जन-समुद्र के कवि वरवर राव: आनंद एस.
“पाँच खंडों से / चार समुंदरोंकों लंगकर
दौड़ते हुए आए है / हे! उगते हुए सूरज
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जलसमुद्र चार ही है / जनसमुद्र पाँच” [1]
विशाल जल-समुद्र को देखा कर किसिभी व्यक्ति व साहित्यकार (कवि) के मन में भावनाओं का उद्वेलित होना स्वाभाविक है और उन भावनाओं को अभिव्यक्त करना कुछ हद तक सरल भी। परंतु, वह समुंदर जन-समुद्र हो तो उस पर अपनी प्रतिक्रिया देना या फिर उस जन-समुद्र के भावनाओं, इच्छाओं को अभिव्यक्त करना एक साहित्यकार (कवि) के लिए यह बेहद कठिन कार्य होता है। जिस प्रकार समुंदर के अंदर गोता लगा कर बहू मूल्य वस्तुओं को बाहर तो लाया जा सकता है परंतु जन-समुद्र के मनो भावनाओं में गोता लगा कर बहू मूल्य वस्तु रूपी चेतना को जागरूक करना हर किसी कवि के लिए आसान नहीं होता है। यह एक चुनौती पूर्ण कार्य है। ऐसी ही चुनौतियों को स्वीकार करते हुए, जन-समुद्र (जनता) के बीच खड़े होकर जनता की आवाज को बुलंद करते हैं वरवर राव।
पेण्ड्याला वरवर राव (वि.वि.) तेलुगु एवं हिंदी साहित्य जगत में जनवादी, नक्सलवादी लेखक के रूप में विख्यात हैं। इनके नाम में दो चीजें महत्वपूर्ण हैं एक ‘पेण्ड्याला’ तो दूसरा ‘वरवर’। ‘पेण्ड्याला’ इनके गाँव का नाम है जो परंपरागत रूप से चला आ रहा है और ‘वरवर’ का अर्थ होता है श्रेष्ठों में श्रेष्ठ। अर्थात् वरवर राव के इस नाम से ही यह सिद्ध हो जाता है कि वह श्रेष्ठों में श्रेष्ठ हैं, चाहे वह रचना के संदर्भ में हों या व्यक्ति के संदर्भ में। वरवर राव की इस श्रेष्ठता के संदर्भ में कालोजी नारायण राव लिखते हैं- “वह जन है चेतनशील, पढ़ा-लिखा और धरती माँ को बंधन मुक्त कराने के लिए युद्ध करने वाला मनुष्य। अपने विश्वासों पर अडिग रहते हुए साथियों की राय मानने वाला साथियों से मिल-जुल कर कार्य करने वाला और क्रांतिकारी लेखक-संघ (विरसम्) द्वारा दिए गए प्रोत्साहन से, नक्सलबाड़ी की प्रेरणा व प्राप्त उत्साह से इतिहास-निर्माण में अपना योग देने वाला मनुष्य है वह।”[2]
वस्तुतः वरवर राव आधुनिक तेलुगु जनवादी कविता के प्रतिनिधि कवि हैं। वे जनता के अधिकारों के लिए लड़ने वाले, जनता के आगे क्रांति की मशाल (साहित्य) को लेकर उन्हें सही राह दिखने वाले व्यक्ति है। वे यह भली भांति जानते है कि आज हम जिस लोकतंत्र व जनतंत्र में जी रहे है वह वास्तव में राजतंत्र का शिकार होचुका है। आज़ादी के बाद देश के संविधान के द्वारा आम आदमी (नागरिक) को जो अधिकार प्राप्त हुए है वे अधिकार आज केवल नाम मात्र के रह गए है। वे सिर्फ सरकारी कागजों पर दर्ज है न कि देश की जनता के हाथों में। इस बात की प्रामाणिकता आज देश बर में जगह जगह हो रहे आंदोलनों (किसान आंदोलन, छात्र आंदोलन, आदिवासी आंदोलन, जल-जंगल-जमीन आंदोलन, स्त्री मुक्ति आंदोलन आदि) को देखा जा सकता है। जिसमें जनता अपने अधिकारों के लिए जदोजहद कर रही है। जनता की ऐसी स्थिति को देखकर वरवर का कवि मन आक्रोश से भर उठता है और इसी आक्रोश से भरे हुआ स्वर को ‘क्रास रोडेस ?’ नामक कविता में लिपि बद्ध करते हुए लिखते हैं-
