महात्मा जोतीराव फुले द्वारा रचित मराठी रंगमंच का पहला नाटक - ‘तृतीय रत्न‘: डॉ. सतीश पावड़े
महात्मा जोतीराव फुले द्वारा रचितमराठी रंगमंच का पहला नाटक - ‘तृतीय रत्न‘
-- डॉ. सतीश पावड़े
महात्मा जोतीराव फुले की रचनाओं में ‘तृतीय रत्न’ नाटक की चर्चा कई बार होती थी। किंतु प्रत्यक्ष में इस नाटक की ‘संहिता’(script) उपलब्ध नहीं थी। फुले के चरित्रकार पंढरीनाथ पाटील के निजी संग्रह से यह नाट्यकृति आखिरकार फुले के साहित्य के अनुसंधानकर्ताओं ने प्राप्त की। महात्मा फुले के हस्ताक्षरों में लिखी गयी इस पांडुलिपि ने सही मायने में नाटककार फुले का परिचय करवाया। महात्मा फुले समता प्रतिष्ठान के मुखपत्र ‘पुरोगामी सत्यशोधक’ में अप्रैल-जून 1979 के अंक में पहली बार यह नाट्यकृति प्रकाशित की गयी। अखंड, पवाडे, वैचारिक साहित्य के साथ फुले द्वारा लिखित इस नाटक ने भी सामाजिक जन-जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
महाराष्ट्र में सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए संघर्ष करने वाले, जीवन के अंतिम क्षणों तक ‘बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय’ इस बुद्धवचन के अनुसार अपना जीवन समर्पित करने वाले इस महामानव के मानवीय मूल्यों का दृष्टिकोन ‘तृतीय रत्न’ इस नाटक में भी दिखाई देता है। शुद्रातिशूद्र समाज के जागरण हेतु, उनमें चेतना जगाने के लिए इस नाटक की रचना फुले ने की। इस नाटक के माध्यम से उन्होंने ब्राह्मणवर्ग द्वारा किए जा रहे शोषण का वास्तव प्रस्तुत किया है। धर्म के नाम पर विविध आडंबर, खोखली परंपराएं तथा धार्मिक मूल तत्वों की गुलामी आदि पर फुले ने इस नाटक द्वारा तीखा प्रहार किया है।
‘तृतीय रत्न’ नाटक का विषय, आशय, रचना, पात्र, शैली, आकृतिबंध, संवाद आदि सभी एकक चिकित्सा का विषय बनना स्वाभाविक था। मराठी रंगमंच के उदय के इतिहास को इस नाटक ने चुनौती दी है। डेढ़ सौ साल के वनवास के पश्चात इस नाटक ने अपनी क्रांतिकारी छवि सिद्ध की है। मराठी रंगमंच का पहला नाटक, आद्य नाटक इस रूप में कई अनुसंधानकर्ताओं ने इस नाटक को लाकर खड़ा कर दिया है। इतना ही नहीं तो उसके समर्थन में कई पुरजोर दलीलें, सबूत भी प्रस्तुत किए हैं।
मराठी रंगमंच का उदय
कर्नाटक के उत्तरी क्षेत्र में स्थित ‘भागवत मंडली के खेल’ 1840 के आसपास पश्चिम महाराष्ट्र में खेले जाते थे। यह खेल कनार्टकी यक्षगान शैली से निर्मित थे। यह खेल उबड़खाबड़ तथा ठेठ गवार के स्वरूप में थे। इन खेलों को उस समय ‘तागडथोमऽऽऽ’ अथवा ‘अललर्डुरऽऽऽ’ खेल भी कहा जाता था। मनोरंजन हेतु दूसरा कोई पर्याय न होने के कारण यह खेल बहुत ही लोकप्रिय थे। सांगली संस्थान के तत्कालीन संस्थानिक श्रीमंत आप्पासाहब पटवर्धन के दरबार में इन खेलों का प्रदर्शन होता था। किंतु यह खेल उनको संतुष्ट नहीं कर पाते थे। उन्हें ऐसा खेल चाहिए था जो उनका अच्छा मनोरंजन कर सके।
