समय की विसंगतियों पर तंज़ कसते हुए व्यंग्य: द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
समय की विसंगतियों पर तंज़ कसते
हुए व्यंग्य
--द्वारिका प्रसाद
अग्रवाल
व्यंग्य
करना आसान है, व्यंग्य
लिखना नहीं। हंसी उड़ाना आसान है, लेकिन हंसी का पात्र बनना नहीं। खिल्ली उड़ाना, मज़ाक उड़ाना, फब्ती कसना, खिंचाई करना, मुखालिफत करना जैसी क्रियाएँ सबको आती हैं, लेकिन
इनका विषयबद्ध लेखन दक्ष कारीगरी का काम है। अपने जीवन
के शुरुआती दिनों में हमने शंकर, रंगा, लक्ष्मण जैसे व्यंग्यकारों की कारीगरी देखी जो रेखाओं से बने एक चित्र के माध्यम से ऐसा तंज़ कस लेते थे कि बिना कुछ लिखे महाभारत महाकाव्य जैसा प्रभाव उत्पन्न हो जाता था। 'धर्मयुग' के पन्नों में आबिद सुरती अपने पात्र ढब्बू जी
के चुटकुलों के जरिये व्यवहार विज्ञान का विश्वविद्यालय चलाया करते थे।
व्यंग्य लेखन में सर्वाधिक चर्चित हुए, कृशनचंदर, हरिशंकर परसाई और के॰पी॰सक्सेना जिन्होंने समाज की हर गतिविधियों पर अपनी पैनी नज़र गड़ाई और पैने व्यंग्य लिखे। बेचन पाण्डेय 'उग्र' की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इनलेखकों ने व्यंग्य लेखन को अपने किस्म की नई विधा से सजाया-संवारा और लोकप्रिय बनाया। हरिशंकर परसाई का लेखन वामपंथी झुकाव के कारण अक्सर एकांगी हो जाता था लेकिन उनकी लेखन की तलवार किसी को नहीं बख्शती। उनके बाद रवीन्द्रनाथ त्यागी, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, डा॰ ज्ञान चतुर्वेदी जैसे अनेक महारथी व्यंग्य-संग्राम में उतरे और हिन्दी भाषा में व्यंग्यलेखन को पाठकों से जोड़ने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।
व्यंग्य लेखन में सर्वाधिक चर्चित हुए, कृशनचंदर, हरिशंकर परसाई और के॰पी॰सक्सेना जिन्होंने समाज की हर गतिविधियों पर अपनी पैनी नज़र गड़ाई और पैने व्यंग्य लिखे। बेचन पाण्डेय 'उग्र' की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इनलेखकों ने व्यंग्य लेखन को अपने किस्म की नई विधा से सजाया-संवारा और लोकप्रिय बनाया। हरिशंकर परसाई का लेखन वामपंथी झुकाव के कारण अक्सर एकांगी हो जाता था लेकिन उनकी लेखन की तलवार किसी को नहीं बख्शती। उनके बाद रवीन्द्रनाथ त्यागी, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, डा॰ ज्ञान चतुर्वेदी जैसे अनेक महारथी व्यंग्य-संग्राम में उतरे और हिन्दी भाषा में व्यंग्यलेखन को पाठकों से जोड़ने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।
व्यंग्य की विधा में इन दिनों जिन हस्ताक्षरों की साहित्य जगत में चर्चा है, उनमें से एक हैं, अरविंद कुमार तिवारी जो अब घटकर अरविंद कुमार रह गए हैं। उनकी सद्य प्रकाशित व्यंग्य-पुस्तक में उनकी 52 व्यंग्य रचनाएँ संकलित हैं, जिनमें अधिकतर व्यंग्य भारत की राजनीति में समाहित विद्रूपता पर केन्द्रित हैं। शायद इसीलिये उन्होंने इस संग्रह का नाम भी ‘राजनीतिक किराना स्टोर’ रखा है। ‘मतलब यह कि एक ऐसा किराना स्टोर, जहाँ राजनीति से सम्बंधित हर चीज़ उपलब्द्ध हो जाये। जैसे कि टोपी, झंडा, डंडा, बैनर, होर्डिंग, बिल्ला, कट आउट्स, कुरता-पैजामा, धोती, साड़ी, जैकेट, मफलर,चाय वालों और दूध वालों की ड्रेस और तमाम पोलिटिकल सिम्बल्स। हर पार्टी की ज़रुरत का हर सामान। और वह भी एक ही छत के नीचे।...