“पुलिस के कुत्ते की जितना वैल्यू नहीं है
नागरिक का इस लोकतंत्र में ”[3]
कोई भी देश तब तक पूर्ण रूप से आजाद नहीं होता है जब तक उस देश में हिंसा, शोषण, अत्याचार, भ्रष्टाचार एवं वर्ग-संघर्ष जैसी स्थितियाँ मौजूद रहेंगी। आजादी का मतलब केवल बाहरी हुकूमत से निजात पाना ही नहीं है बल्कि स्वदेशी शासन के उस दमनकारी नीतियों से एवं शोषण से मुक्ति पाना भी है जिसे अंग्रेजों ने भारत की आबो-हवा में घोला था। आज़ादी के बाद नेताओं व पूँजीपतियों के आपसी गठजोड़ की वजह से देश में भ्रष्टाचार, छुआछूत, भूखमरी, बेरोजगारी एवं जातिगत समस्याएँ कम होने के बजाय बड़ाती ही चली गयी। सभ्यता, संस्कृति व साहित्य का बँटवारा हुआ और देश में घूसखोरी, तस्करी, लूटपाट आदि समस्याएँ अपनी चरम अवस्था पर पहुँच गई। इस तरह की व्यवस्था से विक्षुब्ध होकर वरवर राव आजाद देश में न दिखाई देने वाले आजादी के मूल्यों को खोजने का प्रयास करते हैं। इस संदर्भ में उनकी कविता ‘क्रास रोड’ की निम्न पंक्तियों को देखा जा सकता है-
“मैं इस आजादी में स्वतंत्रता केलिए
खोज रहा हूँ
दिखाई न देने वाले मूल्यों में
दिखाई देने वाली रोशनी को
खोज रहा हूँ।”[4]
आज़ादी से पहले व आज़ादी के बाद देश का सबसे बड़ा वर्ग जिसे हम किसान कहते हैं वह सदा ही उपेक्षित व शोषित रहा है। हम जानते हैं कि आज़ादी से पहले किसानों का शोषण अँग्रेजी हुकूमत की वजह से हो रही थी। जहाँ किसानों से अधिक से अधिक लगन वसूला जाता था जिसके फलस्वरूप किसानों की आर्थिक स्थिति बड़ी दयनीय रही। परंतु जिस आजादी को पाने के लिए किसानों ने देश के अन्य वर्गों के साथ कंदेसे कांदा मिलकर आजादी की लड़ाई में अपना भी लहू बहाया, उसी किसान की जमीन को आज़ादी के बाद कभी विकास के नाम पर तो कभी भूमि अधिग्रहण के तहत उनसे छीना भी गया। आज किसानों की आर्थिक स्थिति न केवल सरकार व सरकारी योजनों की वजह से दयनीय है बल्कि किसानों को कर्ज देने वाले सूदखोरों, भू-माफिया एवं भ्रष्टाचार की वजह से भी है। किसानों के लिए सरकार द्वारा जो योजनाएँ बनाई जाती है उन योजनाओं का लाभ किसानों की अपेक्षा जमींदारों, नेताओं, भ्रष्ट अधिकारों को मिलता है। जिसके फलस्वरूप किसानों के समक्ष अत्महत्या के अलावा और कोई मार्ग उन्हें दिखाई नहीं देता। आज देश भर में किसान अत्महत्या दिन प्रति दिन बड़ातीही जा रही है। हलही में ‘राष्ट्रिय अपराध रिकार्ड ब्यूरो’(National Crime Records Bureau) द्वारा जारी किए गए रिपोर्ट के अनुसार साल 2014 में देश भर में कुल 5650 (5178 पुरुष, 472 महिला) किसानों ने आत्महत्या की है। इस तरह न जाने कितने ही किसान आए दिन कई समस्यों के शिकार हो कर आत्महत्या करते हैं जिनकी कोई गिनती नहीं होती है। अतः वरवर राव इन्हीं किसानों के अधिकारों के लिए सरकारी रवैये से लोह मोल लेते हैं और सरकार द्वारा बनाए जाने वाली पंचवर्षीय योजनाओं पर व्यंग्य कराते हुए उन्हे किसी कागज पर नहीं बल्कि देश के अति दरिद्र नागरिकों के अतिडियों पर लिखे जाने की बात करते हैं। इस संदर्भ में उनकी कविता ‘मधुर गीत’ की निम्न पंक्तियों को देख सकते हैं -
“इतने बड़े देश की आधी जनता
की छाती पर बैठक कर रहे दस लोग
