‘‘साहिबां तूं माडी कीती नीं जे पता हुदा तूं इंज करनी मैं लयोंदा नाल भरावां नूं’’ (पंजाबी किस्सा काव्यों के स्त्री प्रशन और पंजाब में स्त्री की स्थिती ): हरप्रीत कौर
‘‘साहिबां तूं माडी कीती नीं जे पता हुदा तूं इंज करनी मैं लयोंदा नाल भरावां नूं’’
(पंजाबी किस्सा काव्यों के स्त्री प्रशन और पंजाब में स्त्री की स्थिती )
हरप्रीत कौर
पंजाब सूफीयों, पीरो, फकीरों की धरती रहा हैं। पंजाब के लहलहाते खेत, जीवंत संस्कृति, जिंदादिली, लौहड़ी, बसंत तीज त्यौहार उत्सव उसे दूसरे प्रदेशों से अलग करते हुए जीवंत और कर्मठ प्रदेश सिद्ध करते हैं। अनुज के शब्दों में -
‘‘पंजाब प्रेम और अलमस्ती की भूमि है। सात नदियां और अनगिणत प्रेम कहानियां हैं। यह है पंजाब गेहूं के लहलहाते खेत और खेतों में ‘हीर’ गाती और दुपट्टा औढ़े दौड़ती भागती लड़कियां। गाडि़यों के दौड़ने लायक खेतों की चैड़ी मेंड़ और मेंड़ के किनारे हहाता हुआ पानी उगलता पम्पिंग सेट। कहीं थ्रेशर मशीन से उड़ता हुआ भूसा तो कहीं जलते अलाब के चारों ओर घेरे में गिद्दा नाचती महिलाएं। यह है पंजाब। यहां पंजाब कहने से बोध विभाजन पूर्व के पंजाब से है। यही वह पंजाब है यहां महाभारत का सब कुछ समाप्त कर देने वाला युद्ध लड़ा जाता है, तो इसी पंजाब की भूमि पर मन को विश्राम कर देने वाली ऋग्वेद की ऋचाएं रची जाती हैं। इसी पंजाब में जहां एक और पानीपत की तीन-तीन लडाइयां लड़ी जाती हैं। नादिर शाह का खूनी खेल चलता है। तो दूसरी ओर प्रेम का पाठ पढ़ाने वाले शाह हुसैन, बुल्लेशाह, शेख फरीहुद्दीन जैसे सूफी सन्त पैदा हो जाते हैं। यही वह पंजाब है जिसने भारत-पाकिस्तान विभाजन के दंश को सबसे ज्यादा तल्खी से महसूस किया तो इसी पंजाब में ‘हीर’ जैसी अमर प्रेमकथा रचने वाले वारिस शाह और ‘शाह-जो-रसालो’ रचने वाले शाह अब्दुल लतीफ मिद्हई भी मिल जाते हैं, यह है पंजाब बेफिक्री और अलमस्ती की पहचान वाला पंजाब। यह सचमुच एक विचित्र बात है कि किसी एक क्षेत्र में इतनी विविधताएं एक साथ मौजूद हैं। समाजशास्त्रीयों के लिए पंजाब की पंजाबियत ओर इसकी अलमस्ती शोध का विषय रही है। इतिहासकार इस मस्ती और सूफियाना जीवन-शैली का उत्स उन विदेशी आक्रान्ताओं के आक्रमणों में देखते हैं। आक्रंता आते, लूटते और वापिस लौट जाते। बस पिसता रहता पंजाब का आम जन-जीवन। जिन्दगी का कुछ ठिकाना नहीं रहता कि कब कोई नादिर शाह आ जाए और कब समाप्त हो जाए यह जीवन लीला। बस जी लो जतना जीवन है। कल किसने देखा है। यही फलसफा था जीवन का इसलिए हर पल जीना सीख लिया पंजाबी जीवन ने। शायद इसीलिए पंजाबी जीवन में संघर्ष एक बीज तत्व रहा और पंजाबी जीवन शैली एक जुझारू जीवन शैली बनकर उभरी। समाज शास्त्री तो यह भी मानते हैं कि पंजाब की यह सुफियाना बेफिक्री और कलन्दर जैसी अलमस्ती का मूल भी इसी असुरक्षा की भावना ’सेंस ऑफ़ इन्सेक्योरिटीं’ वाले जीवन का बाई प्रोडक्ट है। अगर ऐसा है तो साहित्य के लिए यह छद्मवेश में एक वरदान की तरह ही रहा है।’’ संतो में गुरूनानक ने पहली बार लोगों के स्त्री के प्रति इस रवैये को जांचा पड़ताला और सामाजिक यथार्थ को पहचाने का प्रयास किया। उन्होंने स्त्री को सम्मान देते हुए कहा -
अ. नारी निंदा न करे, नारी नर की खान
नारी ते नर होत है, प्रभू प्रहलाद समान।
ब. नारी जननी जगत की पाल पोस के पोष।
मूरख राम विसार कर तांहि लगावे दोष।
स्त्री पर दोषों की गठरी रखकर पुरूष अपने अच्छे-बुरे जीवन का दोष भी उसी पर लगाता है गुरूनानक ने सन्यास में गृह त्याग जैसी कोई बात नहीं कही उन्होंने कहा कि गृह त्याग करके तपस्या करने से बेहतर है कि अपने भीतर का काम, क्रोध, लोभ त्यागने का प्रयास करें । जहां गृह त्याग की बात न हो वहां स्त्री साधना मार्ग में बाधा नहीं मानी जा सकती गुरूनानक ने यही सिद्ध करने का प्रयास किया। जिसका प्रभाव पंजाब पर ही नहीं बल्कि देशभर में देखा गया। स्त्रियों की सामाजिक स्थितियों में सुधार की रूपरेखा का निर्धारण भी संत काव्य का ही एक हिस्सा है। संत काव्य में यह पहली बार गुरूनानक के यहां दिखाई देता है कि गृहस्थ जीवन को सराहा गया। उन्होंने उन तमाम पाखंडो आडम्बरों की तरफ भी ध्यान दिया जिनकी तरफ कबीर ने इशारा किया था, गुरूनानक ने स्थापित कर दिया कि स्त्री समाज का जरूरी अंग है। उसका निरादर नहीं किया जाना चाहिए। पंजाब में गुरू काव्य के कारण चली यह लहर दूसरे प्रांतों से भिन्न है। एक किस्से के अनुसार गुरू हरगोविंद जब नामक फकीर परिवार सहित कश्मीर से गुजरात जा रहे थे जहांगीर ने गुरू जी से प्रश्न किया। औरत क्या फकीरी क्या? हिंदू क्या पीरी क्या? पुत्र क्या बैराग क्या दलित क्या त्याग क्या?
