हिन्दी दलित साहित्य में दलित जीवन-मुक्ति का संघर्ष: कामिनी
हिन्दी दलित साहित्य में दलित जीवन-मुक्ति का संघर्ष
कामिनी
प्राचीन काल से ही शूद्रों को दास और गुलाम समझा जाता रहा है। जहाँ उसे अपना
स्वतंत्र व्यक्तित्व दिखाई ही नहीं देता है। दलित साहित्य का यही भाव लिए प्रथम
चरण था ‘महाकाव्यों का युग’
जब महान दलित साहित्यकार बाल्मीकि और व्यास ने ‘रामायण’
व ‘महाभारत’
जैसे काव्यों की रचना की। दूसरा चरण था जब गौतम बुद्ध ने
शूद्रों का मनुष्य के रूप में आदर किया। ब्राह्मणयुग का जो मीठा जहर मानवता की
नसों में फैल गया था उसका अनुभव कराया उसी का तीसरा चरण था सिद्ध काल। जब ब्राह्मणवाद
से इतर समाज के निचले तबके के सिद्ध पुरुषों ने एक नया संदेश दिया।
सात्र्र ने कहा था:- ‘लेखन केवल लिखना ही नहीं है एक कार्यवाही है और बुराई के खिलाफ मनुष्य के सतत
संघर्ष में लेखन सायास हथियार की तरह इस्तेमाल करना चाहिए।’
आज हम अगर प्रचीन साहित्य पर दृष्टिपात करे तो हम पाते है कि वैदिक काल से
लेकर आज तक दलित को विभिन्न रूपों में निरूपित किया गया है। पहले यह शूद्र के रूप
दीन-हीन और वर्जनाओं से पीड़ित फिर शोषित एवं उपेक्षित के रूप में समाज से तिरस्कृत
हुआ। दलितों के लिए प्रारम्भ में दास, दस्यु, शूद्र,
चंडाल, आत्मज, अस्पृश्य जैसे अनेक शब्दों का प्रयोग होता है और ऐसे ही शब्दों के माध्यम से
दलित वर्ग की विशेष पहचान होती है। भारत की चातुष्वण्र्य व्यवस्था में प्राचीन
प्रजातियों को शूद्रों की चतुर्थ श्रेणी में रखा जात था। समाज में बहिष्कृत
शूद्रों को स्पर्श करने से व्यक्ति अपवित्र हो जाता था। इस मान्यता के आधार पर
शूद्रों को अस्पृश्य कह कर पुकारा जाने लगा।
संस्कृत शब्दकोश के अनुसार:- चैथे
वर्ण का पुरुष हिन्दुओं के चार मुख्य वर्णो में से अन्तिम वर्ण का पुरुष, उसका मुख्य कर्तव्य अपने से उच्च तीनों वर्णो की सेवा करना है।2
मानक अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश में
दलित शब्द का अर्थ ‘डिप्रेस्ड’
दिया गया है। जिसका अर्थ है - दबाना, नीचा करना,
झुकना, विनती करना, नीचे लाना,
स्वर नीचा करना, धीमा करना, दिल तोड़ना है तथा ‘दलित वर्ग’
का अर्थ नीची जातियों के लोग, अछूत,
हरिजन, पीड़ित, दबाए हुए,
पद दलित, कुचले-सताए हुए लोग।’3
डॉ. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’
दलित शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं- ‘दलित वह है जिसे भारतीय संविधान ने अनुसूचित जाति का दर्जा दिया है।’4
कंवल भारती का मानना है :- ‘दलित वह जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू किया गया है, जिसे कठोर और गन्दे कार्य करने के लिए बाध्य किया गया है, जिसे शिक्षा ग्रहण करने और स्वतन्त्र व्यवसाय करने से मना किया गया है और जिस
पर सवर्णों ने सामाजिक निर्योग्यताओं की संहिता लागू की है वह दलित है। इसके
