मुस्लिम परिवारों में स्त्री शिक्षा: अंजुम
मुस्लिम परिवारों
में स्त्री शिक्षा
अंजुम
पी.एच.डी. शोधार्थी
जामिया मिल्लिया इस्लामिया
शिक्षा
और स्त्री को लेकर यदि वैश्विक धरातल पर सोचा व देखा जाए तो उसमें स्त्री हमेंशा
पुरुषों के उपरांत ही आती है । उसी प्रकार भारत के भी विभिन्न समाजो में
पितृसत्तात्मक व्यवस्थ होने के कारण स्त्रियों की शिक्षा को दोयम दर्जे पर रखा गया । इसी कारण कुछ चिंतकों ने स्त्रियों को ‘उपनिवेश’ तक की
संज्ञा दे दी है । मुस्लिम समाज और परिवार भी पूर्णत: पितृसत्तात्मक
है । इसलिए मुस्लिम परिवार में स्त्री शिक्षा का स्तर बहुत ही निम्न है । जिस
प्रकार सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था पर जेंडर का विभेदीकरण दिखाई देता है, उसी
तरह मुस्लिम समाज की शिक्षा व्यवस्था पर भी पितृसत्तात्मक विचारधारा का पूरा
प्रभाव बना हुआ है । महान विचारक रुसों स्वयं स्त्री शिक्षा को गैर ज़रूरी समझता था
। वह तो स्त्री शिक्षा को घर तक और पुरुषों के लिए आवश्यक मानता था । यदि इस
परिस्थिति को भारतीय परिवेश में रखकर देखा जाए तो स्थिति और भी भयावह है । जहां
स्त्रियों को केवल ‘ताड़न’ के अधिकारी के रूप में ही देखा जाता रहा है । यहाँ
के पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की
स्थिति कभी पुरुष के सहायक के रूप में भी नहीं बनी । वह हमेंशा समाज द्वारा एक ऐसी
वस्तु के रूप में उपयोग की जाती रही है, जिसे
पुरुष वर्ग ने जितना चाहा उपयोग किया । इस कारण उसकी विधवत शिक्षा के कोई संकेत
नहीं मिलते । किसी भी राष्ट्र का विकास उसकी संपूर्ण मानव क्षमता के ऊपर निर्भर
करता है और स्त्रियाँ विश्व की आधी आबादी हैं, यदि यह
आधी आबादी विकसित नहीं हुई तो आधी मानवीय क्षमता व्यर्थ चली जाएगी । मुस्लिम समाज
अपनी रूढ़िवादिता और अंधविश्वास के कारण स्त्री शिक्षा में और भी पीछे रह गया है ।
भारतीय मुस्लिम समाज में पितृसत्ता, पर्दाप्रथा और धार्मिक कट्टरता के चलते मुस्लिम
समाज की स्त्रियां शिक्षा के क्षेत्र में बहुत विकास नहीं कर सकी हैं । यदि हम इस्लाम
धर्म के मौलिक सिद्धांतों की नारीवादी नजरिए से समीक्षा करें तो कुरान और हदीस की
कई ऐसी आयतें हैं जिनमें स्त्री और पुरुष को समान अधिकार दिया गया है, विशेष
कर शिक्षा के क्षेत्र में हदीस की आयात है,
जिसमें शिक्षा के महत्व को इस प्रकार
बताया गया है– “तलबुल इल्म फरीजतुन अलाकुल्ली अलमुस्लिम व मुस्लिमा
।”[1] इस आयत
के माध्यम से हजरत मुहम्मद साहब ने बताया है कि तालीम हर मर्द और औरत के लिए बेहद
और निहायत जरूरी है । इसी तरह इस्लाम हर मामले में जाति, वर्ग
और जेंडर से परे हो कर सबको समान अधिकार देता है । कहा जाता है कि इस्लाम धर्म
दुनिया के सारे धर्मो में आधुनिक होने के साथ-साथ उदार भी है । इस्लाम की मूल
प्रकृति पितृसतात्मक नहीं है, बल्कि पितृसतात्मक समाज द्वारा बनाई गई है । भारत
में उन्नीसवी शताब्दी के समाज सुधार आंदोलन की शुरुआत होती है । यह तो धर्म सुधार
या यूं कहें की यह आंदोलन इस्लामिक पुनरुत्थान का आंदोलन था । जिसके माध्यम से
इस्लामिकरण और अरबीकरण किया गया । इस आंदोलन के दौरान मुस्लिम स्त्रियों से जुड़े
मुददों को भी उठाया गया, जैसे की पर्दा-प्रथा और शिक्षा आदि । औपनिवेशिक