ते उन्होंने उत्तर दिया
‘औरत ईमान, दौलत गुजरान
पुत्र निशान, फकीर न हिंदू न मुसलमान’
एक तरफ यहाँ गुरू काव्य में स्त्री को बराबर का दर्जा दिया गया है वहीं दूसरी और ‘कर्ता पुरख निरभो निरवैर अकाल मूरत अजूनी सैभ भंग’ कहकर पुरुष को कर्ता घोषित करने वाली उक्तियाँ भी साथ साथ चलाती रही | जबकि मध्यकालीन साहित्यिक जगत में अन्य प्रांतो की अपेक्षा पंजाब में स्त्री को तमाम अधिकार दिऐ गऐ अमृतपान में भी उन्हें बराबरी का दर्जा दिया गया जो आज तक बरकरार है।
गुरुनानक की यह घोषणा ‘‘सो क्यों मंदा आखीऐ/ जित जमें राजान। ’’
अर्थ (उस स्त्री को बुरा क्यों कहा जाऐ जिसने बड़े बड़े राजाओं, महाराजाओं, संतो को जन्म दिया हो।)मध्यकालीन संत काव्य में स्त्री को आध्यात्मिक मार्ग में रूकावट माना गया। कबीर ने कहा ‘नारी की झांई परत, अंधा होत भुजंग कबीरा तिन की कौन गति, नित नारी को संग
तुलसीदास ने कहा
‘नारी मरी घर संपति नासी
मंूड मंुडाए भए सन्यासी
दादूदास, मलूकदास, पलटूदास कबीर, रैदास, गुरूनानक इस काल के संत हुए। एक तरफ स्त्री को कामिनी कहा गया तो दूसरी तरफ उसे जीवात्मा का प्रतीक या अल्लाह भी माना गया। डा. सैल कुमारी लिखती हैं- ‘भक्ति युग की सब धाराओं में नारी के दो रूप दिखाई देते हैं-साधाराण और विशेष। पहला रूप लौकिक और यथार्थ है और दूसरा काल्पनिक, पारलौकिक, और आदर्श। दूसरे रूप के संम्बन्ध में सारे भक्त कवि एक सुर में घृणा प्रकटाते हैं। ये क्रोध और हिंसा से भरी हुई भावना है। भक्त कवियों ने स्त्री को माया का ही साक्षात् रूप माना है। नारी को सर्पिणी, बाघिन, विष की वेल आदि विशेषणों से नवाजा है। भक्त कवियों का विश्वास है कि स्त्री में काम प्रवृति अधिक होती है। इसी कारण माता और जननी पर भी विश्वास करना उचित नहीं।’’
हिंदु समाज में स्त्री की स्थिति पर दृष्टि डालने के लिए यह जान लेना अनिवार्य है कि हिंदु धर्म में स्त्री के लिए क्या स्थान रहा है। धर्म द्वारा लादी गई वर्जनाएं यहां दिखाई देती हैं । पुत्री क्योंकि पराया धन है और पुत्र ही मृत्यु पर अग्नि देने का अधिकार रखता है, पुत्री नहीं, इसी पुत्र मोह के चलते ही देखा जाता है कि आशीर्वाद स्वरूप ‘दूधो नहाओ पुतो फलों’ या ‘आठ पुत्रों को जन्म दो’ जैसे वाक्य कहे जाते हैं। पुत्री जन्म की कामना वहां नही है।
पंजाब में स्त्री की स्थिति को समझने के लिए साहित्य को देख लेना जरूरी है। पंजाब पीरों - फकीरों की धरती रहा है। ईश्क हकीकी से ईश्क हकीकी की यात्राओं का वर्णन करने वाले इन फकीरों की वाणी से ही वहां का किस्सा काव्य पोषित होता रहा है। हीर रांझा, सस्सी पुन्नु, सोहणी-महिवाल, आदि किस्सा काव्य प्रेम के उच्चतम आदर्शों को रेखांकित करते हैं । देखना यह है कि इन किस्सा काव्यों में स्त्री किस रूप सामने आती है। कवियों ने नायिकाओं का सौन्दर्य वर्णन करते हुए किस परम्परा का संकेत दिया है। नख-शिख वर्णन करते हुए ‘मिरजा साहिबां ’ के रचयिता पीलू ने साहिबा के सौंदर्य का वर्णन करते हुए लिखा है -
साहिबां गई तेल नूं गई पसारी दी हट्ट
फड़ न जाणे तकड़ी, हाड़ न जाणे बट्ट
तेल तलावे भूल्ला वाणीयां दित्त शहद उलट
वणज गवा लऐ वाणीयां, वल्लद गवाऐ जट्ट’’
(साहिबां तेल लेने पंसारी की दूकान पर गई, दुकानदार उसके सौन्दर्य को देखकर आश्चर्यचकित है, वह लकड़ी और वाट -पकड़ना ही भूल गया, तेल के स्थान पर शहद तोलकर दे देता है जाट भी अपने वैल खो बैठा है)
पंजाबी किस्सा काव्यों में नायिकाओं की खूबसूरती में हिन्दी साहित्य के दोनों स्थूल और सूक्ष्म पक्ष किस्सा काव्यों में दिखाई पड़ते हैं। श्रृंगार की परम्परा का निर्वाह दिखाई देता है
वारिश शाह जब हीर लिखते हैं तो उन पर जागीरदारी सामंती युग का प्रभाव स्पष्टतः दिखाई देता है। नख-शिख वर्णन में वारिस ने रीतिकालीन परंपरा का निर्वाह किया है।
‘‘लै के सट्ठ सहेलियां नाल चल्ली, हीर, मडती रूप गुमान दी जी वुक्क मोतियां दे कन्नी छणकदे सन, कोई हूर ते परी दी शान दी जी, कुड़ती सूट्टे दी हिक्क दे नाल फब्बी, होश रही न जिमीं असमान दी जी वारसशाह मीआं जट्ट लोहड लुट्टी, भरी किवर हंकार गुमान दी जी, केही हीर दी करे तारीफ शायर, मत्थे चमकदा हुस्न मेहताव दा जी, नैण नरगसी, मिरग ममोलड़े नें , गलां टहकयां फुल्ल गुलाब दा जी।’’
(अर्थ हीर अपनी साथ साठ सहेलियां लेकर जा रही है गुमान से भरी हुई कानों में मुट्ठी भर मोती छणक रहे हैं, परी, हूर लग रही है। लाल रंग की चोली सीने से चिपकी है। उसे आसमान और धरती का होश नहीं है, वारिश शाह कहते हैं वह हाय तौबा कराने वाली जट्टी है, जिसमें अहंकार गुमान भरा हुआ है। उसकी तारीफ कोई शायर कैसे करेगा, उसके माथे पर मेहताव चमक रहा है।)
देखने की बात है कि वारिस शाह ने जिस हीर को प्रेम की प्रतीक बनाकर पेश किया है उसे गुमान और अहंकार से भरी स्त्री के रूप में भी चित्रित किया है। हीर रांझा में हीर दब्बू स्वभाव की स्त्री नहीं है, बल्कि वह समाज की गढ़ी नैतिकताओं के साथ कभी समझौता नहीं करती। ‘दूसरे पुरूष से विवाह हो जाने, फिर विधवा हो जाने के बाद भी वह प्रेमी के रूप में रांझे को स्वीकार करती है, यह अवश्य है कि पंजाबी के इन किस्सा काव्यों का अन्त त्रासदी में होता है, जहां दोनों पात्र मर जाते हैं, पर हारते नहीं है। हीर , सस्सी, सोहणी कोई भी स्त्री समाज के आगे समर्पण नहीं करती। सस्सी तो पुन्नु की खोज में ही दम तोड देती है। फिर पुन्नु भी मर जाता है, हीर रांझा में भी हीर की मृत्यु पहले दिखाई गई है, रांझे से विवाह करने की जिद के कारण उसके भाई उसे जहर देकर मार देते है, फिर रांझा भी उसी कब्र में दफन हो जाता है। सोहणी महिवाल की प्रेमकथा में भी सोहनी रोज झनां नदी को पार कर महिवाल से मिलने जाती थी। तैरने के लिए वह घड़े का इस्तेमाल करती थी, सोहनी के लिए यह एक बड़ा कदम था कि ससुराल में रहते हुए सास और ननद को यह पता चला की वह रात में घडे़ के सहारे झनां नदी को पार करके महीवाल से मिलने जाती है, उन्होंने उसका घड़ा बदल दिया उसके स्थान पर कच्ची मिट्टी का घड़ा रख दिया सोहनी जैसे ही झनां में उतरने लगी मिट्टी पानी में घुलने लगी और सोहनी डूबकर मर गई, बाद में महीवाल भी उसी पानी में डूब जाता है। साहिबां मिरजा का किस्सा थोडा अलग है। साहिबां मिंरजा के तीर छुपा देती है और मिर्जा मर जाता है बाद में वह कहती है’ –(वही)‘‘हाऐ हाऐ/ मैंडया लाड्या/ कित्त बल्ल करे चलाण/ छड् गओं विच उजाड़ वे/रोही आऊंदी खाण/ वे दरदां दे साथीआ कुझ तां हक पहचाण’’
(मिरजा के मरने पर वह कहती है। हे मेरे प्रेम तुम कहां चले गऐ, मुझे उजाड़ में ही छोड़ गए। दुख में साथ देने वाले मेरा कुछ न कुछ अधिकार तो पहचानो साहिबा ने मिरजा के साथ घर से भागकर घर तो छोड़ दिया, पर घर का मोह नहीं छोड पाई थी, वह नहीं जानती थी कि उसके भाई निहत्था मिरजा पर भी हाथ उठाएंगे, वरना शायद वह उसके तीर न छुपाती यह इस कथा का छुपा हुआ पक्ष है