श्रीमंत के दरबार में भावे नामक सरदार थे। उनके सुपुत्र विष्णुदास भावे एक कलाकार थे। वे कविताएं लिखते, आख्यानों की रचना करते, उसे गाते भी थे। साथ ही वे कठपुतलियों का खेल भी करते थे। श्रीमंत ने विष्णुदास को दरबार में बुलाकर नया खेल प्रस्तुत करने का आदेश दिया और साथ में इस कार्य के लिए राजाश्रय भी। विष्णुदास ने उन्हीं पुराने खेलों का अध्ययन कर यक्षगान, भागवत का मिश्रण कर 5 नवंबर 1843 को ‘सीता स्वयंवर आख्यान’ का खेल श्रीमंत के दरबार में प्रस्तुत किया1 आज यही दिवस मराठी रंगमंच के स्थापना दिन के रूप में मनाया जाता है।
‘सीता स्वयंवर’ यह आख्यान पौराणिक विषय पर आधारित था। यह खेल बहुत लोकप्रिय हुआ। विष्णुदास भी रुके नहीं, इन पौराणिक नाटकों की परंपरा आगे चलती रही। विष्णुदास के कार्य से प्रेरित होकर अन्य कई मंडलियाँ स्थापित की गयी। 1861-62 साल तक पौराणिक आख्यान नाटकों की लोकप्रियता चरम सीमा पर थी। यक्षगान, भागवत और दशावतारी खेलों का ही यह परिष्कृत स्वरूप था, जिसे विष्णुदास ने परिष्कृत किया था। राजाश्रय होने के कारण विष्णुदास अठ्ठारह-बीस सालों तक अपने खेलों का प्रदर्शन करते रहे। इसी समय 1855 में महात्मा ज्योतीबा फुले ने गरीब खेतिहर किसान के शोषण पर ‘तृतीय रत्न’ नाटक लिखा। एक और पुराणों पर आधारित आख्यान खेल नाटकों की भरमार जो समाज को वास्तविकता से दूर ले जा रहे थे। दूसरी ओर आम आदमी धार्मिक शोषण को, अज्ञान को, अशिक्षा को महात्मा फुले हाशिए पर ला रहे थे। इन दो घटनाओं की पार्श्वभूमि तथा उसके अर्थ को समझना निहायत आवश्यक है।
तत्कालीन-राजनीतिक-सामाजिक परिस्थिति
1818 वर्ष में पेशवाई का अस्त हुआ। छत्रपति शिवाजी महाराज ने कडे परिश्रम, लगन और समर्पित भावनाओं से निर्माण किया। हिंदवी स्वराज्य भी ध्वस्त हो गया। ‘पेशवाओं ने देश डूबा दिया’ इस शब्दों में लोकहितवादी जैसे महामना ने पेशवाओं के कुकर्मों को उजागर किया। अंग्रेजों का आगमन, वसाहतवादी सुधारणाओं की भरमार, शिक्षा का तेजी से हो रहा प्रचार, सामाजिक कुरितियों पर मानवीय दृष्टि से हो रहा प्रहार, ऐसे एक नए वातावरण की नीव रखी जा रही थी। किंतु तत्कालीन मराठी रंगमंच को इससे कोई सरोकार नहीं था। राजाश्रय प्राप्त इस पौराणिक खेलों ने वर्तमान को छोड़कर दर्शकों को पुराण काल में बांधे रखा।
उस समय चार वर्णो की व्यवस्था में सबसे अंतिम छोर पर स्थित शुद्रातिशुद्र वर्ग सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक शोषण में पिस रहा था। धर्म, जाति उस शोषण का सबसे बड़ा आधार थी। ब्राह्मणी व्यवस्था का वर्चस्व कायम था। सामाजिक विषमता, छूत-अछूत का भेद, धार्मिक पाखंडता, मानवीय मूल्यों की सुरक्षा इस पार्श्वभूमिवर महात्मा फुळे को ‘तृतीय रत्न’ नाटक लिखने की प्रेरणा मिली। ‘तृतीय रत्न’ उनके विचारों की एक सशक्त अभिव्यक्ति थी।
