आशीष कंधवे की कविताएँ
मैं भी "अभिमन्यु" ही तो हूँ .
..............
कई दिन हो गए
मेरे शब्दों को आवाज मिले
कई दिन हो गए
वक्त के आईने में मुझे
चक्कर काटते
कई दिन हो गए
रोशनी के बहाब में बहे हुए ।
सिर्फ एक जिंदगी के लिए
ये सब जरूरी है क्या ?
दर्द और जीवन के दोपहर
में ज्यादा अंतर नहीं होता
रथ के पहिये के टूटने का दर्द
"कर्ण" से भला
कौन बेहतर जनता होगा
लेकिन इस अनुभव को
कौन याद रखता है ?
सुनो ...
जरा रुको...
अपना चेहरा एक बार
अपनी आखों से देखो
जान जाओगे
अपना भविष्य
एक पल में
मुझे पहली बार लगा
मैं भी "अभिमन्यु" ही तो हूँ !
रास्ते तो मेरे लिए भी सरे बंद है
बस ये अफवाह फ़ैल गई है कि
मेरे पास विकल्प है
मैं वीर हूँ
कई दिन हो गए
शतरंज का खेल खेलते
पर ढाई चाल का रहस्य
नहीं जान पाया
अपना बचाव नहीं कर पाया
अपना रास्ता नहीं चुन पाया
बहरहाल,
मैं नहीं जान पाया की
मैं स्वमं के लिए ही
एक चुनौती हूँ
सच
कई दिन हो गए
मेरे शब्दों को आवाज मिले
कई दिन हो गए
वक्त के आईने में मुझे
चक्कर काटते
कई दिन हो गए .....
..................................
मैं त्रिलोचन हो गया हूँ .....
मुझे रोज मिलते है
नए चेहरे
नए चौराहे
नई मुस्कान
नई पहचान
पग-पग
बाहें फैलाये
मिलते है
नए दोस्त
नए सपने
नए दर्पण
कदम-कदम पर
नए गीत
नए मीत
नए संगीत
हर दिन झेलता हूँ
नए दुःख
नए शाप
और
नए पाप को
फिर भी
मैं नहीं बदलता हूँ
संवत दर संवत
चलता रहता हूँ
भाव ,आचरण ,भाषा
कुछ भी तो नहीं बदलती
प्रेम,रूप,सौंदर्य,स्वर
कुछ भी तो नहीं छुटती
अविरल,अनंत प्रवाह में
बहे जा रहा हूँ
शब्दों के टुकड़े
गहे जा रहा हूँ
प्रदक्षिणा सूर्य की
किये जा रहा हूँ
क्षत-विक्षत हूँ मैं
पर रोष- जोश
दोनों को समेटे
दुर तक फैली
क्षितज़ की छाया में
कर रहा हूँ समर्पित
रोज
अपने हिस्से की आयु
अपने हिस्से की वायु
अपने हिस्से का प्रेम
अपने हिस्से का राग
अपने हिस्से का आग
क्योंकि
हाँ,क्योंकि
मैं त्रिलोचन हो गया हूँ !!
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