इस बार कागज पर नहीं
अति दरिद्र की अतिड़ियों पर
आयकर मंत्री लिख रहे हैं बजट”[5]
वरवर राव अपनी कविताओं में न केवल उक्त उपेक्षित वर्ग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं बल्कि सदियों से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं शिक्षा से वंचित अन्य वर्ग जैसे स्त्री, दलित, आदिवासी एवं मुस्लिम वर्गों की पीड़ा को भी अभिव्यक्त करते हैं। उनका यह मानन है कि शोषण के लिए न कोई वर्ग होता है और न ही वर्ण, न जाती होती है न देश और न ही भाषा। यह प्रक्रिया समस्त विश्व में हर जगह दिखाई देती है। वे मानते हैं कि सदियों से चली आ रही इस प्रक्रिया का अंत मात्र आंदोलन व क्रांति के जरिए ही हो सकता है। क्योंकि क्रांति व आंदोलन की कोई निश्चित सीमा नहीं होती। वह किसी निश्चित दायरे में रहकर नहीं किया जाता, जब तक समाज में शोषण की प्रक्रिया बनी रहेगी ताबतक क्रांति व आंदोलनों की मशालें जलती ही रहेगी।
“शोषण के लिए वर्ग नहीं होता,
शोषण के लिए वर्ण नहीं होते,
शोषण के लिए भाषा नहीं होती,
शोषण के लिए जाति नहीं होती,
शोषण के लिए देश नहीं होता
विद्रोहा के लिए, संघर्ष के लिए
सीमा नहीं होती।”[6]
पूँजीवादी व्यवस्था की विकृतियाँ, सामाजिक व धार्मिक संकीर्णताएँ एवं अंधविश्वास जबतक समाज में बने रहेंगे तब तक शोषित वर्ग का उद्धार नहीं हो सकेगा। क्योंकि पूँजीवादी वर्ग कभी ए नहीं चाहता कि मौजूदा व्यवस्था में कोई बदलाव हो। इसलिए वह समाज में एक ओर ऐसा भ्रम फैलाए रखता है कि अगर मौजूदा व्यवस्था बदल गई तो समाज के तमाम नैतिक मूल्य, तमाम पुरानी संस्कृतियाँ एवं जनतंत्र की सभी परंपराएँ खत्म हो जाएगी। वही दूसरी और वह अपनी अपारजेयता का भ्रम फैला कर वर्तमान समय में समाज का भविष्य सिर्फ उसी के हाथों में है, यह साबित करने का प्रयास भी कर रहा है। समाजवाद, साम्यवाद जैसी विचारधाराओं के मौत के फतवे जारी कर अमानवीय व्यवस्था से मुक्ति की प्रत्येक संभावनाओं को द्वास्त किया जा रहा है। ऐसी परिस्थितियों में वरवर राव अपनी कविताओं से पूँजीवाद के द्वारा फैलाएँ जा रहे भ्रम को तोड़कर जनता के समक्षा राजनीतिक व सामाजिक विसंगतियों को स्पष्ट कर उन्हें बदलने की रहा दिखाते हैं। वे न केवल पूँजीवाद के द्वारा फैलाएँ गए भ्रम को ही तोड़ते है बल्कि पूँजीवाद के विनाशक कहने वालों का, समाजवादी व्यवस्था का दंभ भरने वालों की पोल भी खोल देते हैं।
वरवर राव महज एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक विचारधारा है जिसमें कई विचारधाराओं (मार्क्सवाद, माओवाद, नक्सलवाद) का मिश्रण है। नक्सलबाड़ी, श्रीकाकुलम एवं दिगंबर पीड़ी से प्रभावित वरवर राव उक्त विचारधाराओं को आत्मसात कर आंदोलनों के उस हिस्से से जुड़ते हैं जो जन-आंदोलन को चलाने में विश्वास रखते हैं। उनकी तमाम कविता संग्रहएँ (जीवनाड़ी, जुलूस, भविष्य का चित्रपठ आदि) इन्हीं आंदोलनों एवं संघर्षों के परिणाम है, जिसमें जन-समस्याओं को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया है। ‘जीवनाड़ी’ कविता संग्रह के संदर्भ में वे लिखते हैं- “1965 से 69 तक लिखी गई कविताओं को ‘जीवनाड़ी’ में संकलित किया हूँ। अगर इन कविताओं को 1970-71 में लिखा होता तो वह इस तरह नहीं होते, परंतु मैं यह विश्वास करता हूँ कि 70-71 के मेरे व्यक्तित्व का मार्गदर्शन, प्रभावी बनाने का काम ‘जीवनाड़ी’ ने किया है। इन दो वर्षों में देश, समाज में हुए आंदोलनों के परिणामों ने जिस तरह मेरी आलोचना को, अभिव्यक्ति को प्रेरित किया ठीक उसी के प्रभाव ने मुझसे इस तरह लिखवाया है यह मैं विश्वास करता हूँ।”