अन्र्तगत वही जातियाँ आती हैं जिन्हें अनुसूमित जातियाँ कहा जाता है।5
डॉ. बी0आर0 अम्बेडकर:- ‘अस्पृश्य,
पिछड़ा वर्ग, घुमक्कड़ जाति व
पद दलित इन सारे शब्दों को समानार्थी माना जाता है और उसका ही नया अर्थ आगे चलकर
दलित बन गया है।’6
डॉ. धर्मवीर भारती:- ‘दलित हिन्दू नहीं है,
न ही किसी हिन्दू धर्म ग्रन्थ को मानते हैं, न ही कोई धर्मग्रन्थ दलितों का हो सकता है। दलित हिन्दू नहीं हो सकते क्योंकि
हिन्दू एक नया शब्द है दलितों का धार्मिक इतिहास इससे पुराना है।7
श्री मि.शि. शिन्दे ने दलित शब्द की
विस्तृत एवं सार्थक परिभाषा प्रस्तुत की हैः-
1. भारतीय समाज
जिन्हें अस्पृश्य या अछूत कहता है और जिनका आज भी गांवों में प्रवेश नहीं है।
2. बहुत ही कम वेतन
में चैबीस घंटे खेतों में श्रम करने के लिए मजबूर हैं जो शोषित हैं।
3. दुर्गम पहाड़ों, वनों,
जंगलों में जीने के लिए मजबूर जन-जातियाँ, आदिवासी समाज।
4. पूंजीवादी
व्यवस्था के कारण आर्थिक दृष्टि से जो दुर्बल हैं, वह बहुजन समाज।
5. अराष्ट्रीय कहकर
जिन्हें हमने नकारा है वह अल्पसंख्यक समाज।8
डॉ. कुसुमलता मेघवाल के दृष्टिकोण से
दलित की परिभाषा इस प्रकार हैः- ‘दलित का शाब्दिक अर्थ है
‘कुचला हुआ’। अतः दलित वर्ग का सामाजिक संदर्भो में अर्थ होगा, वह जाति समुदाय जा अन्यायपूर्वक सवर्णों या उच्च जाति के द्वारा दमित किया गया
हो, रौंदा गया हो। दलित शब्द व्यापक रूप से पीड़ित के अर्थ में आता है पर दलित वर्ग
का प्रयोग हिन्दू समाज व्यवस्था के अन्र्तगत परम्परागत रूप में शूद्र माने वाले
वर्णों के लिए रूढ़ हो गया है। दलित वर्ग में वे सभी जातियाँ सम्मिलित हैं जो जाति
सोपान में निम्न स्तर पर हैं और जिन्हें सदियों से दबाकर रखा गया है।9
इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि दलित शब्द ऐसे लोगों के लिए प्रयोग किया जाता
है जिन्हें वर्ण-व्यवस्था में अछूत की श्रेणी में रखा गया और समाज-व्यवस्था में
सबसे निचले पायदान पर। उनका दलन और शोषण हुआ। संविधान में इस समूह को अनुसूचित
जातियां कहा गया और ये अछूत हैं। उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि दलित शब्द का
अर्थ समाज के ऐसे व्यक्ति के लिए मान्य है जिसे शारीरिक, मानसिक तथा आर्थिक दृष्टि से प्रताड़ित किया गया है। समाज का निम्न वर्ग हमेशा
शोषित होता रहा और उसे दलित के नाम से जाना गया। समाज में इनको अमानवीय जीवन यापन
करने लिए विवश होना पड़ा।
दलित साहित्य आनंद के लिए नहीं, बल्कि परिवर्तन
के लिए लिखा गया साहित्य है। यह साहित्य परिवर्तन और संघर्ष करने के लिए प्रतिबद्ध
है। सामाजिक,
आर्थिक, धार्मिक और मानसिक शोषण
के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित करने वाला साहित्य ‘दलित साहित्य’
है। आज का दलित साहित्यकार भाग्य-अभाग्य, स्वर्ग-नर्क,
मूर्तिपूजा, बाहरी ढोंग आदि
को नहीं मानता। पुराणों या अन्य शास्त्रीय ग्रन्थों में लिखी गयी अवैज्ञानिक बातों