पितृसत्तात्मक ढांचे मे पला यह स्त्री पात्र जीवन के उस कटू यथार्थ के अधिक निकट दिखाई देता है, जहां स्त्री को प्रेम की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कतई नहीं है। नैतिकता की पैरोकार बनी पितृसत्ता यहां अपने क्रूरतम रूप में दिखाई देती है। किस्सा काव्य से पहले पंजाबी कविता आध्यात्मिक व सुधारात्मक, आत्मा परमात्मा विषय चिंतन धाराओं के धरातल पर खड़ी दिखाई देती है। सत्तरहवी और अठारवीं सदी के मध्यकालीन पुनर्जागरण काल की सभी प्रेम रचनाएं पंजाबी साहित्य की अमूल्य निधि हैं, वारिस शाह की ‘हीर’ हाशिम की सस्सी, फजल शाह की सोहनी महिवाल, पीलू की ‘मीर्जा साहिबां आदि रचनाएं
‘‘इन प्रेम कथाओं की विशेषता कथाओं की नायिकाओं में निहित है। जैसा कि प्रारम्भ में ही चर्चा की गई है कि पंजाब एक कृषि प्रधान क्षेत्र है और रहा है, उदाहरण के लिए, जब आज के अत्याधुनिक कहे जाने वाले 21 वीं सदी के समाज में भी प्रेमी प्रेमिकाओं को मार डालना सामान्य सी बात हो गई सी दिख रही है, और हैरत तो तब और भी होती है जब इसतरह की हत्या को समर्थन देने वाले लोग भी उसी समाज से उठ खड़े होते हैं (हाल ही में हरियाणा में घटित दुर्भागयपूर्ण घटना का संदर्भ लें) कोई सामान्य समझ का व्यक्ति भी यह अन्दाजा लगा सकता है कि 17 वीं और 18 वीं सदी के दौरान जब ये रचनाएं हो रही थी समाज किस प्रकार का रहा होगा। इस आलोक में यह देखना और इसका विश्लेषण करना बहुत महत्वपूर्ण है कि उन कथाओं की नायिकाओं में कितना जुझारूपन था।
पंजाब की इन प्रेम कथाओं में एक बात गौरतलब है कि लगभग सभी रचनाओं में नायिकाएं जुझारू हैं। और प्रेम के मुखर इजहार में नायकों से ज्यादा बढ़-चढ़कर आगे आई हैं। मध्यकालीन समाज वर्जनाओं में जकड़ा समाज था। सभी प्रेमकहानियों का अन्त एक सा ही दिखाई देता है। पर सबसे ज्यादा नैतिक दबाव स्त्री पर है। रांझा, महीवाल, पुन्नु तो बाद में मरते हैं । पहले उनकी प्रेमिकाएं मरती हैं। फिर भी इन किस्सा काव्यों के स्त्री पात्रों को बहादुर और दिलेर जरूर दिखाया गया है यही एक विशेषता है जो पंजाबी किस्सा काव्यों को नया स्वरूप प्रदान करती है।
मिरजां साहिबां के किस्से मे थोड़ा अलग रंग जरूर दिखाई देता है। साहिबां मिरजा के तीर छुपा देती है ताकि मिरजा साहिबां के भाइयों पर तीर न चला सके। और मिरजा निहत्था होने के कारण मारा जाता है-एक लोकगीत में- मिरजा मरते वक्त साहिबां से कहता है -
‘‘साहिबां तूं माडी कीती नी/जे पता हुदा तूं इंज करनी/मैं लयोंदा नाल भरावां नूं’’
(साहिबा तुमने मेरे तीर छुपाकर बहुत बुरा कर दिया। अगर मुझे पता होता तुम ऐसा करोगी मैं अपने साथ अपने भाइयों को लेकर आता)
पंजाबी किस्सा काव्यों से भिन्न साहिबां मिरजा की नायिका नैतिकता की जकड़न में जकड़ी हुई दिखाई देती है। भाइयों के प्रति मोह के कारण वह नहीं चाहती कि मिरजा उसके भाइयों पर आक्रमण करे, महिलाओं की स्थिति सदैव नारकीय रही। प्रेम का मुखर इजहार तो दूर वे विनिमय की वस्तु बनी हुई अश्वेत गुलामों से भी बदतर जिन्दगी जी रही थी।अनुज के शब्दों में ‘‘ऐसे में एक ‘हीर’ मिलती है जो मुखर होकर कहती है कि ‘‘मुझे हीर नहीं, धीधो रांझा पुकारो’’ यह ‘हीर’ ही होती है - जब जबरन उसकी शादी की जा रही है तब शादी की वेदी पर बैठकर भी वह काजी की सत्ता को चुनौती देने का साहस रखती है। हीर कहती है ‘‘काजी साहब दुख इस बात का है कि आप जैसे लोग बड़ी आसानी से अपने धर्म और विश्वास को गिरवी रख देते हैं।’’ यह बहुत महत्वपूर्ण इस अर्थ में भी है क्योंकि वह काजी महज एक काजी नहीं है बल्कि वह सामाजिक वर्जनाओं का जिसे ‘हीर’ खुलेआम चुनौती देती है। कथा का यह प्रसंग भी महत्वपूर्ण है कि हीर सामाजिक और धार्मिक वर्जनाओं के प्रतीक बन चुके अकेले काजी को ही चुनौती नहीं देती बल्कि वह अपने सथियों की सेना बनाकर सत्ता के प्रतीक सरदार नूरा से भी लड़ती है और उसे परस्त करती है। जब ‘सस्सी पुन्नू’ की सस्सी को यह मालूम हो जाता है कि वह बादशाह आदमखान की बेटी है जो परिस्थितिवश उस धोबी के घर पलती बढ़ती है। तो वह उस धोबी को छोड़कर नहीं चली जाती बल्कि उसी घर में रहती है। इस तरह ‘सस्सी’ आत्मोसर्ग और नैतिकता का उच्चस्तरीय ‘पैराडाइम’ गढ़ती है। इस तरह ‘सोहनी-महिवाल’ का इज्जत वेग का फकीर हो जाता है और नदी के पार एक झोंपडी में रहने लगता है। लेकिन ‘सोहनी’ वैराग नहीं लेती, वह लड़ती है परिस्थितियों से, इस समाज से इस समाज की वर्जनाओं से, लेकिन यह कहने का अर्थ यह नहीं है कि इज्जत बेग अर्थात महिवाल में आत्मोसर्ग का भाव नहीं, क्योंकि यह महिवाल ही है जो सोहनी के लिए मछली पकड़ने हेतु अपने शरीर का मांस काट डालता है। कथा में सोहनी का आगे बढ़कर नदी पार करना और फिर उसी दौरान डूव कर मर जाना कथा के कई आयामों की परत-दर-परत मीमांसा करते हैं।
पंजाब की इन कथाओं में सामाजिक बन्धनों और वर्जनाओं के विरूद्ध नायिकाओं द्वारा किया जाने वाला विरोध नायकों से ज्यादा तलख ओर मुखर दिखाई देता है ‘काजी’ और ‘नूरा’ से लड़ने का काम ‘हीर’ करती है जबकि कीचम शहर की ओर नंगे पांव दौडकर ‘सस्सी’ ही जाती है। उसी तरह नदी पार करने का साहस ‘सोहनी’ दिखाती है जबकि प्रेमी के साथ घोड़े पर चढ़कर भाग जाने ओर अपने सीने से खंजर घांेप लेने का साहस ‘साहिबां’ ही दिखा पाती है”
यह ध्यान देने की बात है कि इन कथाओं की नायिकाएं कहीं भी समाज से भागती नहीं है। उनमें पलायन नहीं है। उनमें एक नकार है। वर्जनाओं के प्रति सामाजिक जड़ताओं के प्रति। ये नायिकाएं मरती भी हैं। तो स्वयं नहीं मरती, कहीं आत्महत्या नहीं करती बल्कि उन्हें मारा जाता है धोखे से या फिर उन्हें मजबूर किया जाता है मर जाने को ‘साहिबा’ भी यदि अपने सीने में खंजर घोंपती है तो इसलिए नहीं कि वह मिर्जा को मार डालने वाले अपने भाइयों से लड़ नहीं पाती, बल्कि इसलिए खून खराबा नहीं करना चाहती। इन कहानियों का विश्लेषण और भी कई कोणों से किया जा सकता है और विद्वानों द्वारा आगे किया जाएगा भी लेकिन यह एक तथ्य है कि पंजाब की ये कथाऐं मूलत: नायिकाओं की कथाएं हैं, नायिकाओं को ध्यान में रखकर लिखी गई हैं और इसमें सन्देह नहीं कि ये कथाएं सदियों तक पंजाब के नारी समाज का सर गर्व से ऊंचा करेगी।’’