[7] उक्त उद्धरण के आधार पर यह कहा जा सकता है की उनकी तमाम कविता संग्रहएँ देश भर में हो रहे आंदोलनों एवं संघर्षों के दस्तावेज़ हैं। जिन्हें पढ़कर जनता देश की वस्तु स्थिति एवं वास्तविकता से अवगत होती है।
तेलुगु साहित्य में वरवर राव मात्र एक कवि के रूप में ही नहीं बल्कि एक क्रांतिकारी एवं एक्टिविस्ट के रूप में भी जाने जाते हैं। इस संदर्भ में उनकी कविता ‘समुद्रम्’(समुंदर) को देखा जा सकता है, जिसके बारे में वरवर राव की पत्नी हेमलता जी बताती हैं- “समुद्रम्’ में उनके बाहर-भीतर के व्यक्तित्व का खुलासा हुआ है। ... यह उनका भीतरी बाहरी एक मेल दृष्टिकोण है, उसमें कविता एक छोटा-सा अंश है, किंतु लक्ष्य उसका प्रधान काम है।”[8]
“मैं सुनता हूँ जीवन के संघर्ष को
समुद्र की गर्जना में
जीवन की गहराइयों को
उनकी तरंगों में
जीने के उपायों को
बिछे हुए समुद्र के वैविध्य में
पढ़ता हूँ
क्या है समुद्र
पानी नमक उफान के सिवा
जीवन क्या है
पीब, खून, संघर्ष के सिवा।”[9]
अतः वरवर राव उन रचनाकारों में से एक हैं जिनकी रचनाओं को पढ़कर जनता अपनी पहचान के संकट के समय में मार्ग-दर्शन प्राप्त करती है। वे यथार्थ और अनुभव के कवि हैं। उनकी कविताओं का आधार उनके जिए हुए अनुभव है। इस संदर्भ में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि उन्होंने जो जीवन जिया वही अपनी कविताओं में रचा। वरवर राव का यह साहित्य दही से भरी हुई मटकी से छलका हुआ अंश मात्र ही है। अर्थात् उनके पास अकथ अनुभव की संपदा है जिसका कोई अंत नहीं। यह संपदा उन्हें बैठे बिठाए नहीं मिली है बल्कि इसके लिए उन्हें कड़ा संघर्ष करना पड़ा। अभिव्यक्ति के खतरे उठाने पड़े। जेल की चार दीवारों में कैद रहना पड़ा। जनता के साथ जुड़कर, जनता की आवाज बनकर, आंदोलनों और जुलूसों में भाग लेते हुए, व्यवस्था को सदैव शोषित जनता की ओर से सावधान करते रहे। इस तरह वे अपनी कविताओं से जन-चेतना को, जन वाणी को बुलंद करते हैं, इसलिए वे जन कवि कहलाते हैं।
आनंद एस.
हैदराबाद, तेलंगाना
[1] वरवर राव, वरवर राव कवित्वम्, पृ. 282
[2] वरवर राव, अनु. शशि नारायण स्वाधीन, क्रांतिकारी कवि वरवर राव की जेल डायरी, पृ. 13
[3] वरवर राव, वरवर राव कवित्वम्, पृ. 97
[4] वरवर राव, वरवर राव कवीत्वम्, पृ. 97
[5] वरवरराव, वरवरराव कवित्वम, स्वेच्चासाहिति, पृ. 77
[6] वरवर राव, वरवर राव कवित्वम्, पृ. 197
[7] वरवर राव, वरवर राव कवित्वम्, पृ. 92
[8] वरवर राव, अनु. शशिनारायण स्वाधीन, क्रांतिकारी कवि वरवर राव की जेल डायरी, पृ. 29
[9] वरवर राव, अनु. शशि नारायण स्वाधीन, साहसगाथा, पृ. 128
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