डॉ. अंबेडकर की दृष्टि में शिक्षा का महत्व: कपिल गौतमराव मून
डॉ. अंबेडकर की दृष्टि
में शिक्षा का महत्व
कपिल गौतमराव मून
पी-एच.डी. शोधार्थी
डॉ. बाबासाहब अंबेडकर-सिदों-कान्हू मुर्मु दलित एवं जनजाति अध्ययन
केंद्र
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा, महाराष्ट्र.
शिक्षा मनुष्य को अपने जीवन में आगे ले
जाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शिक्षा का उद्देश मनुष्य की अमानवीय
प्रवृत्तियों को दूर कर उसे ऐसा सफल सामाजिक व्यक्ति बनाना हैं जो विनम्रता और
सदाचार से सम्पन्न स्वाभिमान और स्वावलंबन से परिपूर्ण हो। इसी लिए शिक्षा को
जीवनदायी कहा गया है। शिक्षा से मनुष्य को नये नये ज्ञान की प्राप्ति होती हैं
जिसके वजह से मनुष्य हमेशा नये ज्ञान की खोज करता रहता है।
प्रस्तावना
डॉ.
अंबेडकर भारत
माता के ऐसे प्रतिभाशाली मेधावी एवं यशस्वी सपूत रहे है जिनकी अप्रतिम सेवाओं के
लिए चिरकाल तक यह देश ऋणी रहेगा। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के अनुसार अछूत परिवार
में जन्म लेकर भी, अध्ययन के
लिए आवश्यक सुविधाओं से वंचित रहते हुए तथा बचपन से ही अपमान तिरस्कार तथा घृणा के
कड़ुवे घूंट पीते हुए एम. ए., पी.एच.डी, एम.एस.सी., डी.एस.सी., एल.एल.डी., डी.लिट जैसी शिक्षा क्षेत्र की उच्चतम उपाधियों को
प्राप्त करना उनके अदम्य साहस, लगन, निष्ठा, धैर्य और
शिक्षा के प्रति गहनतम लगाव महत्वपूर्ण उदाहरण है। उन्होंने अपने जीवन में जो
अप्रतिम उपलब्धि प्राप्त की थी वह वह शिक्षा के बल पर ही प्राप्त की थी। इसलिए उन्होंने
हर प्रकार के विकास के लिए शिक्षा को एक अमोघ अस्त्र बताया तथा शिक्षा को मानव
जीवन का एक अनिवार्य अंग माना।
डॉ.
अंबेडकर का
मानना था कि शिक्षा ही एकता, बन्धुता और
देश-प्रेम के
विवेक को जन्म देती है। सभ्यता और संस्कृति का भवन शिक्षा के स्तम्भ पर ही बनता
है। शिक्षा ही मनुष्य को मनुष्यत्व प्रदान करती हैं। शिक्षा के अभाव में मनुष्य
पशु तुल्य होता है। इसलिए शिक्षा का उद्देश मनुष्य कि पाशविक प्रवृत्तियों को
हटाकर उसे ऐसा सफल सामाजिक व्यक्ति बनाना है जो विनम्रता और सदाचार से सम्पन्न हो।
इसीलिए कहा गया है कि, “विद्या ददाति
विनय अर्थात विद्या मनुष्य को अनुशासित जीवन व्यतीत करना सिखाती है।”1 इस लिए जब डॉ. अंबेडकर अमेरिका में पढ़ने के लिए गए थे तो वहाँ का स्वच्छंद, समृद्ध और उदारतापूर्ण वातावरण को देख कर और दूसरी
और भारत में अपने निर्धन भाइयों की दुर्दशा देख कर पीड़ित हो उठा था। उनके मन पर
बहुत गहन प्रभाव पड़ा। अपने इस अनुभव को उन्होंने श्री. शिवनाक गोनाक जमेदार (पोइपकर)
को न्यूयार्क
(अमेरिका) से 4
अगस्त, 1913 को लिखे अपने
एक पत्र में लड़के और लड़कियों को शिक्षा देना कितना जरूरी हैं इसका वर्णन करते हुए
डॉ. अंबेडकर कहते
है, “हमें कर्म
सिद्धान्त को त्याग देना चाहिए.