इस प्रकार पंजाब के किस्सा काव्य ही बाद की पंजाबी कविता की पृष्ठभूमि में प्रेम के उदात्त स्वरूप को प्रकट करते रहे यही कारण है कि बाद की पंजाबी कविता में प्रेम और समर्पण के गूढ, गहन जीवंत बिम्ब देखने को मिलते हैं। पंजाब को इन्हीं किस्सा काव्यों के कारण हीर-रांझे की धरती कहा जाता है। आधुनिक पंजाबी कविता में भाई वीर सिंह, धनीराम चात्रिक प्रो. पूरन सिंह, भाई मोहन सिंह राजेन्द्र सिंह वेदी, अमृता प्रीतम इसी प्रेम की परंम्परा के कवि रहे इन किस्सा काव्यों का जिक्र इस अध्याय में इसलिए भी जरूरी है कि समाज के व्यापक परिवेश को जानने के लिए वहां प्रचलित कथाओं, किस्सो, मिथकों को जानना भी जरूरी है। जिस समय पंजाबी साहित्य में किस्सा काव्यों की रचना हुई थी उस समय मुगलों की हुकुमत थी। हिंदी साहित्य में यह काल रीतिकाल के नाम से जाना जाता है। सामंती, जागीरदारी समाज में जहां एक तरफ स्त्री को वस्तुकरण की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है वस्तुकरण की इस प्रक्रिया में एक तरफ तो पुरूष स्त्री के रूप सौन्दर्य पर मुग्ध दिखाई देता है दूसरी तरफ समाज द्वारा वह स्त्री निन्दा की पात्र घोषित कर दी जाती है। किस्सा काव्यों में लगभग यही त्रासदी दिखाई देती है। प्रेम के उदात्त चित्रण के साथ-साथ स्त्री वह तमाम दंश झेलती दिखाई देती है जो इस पितृसत्तत्मक समाज व्यवस्था में विद्यमान हैं। जिन्हें भोगने के लिए वह अभिशप्त है। जिनसे मुक्ति का कोई विकल्प नहीं है। विकल्प है तो मीरा की तरह भक्ति का एकमात्र रास्ता।
किस्सा काव्यों के स्त्री पात्रों की स्वतंत्रता भावुक और रोमांटिक स्तर पर खड़ी दिखाई देती है जबकि किसी भी मनुष्य की स्वतंत्रता का संपूर्ण ढ़ांचा अर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक आधारों पर ही खड़ा हो सकता है। स्त्री पात्रों की यह भावुकता उन्हें उस जकड़न से मुक्त नहीं करती जिसे पितृसत्ता औजार के रूप में इस्तेमाल करती है। और फिर किस्सा काव्यों में दर्शाया प्रेम प्रथम दर्शन या रूप का बखान सुनने के बाद उत्पन्न प्रेम के रूप में सामने आता है यानि विकल्पहीन समाज में स्त्री के पास अन्य कोई विकल्प नही है। यही स्थिति इन प्रेम काव्यों को त्रासदी के रूप में प्रकट करती है। मिरजा के मर जाने के बाद साहिबा के पास अन्य कोई विकल्प नहीं है। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक आधार पर लिखा गया यह काव्य स्त्री पात्रों को विस्तृत फलक प्रदान नहीं करता। किस्सा काव्यों में स्त्री की खुलकर निन्दा नहीं की गई हां पे्रम का विरोध करने वाले नैतिकता के पैरोकार प्रेम का विरोध करते दिखाई देते हैं - जैसे एक स्थान पर मिरजा साहिबा का रचनाकार पिलू कहता है -
(मिरजा सिआलां मुड आ गया, रंन साहिबां दा चोर) इस पंक्ति में स्त्री को जायदाद के रूप में दर्शाते हुए कवि कहता है मिरजा साहिबां को चोरी करके ले गया
अन्य पंक्ति में -
‘बुरे सियालां दे मामले, बुरी सयाला दी राह
बुरीयां सयालां दिआं औरतां जादू लैंदीयां पा
चडदे मिरजे खान नूं बंझल देंदा मत (पूर्ण पाठ के अनुसारः स्मृति आधारित पंक्तियां)
मिरजा साहिबां से विवाह करना चाहता है तो बंझल जाट उसे समझाता है साहिबा सयाल गांव की है। बंझल जागीरदारी समाज का पैरोकार है, मिरजे से कहता है। साहिबां अच्छी औरत नहीं है, बल्कि सयाल गांव की हर औरत बुरी है, साहिबां भी
यानि समाज द्वारा गढ़ी गई अच्छे होने की परिभाषा में साहिबां कहीं फिट नहीं हो पा रही। इस प्रकार इन किस्सा काव्यों में कई स्थानों पर एक तरफा मत पुरूष पात्रों का दिखाई पड़ता है (स्त्रियों के चरित्र के संबंध में) स्त्रियों द्वारा प्रतिरोध का स्वर तब दिखाई पड़ता है जब उन्हें उनके प्रेमी से दूर कर दिया जाता है।
मकवूल की हीर एक स्थान पर कहती है -
‘‘औरतों की नींदा मत करो, सभी औरतें बुरी नहीं होती हैं | औरतें तो रावी नदी की तरह पवित्र है पर गैर का कोई विश्वास नहीं है। औरत तो आम की गुठलियां है उनके बिना संसार चल नहीं सकता।’’
यहां हीर औरत का पक्ष तो रखती दिखाई देती है लेकिन साथ ही ‘शुचिता’ की मांग कर रहे समाज के सामने अपने पवित्र होने को भी स्वीकार करती है, जिसे स्त्री मुक्ति की मुक्मल आवाज नहीं कहा जा सकता मकवूल का रांझा कहता है - रांझा आखदा रन्नां नफा नहीं रंना नाल न दोस्ती लाइए नी/मरदां सच्चयां नू चा करन झूठे/ बारे रन्न दे मूल न जाइए नी
(प्रेम के उदात्त किस्सा काव्यों में भी पुरूष जो नायक के रूप में है स्त्री की वफा पर उंगली उठाता नजर आता है। रांझा कहता है स्त्रियों के साथ रहने से कोई लाभ नहीं स्त्रियों से दोस्ती नहीं करनी चाहिए, सच्चे पुरूष को भी झूठा सिद्ध करने में माहिर स्त्रियों से कोई जीत नहीं सकता)
‘‘आखर रंन्ना दी जात बेबफा हुंदी, मैं डिट्ठा ऐ खूब आजमा हीरे
सुखन रासती आखया मुकबले ने, नहीं रन्ना को मेहर वफा हीरे।’’
(रांझा हीर से मुखातिब होकर कहता है, मुझे स्त्रियों पर विश्वास नहीं है, वे तो स्वभाव से ही बेवफा होती हैं)
पुरूष प्रधान समाज में औरत सदैव से ही दोषी है। प्रश्न उठता है कि उदात्त प्रेम का आधार रहे स्त्री पात्रों के चरित्र पर सवाल उठाता यह पुरूष वर्ग उस उदात्त प्रेम का अधिकारी कैसे हो सकता है? जिसमें एक पक्ष के समर्पण पर पुरा संदेह है। यह दंश भोगने वाली स्त्री इन किस्सा काव्यों की नायिका है। वारिस शाह की ‘हीर’ अधिक लोकप्रिय रही। राजशाही पूंजीवादी समाज में जहां स्त्री दोयम दर्जे पर मानी जाती रही, वहां विवाह का आधार प्रेम हो ही नहीं सकता, वारिस शाह अपने काव्य में ‘हीर’ को रांझे से ऊचा स्थान देते हैं। फिर भी वारिस शाह ने अपनी कविता में हीर को दोयम दर्जे की सिद्ध किया है। यहां प्रेम का आदर्श और भावुकता का संबंध है तो वारिस शाह की हीर उस पर खरी उतरती है। परंतु जीवन के विस्तृत फलक पर वह दिखाई नहीं देती। एक स्थान पर तो रांझे के मुंह से कवि ने यहां तक कहलवा दिया कि- रंन (औरत) फकीर ओर तलवार, घोड़ा इन चारों का विश्वास नहीं किया जा सकता, जीवन में ऐसा कोई भी क्षण आ सकता हे जब ये चारों वार कर सकते हैं। आदमी तो नेकी से भरा हुआ जहाज है, औरत बुराइयों की बेदी है जो अपने मां बाप का नाम डूबो देती है।
इस प्रकार ईश्क हकीकी ही से ईश्क मजाजी की संत काव्य परंपरा से ग्रहण किऐ गऐ प्रेम के उदात्त तत्व का आधार लिए रांझे के मुंह से अविश्वास की भाषा सुनकर किस्सा काव्यों की उस गंभीरता व उदात्त रोमानियत पर भी बडे़ सवाल खडे़ किऐ जा सकते हैं। वारिस शाह के काव्य में जोगी भी औरत की निन्दा करते दिखाई देते हैं। वारिस की हीर कई स्थानों पर विद्रोही की भुमिका में है। रांझे को ही अपना पीर फकीर, पैगंबर, मुर्शिद मानती हीर राठीयों की बेटी का विवाह कुम्हार के घर नहीं हो सकता, प्रेम की इसी एकनिष्ठता में उसे अपने में और रांझे में कोई फर्क नजर नहीं आता हीर एक स्थान पर कहती है - मैने ख्वाजा की दरगाह पर बैठकर कसम खाई है, रांझे के अलावा किसी और से प्रेम या विवाह करूं तो मुझे नर्क मिले’
उधर भगवान सिंह की हीर भी अपना दीन ईनाम रांझे को ही मानती है। हीर रांझे से अधिक धैर्यवान और विद्रोही है। वह ससुराल जाने के बाद अपनी ननद से कहकर रांझे को बुलवाती है। वह प्रेम की एकनिष्ठता में मां बाप काजी और अन्य रिश्तेदारों का मुकाबला करती है। पंजाबी साहित्य को सबसे जिन्दादिल नायिका ‘हीर’ है रांझा कई स्थानों पर औरत जात को गालियां देता है परन्तु हीर प्रेम का निर्वाह करते हुए समाज के साथ लोहा लेती नजर आती है।