का विरोध करता है। आज अगर हम हिन्दी साहित्य में मध्यकाल की बात करते है तो
मध्यकाल के पूर्वाद्ध भाग को ‘भक्तिकाल’ के नाम से अभिहित किया जाता है। यह मध्यकाल भारत की दीनता, धार्मिक अंधविश्वासों एवं सामाजिक विकृतियों का काल था। यह वह समय था जब समाज
में तेजी से परिवर्तन हो रहा था। विदेशों से आये मुस्लिम शासक बन गये थे।
ब्राह्मणवाद की जड़ें जो बुद्ध के समय में हिल गयी थीं, अब उखड़ने लगीं थीं। भक्तिकाल में अनेक कवि जो अधिकतर संत थे उन्होंने वैष्णवों
की मान्यताओं को दरकिनार कर शैव, बुद्ध के विचारों को
स्वीकार किया। मंदिर जो कि ब्राह्मणों द्वारा दलित के लिए वर्जित कर दिये थे
सन्तों ने उनका महत्व ही समाप्त कर दिया। सच ही है जब-जब भारत भूमि पर विनाशकारी
शक्तियों का प्रभाव बढ़ा है तब ही किसी न किसी महापुरुष का जन्म हुआ है। ऐसे ही समय
में दीन-हीन भारत की दुखी जनता को सामाजिक स्वास्थ्य के लिए समता की संजीवनी
पिलाने के लिए भारत-भूमि पर दलित संत शिरोमणि रविदास का अविर्भाव हुआ था।
चैदह सौ तैतीस की माघ सुदी प्रदास।
दुखियों के कल्याण हित प्रकटे श्री रैदास।।
माघ की पूर्णिमा को ही समस्त भारत में ‘रैदास सम्प्रदाय’ को लोग बड़ी धूमधाम से संत रविदास की जयन्ती मनाते हैं। संत रविदास की माँ का
नाम ‘करमाबाई’
तथा पिता का नाम ‘राघवदास’ था जो चमड़े से जूते बनाने का काम करते थे। संत रविदास भी जीवन-भर अपन पैतृक
पेशा ही करते रहे।
संत रविदास व्यक्ति-व्यक्ति की समानता के हामी थे। वे मानते थे कि प्रत्येक
व्यक्ति जन्मतः एक समान है। सबमें एक ही रंग का रक्त, एक प्रकार का मांस,
और अस्थियाँ हैं। फिर इस संसार में आकर व्यक्ति धर्म, जाति,
वर्ण आदि के नाम पर क्यों बंटे। संत रविदास ने इस बुनियादी
तथ्य को निम्न प्रकार अभिव्यक्ति दी है।–
‘हिन्दू,
तुरक नहीं कुछ भेदा, सभ मह एक रक्त और
मासा।
दोऊ एकह दूजा कोऊ नाही,
पेख्या सोध रैदासा!!
संत रविदास ने तत्कालीन समाज को उचित दिशा देने के लिए धार्मिक अन्ध विश्वासों
का भण्डाफोड़ करके समस्त मनुष्यों को भेद-भाव भुलाकर एक होने का जो संदेश दिया। वह
तत्कालीन परिस्थितियों में जितना आवश्यक था, सामयिक सन्दर्भो
में भी उतन ही प्रासंगिक है क्योंकि भौतिक दृष्टि से इतनी वैज्ञानिक उन्नति कर
लेने के बाबजूद धार्मिक अन्ध-विश्वास पूर्वतः नष्ट नहीं हो पाये हैं। अत- इस समय
की समस्त प्रचलित रूढ़ियों पर संत रविदास ने दृष्टिपात किया है। वर्ण-व्यवस्था को
हिन्दू-धर्म का कोढ़ माना जाता है और इसी वर्ण-व्यवस्था का अभिशाप चैथे वर्ण
अर्थात् ‘शूद्र’
को ही सहना पड़ा। प्रारम्भ में वर्ण जन्मतः नहीं कर्मतः
निर्धारित किये जाते थे किन्तु मध्यकाल तक आते-आते इस मान्यता ने रूढ़ रूप ले लिया।
संत रविदास इसी वर्ण से सम्बद्ध थे। अतः उन्हें उच्च वर्ण का उपहास सहना ही पड़ा।
कभी कभी प्रतिरोध का शिकार भी होना पड़ता था। इसलिए उन्होने इन सड़ी-गली मान्यताओं