यह भी गलत है
कि माता-पिता अपने
बच्चों को केवल जन्म ही देते हैं, भविष्य नहीं. माता-पिता अपने
बच्चों का भविष्य उज्वल बना सकते हैं यदि हम इस सिद्धान्त पर चलने लग पड़ें तो हम
अति शीघ्र शुभ दिन देख सकते हैं और यदि हम लड़कों के साथ-साथ लड़कियों कि शिक्षा की ओर भी ध्यान देने लग जाएं
तो हम शीघ्र प्रगति कर सकते हैं.
इस लिए आपका
मिशन, जो भी आपके अड़ोस-पड़ोस है, उन्हें यह
समझाना चाहिए कि विद्या पढ़ो, विद्वान
बनो।”2 अर्थात इससे
यही पता चलता है कि डॉ. अंबेडकर
शिक्षा के कितने पक्षधर थे। अपनी 23
वर्ष कि आयु
में इस प्रकार के क्रान्तिकारी और प्रगतिशील विचार रखनेवाले डॉ. अंबेडकर महान शिक्षाविद थे।
शिक्षा का
उद्देश
शिक्षा जिसका काम लोगों को नैतिकता सिखाना है और
उनको समाज में रहने लायक बनाना है। शिक्षा का उद्देश मनुष्य की अमानवीय अमानवीय
प्रवृतियों को दूर कर उसे ऐसा सफल सामाजिक व्यक्ति बनाना है जो विनम्रता और सदाचार
से सम्पन्न स्वाभिमान और स्वावलंबन से परिपूर्ण हो। डॉ. अंबेडकर मुंबई विधान मण्डल में 12 मार्च 1927
को भारत की
शिक्षा की स्थिति पर बोलते हुए कहा था कि, “अपने बच्चों कि शिक्षा के मामले में हमारी प्रगति
बहुत धीमी है। भारत सरकार ने हाल ही में शिक्षा की प्रगति के बारे में जो रिपोर्ट
जारी की है, उसे पढ़कर
बहुत दुःख होता है। उसमें कहा
गया है कि अगर शिक्षा कि प्रगति इसी वेग से चलती रही, जो आज चल रही है, तो स्कूल जाने वाली उम्र के लड़कों को 40 साल और लड़कियों को 300 साल शिक्षित बनाने में लगेंगे।”3 इससे यही पता चलता है की डॉ. अंबेडकर शिक्षा सभी को मिलना चाहिए इसके पक्षधर थे।
लड़कों के साथ-साथ लड़कियों
को भी शिक्षा मिले इसके भी पक्षधर डॉ.
अंबेडकर थे।
इसलिए डॉ. अंबेडकर के
सभी लिखान में और कार्यों में स्त्री-पुरुष समानता
दिखाई देती है। क्योंकि शिक्षा की स्थिति पर ही उस देश की प्रगति निर्भर होती है।
शिक्षा के उद्देश को स्पष्ट करते हुये डॉ. अंबेडकर आगे कहते हैं कि, “शिक्षा का
उद्देश व कार्य ऐसे होने चाहिए जिनसे पता चले कि वह दी जाने वाली शिक्षा वयस्कों
के लिए उपयुक्त है, कि यह अपने
चरित्र में वैज्ञानिक, निष्काम और
पक्षपात रहित हो, कि इसका
उद्देश विद्यार्थी के मस्तिष्क में केवल
तथ्य और सिद्धांतों को भरना नहीं होना चाहिए अपितु उसके व्यक्तित्व और मानसिक
स्थिति को सुदृढ़ करने वाला होना चाहिए, कि यह
विद्यार्थी को प्रधान सत्ताधारी के समीक्षात्मक अध्ययन का आदि बनाती है तथा उसके
मस्तिष्क में एक संपूर्णता का स्तर बनाती है, और उसे
कठिनाई कि दिशा से जूझते हुए सत्य तक पहुंचने का अर्थ देती है।”4 12 व 13 फरवरी, 1938 को मनमाड कि एक जनसभा में डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि, “विद्या एक
तलवार है। यदि एक शिक्षित व्यक्ति में विनम्रता और सदाचार नहीं हैं तो वह एक जंगली
और दरिन्दे से भी भयानक है। यदि एक पढे लिखे मनुष्य की शिक्षा गरीब जनता की भलाई
के लिए रुकावट बने तो ऐसा शिक्षित व्यक्ति
समाज के लिए कलंक है। धिक्कार है ऐसे पढे-लिखे मनुष्य को।”5 अर्थात
शिक्षा प्राप्त कर उसका उपयोग सिर्फ अपने लिए ही मत करना जिस समाज से हम लोग आते
है उस समाज के बारें में सोचते हुए अपनी शिक्षा का फायदा समाज के लोगों के हित में
भी होना चाहिए ताकि अपने साथ-साथ समाज का
भी उत्थान हो यही शिक्षा का मुख्य उद्देश है। डॉ.
