|
3695
|
1896
|
2340
|
2578
|
10509
|
17971
|
58.48
|
कुल (total)
|
20066
|
12716
|
18070
|
18432
|
69284
|
121157
|
57.19
|
2003
|
3836
|
1800
|
2678
|
2511
|
10825
|
17164
|
63.07
|
2004
|
4147
|
2666
|
1963
|
3033
|
11809
|
18241
|
64.74
|
2005
|
3926
|
2490
|
1883
|
2660
|
10959
|
17131
|
63.97
|
2006
|
4453
|
2607
|
1720
|
2858
|
11638
|
17060
|
68.22
|
2007
|
4238
|
1797
|
2135
|
2856
|
11026
|
16632
|
66.29
|
2008
|
3802
|
2105
|
1737
|
3152
|
10795
|
16196
|
66.66
|
2009
|
2872
|
2414
|
2282
|
3197
|
10765
|
17368
|
61.98
|
2010
|
3141
|
2525
|
2585
|
2363
|
10614
|
15964
|
66.49
|
2011
|
3337
|
2206
|
2100
|
1326
|
8969
|
14027
|
63.98
|
कुल
|
33752
|
20610
|
19083
|
23956
|
97401
|
149783
|
65.03
|
कुल 1995-2011
|
53818
|
33326
|
37153
|
42388
|
166685
|
270940
|
61.52
|
स्रोत - राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) रिपोर्ट
1995-2011
स्रोत - राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) रिपोर्ट 1995-2011
महाराष्ट्र में 1995 के बाद आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 54,000 का आंकड़ा छूने को है। इनमें से 33,752 किसानों ने 2003 के बाद आत्महत्या की है यानी इन नौ सालों में हर साल 3,750 किसानों ने आत्महत्या की। साथ ही महाराष्ट्र में 1995-2002 के बीच 20,066 किसानों ने आत्महत्या की थी यानी इन आठ सालों के दौरान हर साल 2,508 किसानों ने आत्महत्या की। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि किसानों की आत्महत्या में भी वृद्धि हो रही है और देश भर में उनकी संख्या भी घट रही है। महाराष्ट्र में यह समस्या शहरीकरण के कारण और भी भयावह हो जाती है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र देश का वह राज्य है जहां सबसे तेज गति से शहरीकरण हो रहा है। 'बढ़ती आत्महत्या सिकुड़ती जनसंख्या' का समीकरण यह बताता है कि कृषक समुदाय पर दबाव बहुत बढ़ गया है।
किसानों की आत्महत्या की समस्या से सबसे बुरी तरह प्रभावित पांच राज्यों (महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) के आंकड़े 2011 में हुई कुल किसान आत्महत्याओं के 64 प्रतिशत के आसपास है। 2010 में इन पांच राज्यों की प्रतिशत हिस्सेदारी 66 प्रतिशत के करीब थी। अब तो राज्य सरकारें भी एनसीआरबी को भेजे जाने वाले आंकड़ों में बड़े पैमाने पर हेरा-फेरी करने लगी हैं। ऐसे में जबकि उपरोक्त पांच राज्यों पर सुखाड़ के काले बादल मंडरा रहे हैं, महाराष्ट्र में विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्रों में हालात तो पहले से ही काफी बुरे हैं। (यह स्थिति अधिकारियों को आंकड़ों में ज्यादा हेरा-फेरी करने के लिए उकसाती है)। यदि पिछले पांच वर्षों के छत्तीसगढ़ के वार्षिक औसत के आधार पर आकलन किया जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर 2011 में आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 15,582 और उपरोक्त पांच राज्यों की कुल प्रतिशत हिस्सेदारी 68 प्रतिशत (10,524) के करीब हो जायेगी, जो अब तक की सबसे ऊंची प्रतिशत भागीदारी होगी। जब 1995 में पहली बार एनसीआरबी ने किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों को अलग से सारणीबद्ध किया था, तब आत्महत्या करने वाले 56.04 फीसदी किसान उपरोक्त पांच राज्यों के थे। 2011 में पांच राज्यों में 2010 की तुलना में किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों में 50 से अधिक की वृद्धि दर्ज हुई है। इन राज्यों में शामिल हैं, गुजरात (55), हरियाणा (87), मध्य प्रदेश (89), तमिलनाडु (82)। अकेले महाराष्ट्र में 2010 की तुलना में 2011 में 196 की वृद्धि देखी गई है। साथ ही नौ राज्यों में किसानों की आत्महत्या की संख्या में 50 से अधिक की कमी भी दर्ज की गई है। 2011 में 2010 के मुकाबले कर्नाटक में 485, आंध्र प्रदेश में 319 और पश्चिम बंगाल में 186 की गिरावट दर्ज की गई है। लेकिन ये सभी राज्य छत्तीसगढ़ से 'पीछे' हैं जहां राज्य सरकार के दावे के अनुसार 2011 में किसी भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है. गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ में 2010 में 1126 किसानों ने आत्महत्या की थी।