आप की टोपी, केसरिया टोपी, सफ़ेद टोपी, लाल टोपी, नीली टोपी। झाड़ू की बिक्री खूब हो रही है।....बुर्के शेरवानी की बिक्री में भी काफी इजाफा हुआ है। भाई साहब, मेरा किराना स्टोर एक एक्सटेंडेड स्टोर होगा। वहां हर पार्टी को अपनी ज़रुरत की हर चीज़ मिलेगी। तम्बू-कनात से लेकर झंडियाँ, कुर्सी-मेज़, बल्लियाँ, लाईट, माईक और टीवी-सीवी तक। और ज़रुरत पड़ी तो जय-जय कारी भीड़ से लेकर नारा और भाषण लिखने वाले बन्दे और प्रवक्ता तक।’
राजनीति राज्य को संचालित करने की नीति होती है लेकिन अब वह सिंहासन बचाने
की नीति में तब्दील हो गई है। जिस बुद्धि का उपयोग प्रजा के कल्याण के लिए किया जाना था, उसका उपयोग अब स्वयं के बचाव के लिए किया
जाने लगा है। राजनीति यानी दाँव पेंच, दाँव पेंच यानी छल-प्रपंच रचना, धोखा या झांसा देना, टेढ़ी चाल चलना या विरोधी को परास्त करने के
प्रयत्न करना आदि। शतरंज के खेल में प्रयुक्त होने वाले
मोहरे राजनीति के उन क्रियाकलापों केप्रतीक हैं जो देश की जनता की छाती पर बिसात
बिछाकर इस तरह खेले जाते हैं, जिसे केवल खिलाड़ी देख और
जान सकते हैं, उनके अतिरिक्त किसी और को कुछ नहीं दिखने वाला, न समझ आने वाला। जनता को सिर्फ यह
सुनाई पड़ता है कि जो खेल खेला जा रहा है वह उसके कल्याण
के लिए है। इसलिए खिलाड़ियों पर भरोसा करो। शतरंज की बिसात को मत देखो। हम हैं न, हम तुम्हारी धरती को स्वर्ग बनाकर दिखाएंगे।
प्रजा जन उसी स्वर्ग की कल्पना करते अपनी छाती खोलेआपरेशन थियेटर के बेहोश मरीज की
तरह निश्चिंत लेटे हैं- 'जो करेगा, डाक्टर करेगा।' अरविन्द
कुमार इन स्थितियों-परिस्थितियों पर गहरा तंज़ कसते हैं।
व्यंग्य लिखने के लिए लेखक में साहसी होने का गुण आवश्यक है। जनतंत्र में व्यंग्यकार की हैसियत सत्ता और समाज की कमतरी को उजागर करने वाले अघोषित विरोध-नेता जैसी होती है। आजादी के बाद अपने देश के गैर-लोकतंत्रीय मिज़ाज के बदले लोकतान्त्रिक व्यवस्था लागू की गई। गौर से देखा जाए तो यह प्रयोग चुनाव करवाने तक ही सफल रहा,आमजन का मिज़ाज बदलने में असफल रहा। विरोध में कुछ कहना या लिखना खतरे से खाली नहीं है। इसलिए लेखक खुलकर लिख नहीं पाता। इसके बावजूद मजबूत कलेजे वाले लिखते हैं, भले ही संभल-संभल कर। अरविंद कुमार ऐसे ही साहसी व्यंग्य लेखकों में से एक प्रतीत होते हैं। मान-बेटे के इस संवाद को देखिये---‘भैंस बहुत अच्छी होती है। गाय की बहन। गाय की तरह वह भी हमें दूध देती है। हमें पालती है। अगर गाय हमारी माँ है, तो भैंस हमारी मौसी। ---पर हम लोग तो गाय की पूजा करते हैं। भैंस की पूजा क्यों नहीं करते? गाय का गोबर तो बहुत पवित्र माना जाता है, भैंस का क्यों नहीं माना जाता? गोमूत्र तो पंचामृत और न जाने कितनी दवाइयों में डाला जाता है, पर भैंस का क्यों नहीं? और तो और लोग-बाग़ तो हमेशा गौ रक्षा-गौ रक्षा की बातें करते हैं, पर भैंस रक्षा की बातें कोई क्यों नहीं करता? क्या जानवरों के बीच भी कोई वर्ण या जाति व्यवस्था लागू होती है? ---बेटा, मैं यह सब नहीं जानती। यह सब धर्म और राजनीति की बड़ी और ऊंची बाते हैं। मैं तो सिर्फ इतना जानती हूँ कि जिस तरह गाय हमारे लिए ज़रूरी है, उसी तरह से भैंस भी ज़रूरी है।’