के पुर्नमूल्यांकन की आवश्यकता समझी। अतः इन्होने इन मान्यताओं का सैद्धान्तिक
स्तर पर विरोध किया।
रैदास एक बूंद सौ,
सब ही भयो वित्यार।
मूरिख हैं जो करत हैं वरन अवरन विचार।।
रैदास एक ही नूर ते जिमि, उपजों संसार।
ऊँच-नीच किहि विध भये, ब्राह्मण और चमार।।
संत रविदास ने स्पष्ट घोषणा की, कोई भी व्यक्ति
जन्म के कारण ऊँच नीच नहीं हो सकता क्योंकि मनोवांछित जन्म लेकर किसी के भी हाथ की
बात नहीं है,
बल्कि व्यक्ति के अच्छे कर्म ही व्यक्ति की श्रेष्ठता अथवा
निकृष्टता को निर्धारित करते है।
रैदास जन्मे के कारणै,
होत न कोई नीच।
नर को नीच करि डारि है,
औछे करम की कीच।।
यदि हम वर्तमान में साहित्य के संदर्भ में बात करते हैं तो आज का दलित
साहित्यकार यह स्वीकार करता है कि ब्राह्मणों ने जो भी धर्मग्रन्थों पर
धर्मशास्त्रों की रचना की है वह अपने वर्गीय स्वार्थों की रक्षा के लिए की है।
जिनमें अछूतों और दलितों के लिए निर्योग्यताएं एवं प्रतिबंधों को ईश्वरीय विधान
एवं ऋषि प्रणीत बताकर शास्त्रों की सत्ता को स्थापित कर दिया गया। एक उच्च वर्ग
विशेष में समाज के उत्पादक,
शिल्पी एवं श्रमिक वर्ग को अस्पृश्य एवं दलित की श्रेणी में
रखकर मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया तथा उनका मानसिक, शारीरिक शोषण करना शुरु कर दिया। धर्म एवं नियति के नाम पर अनेक वर्जनायें थोप
दी। एक ओर सृष्टि के प्रत्येक जीव को परमात्मा का अंश बनाया जाता है तो दूसरी ओर
एक वर्ण को दलित,
अस्प्श्य एवं प्रतिबंधित कर उसके साथ अमानवीय व्यवहार किया
जाता है। दलित समाज ने इन विडम्बनाओं, तिरस्कारां और
विसंगतियों को भोगा और अपनी आंखों से देखा। इसलिए वह अन्याय और अनीति के विरुद्ध
स्वानूभूति के कारण संघर्ष करने के लिए मजबूर हुआ। इसी संघर्ष के
परिणामस्वरूप तथागत भगवान बुद्ध और
महामानव डॉ. अम्बेडकर जैसे महापुरुष का अवतार हुआ जिन्होंने हमारे जीवन का मार्ग
प्रशस्त किया।
भारतीय समाज में वर्ण-व्यवस्था के आधार पर श्रम विभाजन और श्रम विभाजन के आधार
पर समाज का गठन हुआ। इसी श्रम विभाजन के परिणामस्वरूप ‘जाति-व्यवस्था‘ अस्तित्व में आई,
जिसने समाज के लोगों को जातियों एवं उपजातियों में विभाजित
कर दिया। दलित संत रविदास भी स्वीकार करते हैं कि जब तक इस देश में जाति-प्रथा
समाप्त नहीं हो जाती तब तक इसमें किसी भी प्रकार के सुधार की बात करना बेबुनियाद
है। -
जात-पात में जात है,
ज्यों केलन के पात।
रैदास न मानुष जुड़ सके,
ज्यों लौ जात न जात।।
अतः भारत का यह दुर्भाग्य रहा है कि यहाँ पर जाति ही व्यक्ति का सामाजिक स्तर
निर्धारित करती रही है। उसे ऊँच और नीच मानने और मनवाने पर बाध्य करती रही है। संत
रविदास ऐसी जाति प्रथा को जो व्यक्ति-व्यक्ति को जोड़ती नहीं बल्कि तोड़ती है एक ‘रोग’
की तरह मानते है।
दलित संत रविदास में तत्कालीन सामज में प्रचलित इन सड़ी-गली मान्यताओं का विरोध