हीर रांझा का किस्सा उस समय के पंजाब का सामाजिक, राजनैतिक , यथार्थ का बेहद संवेदनशील आख्यान है। इस प्रकार अन्य किस्सा काव्यों में भी तत्कालीन समाज के यथार्थ का चित्रण है। जिसमे पितृसत्ता अपने क्रूरतम रूप में दृष्टव्य है। पितृसत्ता की इस जकड़न के कारण ही यह प्रेम काव्य टैजेडी (त्रासदी) में तब्दील हो गऐ। अपनी समृद्ध व लम्बी परम्परा में किस्सा काव्यों में महिवाल का प्रसंग भी उतना ही प्रसिद्ध रहा है। जितना कि हीर रांझा का किस्सा। शाह हुसैन न और हाशिम ने सोहनी महिवाल लिखा हाशम के बाद कादरयार फजलशह, भगवान सिंह, पालसिंह ने लिखे। सोहणी भी हीर की तरह विद्रोही प्रवृति के साथ काव्य मे आती है। सस्सी पुन्नु की लोक कथा मे एक महत्वपूर्ण बात सामने आती है। वह यह है कि अन्य किस्सा काव्यों या लोकथाओं में प्रेम की शुरूआत नायक द्वारा की जाती है वहीं सस्सी पुन्नु प्रसंग में नायिका प्रमुख रूप से उभरती है क्योंकि यहां सस्सी को स्वप्न दर्शन व चित्र दर्शन द्वारा प्रेम होता है। सस्सी पर सबसे पहले किस्सा हाफिज वरखुरदार ने लिखा। फिर हशमशाह, सुंदरदास ,फजल शाह, गुलाम रसूल ने लिखा। हाशिम की सस्सी प्रसिद्ध रही।
इस प्रकार हमने किस्सा काव्य के स्त्री पात्र पर विस्तृत आलोचनात्मक दृष्टि ड़ालने का प्रयास किया अब एक दृष्टि लोक गीतों पर ड़ालना अनवार्य है। संस्कृति को व्यक्त करने का दम इन लोक गीतों में है बेटे के पैदा होने पर गाऐ जाने वाले लोक गीतों में हम भली शांति देख सकते हैं कि वहां लड़कियों की स्थिति क्या है पंजाबी के लोक गीतों को समृद्ध करने वाला पक्ष स्त्री है। इन गीतो में जहां एक तरफ पंजाब की समृद्धि की प्रत्येक संभावना का रेखाचित्र है वहीं दूसरी तरफ तीखी आलोचना का हिस्सा ये लोकगीत एक स्त्री की स्वतंत्रता उसकी स्वायत्तता से परे उस समाज में हो रहे स्त्री दमन के प्रत्यक्ष दस्तावेज हैं। अपने दमन के गीत गाती ये स्त्रियां इन्हीं लोकगीतों की पंक्तियों पर गिद्दे के रूप में नाचती हैं तो कौन बौद्विक होगा जो आपने दमन पर हंस हंस नाच रही स्त्री की दशा पर रो न देगा एक गीत जहां एक स्त्री के उँंट पर बैठ जाने मात्र से ही घर की लाज चली गई।
‘‘टांडा टांडा टांडा/’’बंतो दे मितरां ने/बोता बीकानेर तो लयांदा/बंतो उते चढ़ गई/बोता रेल बराबर जांदा/बंतो दे बापु ने/बंतो दी गल संहारी/सिर तो पग लाह के/चुक के परे मारी/घड़ा न चुकाइयो मित्रो/इसदी, पिंड दे मुंडे नाल यारी
(भावार्थ:- बंतो के दोस्तों ने, बीकानेर से ऊंट लाया है बंतो ऊंट पर बैठ गई तो पिता विरोध के रूप में अपनी पगड़ी उतारकर फेंक देता है। और गांव के लड़के कहते हैं कोई भी बंतो के सिर पर घड़ा मत रखना। उसकी केाई भी सहायता नहीं करेगा, क्योंकि बंतो की मित्रता गांव के किसी लड़के के साथ है। (स्मृति के आधार पर)
यह कैसा समाज है जो एक लड़की को अपने आस पड़ोस उसके गांव के संगी साथियों द्वारा लाऐ गऐ ऊँट पर बैठने की स्वतंत्रता, भी नहीं देता। अंतिम पंक्तियों में तो यह तक कह दिया गया है कि इस लड़की को घड़ा उठाने में कोई लड़का मदद न करना, क्योंकि इस लड़की की दोस्ती गांव के किसी लड़के से है। मतलब यह लड़की अच्छी नहीं है। समाज द्वारा गढ़ी गई अच्छे होने की तमाम परिभाषाएं यहां लागू होती हैं। वहां स्त्री प्रताडि़त होगी पुरूष नहीं। पंजाब में इस गीत पर ज्यादातर भंगडा होता है। मतलब एक पुरूष इस बोली को लम्बी आवाज (हेक) में गाएगा और फिर सामुहिक नाच होगा। अक्सर ऐसी बोलियों पर स्त्रियां नाचती है एक अन्य दृश्य में बेटी बाप से कहती है -
’’छोटे नाल ना ब्याहीं बाबला
छोटा खरा शोदाई
डंगरा दे विच मंजा डाहवे
वड़े जेठ दा भाई ’’
(पिता जिस घर में तुम मेरे लिए वर देखने जा रहे हो वहां के छोटे लडके से मेरी शादी न करना वह तो बहुत आवारा है। पशुओं के साथ ही चारपाई डालकर सो जाता है) अगले ही दृश्य में वह उसे स्वीकार करती हुई कहती है -
टुरया तां जानैं वे, गल सुण जा खोल के
भैण नियाणी वे, वर गंगदी टोल के।
(भाई वर ढंूढने जा रहे हो, मेरी एक बात सुन कर जाना, तुम्हारी बहन बहुत छोटी है, वह अपना वर खुद ही ढंूढना चाहती है। एक अन्य दृश्य में - पिता लड़की के लिए लड़का ढूंढने निकलता है और गाड़ी भरकर लड़कों को ले आता है कहता है बेटी पसंद कर ले।
‘‘बारी बरसी खटण गया सी/ते खट के लयांदी चांदी/धीऐ नी पसंद कर लै/ गड्डी भर मुडयां दी लयांदी।
बेटी को कोई लड़का पसंद नही आता। तो वह कहती है। -
बारी बटसी खटण लोई/ते खट के लयांदी ऐई/सारी गड्डी मोड बाबला/मेरे हाण दा मुंडा न कोई
(पिता सारी गाड़ी वापिस भेज दो, इसमें तो मेरी उम्र का एक भी लड़का नहीं है।)
पंजाब के विरसे का अंग ये लोकगीत स्त्री के प्रश्नों के सामने मूक हैं।
एक अन्य दृश्य में - लडकी मां से कहती है।
(मेरा पति शराबी है, मुझसे मेरे सारे गहने मांगता है, पोस्त पीता है, मां कहती है उसे गहने मत देना तो बेटी कहती है मां तुम मुझे पैदा ही न करती, न मेरा ब्याह होता न ‘‘भंग, पोस्त पीदंडा माऐ/तिन सेर रोज दा -----/ना तू जमदी मांऐ/न तू ब्याहंदी/न लड लगदा माएं/भंगी पोस्ती। (स्मृति आधारित)
पंजाब अपनी समृद्धि व खुशहाली के लिए जाना जाता है साथ ही वहां नशीले पदार्थों के अधिक सेवन के कारण महिलाओं की स्थिति और भी भयंकर है। शराब के नशे में पति द्वारा पीटा जाना एक त्रासदी है। शराब पीना शान-शोकत का पतीक मानने वाले पुरूषों के खिलाफ कहीं-कहीं कुछ लोकगीत दिखाई देते हैं जहां घर की महिलांए प्रतिरोध करती हैं।
क्या पंजाब वास्तव में अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक राजनैतिक, समसामायिक निर्मितियों में ऐसा ही है, जहां खेत-खलिहानों में गीत गाते, गिद्दा, भांगडा करते युवा वर्ग हैं, क्या वहां आज भी बुल्लेशाह की हीर गाते हुए बेफिक्री में जीवन जीते लोग हैं। नहीं ऐसा नही है। यह एक कड़वा सच है कि पंजाब अपनी समृद्ध्रियों में जैसा दिखाई देता है वैसा नहीं है। आज छोटा, बड़ा हर किसान विदेश चला जाना चाहता है, क्योंकि अब पैदावार के मुकाबले महंगाई बढ़ गई है, शिक्षा पर खर्च करने के लिए उनके पास पैसा नहीं है कि वे अपने बच्चों को पढ़ा संके, इसलिए वे अपनी जमीन बेचकर या कर्ज लेकर अपने बच्चों को विदेश भेज देना चाहते हैं, ताकि उनकी तरह उनके बच्चों को जीवन भर खटना न पडे़। ग्लोबलाइजेशन ने जो सपने दिखाऐ हैं उन्हें एक किसान दिन भर खेतों मैं काम करके पूरा नहीं कर सकता, इससे बेहतर विदेश में जाकर मजदूरी करके पैसा कमाने को मानता है। क्योंकि वहां कम मेहनत पर अधिक पैसा कमाया जा सकता है। चंड़ीगढ़ जैसे बडे़ शहरों में कॉलेज स्कूल उतने नहीं है जितनी संख्या में विदेशों में भेजने वाले सेन्टर हैं। जितनी संख्या मे ’आईलैटस’ की कोचिंग देने वाले प्राइवेट संस्थान हैं। बीए. एम.ए. करने के बाद बेरोजगार बैठने से या खेतों में काम करने से बेहतर विकल्प युवाओं को आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड का बीजा लेना लगता है।