कालीन भारत में स्त्री शिक्षा को लेकर काफी मतभेद रहा एक तरफ आधुनिक शिक्षा और
देशी शिक्षा तो दूसरी तरफ स्त्रियों की स्कूली शिक्षा को लेकर लोगों के अलग-अलग मत
थे । यही हाल मुस्लिम स्त्री का भी था,
मुस्लिम समाज सुधारक और बुद्धजीवी दो अलग-अलग विचारधाराओं के थे । एक तरफ इस्लाम
के रेडिकल धर्म गुरु और उलेमा जैसे कि सैयद अहमद बरेलवी, मौलाना
अशरफ अली थानवी, अकबर इलाहाबादी, मुहम्मद
कालिम ननौत्वी और रशीद अहमद गंगोही जैसे पुनरुत्थानवादी नेता थे, जो
स्त्रियों के मुद्दों पर विशेषकर शिक्षा पर रूढ़िवादी नजरिया अपना रहे थे । दूसरी
तरफ सैयद अहमद दहलवी, मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली, डिप्टी
नजीर अहमद, मुमताज़ अली व मौलवी करामत हुसैन जैसे आधुनिक सोच
रखने वाले पुरुष नेता थे, जो स्त्री शिक्षा के पक्के हिमायती थे । शायद यही
वजह थी की मौलाना अल्ताफ हुसैन, मुमताज़ अली और करामत हुसैन जैसे लोगों का उनसे
वैचारिक मतभेद था । मौलवी मुमताज़ अली, सर
सैयद अहमद के ही खेमें के थे । लेकिन लैंगिक समानता की जब बात आती तो मुमताज़
हमेंशा स्त्रियों के हक की बात करते थे । असगर अली इंजीनियर लिखते हैं कि -“मौलवी
मुमताज़ अली जाने-माने आलिम थे और देवबंद के मदरसे में पढ़े थे, परंतु
महिला अधिकारों के मामले पर वे परम्परागत उलेमा से पूरी तरह असहमत थे । महिला
अधिकारों के मामले में तो उनकी सोच आधुनिक थी । इसके चलते उन्होंनें हुकूक-अल-निस्वान
नामक पुस्तक लिखी, जिसमें लैंगिक समानता के सिद्धांतों पर बहस थी ।”[2] मुसलमानों के महान नेता सर
सैयद अहमद खान मुस्लिम नौजवानों की आधुनिक शिक्षा के लिए अपना खून पसीना एक किये
दे रहे थे, लेकिन औरतों के लिए कुरान और घरेलू शिक्षा को ही
काफी समझते थे, उनका कहना था “मेंरी ख़्वाहिश नहीं की तुम उन पवित्र
किताबों के बदले, जो तुम्हारी दादियाँ और नानियाँ पढ़ती आयी हैं, इस
ज़माने की प्रचलित अशुभ किताबों को पढ़ने की ओर उन्मुख हो ।”[3] सर सैयद अहमद खान स्त्रियों के
लिए सिर्फ और सिर्फ धार्मिक शिक्षा को ही आवश्यक मानते थे । जबकि पुरुषों के लिए
वह आधुनिक शिक्षा पर ही ज़ोर देते थे । उनका मानना था कि पुरुष घर से बाहर नौकरी
करने जाएगा इसलिए उसे आधुनिक शिक्षा हासिल करनी ही चाहिए । “सर सैयद मुसलमानों में
आधुनिक शिक्षा के सूत्रधार थे । उन्होंने 1875 में मुसलमान लड़कों के लिए एक स्कूल
कायम किया, उसके दो बरस बाद कॉलेज में तब्दील किया और आज वह
स्कूल अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बन चुका है ।”[4] शिक्षा के क्षेत्र में इतने
बड़े काम के बावजूद मुसलमान लड़कियों की आधुनिक शिक्षा के समर्थकों से उन्हें आख़री
उम्र तक मतभेद रहा । सर सैयद अहमद खान ने 1884 में पंजाब की मुस्लिम ख्वातीन के
ज्ञापन के जवाब में तकरीर करते हुये कहा कि ‘मुमकिन
है की यूरोप में औरतें पोस्ट मास्टर या मेंम्बर ऑफ पार्लियामेंट हो सकें लेकिन
हिंदुस्तान में न अब वह ज़माना है और न सैकड़ों बरस में आने वाला है ।’ जबकि
पुरूषों के मामले में उनके विचार अलग थे । उन्होंनें पुरूषों के लिए आधुनिक शिक्षा
को ज़रूरी समझा । इसी प्रकार कुछ अन्य नेता थे, जिन्होंने