'राजनीतिक किराना स्टोर' में समाज में व्याप्त
विसंगतियों पर जम कर कटाक्ष किया गया है। अरविन्द कुमार लिखते हैं---'अगर इंसान भूखा हो तो भगवान के भजन में भी उसका मन नहीं लगता, पर नई पीढ़ी के हमारे नए भगवान चाहते
हैं की भजन हो न हो पर सपने अवश्य देखो। बंद आँखों से न
सही, खुली आँखों से सपने देखो।.....सपने देखोगे तो सफल हो जाओगे। सपने देखोगे तो अमीर बन जाओगे। सपना ही सब कुछ
है। हमारे भाग्यविधाता, हमारे
कर्णधार आजकल उसी सिद्धान्त का अनुकरण कर रहे हैं। उनके
अनुसार, देश की गरीबी का मूल कारण सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिकव्यवस्था की विसंगतियाँ नहीं हैं। यह नया विकासवाद नहीं
है। भ्रष्टाचार तो बिल्कुल ही नहीं है। गरीबी भौतिक
नहीं भावात्मक होती है। भूख वस्तु नहीं, एक एहसास है।
अपनी मनोदशा सुधारो, दशा अपने-आप सुधार जाएगी। सोच बदलो,गरीबी खुद-ब-खुद दूर हो जाएगी।'
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर अरविंद कुमार की यह टिप्पणी भी एक करारा तंज़ है---'अभी भी हमारे देश में तीन ऐसे तगड़े-तगड़े जिन्न मौजूद हैं जो रिश्ते में अब तक के सारे जिन्नों के बाप लगते हैं। ये तीन जाइण्ट-किलर टाइप के जिन्न हैं, उन्नीस सौ चौरासी, दो हजार दो और दामादजी की कमाई की मलाई। इनको ठीक चुनावों के समय मौका देखकर छक्का मारने के लिए निकाला जाता है। बोतलों से इनके निकलते ही अच्छे-अच्छों की हवा खराब हो जाती है। कोई बगलें झाँकने लगता है तो कोई कानून की दुहाई देने लगता है। न उन्नीस सौ चौरासी का कोई हल निकलता है और न ही दो हजार दो का। जांच-फांच होने-कराने की तो छोड़िए, लोगों के छलछला आए घावों पर फिर से उनकी मजबूरी की पपड़ियाँ जमाई जाने लगती हैं। और, दामाद जी तो दामाद जी ही हैं, वे फिर एक राष्ट्रीय दामाद बनकर वीआईपी ट्रीटमेंट पाने लगते हैं।'
कुल मिला कर ‘राजनीतिक किराना स्टोर’ एक अवश्य ही पढ़ने लायक पुस्तक है, जिसका मूल्य
है---रू0 185/-,पृष्ठ संख्या : 151, प्रकाशक : मनसा पब्लिकेशन, लखनऊ।
लेखक- अरविन्द कुमार, मेरठ, मोबाईल:9997944066
समीक्षक-
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
बिलासपुर में जन्म, हिन्दी साहित्य में एम॰ए॰, बी॰कॉम॰, एल॰ एल बी॰, 'धर्मयुग',
'दिनमान' 'नवभारत टाइम्स' व अनेक पत्रिकाओं में लेखों का प्रकाशन, ब्लॉगर एवं फेसबुक में सक्रिय, प्रकाशित :
आत्मकथा (1) : 'कहाँ शुरू कहाँ खत्म', आत्मकथा (2) : 'पल पल ये पल',आत्मकथा
(3) : शीघ्र प्रकाश्य : 'दुनिया
रंग बिरंगी', अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षक : जूनियर चेम्बर
इन्टरनेशनल प्रशिक्षक : व्यवहार विज्ञान, व्यक्तित्व विकास और प्रबंधन, विभिन्न सरकारी गैर सरकारी संस्थानों, सामाजिक संगठनों, शैक्षणिक संस्थानों में युवाओं, अधिकारियों, प्रबन्धकों, कार्मिकों को प्रशिक्षण देने का
विगत तीस वर्षों का अनुभव.
लेखक का परिचय
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