चंड़ीगढ के एक वीजा सलाहाकार से बात करने पर ऐसे आश्चर्यजनक आंकडे सामने आऐ ’’बारहवीं के बाद कोई आगे की पढ़ाई नहीं करना चाहता है, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड का बीजा आईलैटस के बाद आसानी से मिल जाता है,इसलिए वे अंगे्रजी सीखना चाहते हैं एक महीने में 50 नऐ स्टूडेंट आते हैं जिनमें से 25 आसानी से अंगे्रजी सीख लेते हैं, उन्हें बीजा भी आसानी से मिल जाता है, 25 लड़के-लड़कियां ठेठ ग्रामीण इलाकों से आते हैं अंगे्रजी सीखने में उन्हें कठिनाई होती है, कई लड़के लड़कियां सालों आइलैटस की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पाते’’
यह है वास्तविक स्थिति क्योंकि उनके पास इतनी डिग्रियां नहीं है कि वे सरकारी नौकरियों के लिए इन्तजार करें विदेश जाने के चक्कर में पंजाब में अनमेल विवाह अभी भी एक समस्या है। जो लोग शिक्षा के बल पर विदेश नहीं जाना चाहते वे चाहते हैं कि उनकी बेटी की या बेटे की शादी विदेश में हो जाए। कई ऐसे तथ्य सामने आऐ हैं यहां विदेश एन.आर.आई. निवासी भारतीय लड़का शादी करने के बाद अपनी पत्नी को साथ नहीं ले गया (दहेज लेकर शादी की), और पांच छः साल इन्तजार करने के बाद लड़की को पुनर्विवाह करना पड़ा कई ऐसे केस हैं यहां लड़कियों ने आत्महत्या कर ली। सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर बढ़ रही दहेज प्रथा आज भी यथावत है, उच्च शिक्षा प्राप्त लड़के-लड़कियां पंजाब में उतने नहीं है जितने विदेशों में चले जाने वाले हैं ऐसे असंख्य विज्ञापन हैं, जहां विदेशी लड़के-लड़कियों की तलाश दिखाई देती है, ताकि विदेश में जाकर मेहनत मजदूरी से पैसा कमाया जाऐ यह स्थिति इसलिए ही है क्योंकि जमीने इतनी कम हैं कि उतनी पैदावार हो नहीं पाती जितनी जरूरतें हैं, विदेश जाने विज़ा लगवाने के चक्कर में कई छोटे किसान कर्जदार हो जाते हैं ऐजेन्ट विदेश भेजने के नाम पर उनसे पैसा ले लेते हैं, या (ब्लैक) गैर कानूनी तरीके से समुद्री रास्तों से लड़कों को विदेश भेज दिया जाता है, इस समय पंजाब सबसे ज्यादा इसी समस्या से झूज रहा है, अपनी मौलिकता खो रहा यह प्रदेश आने वाली तमाम समस्याओं से अचेत है। लड़कियां की शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया जाता क्योंकि दहेज प्रथा जैसी सामाजिक रूढियों के कारण सामाजिक प्रतिष्ठा का ढ़ोल पिटते मां बाप शिक्षा पर पैसा खर्च करने से बेहतर दहेज देकर अच्छा कमाने वाला वर ढूंढना ज्यादा पसंद करते हैं। फिर भी पहले की अपेक्षा स्त्री शिक्षा में इजाफा हुआ है। लिंगानुपात तीसरी समस्या है अर्थात अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रति एक हजार महिलाओं की तुलना में पुरूषों की संख्या को लिंगानुपात कहा जाता है।
डा. मनोहर अगनानी के शब्दों में ‘‘भारत में ब्रिटिश शासन काल के दौरान जब अंगे्रज जनगणना आयुक्तों के माध्यम से जनगणना कार्य प्रारंभ कराया गया तो उन्होंने पाया कि भारत में महिलाओं की संख्या पुरूषों की तुलना में कम है। इसी कारण तत्कालीन प्रशासन ने इस अनुपात को नापने के तरीके बदल दिऐ। अब भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहां अभी भी यह गणना अंतरराष्ट्रीय मापदंडों से भिन्न मापदंडों के अनुसार की जाती है। कुछ राज्यों का लिंगानुपात 2001 के अनुसार पंजाब 798, हरियाणा 819, दिल्ली 868, गुजरात 883, हिमाचल प्रदेश 896, उत्तरांचल 908, राजस्थान 909, महाराष्ट्र 913 उत्तर प्रदेश 916, शिशु लिंगानुपात में यह गिरावट चिंताजनक है। वर्ष 1991 में देश में एक भी ऐसा जिला नहीं था जिसका लिंगानुपात 800 से कम हो जबकि सन् 2001 मं 14 जिलों मे यह अनुपात 800 से कम दर्ज किया गया। इसी प्रकार वर्ष 1991 में केवल एक ही जिले शिशु लिंगानुसार 800 - 849 के बीच था, परंतु अब यह आंकडा 32 जिलों में 850 - 899 के बीच का शिशु लिंगानुपात दर्ज किया गया है। 800 से कम शिशु लिंगानुपात- 800 से कम शिशु लिंग अनुपात वाले भारत में 14 में से 19 जिले शिशु लिंगानुपात निम्नानुसार है-
पंजाबः- फतेहगढ साहिब 766, पटियाला 777, मनसा 782, बठिंडा 785, कपूरथला 785, संगरूर 786, गुरदासपुर 789, अमृतसर 790, और रूपनगर 794
हरियाणाः- कुरूक्षेत्र 771, अंबाला 782, सोनीपत 788, कैथल 791, और रोहतक 799
800 से 849 के मध्य शिशु लिंगानुपात
हरियाणाः- झण्सर 801, यमुनानगर,806, पानीपत 809, करनाल 809, रेवाडी 811, सिरसा 817, जींद 816, महेन्द्रगढ 818, फतेहाबाद 828, पंचकुता 829, हिसार 832, भिवाडी 841
पंजाब:- जालंधर 806, नवांशहर 808, मुक्तसर 811, फरीदकोट 812, फिरोजपुर 822
पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, गुजरात, हिमाचल प्रदेश में लड़कियों की संख्या 900 से भी नीचे दिखाई दे रही है। राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश उत्तरांचल, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में भी स्थिति भयावह व चिंताजनक है, जिसमें सुधार करना निसंदेह कठिन है। इसके पहले कि परिस्थितियां नियंत्रण से बाहर हो जाएं आवश्यकता इस बात की है कि समाज में सभी वर्ग कुछ दीर्घकालीन व दूरगामी उपाय करें। देश में सबसे अधिक खराब स्थिति वाले 14 जिले अर्थिक रूप से संपन्न पंजाब और हरियाणा के उत्तरी मैदानी क्षेत्रों के हैं। यहां के शिशु लिंगानुपात से न जाने कितनी लड़कियों की गैर-मौजूदगी का पता चलता है।
पंजाब इस राज्य में प्रति 1000 लड़कों की संख्यामात्र 798 है। पंजाब के किसी भी जिले में यह अनुपात 1000 लडकों के पीछे 822 लडकियों से अधिक नहीं है शेष जिलों में शिशु लिंग अनुपात 800 से कम है तथा शेष जिलों में शिशु लिंगानुपात 800 से 822 में बीच है फतेहगढ साहिब में शिशु लिंगानुपात मात्र 766 है। जबकि अधिकता 822 फिरोजपुर में है।
हिमाचल प्रदेश - कांगडा 836 अना 837
जम्मू कश्मीर - जम्मू 816 कठुआ 814
मध्य प्रदेश - भिण्ड 832 मुरैना 837
दिल्ली - दक्षिण-पश्चिम 846
महाराष्ट्र - कोल्हापुर 839
धार्मिक समुदायों में लिंगानुपातः- कुछ समुदायों में बेटियों केा अवांछनीय माना जाता है। परिस्थितियां इस सीमा तक जटिल हैं कि या तो लडकियों को जन्म ही नहीं लेने दिया जाता उन्हें शिशु अवस्था में ही मार दिया जाता है। सिख समाज में शिशु लिंगानुपात 786/1000 है। हिंदुओं में शिशु लिंगानुपात 825/1000 है परंतु कुछ विशेष भौगोलिक अंचलों में हिंदू जनसंख्या में भी यह अनुपात 850 से भी नीचे गिर चुका है।
धार्मिक समुदाय सभी हिंदू मुस्लिम ईसाई सिख बौद्ध जैन अन्य
शिशु लिंगानुपात 927 925 950 964 786 942 870 976