कर वैज्ञानिक मान्यताओं का प्रचार किया है। वे मानते हैं कि जब ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और शूद्र को बनाने वाला एक ही सृजनहार है उसकी एक
बूँद का विस्तार यह सारा संसार है। फिर किस आधार पर ब्राह्मण को श्रेष्ठ तथा शूद्र
को निष्कृष्ट ठहराया जाये उनहोंने जड़मति समाज को समझाते हुए कहते हैं-
एक माटी के सभै भांडे,
सबका एकै सिरजनहारा।
रैदास व्यापै एकै घट भीतर, सभ को एकै घड़ै कुम्हार।।
रैदास एकै ब्राह्म का होई रहयों सगल पसार।
एकै माटी सब घर सरजे,
एकै सभ कूं सरजनहारा।।
आज का दलित साहित्यकार समाज में
भेदभावपूर्ण व्यवस्था को समाप्त कर एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहता है जिससे
व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान उनके गुणों के आघार पर हो न कि जाति से। दलित
साहित्यकार मनुष्य की स्वतन्त्रता, समता और बन्धुत्व
की भावना को सर्वोपरि मानता है। वह मानवाधिकार की बात उठाता है और समाज में
व्याप्त उन बुराइयों को समाप्त करने का प्रयास करता है जिनसे मानवाधिकार का हनन
होता है। वहीं दलित संत रविदास ने भी अपने पदों में ‘बेगमपुरा शहर’
का उल्लेख किया है। उस शहर का जो वैशिष्ट्य उन्होंने बताया
है, उससे स्पष्ट होता है कि उन्होंने तत्कालीन अराजकतापूर्ण शासन व्यवस्था के
समान्तर आदर्श शासन व्यवस्था की रूपरेखा प्रस्तुत की थी। उनके ‘बेगमपुरा शहर’
में न दुःख है न चिन्ता। वहां जन-जन के लिए समान सुख
प्राप्त है। ‘बेगमपुरा शहर’
विषयक उनकी अवधारणा उनके समरसतावादी मूल्यबोध का द्योतक है।
दलित संत रविदास का यह मूल्यबोध आज के लिए अच्छा पाठ है। इसके आलोक में लोकतंत्र
को सार्थक बनाया जा सकता है। सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक प्रासंगिकता वाला संत
रविदास का ‘बेगमपुरा’
विषयक पद अग्रांकित है।
बेगमपुरा सहर को नाउ। दूरतु अंदोहू नहीं तिहि ठाउ
न तसवीर खिरोजु। खउफु न खता न तरषु जवालु।।
अब मोहि खूब वतन गह पाई। उहां खैरी सदा मेरे भाई।
कइमु दाइमु सदा पाति साही। दोम न सेम एक सो आहि
आबादानु सदा मसहूर। उहां गनी बसहि मासूर
तिउ तिउ सैल कहरि जिउ भावें। महरम महल न को अटकावै
कहि रविदास खलाज चमारा। जो हम सहरी सु मीत हमारा।। (17)
अंत संत रविदास मानव को सुखी देखना
चाहते थे। सबको समान सुख की प्राप्ति हो ऐसी उनकी कामना थी।
दलित संत रविदास का जीवन-दर्शन
मानवतावादी था। उनकी वाणी में मानवता के लिए आवश्यक सदाचारों के शाश्वत
सैद्धान्तिक मूल्यों का अक्षय भण्डार है, जिसमें व्यक्ति
अपने लिए सुंदर-सुंदर मोतियों का चुनाव सुगमता से कर सकता है। संत रविदास की
विचारधारा आज भी प्रचलित सामाजिक अंतर्विरोधों एवं समस्याओं का समाधान निकालने में
सहयोग देती है विशेषतः उनका जीवन, विचारधारा तथा
अभिव्यक्ति शैली यदि आज के परिप्रेक्ष्य में समझी जाये तो आजकल के समज सुधाराकों
एवं अग्रणी व्यक्तियों के प्रति वह प्र्याप्त मार्गदर्शन बन सकती है। उनकी वाणी