ताउम्र स्त्रियों को गर्त में धकेलने का प्रयास किया । जैसे अशरफ अली थानवी और
अकबर इलाहाबादी आदि । थानवी ने तो स्त्री-शिक्षा का इस कदर विरोध किया की औरतों की
मजहबी तालीम के अतिरिक्त अन्य शिक्षा को स्त्रियों के लिए हानिकारक बताया ।
“मौलाना थानवी लड़कियों को शिक्षण संस्थानो में भेजने के भी प्रबल विरोधी थे, भले ही
वे संस्थान विशुद्ध रूप से लड़कियों के लिए ही बने हों । उनका मानना था कि ऐसे
संस्थानों में विभिन्न कौम, विभिन्न वर्ग, विचार
पृष्ठीभूमि की लड़कियां इकट्ठा होंगी और उनमें मेलजोल से विचार तथा नैतिकता पर हानिकारक
प्रभाव पड़ेगा ।”[5]
मुस्लिम स्त्रियों की शिक्षा के संदर्भ में आधुनिक सोच रखने वाले नेता सर सैयद
अहमद खान का नजरिया बिलकुल पुनरुत्थानवादियों जैसा था । भारत में स्त्रियों के लिए
स्कूल खोलने के वे कतई खिलाफ थे । सन 1868 में लाहौर के एक जलसे में उन्होंनें
स्त्री शिक्षा के विषय पर अपना वक्तव्य देते हुये कहा कि “औरतों की तालीम के लिए
मदरसों का कायम करना और यूरोप के जनाना मदरसों की ताकीद करना हिंदुस्तान की मौजूदा
हालात के लिए किसी तरह मुनासिब नहीं है और मैं इसका सख्त मुखालिफ हूं ।”[6] इसी प्रकार शिक्षा के मामले
में अकबर इलाहावादी इतने कट्टर थे, कि मुसलमान पुरुषों के लिए भी आधुनिक शिक्षा को
हानिकारक बताया । वहीं कुछ ऐसे समाज सुधारक भी थे जो स्त्री शिक्षा के लिए आधुनिक
नज़रीय से सोचते थे । जस्टिस सैयद अमीर आली स्त्री शिक्षा के समर्थक थे उन्होंने
स्त्रियों के लिए आधुनिक शिक्षा को आवश्यक बताते हुये कहा कि “जब तक हम लड़कियों की
तालिम पर ध्यान नही देंगे तो सिर्फ लड़कों की आधुनिक शिक्षा से हमको ज़िंदा कौम बनने
से बिलकुल मदद नहीं मिल सकती ।”[7] इन आधुनिक विचारकों के साथ-साथ
कई मुस्लिम औरतें भी थीं, जिन्होंने अपने अधिकार और आजादी के लिए स्वयं बीड़ा
उठाया । इनमें भोपाल की बेगम, रुकैया शेखावत हुसैन,
मुहम्मदी बेगम आदि प्रमुख महिलाएं थीं । इन लोगों ने औरतों के अधिकरों के लिए
संघर्ष किया । जहां एक तरफ मुस्लिम स्त्री शिक्षा के लिए मुस्लिम समाज स्वयं
जिम्मेदार है । वहीं दूसरी तरफ सामाजिकता और संसाधन भी इस मामले में जिम्मेदार है
। यदि वर्तमान समय में देखा जाए तो मुस्लिम समाज कई स्तरों पर संघर्ष कर रहा है ।
यह स्थितियाँ भी कहीं न कहीं स्त्री शिक्षा के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से
उत्तरदायी हैं ।“मुसलमान
महिलाओं की समस्याओं के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं । अधिकतर मुसलमान अपने
छोटे-छोटे स्वरोजगार चलाते हैं और समाजशास्त्रीय दृष्टि से वे कुएं के मेंढ़क हैं ।
फिर वे मुसलमान है जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं और खेतिहार मजदूर के रूप में
काम करते हैं । वे और अधिक परंपरवादी हैं ।”[8]
प्लेटो शिक्षा को महत्त्वपूर्ण मानते हैं, वह रिपब्लिक में
लिखते हैं कि “जिनके हाथों में सत्ता है उनकी ज़िम्मेदारी है कि वे न्यायपरायण समाज
का निर्माण करें और शिक्षा ही वह साधन है जिसके जरिये समाज को ऐसा बनाया जा सकता
है,प्लेटो के अनुसार सामाजिक शिक्षा ही सामाजिक न्याय का साधन
है ।”[9]
इस्लाम धर्म भी सामाजिक शिक्षा पर विशेष बल देता है । इस्लाम प्रत्येक मुसलमान के