मराठी रंगमंच के उदय की इस पार्श्वभूमि पर ‘तृतीय रत्न’ की भूमिका परखी जा सकती है। आम आदमी से जुड़ी यह नाट्यकृति थी। समकालीन वास्तव को फुले ने पुरजोर रूप में रखा। और शिक्षा की आवश्यकता को अग्रिम स्थान दिया। बहुजन समाज के उन्नति के लिए, धर्म, परंपरा और दकियानूसी विचारों ने वंचित रखे, शिक्षा के अधिकारों को उन्होंने आम आदमी को सौंपा, 1813 में पहला स्कूल खुला। 1824 में पूना में पहला स्कूल शुरू किया गया। 1840 में एजुकेशन बोर्ड (शिक्षा मंडल) स्थापित किया गया। 1833 में लड़कियों को शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता पर विचार होना शुरू हुआ। इस प्रकार शिक्षा को एक महत्वपूर्ण सामाजिक सुधार का दर्जा दिया गया। शिक्षा के उपलब्धि की हवाएं बहने लगी। मात्र इस समय में धर्मांध, ब्राह्मणी विचार परंपराओं के सिपहसालारों ने ही शिक्षा का विरोध करना शुरू किया।
1854 तक यह प्रतिगामी दृष्टिकोन बरकरार था। 1854 के ‘ज्ञान प्रकाश’ में एक सनातनी कवि ने तो यहाँ तक लिख डाला कि अगर तुम अपने बच्चों को इन स्कूलों में भेजोगे तो आपके बच्चे अछूत हो जाएंगे और उसके कारण आपके खानदान को कालिख लगेगी। शिक्षा के प्रति खास बहुजन शिक्षा के प्रति यह सनातनी, धर्मांध, जातीयवादी शक्तियाँ भ्रम फैला रही थी। शुद्रातिशूद वर्ग को, बहुजन वर्ग को वे शिक्षा से दूर रखना चाहते थे। इस पार्श्वभूमिवर इस वर्ग के लिए शिक्षा की जरूरत है। उसी द्वारा उसकी उन्नति होगी। यह बात फुळे उन्हें बहुत गंभीरतापूर्वक बता रहे थे। अपनी यही भूमिका उन्होंने ‘तृतीय रत्न’ इस नाटक के माध्यम से रखी। शिक्षा पद्धति कैसी होनी चाहिए? शिक्षा के लाभ, उसकी जरूरत इन सारी बातों को उन्होंने ‘तृतीय रत्न’ में प्रभावी रूप से रखा है। यह भारत का पहला ‘एजुकेशन ड्रामा’ है। तात्पर्य ‘भारतीय शिक्षाप्रद नाटक’ के जनक के रूप में हम महात्मा फुले का उल्लेख कर सकते हैं।
1848 के अगस्त माह में फुले ने पुणे में पाठशाला शुरु की। 03 जुलाई 1851 में उन्होंने ‘कन्याशाला’ शुरू की। 1845-1855 यह काल फुले द्वारा की गयी ज्ञानक्रांति, शिक्षाक्रांति का काल था और मात्र इस समय मराठी रंगमंच पुराणकथाओं के प्रदर्शन में मश्गूल था। किसी भी प्रकार के सुधार, परिवर्तन, न्याय, समकालीन वास्तविकता, सामाजिक परिवर्तन के साथ उसका कोई संबंध नहीं था। क्योंकि मराठी रंगमंच के उदय की प्रेरणा ही किसी एक राजा की जो अपना राजापद खो चुका है। गतस्मृतियों के अलावा उसके पास कुछ नहीं, उसके मनोरंजन की, जरूरत में थी। जो एक प्रकार का निजी मनोरंजन था। इस प्रक्रिया में आम दर्शकों का प्राथमिक विचार नहीं था। प्रारंभ में इस नाटक का औचित्य केवल एक दरबारी जरूरत का था।