हरियाणा:- इस राज्य में शिशु लिंगानुपात प्रति 1000 लडकों की तुलना में मात्र 819 लडकियां है। हरियाणा में 1991 में जनगणना की स्थिति अधिक खराब हुई है। राज्य में 19 जिलों में से 5 में 800 से कम, 12 में 800 से 849 के मध्य तथा शेष दो मं 900 से कम शिशु लिंगानुपात है। कुरूक्षेत्र 771 अंबाला 782 सोनीपत 788 कैथल 791 रोहतक 799 अधिक चिंतनीय स्थिति वाले जिले हैं। जिन पर तत्काल ही ध्यान दिया जाना आवश्यक है। ’’
मनोहर अगनानी के आलेख से स्पष्ट होता है कि लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या कितनी कम है। पंजाब में स्थितियां ज्यादा खराब हैं। पितृसत्तात्मक भारतीय समाज में पुरूषों का सदैव वर्चस्व रहा है अतः इसी के चलते बेटे-बेटी मे भेदभाव किया जाता है। ज्यादातर दंपतियां संतान के रूप में पुत्र की कामना करती हैं। धर्म चाहे कोई भी हो स्त्री को सदैव दोयम दर्जे की नागरिक घोषित करता आया है। रामायण व महाभारत काल में भी महिलाओं की दशा संतोषजनक नहीं रही, और तो और आज वैज्ञानिक साम्राज्य के युग मे भी इस कटु सत्य को नकारना दुश्कर होगा कि कन्या जन्म की सूचना पर एक आम भारतीय परिवार में हर्ष की लहर नहीं आती। बेटे-बेटी के बीच भेदभाव आज भी स्पष्ट दिखाई देते हैं। पारंपरिक दृष्टि से बेटों को पूजा जाता है। पुत्र की कामना किए जाने का कारण माता - पिता की मृत्यु के बाद उनका अंतिम संस्कार करने का उसका अधिकार भी है। इसके अतिरिक्त पुत्र परिवार का नाम और वंश भी चलाता है। पुत्र बूढ़े माता-पिता का आर्थिक सहारा बनता है। धर्म पर आधारित कानूनी व्यवस्थाओं में भी पुत्र-पुत्री के बीच भेदभाव रखा गया है। वैवाहिक अलगाव, सम्पत्ति पर अधिकार बच्चों को रखने का अधिकार संबंधित नियमों में यह अंतर स्पष्ट हो जाता है। पुत्र को तो बचपन के पूरे अधिकार भी नहीं दिए जाते हैं। लड़कियों को मौलिक स्वास्थ सेवा, पोषण और शिक्षा की पर्याप्त सुलभता से वंचित रखा जाता है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों अधिक संख्या में कुपोषण का शिकार होती है। परिवार में लड़कियों की अपेेक्षा लड़कों को अधिक महत्व दिया जाता है। पंजाब में दहेज प्रथा अपने विकराल रूप में है। छोटे किसान अपनी बेटियों की शादी में कर्ज लेकर दहेज देते हैं। फिर जीवन भर वही कर्ज उतारते रहते हैं। विदेशों में दूल्हा ढूंढ़ने में परिवार अपनी जमीन तक बेच देते हैं ताकि बेटी का विवाह विदेश में हो सके। हिन्दू लड़कियों के सामाजिकरण पर दृष्टि डालें तो बुजुर्ग लोग लड़कियों और स्त्रियों को पुत्रवती होने का आशीर्वाद देते हैं दूधो नहाओं पूतो फलो के सुदीर्घ जीवन के लिए करती हैं। पुत्री के बाद जन्में पुत्र को प्राय मां द्वारा किए गए कठोर व्रत और संकल्पों का फल बताया जाता है। लड़के के जन्म होने पर उस बहन को सोभाग्य वाली माना जाता है जिसके बाद उस लड़के का जन्म हुआ है। उत्तर प्रदेश में उसकी पीठ पर गुड़ का डला फोड़ा जाता है। उसे भावी वंशपरंपरा चलाने के लिए पुत्र के रूप में सौभाग्य लाने वाली का विशेष सम्मान दिया जाता है। रूढियों के बंधा भारतीय समाज लड़की को उसके मनुष्य होने के रूप में अस्वीकार ही करता आया है। पंजाब में विधवा विवाह के रूप में प्रचलित ‘करेवा’ प्रथा आज भी समस्या के रूप में है। पंजाब में क्योंकि खेती और पशुपालन ही मुख्य व्यवसाय हैं। अतः एक पुत्र की मृत्यु हो जाने पर उसकी पत्नी का विवाह मृत पति के छोटे भाई से कर दिया जाता है। कई बार छोटा या बड़ा भाई विवाहित भी होता है। विवाहित,अविवाहित भाई का मृत भाई की पत्नी से विवाह कर दिया जाता है, कई गांवों, परिवारों में तो इस तथ्य को छुपाया जाता है। परंतु ऐसे किस्से बहुत कम मिलते हैं यहां विधवा ने अपनी इच्छा से पुनर्विवाह कर लिया है। यदि विधवा स्त्री के संतान के रूप में बेटा है तो उसे यही कहकर सांत्वना दी जाती है कि तुम्हारा बेटा जल्दी बड़ा हो जाएगा और देखभाल करेगा। बेटियों के बारे में कभी ऐसा नहीं कहा जाता। ’करेवा’ की यह प्रथा हिन्दु समाज में भी पाई जाती है। विधवा स्त्री को विवाह का अधिकार या स्वतंत्र निर्णयों का अधिकार आज भी प्राप्त नहीं हुआ है। विवाहित स्त्री को शुभ और विधवा को अशुभ माना जाता है। आज भी शादी विवाह व अन्य मांगलिक कार्या में विधवा स्त्रीयों को दूर रखा जाता है। पंजाब मे शादी के समय गाऐ जाने वाले गीतों में ’सुहागिन स्त्री’ शब्द का अधिक प्रयोग होता है। जैसे बारात के लिए तैयार दूल्हे को जब काजल लगाया जाता है या नहाने से पहले हल्दी लगाई जाती है जिसे ‘बटना’ कहते हैं उसमें सब सुहागिन स्त्रीयां, बहने, बुआ, भाबीयां, चाची, मौसी आदि एक-एक करके उसके चेहरे पर बेसन लगाती हैं -इसी तरह लड़की वालों के यहां भी सारे शगुन, रिवाज का काम विवाहित स्त्रियां ही देखती हैं। माईयां (विवाह से एक दिन पूर्व हल्दी लगाने की रस्म) में बनाए गए चावल सबसे पहले घर की अविवाहित बड़ी लडकी को खिलाए जाते हैं ताकि उसकी शादी भी जल्दी हो जाए। ऐसी मान्यता है कि विवाह वाले घर में जब कुंआरी लडकियां चावल खाती हैं तो उनकी शादी जल्दी हो जाती है। अविवाहित व विधवा स्त्रियों को ‘मांगलिक’ गतिविधियों से प्रायः बाहर रखा जाता है और उन्हें महसूस कराया जाता है कि उनके साथ कहीं कुछ गड़बड़ है। अथवा परिस्थितियों के दबाव के चलते अविवाहित रहने वाली स्त्रियां प्रायः बड़े शहरों में रहना पसंद करती हैं वहां ये सब मापदंड कम कठोर होते हैं। विवाहित स्त्री शुभ है तो विधवा अशुभ है। वैधव्य के चिन्हों से बचने की कोशिश की जाती है। चूड़ी टूटने पर यह नहीं कहा जाता है कि चूड़ी टूट गई है। ‘टूट गई है’ कहने के बजाय कहा जाता है चूड़ी बढ़ गई या तमाम हो गई। चूडि़यां मंगलसूत्र आदि विवाहित स्थिति के प्रतीक हैं तथा वैधव्य की स्थिति में उतार दिए जाते हैं। पति की मृत्यु पर स्त्री की चूडि़यां समारोहपूर्वक तोड़ने का रिवाज है। पूरे भारत मे इस प्रकार के नियम हैं कि विवाहित स्त्री को क्या पहनना चाहिए और क्या नहीं। भारत में महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए -
डा. मनोहर अगनानी लिखते हैं ‘‘भारत में महिलाओं के विरूद्ध हिंसा व अपराध के आंकडे चैंकाने वाले है। हर 34 मिनट में एक बलात्कार होता है। हर 42 मिनट में एक यौन उत्पीडन, और हर 93 मिनट में एक महिला को दहेज के लिए जलाकर मार दिया जाता है। लकिन ये आंकडे तो हिमखंड की नोक के बराबर भी नहीं है। क्योंकि अधिकांश प्रकरण तो दर्ज ही नहीं कराए जाते।
यदि हम पल भर के लिए इस बारे में सोचें कि यह भयावह स्थिति कैसे हुई है तो हम साफ तोैर पर पाएंगे कि लैंगिक असमानता की जडें अतीत की धूंध में गायब हो गई हैं।