लिए शिक्षा प्राप्त करना फर्ज़ करता है । भारतीय परिवेश में स्त्री शिक्षा को लेकर
बात की जाए तो नवजागरणकाल में इसके बीज देखने को मिलते हैं । परंतु मुस्लिम शिक्षा
को यदि ध्यान में रखकर देखा जाए तो इसके कुछ बहुत ज़्यादा सूत्र नहीं मिलते ।
मुस्लिम परिवारों में स्त्री शिक्षा के प्रति बहुत अधिक चेतना नहीं है । अधिकांश
अपने घर की लड़कियों को प्राथमिक शिक्षा तक पढ़ाने को लेकर ही सचेत हैं । स्त्रियों
के प्रति इनकी जो रूढ़ीगत धारणाएं हैं, वे इनको उच्च शिक्षा
के लिए प्रेरित नहीं करती जिस कारण से स्त्री समाज की व्यावहारिकता को समझ नहीं
पाती । मुस्लिम परिवारों में पर्दा प्रथा और कम उम्र में शादी कर देना भी इनका
अशिक्षत होने का एक कारक है । मुस्लिम महिलाओं का शोषण दोनों(आंतरिक व बाहय) स्तर
पर होता है । मुस्लिम पुरुष अधिकांशत इस्लाम की गवाही देकर अपने घर की महिलाओं को
दबाते हैं । अपनी रूढ़ मानसिकता के कारण स्त्री के पक्ष में या उसके विकास, स्वतंत्रता, शिक्षा आदि के बारे में सोचने को तैयार
नहीं है । जबकि इस्लाम में शिक्षा के लिए लिंग, आयु और स्थान
किसी भी तरह का भेद नहीं किया गया है । मोहम्मद साहब ने शिक्षा प्राप्त करने के
लिए दूरी को भी अड़चन नहीं माना है । उन्होंने हीदायत दी कि “इल्म हासिल करने के
लिए अगर चीन भी जाना पड़े तो जाना चाहिए ।”[10]
इक्कीसवी सदी में मनुष्य दूसरे ग्रहों पर पहुँचने की तैयारी कर रहा है । तकनीक, वैज्ञानिक क्रांति असंभव को संभव कर रही है,सामाजिक
जगरुकता की बात की जा रही है, वहीं दूसरी ओर जड़ व रूढ़िगत
मानसिकता से ग्रस्त मुस्लिम समाज में स्त्री को शिक्षा से वंचित किया जाता रहा है
। 1400 वर्षों पहले कुरान व हदीस में औरतों के लिए जो कानून बनाए गए थे व मात्र
सैद्धांतिक ही रहे हैं, उन्हें व्यवहारिक रूप में नहीं
अपनाया गया है । मोहम्मद साहब ने इल्म हासिल करने के संबंध में मर्द-औरत की कोई
खुसुसियत नहीं की, मिशकात और तिरमिजी की हदीस है की मोहम्म्द
सहाब ने आदेश दिया है कि- “तालीम हासिल करो और लोगों को तालीम दो”[11] औरत को शिक्षा देना और दिलवाना न केवल अख़लाकी हैसियत
रखता है, बल्कि इस्लाम ने औरत के शिक्षा प्राप्त
करने के अधिकार को कानूनी तौर पर स्वीकार किया है । मोहम्म्द साहब के युग में
सहाबा की तरह सहाबियत भी तालीम व नसीहत में माहिर थीं । जिस प्रकार सहाबा में फतवा
देने वाले ज्ञानी थे । उसी प्रकार सहाबियात में भी कुछ महिलाएं फतवा देती थीं ।
हज़रत आयशा, हज़रत उम्मे सलमा और हज़रत हफ़्ज़ा से बड़े-बड़े सहाबा
फतवा लिया करते थे । हज़रत आयशा दीन के अतिरिक्क्त चिकित्सा,
गणित आदि विभिन्न विषयों में ज्ञान रखती थीं । इस काल में मुस्लिम स्त्रियाँ
साहित्य, कविता, कला, चिकित्सा, गणित के क्षेत्र में अपना स्थान बना चुकी
थीं, जबकि कुछ कटठरपंथी मौलवियों ने स्त्री के लिए धार्मिक
शिक्षा को ही उचित ठहराया । पितृसत्तात्मक मुस्लिम समाज कहीं न कहीं अपने अस्तित्व
को लेकर डरा हुआ है, चूंकि वह स्त्री से अपने को नीचे नहीं
देख सकता । इसलिए उसने अपने आपको बचाने और अपना दबदबा स्त्रियों पर कायम रखने के
लिए धर्म का सहारा लिया । कट्टरपंथी मौलवियों ने कुरान की आयतों का गलत विश्लेषण