1826 में हुआ उमाजी नाईक का विद्रोह, पुना जिला में हुआ मछुआरों का विद्रोह, 1831 से 1842 तक अंग्रेज सरकार के खिलाफ हुए संघर्ष, यह सारी घटनाएं समाज को प्रभावित कर रही थी। आजादी का जुनून धीरे धीरे छा रहा था। दूसरी ओर अंग्रेजी हुकूमत अपने पैर शैने...शैने... जमा रही थी। इन समकालीन घटनाओं का कोई असर मराठी रंगमंच पर होता दिखाई नहीं दिया। मराठी रंगमंच के उदय से जुड़ा वह वर्ग था, जिसका न अंग्रेजों से लेना-देना था, न आजादी से था। सुधार, परिवर्तन, समाज जागरण की गतिविधि तो दूर की बात थी। शिक्षा का महत्व, सामाजिक विषमता, छूत-अछूत भेद, इन प्रश्नों का उनके लिए कोई महत्व नहीं था। क्योंकि यह वर्ग ब्राह्मणी शोषण व्यवस्था की आधार थी। समकालीन वास्तविकता से बहुत दूर ही था यह वर्ग।
प्रसिद्ध नाटककार प्रा. गो.पु. देशपांडे ने मराठी रंगमंच का उदय तथा इस उदय के साथ जुडे ‘सीता स्वयंवर आख्यान’ तथा अन्य आख्यान नाटकों के बारे में अत्यंत महत्वपूर्ण बाते रखी है। वे कहते हैं ‘अपना इतिहास, अपनी संपन्नता, कल्पनाओं से निर्मित माध्यम द्वारा ही क्यों न हो, उसे खड़ा करने का यह प्रयास था। वास्तविकता एवं अपेक्षा इस बीच झूल रहे अभिजनवर्ग की स्वप्नपूर्ति ही इन नाटको ने की’। गो.पु. देशपांडे ने मराठी रंगमंच के उदय घटना को सटीक ढंग से विश्लेषित किया है। अपने व्यक्तिगत मनोरंजन के लिए अभिजन वर्ग द्वारा नाट्यकला का इस तर उपयोग किया गया। प्रारंभ में ‘लोकदर्शक’ का कोई विचार इस कृति में नही था। यह एक दरबारी प्रयास था। किंतु महात्मा फुले का ‘तृतीय रत्न’ यह नाटक की प्रेरणा सामाजिक थी। लोकदर्शक के जागरण की थी। जिसमें आम आदमी के शोषण से, उन्नति से, सामाजिक न्याय से जुड़े सवाल थे और जवाब भी। यह एक उद्देश्यपूर्ण, कृतिपूर्ण नाट्यकृति थी। इसीलिए मराठी रंगमंच का उदय, इसी नाटक से माना जाना चाहिए, यह विचार महत्वपूर्ण है। इसलिए महात्मा फुले ही सही अर्थों में मराठी रंगमंच के जनक कहलाने के हकदार हैं।
‘तृतीय रत्न’ इस नाटक का विषय, आशय, शैली, आकृतिबंध, पात्ररचना, संवाद, भाषा, रूप, स्वरूप आदि नाट्य एककों के आधार पर पहला सामाजिक, पहला प्रायोगिक, पहला शिक्षापरक, पहला वैचारिक, पहला गद्य नाटक, पहला स्वतंत्र, पहला पथनाटक, पहला मुक्त नाट्य, पहला बहुजन, पहला दलित नाटक, पहला प्रबोधन नाटक, पहला जननाट्य, पहला समांतर, पहला विद्रोही, पहला देशीय नाटक, पहला वास्तववादी, पहला मूल्यनाटक, पहला नवनाट्य, पहला टोरस थिएटर, पहला संवादनाट्य, पहला थिएटर फॉर डिप्रेस्ड, पहला मासिकल नाटक, कृषि संस्कृति का, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पहला नाटक हम कह सकते हैं। कालसापेक्ष पहला आधुनिक नाटक भी हम उसे कह सकते हैं। ‘व्ही-इफेक्ट’ नाट्यतंत्र की धारणाएं भी उसमें निहित है। ऐसी कई संज्ञा एवं संकल्पनाओं के धरातल पर ‘तृतीय रत्न’ की विशेषताएँ परखी जा सकती है।
आख्यान खेलों का स्वरूप