अंबेडकर 11 सितम्बर, 1938 को पुना में हुए 11 वे ‘अस्पृश्य
विद्यार्थी सम्मेलन’ में किए
अध्यक्षीय भाषण में कहते है, “मैं राजनीति और समाजकार्य सक्रिय होने के बाद भी मैं
आजन्म विद्यार्थी हूँ।”6 उस समय के
तत्कालीन किसी भी राजनीतिक और सामाजिक नेतावों ने अपने आप को मैं विद्यार्थी या
आजन्म विद्यार्थी हूँ ऐसी खुद की पहचान लोगों को नहीं दी। लेकिन डॉ. अंबेडकर एक ऐसे महान और एकमेव नेता थे जिन्होंने
अपनी पहचान ‘मैं आजन्म
विद्यार्थी’ के रूप में
दी और विश्व के समस्त विद्यार्थियों के साथ एक विद्यार्थी के रूप में अपना नाता
जोड़ दिया। इस प्रकार डॉ. अंबेडकर ने शिक्षा के महत्व को समझाते हुए शिक्षा
के उद्देश को स्पष्ट किया।
शिक्षा
प्रणाली के प्रति दृष्टिकोण
डॉ.
अंबेडकर का
कहना था की शिक्षा के अभाव में मनुष्य पशु तुल्य होता है। वे शिक्षा में मानवीय
मूल्यों के समावेश के प्रबल पक्षधर थे। वे
चाहते थे कि व्यक्ति के सामाजिक एवं नैतिक गुणों को जाग्रत करने वाली शिक्षा दी
जाए। उनका स्पष्ट मत था कि शिक्षा द्वारा वर्तमान दृष्टिकोण में परिवर्तन तब तक
नहीं होगा जब तक शिक्षा में मानवीय गुणों को आधार नहीं बनाया जाता। वे शील और
सदाचार पर आधारित शिक्षा के पक्षधर थे। इसलिए डॉ. अंबेडकर ने 20 जुलाई, 1942 को नागपुर में आयोजित ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेज
कान्फ्रेंस में अर्पित अभिनंदन के जवाब में भाषण देते हुए कहा था, “शिक्षित करो, उद्वेलित करो और संगठित करो; स्वयं में विश्वास रखो और कभी भी आशा मत छोड़ो।”7 इसमे पहला
स्थान शिक्षा को दिया है, साथ ही साथ
शिक्षा के लक्ष्य की ओर संकेत किया है कि शिक्षित होने पर एकता कि भावना आनी चाहिए
और अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने की शक्ति उभरनी चाहिए। डॉ. अंबेडकर शिक्षा की परिभाषा को स्पष्ट करते हुए कहते
थे जो शिक्षा योग्य न बनाये, समानता न
सिखाये और नैतिकता का बोध न कराये वह शिक्षा नहीं है। वे उसे शिक्षा मानते थे जो
मानव मात्र के हित का संरक्षण करती हो जो शिक्षा समाज को समता, पेट को रोटी और ज्ञान को तृप्ति दे वही सच्ची
शिक्षा है।
सामुदायिक उन्नति के लिए अच्छे नागरिकों का होना
आवश्यक है और नागरिकों को बनाना शिक्षा का मूलभूत उद्देश है। प्रसिद्ध शिक्षा
शास्त्री प्रो. मैकेन्जी के
अनुसार, “शिक्षा
मानवीय प्रगति की निदर्शिका है।”8
इसीलिए शिक्षा के अति महत्वपूर्ण
विषय को व्यक्तिगत लोगों के प्रयासों पर ही नहीं छोड़ना चाहिए। यह सरकार का
उत्तरदायीत्व है कि वह सभी को शिक्षा प्रदान करे। 27 फरवरी, 1927 को बम्बई लेजिस्लेटिव कौंसिल में बजट पर बोलते हुए
डॉ. अंबेडकर ने
कहा था कि, “शिक्षा ऐसी वस्तु
है जो प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचनी चाहिए। शिक्षा सस्ती से सस्ती हो ताकि निर्धन
से निर्धन व्यक्ति भी शिक्षा ग्रहण कर सके।”9 डॉ.