में दीन-हीन और शोषितों के प्रति एक विकल पीड़ा, अपमान के विरुद्ध
समाधान में प्रतिपल घुटन और समस्याओं के प्रति एक जागरुक दृष्टि थी तथा वे यह भली
प्रकार जानते थे कि पुरतनता से किस प्रकार ग्रहण किया जाए, परम्परा को किस स्थान तक सुरक्षित रखा जाये और नवीन परिस्थितियों के अनुरूप
किस प्रकार मार्ग बनाया जाये। उनकी वाणी में आज के दलित साहित्यकारों ने मुक्ति और
मुख्यधारा के संपूर्ण साहित्य जगत को झकझोरा है, उन्हें जगाया है,
चेताया है और उन्हें कुरेदकर सोचने एवं पुनर्मूल्यांकन के
लिए विवश किया है। आज दलितों ने दलित साहित्य की अंतःधारा में दलित चेतना को एक
प्रमुख और महत्वपूर्ण तत्व माना है। जिसका आधार बुद्ध, डॉ. अम्बेडकर और ज्यातिबा फुले हैं। बुद्ध ने प्रज्ञा, शील और करुणा को मानवीय जीवन के लिए आधारभूत मूल्य मानते हैं। इन्हीं मूल्यों
से सम्वेदनशीलता पैदा होती है जो दलित साहित्य के लिए ऊर्जा का काम करती है। आज
दलित साहित्यकारों का एक ही लक्ष्य है एक ऐसे समाज का निर्माण करना जिसमें जातिगत
घृणा, अपमान,
उपेक्षा, अस्पृश्यता, वर्ग-विभेद,
असमानता, अन्याय का कोई स्थान न
हो बल्कि एक ऐसा समाज जो ‘सर्वजन सुखाय’
के सिद्धान्तों पर आधारित हो बिल्कुल संत रविदास के ‘बेगमपुरा शहर’
की तरह...........
संदर्भ ग्रन्थ सूची
1. दलित साहित्य का
सौंदर्यशास्त्र - ओमप्रकाश बाल्मीकि, प्रकाशन - सामयिक
प्रकाशन,
नयी दिल्ली, पटना संस्करण, 2014, पृष्ठ सं0
16
2. हिन्दी दलित
साहित्य और चिन्तन,
डॉ. ललिता कौशल, प्रकाशन-साहित्य
संस्थान,
गाजियाबाद, प्रथम संस्करण, 2011, पृष्ठ सं0
15
3. वही पृष्ठ सं0 15
4. वही पृष्ठ सं0 15
5. वही पृष्ठ सं0 15
6. वही पृष्ठ सं0 15
7. हिन्दी दलित
साहित्य का इतिहास,
प्रियदर्शी प्रकाशन, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद,
प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ सं0 18
8. वही पृष्ठ सं0 18
9. हिन्दी दलित
साहित्य और चिन्तन,
डॉ. ललित कौशल, प्रकाशन- साहित्य
संस्थान,
गाजियाबाद प्रथ्म संस्करण, 2011, पृष्ठ सं0
16
10. वही पृष्ठ सं0 16
11. दलित चिन्तन
अनुभव और विचार,
डॉ. एन0 सिंह, वाणी प्रकाशन,
नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2015, पृष्ठ सं0
175
12. वही पृष्ठ सं0 180
13. वही पृष्ठ सं0 181
14. वही पृष्ठ सं0 182
15. वही पृष्ठ सं0 182
16. दलित-चिन्तन की
दिशाएँ,
डॉ. सुरेश चन्द्र, क्वालिटी बुक्स
पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीव्यूटर्स, कानपुर, प्रथम संस्करण,
2013, पृष्ठ सं0 15
(हिन्दी विभाग)
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
मो0नं0
09721853889
[जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के अंक 23 में प्रकाशित आलेख]
[चित्र साभार: http://aygrt.isrj.org/ArchiveArticleList.aspx?id=54]
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