‘आख्यान’ यह कविता का ही एक प्रकार है। इसे हम ‘पद्य’ भी कह सकते हैं। विष्णुदास भावे ने पुराणों में से कुछ लोकप्रिय कथाएं चुनी। इन कथाओं को आख्यान स्वरूप कविताओं में पिरोया। भावे इस आख्यान खेलों को ‘नाट्यकविता’ भी कहते हैं। आमतौर पर इन कविताओं को नाटक कहना अनुचित लगता है। भावे के इन आख्यान नाटको में संवाद नहीं, पात्रों द्वारा की जाने वाली कृतियों के निर्देश नहीं, अभिनय से संबंधित कोई सूचनाएं नहीं। आख्यानों के विषय भी पुराणों में लिए गए हैं। आशय का कोई नया ‘कथ्य’ नहीं। ‘भावे द्वारा निर्मित नाटक’ कहने का कोई ठोस कारण भी नहीं मिलता। इसे हम संकलन या कारागिरी कह सकते हैं। अभंग, ओवी, गणवृत्तात्मक काव्य गाकर अभिनय करने की चेष्टा इन खेलों में की जाती थी। भावे खुद यह आख्यान गाते थे। आशय के अनुरूप, नाम निर्देश के अनुसार चरित्र रंगमंच पर आते थे। उबड़-खाबड़ हात, पैर, शरीर से कृति करते और मंच से चले जाते। क्या इसे हम नाटक की व्याख्या में रख सकते हैं। यह प्रश्न सही मायने में चर्चा का विषय है।
मराठी रंगमंच के इतिहासकार श्री ना. बनहटटीने इन आख्यान खेलों को ‘नाट्य साहित्य’ में सम्मिलित करने से इंकार कर दिया1 आंतरराष्ट्रीय ख्याति के नाटककार गिरीश कर्नाड, अ.भा. मराठी नाट्य सम्मेलन के पूर्वाध्यक्ष प्रा. दत्ता भगत, विदुषी नाट्यालोचक प्रा. पुष्पा भावे, दलित तथा लोकनाट्य के विद्वान डॉ. रुस्तम अचलखांब, नयी पीढ़ी के समालोचक डॉ. पुरुषोत्तम मालोदे, डॉ. प्रवीण बन्सोड आदि ने महात्मा फुले को मराठी के आद्य नाटककार तथा तृतीय रत्न को आद्य मराठी नाटक के रूप में परिभाषित किया है।
सामाजिक रंगमंच का जन्म
भारतीय समाज व्यवस्था चार वर्णों पर आधारित है। जातिप्रथा या इस व्यवस्था का मुख्य लक्षण है। जाति भेद के साथ छुआछूत जैसी बीमारियों से शुद्रातिशूद्र समाज पीडित था। किंतु शोषक अभिजनवर्ग के लिए यह व्यवस्था ईश्वर का, धर्म का आदेश थी। शुदातिशूद्र होना मतलब उनके पूर्व जन्मों के पाप हैं और यह पाप भोगना ईश्वरादेश है। इसलिए शुद्रातिशूद्र का शोषण, उनकी प्रताड़ना भी धार्मिक, ईश्वरीय मानी जाती थी। ‘शोषण’ यह समस्या के रूप में देशने की कोई वजह अभिजनवर्ग के पास नहीं थी। किंतु ईश्वर तथा धर्म के इस पाखंडी कवच को ध्वस्त करने का कार्य महात्मा फुळे ने किया। चातुर्वर्ण, जातिभेद, छुआछूत आदि परंपरा के विरोध में उन्होंने रचनात्मक विद्रोह खड़ा किया। शिक्षा की जरूरत, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रचार, सामाजिक समानता के लिए संघर्ष, शुद्रातिशूद्रों का जनजागरण करने का कार्य उन्होंने किया। इन शोषण की जड़े ‘अज्ञान’ में होने के कारण ‘शिक्षा’ को उन्होंने अपना हथियार बनाया। ‘शिक्षा’ यह आदमी का ‘तीसरा नेत्र’ है। यह मंत्र उन्होंने पीडित-शोषित समाज को दिया। ‘तृतीय रत्न’ यह नाटक में पिछड़े समाज को शिक्षित करने की आवश्यकता पर उन्होंने बल दिया है।