कर कम पढ़े-लिखे वर्ग को बेवकूफ़ बनाया है । इस्लाम में औरतों की शिक्षा को जितना
ज़रूरी बताया है । उसके विपरीत संकीर्ण मानसिकतावादियों ने उसे खास ज़रूरी न कहकर
घरेलू व धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने पर अधिक बल दिया । वह औरत को घर से बाहर ना
निकालने की हिदायत देते हैं तथा अपने को स्वतंत्र रखने पर अधिक बल देते हैं। मुस्लिम धार्मिक कट्टरपंथियों ने धर्म का सहारा लेकर
स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार छिन लिया है । इसका विरोध करते हुये ज़ोया हसन लिखती
हैं कि “मुस्लिम औरत का हिन्दुस्तान में नहीं पढ़ने का का मूल कारण गरीबी है । उनकी
स्थिति अनुसूचित जाति की तरह है जिस वजह से अनुसूचित जाति की औरतें नहीं पढ़ पाती ।
धर्म और पर्दा उतना बड़ा कारण नहीं । सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को नज़र अंदाज़ कर
मुस्लिम औरत की स्थिति को ठीक से नहीं समझा जा सकता ।”[12]
समकालीन
समय में औरतें जागरूक हो रही हैं तथा अपने अधिकारों की मांग करने लगी हैं ।
उन्होंने शिक्षा के महत्व को भी समझना शुरू कर दिया है । शिक्षा के माध्यम से
स्त्री की सामाजिक स्थिति में भी सुधार हुआ है । कुछ शिक्षित मुस्लिम परिवारों में
पर्दा-प्रथा धीमें-धीमें घटती जा रही है । क्योंकि आज लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त
कर नौकरियाँ भी कर रही हैं, वह ऊंचे
पदों पर भी हैं । वे बुर्का पहनकर पुरुषों के साथ या पुरुष समाज में साथ-साथ काम
कैसे कर सकती हैं ?
“ यदि एक परिस्थिति ने बुर्का या पर्दा-प्रथा चलाई थी तो आज की प्रगतिशील
सोच और परिस्थिति ने पर्दा-प्रथा को कम भी किया है । जैसे-जैसे हमारे देश की
मुस्लिम महिलाएं शिक्षित होकर कामकाजी महिलाएं बनेगी पर्दा प्रथा स्वत: ही कम हो
जाएगी । यह जागरूकता शिक्षित और प्रगतिशील समाज के लिए ही आवश्यक नहीं है, वरन परिवार की उन्नति के लिए भी बहुत आवश्यक है ।”[13]
आधुनिक
युग में शिक्षा की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुये हर स्त्री को उसका शिक्षा का
अधिकार समाज को प्रदान करना चाहिए । क्योंकि इस दौड़ती भागती जिंदगी में शिक्षा के
बिना कुछ नहीं हो सकता । शिक्षा के माध्यम से इंसान में समझ बढ़ती है उसको अच्छे और
बुरे की समझ आती है । जिंदगी की हर समस्या का समाधान आसानी से करने की ताकत ज्ञान
के माध्यम से ही आ सकती है ।
1.फरजाना अमीन,
मुस्लिम पुरुष: पोषक या शोषक,
पृ.स.143
2. असगर अली इंजीनियर,
धर्म और सांप्रदायिकता, पृ.स. 271
3. ज़ाहिदा हिना,पाकिस्तानी
स्त्री: यातना और संघर्ष पृ.स. 149
4.वही,पृ.स.149
5. मुबारक अली,
इतिहासकार का मतांतर, पृ.स. 124
6. ज़ाहिदा हिना,
पाकिस्तानी स्त्री: यातना और संघर्ष,पृ.स.22
7. वही, पृ.स.149
8. असगर अली इंजीनियर,
धर्म
और सांप्रदायिकता पृ. स. 221
9.फरजाना
अमीन,मुस्लिम
पुरूष: पोषक या शोषक पृ.स.43-44
10.फरजाना अमीन,मुस्लिम
पुरूष: पोषक या शोषक पृ.स.143
11.वही,पृ.स.143
12.ज़ोया हसन,हंस,
भारतीय मुसलमान अंक, अगस्त 2003, पृ.
15
13.वी.एन.सिंह.
नारीवाद पृ.स.200
[साभार: जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के अंक 23 में प्रकाशित शोध आलेख]
कोई टिप्पणी नहीं:
सामग्री के संदर्भ में अपने विचार लिखें-