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विदर्भ क्षेत्र के बदहाल किसानों को राहत देते हुए 37 अरब 50 करोड़ रूपए के पैकेज की घोषणा की थी। इस पैकेज के तहत घोषित राशि में से 21 अरब 77 करोड़ रूपए की राशि कृषि परियोजनाओं पर ख़र्च की और किसानों का 7 अरब 12 करोड़ रूपए का कर्ज़ माफ़ कर दिया गया था। पूर्व प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि प्रभावित परिवारों को तत्काल मदद देने के लिए विदर्भ क्षेत्र के सभी छह ज़िलाधिकारियों को 50-50 लाख रूपए दिए गए थे। इस राहत पैकेज को विदर्भ क्षेत्र के छह ज़िलों अमरावती, वर्धा, अकोला, वाशिम, बुलधाना और यावतमाल में इस्तेमाल किया जाना था। पूर्व प्रधानमंत्री ने पैकेज की घोषणा करते हुए पत्रकारों से कहा था , "विदर्भ के किसानों की समस्या हमारे लिए काफ़ी गंभीर विषय है। इसीलिए इस योजना के लागू होने की निगरानी मेरा कार्यालय ख़ुद करेगा। हम इस बात का ध्यान रखेंगे कि जो वादे किए गए हैं, उन्हें पूरा किया जाए." उन्होंने कहा था कि इस पैकेज से क्षेत्र के किसानों की आर्थिक स्थिति में तो सुधार होगा ही, साथ ही कर्ज़ का बोझ भी हल्का होगा किन्तु विदर्भ में आत्महत्या के आकड़ें सरकारी योजनाओं और उनके क्रियानव्यन की पोल खोल के रख दे रहे हैं।
वर्तमान महाराष्ट्र की देवेंद्र फड़ण्वीस सरकार ने अपना पहला बजट पेश किया। 1 लाख 98 हजार करोड़ का बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री सुधीर मुगंतिवार का फोकस कृषि, सामाजिक और आर्थिक इंफ्रास्ट्रक्चर और उद्योगों के विस्तार पर रहा। सिंचाई व पीने के पानी की कमी ना हो इसीलिए प्रबंधन प्रणाली का विकेन्द्रीकरण करने हेतु 1000 करोड़ रुपए का कोष सरकार ने बनाया है। सूखाग्रस्त किसानों के लिए 4000 करोड़ रुपए का राहत कोष भी सरकार ने अलग से खर्च करने की सोची है। पूरे राज्य में सिंचाई के विकास और कड़े नियम के तहत प्रबंधन के लिए 7272 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। विदर्भ में पूर्व मालगुजारी टंकियों के पुनःनिर्माण के लिए 100 करोड़, नाला बांध के काम के लिए 500 करोड़ रुपए का प्रावधान भी है। नए युग की खेती यानि सूक्ष्म सिंचाई के लिए भी 330 करोड़ रुपए का प्रावधान है। मनरेगा योजना के अंतर्गत 1948 करोड़, राष्ट्रिय कृषि योजना में 336 करोड़, राष्ट्रिय खाद्य सुरक्षा योजना और कृषि नवीनीकरण के अंतर्गत 257 करोड़ तथा राज्य रोजगार गैरंटी योजना के लिए 700 करोड़ रुपयों का कोष रखा गया है। ग्रामीण मार्ग योजना की घोषणा की गयी जिसके अंतर्गत ग्रामीण सड़कों के निर्माण व विस्तार के लिए 300 करोड़ रुपए का प्रावधान है और हर साल 1000 करोड़ रुपए तक इसे बढ़ाने का निर्णय भी लिया गया है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत 790 करोड़ रुपए और जो इस योजना में ना गिने जाए उन सड़कों के कार्य के लिए 71 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया है। 5000 किलोमीटर के सड़कों के मरम्मत और रखरखाव के लिए भी 3213 करोड़ रुपए रखे गए हैं। मोदी सरकार की तर्ज पर 'आमदार आदर्श गाँव योजना' को लागू किया जाएगा जिसमें सभी विधायकों के लिए एक एक गाँव को गोद लेने की अनिवार्यता होगी। ग्रामीण कारीगरी व हस्तकला को बढ़ावा देने के लिए वर्धा के सेवाग्राम में केंद्र की स्थापना की जाएगी। गरीबी रेखा के नीचे आने वालों के लिए गृह निर्माण, पंडित दीनदायल उपाध्याय घरकुल जागा खरेदी अर्थसहाय योजना के अंतर्गत भूमि खरीदने हेतु 50,000 रुपए तक की सहायता गरीब परिवारों मो मिलेगी और 884 करोड़ रुपए की लागत से इन परिवारों के लिए 1 लाख घरों का निर्माण किया जाएगा। यह बजट और योजनाएं विदर्भ में कितनी सफल होगी यह समय ही बताएगा, लेकिन इस बजट से यह आशा जरुर लगाई जा सकती है कि विदर्भ जो भारत में किसान आत्महत्या के स्थान के नाम से जाना जाता है, किसानों के लिए यह बजट शायद संजीवनी का कार्य करे।