'तृतीय रत्न' में सामाजिक प्रश्नों को रखकर, न्याय प्राप्त करने की कोशिश की। इसलिए सामाजिक रंगमंच का प्रारंभ भी 'तृतीय रत्न' इस नाटक से ही होता है। किंतु मराठी रंगमंच की अभिजन धारा यह श्रेय उन्हें न देकर 'मनोरमा' नाटक के लेखक म.वा.पितले या फिर 'शारदा' के लेखक गोविंद बल्लाळ देवल को देती है। किंतु यहाँ यह बात गौरतलब है कि महात्मा फुले ने 'तृतीय रत्न' लिखा तब देवल पैदा भी नहीं हुए थे। किसी भी प्रकार से फुले को यह श्रेय न दिए जाने के प्रयास थे। जिस प्रकार 'सीतास्वयंवर' आख्यान नाटक दरबारी जरूरत से जन्मा था। उसी प्रकार शारदा नाटक की प्रेरणा भी ब्राह्मण परिवार से थी। 'तृतीय रत्न' की उपेक्षा हमारी वर्ण, धर्म, जात, पंथ प्रणित अभिजन विचारों की फलश्रृति थी। अभिजन वर्ग के जिस अभिरुचि को प्रमाण माना जाता था। उसमें बहुजन वर्ग के प्रश्न और बहुजन समाज के लेखक को कैसे सम्मान मिलता? "तत्कालीन मराठी नाटककारों के पास सामाजिक वास्तविकता को देखने की दृष्टि नहीं थी। साथ ही उनमें इच्छा का भी अभाव था।
दक्षिणा प्राईज कमेटी द्वारा उपेक्षा
दक्षिणा का मतलब होता है, दान देना। खासतौर पर ज्ञान में प्रवीण, ज्ञान साधाना में लीन विद्वानों के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में यह योजना शुरु की गयी। छत्रपति संभाजी महाराज तदपश्चात् ताराराणी, शाहू महाराज के शासनकाल तक यह योजना चलती रही। किंतु पेशवाकाल में यह योजना केवल ब्राह्मणवर्ग तक सीमित होती गयी। बहुजन, शुद्रातिशूद्र विद्वानों के लिए उसके दरवाजे बंद होते गए।
महात्मा फुले द्वारा भी अपना 'तृतीय रत्न' नाटक दक्षिणा प्राईज कमेटी को 'प्राईज' हेतु प्रस्तुत किया गया। किंतु उसे इस कमेटी ने खारीज कर दिया। तत्कालीन अभिरुचि के यह नाटक होने का आरोप उनपर जड़ा गया। ब्राह्मण सदस्यों की इस कमेटी पर खासी पकड़ थी। एक शुद्र लेखक की, वह भी विद्रोही रचना का स्वागत वे कैसे कर पाते? उच्च जातीय, उच्च वर्णीय संस्कृति, उसे शक्तिशाली बनाने वाली अभिरुची, इस अभिरुची की बनी परंपरा यह तत्कालीन ब्राह्मण प्रवृत्ति का सूत्र थी। और इस परंपरा, अभिरुचि तथा संस्कृति के विरोध में संघर्ष करना यह शूद्रातिशूद्र समाज के संघर्ष का सूत्र था। इस संघर्ष के परिणति के स्वरूप 'तृतीय रत्न' को नकारा गया। उसकी उपेक्षा की गयी। तत्कालीन प्रसार माध्यम पर भी इसी प्रतिगामी तत्वों की हुकूमत होने के कारण 'तृतीय रत्न' पर कहीं भी चर्चा नहीं हुई। आखिरकार सौ सालों की गुमनामी 'तृतीय रत्न' को झेलनी पड़ी। जून 1979 को पहली बार 'तृतीय रत्न' पुरोगामी सत्यशोध में प्रकाशित हुआ और चर्चा का, अनुसंधान का विषय बना।
डॉ. सतीश पावडे
असिस्टेंट प्रोफेसर
नाट्यकला एवं फिल्म अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
वर्धा (महाराष्ट्र) 442001
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