रूसो निजी संपति की व्यवस्था के आरंभ को मानव जाति के इतिहास का निर्णायक क्षण मानते हैं। यहीं से मनुष्य प्रकृति पर निर्भरता से आजाद हुआ। सोशल कान्ट्रेक्ट में उन्होंने उल्लेख किया कि जैसे-जैसे समय बीतता गया, मानव जाति में कुछ परिवर्तन आए। परिवारों के बीच श्रम विभाजन हुआ और आगे चल कर परिवार के भीतर भी यह विभाजन होने लगा। परिवारों के बीच श्रम विभाजन के वृतांत तो इतिहास के विभिन्न कालों में मिलते हैं, परंतु परिवार के भीतर पुरूष का महिला के साथ व्यवहार कैसा था, इसका उल्लेख प्रायः उपेक्षित रहा है। अतः यह खोजना एवं समझना आवश्यक है कि आज की स्थिति के पुरूष-महिला संबंध कैसे उत्पन्न हुए? आदिम काल में मनुष्य एक शिकारी या फल इकट्ठा करने वाले की भांति रहता था। खेती के साथ ही निजी संपति परिवार, सभ्यता, धर्म, राज्य, युद्ध, विजय-पराजय, शासक और दास अस्तित्व में आए। इन परिवर्तनों के साथ ही औरत की हैसियत में भी परिवर्तन हुआ। यह बदलाव पुरूष ने अपनी इच्छा और सुविधा के अनुसार पंरपरा, इतिहास और धर्म की दुहाई देकर औरत पर थोपा था। विभिन्न धर्म ग्रंथ महिलाओं के प्रति पक्षपात के प्रमाण हैं। और यह पक्षपात सार्वभौमिक है। पूरी दुनियां में बना हुआ है।
गुरूनानक ने कबीर की तरह स्त्री को माया महाठगिनी कभी नहीं कहा गुरूनानक गृहस्थ जीवन की सराहना करते हैं ‘सो क्यों मंदा आखीऐ। जित जमें राजान उन स्त्रीयों को क्यों बुरा कहा जाए, जिन्होने हमें जन्म दिया, सिख धर्म में स्त्री का बराबरी का अधिकार प्राप्त है, गुरूदारों मे वह किसी भेदभाव की शिकार कभी नहीं रही, अमृतपान का अधिकार भी स्त्री-पुरूष दोनों को है, परन्तु धर्म की मान्यताएं स्त्री-पुरूष दोनों के लिए लागू हैं, जैसे सिर ढक्कर रखना, मृदुभाषी होना, तीन पहर जपुजी साहिब, कीरतन सोहिला अरदास आदि करना सिक्ख धर्म में मूर्ति पूजा शुरू से ही अस्वीकार्य है। देवी-देवता की कोई मूर्ति वहां नहीं रहती। गुरू ग्रंन्थ साहिब को गुरू माना गया है। इसी प्रकार पंजाबी प्रेम काव्य जिसे किस्सा काव्य कहा जाता है- जिसमें हीर रांझा, सस्सी आदि किस्सा काव्यों के स्त्री पात्र जुझारू हैं, वे कभी समाज के सामने समार्पण नहीं करते। प्रत्येक किस्सा काव्य में स्त्री की मृत्यु प्रेमिका की मृत्यु पहले दिखाई गई है। इन प्रेम कथाओं की नायिकाएं प्रेम के इजहार में बढ़-चढ़कर आगे आती हैं। इन कथाओं की नायिकाएं कहीं भी समाज से भागती नहीं हैं, वे कहीं भी आत्महत्या नहीं करती उन्हे मारा जाता है, जिस त्रासदी को समाज आज भी झेलता है हरियाणा और पंजाब में हाल ही में ऑनर कीलिंग के ढेरों मामले दिखाई देते हैं। यह एक तथ्य है कि पंजाब की ये कथाएं मुलतः नायिकाओं की कथाएं हैं, जो नायिकाओं को ध्यान में रखकर लिखी गई हैं, और इसमें कोई संदेह नहीं कि ये कथाएं सदियों तक पंजाब के नारी समाज का सिर वर्ग से ऊँचा करेंगी। जिस समय पंजाबी साहित्य में इन प्रेम कथाओं की रचनाएं हो रही थी उस समय मुगलों की हुकुमत थी हिंदी साहित्य में यह काल रीतिकालीन के नाम से जाना जाता है। रीतिकालीन की काव्य में वस्तुकरण की प्रक्रिया दिखाई देती है।
वहां स्त्री के
इत आवत चली जात उत, चली छे सातक हाथ
चढी हिंडोरे सी रहे, चली उसासन साथ
कहकर नायिका की क्षीण काया का चित्रण है ।पंजाबी किस्सा काव्यांें के स्त्री पात्रों की स्वतंत्रता रोमांटिक स्तर पर दिखाई देती है, जबकि किसी भी मनुष्य की स्वतंत्रता का संपूर्ण ढांचा आर्थिक, सामाजीक, धार्मिक और राजनैतिक आधारों पर ही खडा हो सकता है। पंजाब के लोक गीतों में जहां एक तरफ स्त्री की जुझारू छवि का प्रस्तुतीकरण है वहीं नारी निन्दा भी भरपुर है।
अब देखना यह है कि क्या पंजाब वास्तव में अपनी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, निर्मितियों में ऐसा ही है जहां खेत-खलिहानों में समृद्धि के गीत गाऐ जाते है। नहीं, यह उस पंजाब की केवल उपरी तस्वीर है। उसे हम इस तरह देख सकते हैं कि अब हर छोटा बडा किसान विदेश चले जाना चाहता है। क्योंकि अब पैदावार के मुकाबले मंहगाई बढ़ गई है, पंजाब मं ज्यादातर लड़कियां विदेश में विवाह करने की इच्छुक दिखाई देती है इससे अनमेल विवाह को भी बढावा मिला है। पंजाब मे लगातार कम हो रही लडकियों की संख्या चिन्ता का विषय है। 2001 की गणना क अनुसार, लिंगानुपात 798 है, विधवा विवाह आज भी वहां उस तरह से स्वीकार्य नहीं है जैसे होना चाहिए। ‘करेवा’ प्रथा का विकराल रूप आज भी वहां मौजूद है। छोटे किसान भी कर्ज लेकर अपनी बेटी की शादी विदेश में करना चाहते हैं ताकि उसके साथ में भी विदेश जा सकें। विदेशो में पलायन करता पंजाब सब खेत-खलिहानों के प्रति उतना समर्पित नहीं है जितना कि पहले हुआ करता था, क्योंकि वह विदेशों में व्यापार के माध्यम से अधिक पैसा कमा सकता है। चंडीगढ, लुधियाना, पटियाला, आदि जगाह पर अंगे्रजी सीखने वाले जितने इंस्टीट्यूट हैं उतने वहां स्कूल कॉलेज नहीं है, 12वीं के बाद वहां हर विद्यार्थी लड़की हो या लड़का, अंगे्रजी में दक्षता के लिए कालेज की पढ़ाई छोडकर आईलैट्स की पढाई करना पसंद करता है उन्हें आसानी से कनाडा, अमेरिका, न्यूजीलैण्ड या फिर ऑस्ट्रेलिया व दुबई का वीज़ा मिल जाता है।
पंजाब में ज्यादातर मृत्यु नशीले पदार्थों के सेवन से होती है, जिससे विधवाओं की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। कुल मिलाकर इस समाज में भी महिलाओं की स्थिति बहुत बेहतर नहीं है, बहुत सी ऐसी लडकीयां है जो विदेश चले जाने पर भी उन्हीं सभी कामों को करती हैं जो भारत के ज्यादातर परिवारों की महिलाओं के हिस्से में आते हैं घर की देखभाल, बच्चों की परवरिश आदि, उच्च शिक्षा मे महिलाएं कम दिखाई देती हैं ऐसे ही संगीत के क्षेत्र में कुछ उदाहरणों को यदि छोड़ दिया जाए तो आज भी पंजाब की स्वर्ण स्त्रियां इस पेशे में नहीं के बराबर हैं। यही स्थिति पंजाबी फिल्मों की भी है। चित्रकला, लेखन में वहां महिलांए दिखाई देती हैं। इस प्रकार हिंदी व पजाबी समाज में मूल अन्तर सांस्कृतिक विविधता व भौगोलिक विविधता को लेकर है, दोनों समाजों की स्त्रियां भारतीय मूल्यों को आज भी ढ़ो रही हैं। जिसमें पंजाब थोड़ा प्रगतिशील दृष्टिकोण रखता नजर आता है। सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक पक्षों के अध्ययन के बाद इतना कहा जा सकता है कि इस समाज में स्त्री परिवार की आधार स्तंम्भ रही है। वह घर की केन्द्रिय धूरी रही पर वह कभी भी निर्णायक और नेतृत्वकर्ता नहीं रही। समाज की विकासमान स्थितियों ने उसको धीरे-धीरे स्वतंत्रता का रास्ता दिखाया और वह जड़ताओं को तोड़ते हुए समाज में अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने में कामयाब हुई है और उसने समाज के बने बनाऐ इन मापदंडों को तोड़ने का प्रयास किया है।
हरप्रीत कौर
अस्सिस्टैंट प्रोफ़ेसर
अनुवाद अध्ययन विभाग
महत्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा
फोन -८१८००१०६९६
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