निष्कर्ष -
विकास की राह पर आगे बढने के लिए गांववासियों और किसानों का निरंतर कम होना व शहरों व शहरवासियों का का निरंतर बढ़ना अनिवार्य है। कुछ देशों का यह अनुभव रहा है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि विकास कि राह पर आगे बढ़ने के साथ गांवों और खेती-किसानी की आजीविका को और मजबूत किया जाय, जहां एक ओर किसानों व विशेषकर छोटे किसानों की आजीविका को टिकाऊपन और मजबूती देना चाहिए, वहीं गांव व कस्बे के स्तर पर अधिक कुटीर व लघु उद्योगों को पनपाकर विविध तरह के रोजगारों व स्व रोजगारों का विस्तार होना चाहिए, जिससे ग्रामीण परिवारों को खेती के साथ-साथ, गांव में रहते हुए ही, अनेक अन्य रोजगार भी उपलब्ध हो सके। जलवायु बदलाव से जुड़े प्रतिकूल मौसम के इस दौर में खेती-किसानी को टिकाऊ और मजबूत बनाने के लिए सरकार के बजट में महत्वपूर्ण वृद्धि बहुत जरूरी है। इस बढ़े हुए बजट का लाभ सीधे-सीधे छोटे व मध्यम किसानों को पर्यावरण की रक्षा से मेल रखने वाली खेती की प्रगति के लिए मिलनी चाहिए, खेती किसानी की समृद्धि व रक्षा के लिए केवल खेती किसानी की नीतियों व वजट में सुधार पर्याप्त नहीं है, इसके साथ पूरी अर्थव्यवस्था में ऐसे बदलाव जरूरी हैं जो गांव-पक्षीय व किसान-पक्षीय हों। उदाहरण के लिए औद्योगिक नीति में ऐसे बदलाव करने चाहिए जिससे गांवों, कस्बों व छोटे शहरों में कुटीर व छोटे उद्योग अधिक पनप सके।
समस्त विवेचन से यह तो निसंदेह कहा जा सकता है, की भारतीय किसान अपना जीवन कष्टमय रूप में निर्वाह कर रहा है। कृषि की दयनीय हालत के बावजूद अपने पहले बजट में सरकार ने कृषि आय की बात तो की, लेकिन कृषि बजट में कटौती कर दी। बजट में किसानों के लिए बजट में कुछ खास नहीं रहा। सरकार द्वारा जिस कृषि लोन की बात की जाती है। उसका फायदा किसानों से ज्यादा कृषि उद्योग से जुड़े लोगों को होता है। सरकार की अब तक की नीतियों और केंद्रीय बजट का साफ संदेश है कि किसानों को वह सांत्वना मात्र देने को तैयार नहीं हैं। किसानों की आत्महत्या इस विषय पर जनता की इच्छाओं, विचारों को समझना और उन्हें व्यक्त करना और जनता में वांछनीय भावनाओं को जागृत करना होगा। किसानों की आत्महत्या दोषों को निर्भयतापूर्वक प्रकट करने का उद्देश्य सामने रखकर समाचारों को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। वर्तमान सरकार और भविष्य की आने वाली सरकारों से भारतीय किसान यही उम्मीद लगायें हुए बैठा है कि कब उसके दिन बदलेंगे। अब तो यह वर्तमान सरकार और भविष्य की आने वाली सरकारों पर निर्भर करता है कि देश की भूख मिटाने वाले अन्नदाता की भूख कब मिटेगी यह भविष्य की गर्त में है। समस्त आंकड़ों के विवेचन और सरकारी योजनाओं के अवलोकन से फ़िलहाल यह आशा की जा सकती है की किसनों की आत्महत्या और उनकी समस्याओं का समाधान जरुर होगा।
संदर्भ ग्रंथसूची -
1. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) रिपोर्ट 1995-2011
2. कुरुक्षेत्र अंक-हरितक्रांति जून, 2008.
3. दीनानाथ, मनोहर. (2008). खेती का नया तंत्र और किसानों की आत्महत्या. श्रवण प्रकाशन: बारामती.
4. तिवारी, अर्जुन. (2004). जनसंचार एवं हिंदी पत्रकारिता. जय भारती प्रकाशन: इलाहबाद.
5. दैनिक भास्कर. 2 फरवरी 2015, नागपुर.
6. लोकमत. 4 मार्च 2015, नागपुर.
7. कुमार, मनोज. (मार्च 2011). समागम शोध पत्रिका, भोपाल.
8. लोकमत. 23 अगस्त 2015, नागपुर.
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