अंबेडकर
शिक्षा की अनिवार्यता पर बल देते थे और उसके राष्ट्रीयकरण के पक्षधर थे। प्रारम्भिक
शिक्षा के विषय में डॉ. अंबेडकर का
दृष्टिकोण था कि, “प्राइमरी
शिक्षा का उद्देश यह है कि जो विद्यार्थी स्कूल में दाखिला ले वह जब तक शिक्षित न
हो जाए तब तक स्कूल न छोड़ सके। शिक्षित होने का तात्पर्य है कि जीवन भर शिक्षित
बने रहना।”10
लेकिन डॉ. अंबेडकर
तत्कालीन शिक्षा की उद्देश विहीनता से दुःखी थे। वे चाहते थे कि शिक्षा का लक्ष्य
अंधविश्वास, पाखण्ड, भय, स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष, उत्पीड़न तथा आतंक से मुक्ति दिलाना हो। शिक्षा के
पाठ्यक्रम के संबंध में डॉ.
अंबेडकर का
विचार था कि, “पाठ्यक्रम
में पढ़ना, लिखना और गणित जैसे सिद्धांन्त को ध्यान में रखकर
ही विषयों का चयन नहीं करना चाहिए। वे चाहते थे कि सामान्य विषयों के साथ आचरण की
शिक्षा, व्यवहार की शिक्षा, संगठन की शिक्षा, अनुभव, अनुभूति और
अभिव्यक्ति को दिशा देने वाले विषय रखे जायें। वे पाठ्यक्रम में विज्ञान तकनीकी
तथा रोजगार से संम्बन्धित विषयों के समावेश के पक्षधर थे। इस लिए अपने इन शैक्षिक
विचारों को मूर्त रूप देने के लिए 1945
में पीपुल्स
एजुकेशन सोसायटी की स्थापना की। 1946
में
सिद्धार्थ कॉलेज, बम्बई तथा 1950 में मिलिन्द महाविद्यालय, औरंगाबाद की स्थापना की।”11 इससे यही
लगता है की डॉ. अंबेडकर
शिक्षा पढ़ती के संबंध में वे प्रगतिवादी शिक्षा दर्शन का समर्थन करते हुए लगते है।
प्रचलित परीक्षा प्रणाली के विषय में डॉ. अंबेडकर का मत था कि, “दूषित परीक्षा प्रणाली ने विद्यार्थियों को मेधा
तथा उनके प्रयासों को कुंठित कर दिया है।”12 1942 में ‘यूनिवर्सिटी रिफार्म्स कमेटी’ को डॉ.
अंबेडकर ने
जो ज्ञापन दिया उसमे इस दिशा में पर्याप्त प्रकाश डाला है। उससे शिक्षा सुधार कि
उनकी स्पष्ट रूपरेखा सामने आयी है। उक्त ज्ञापन में डॉ. अंबेडकर ने लिखा है कि, “शिक्षा ऐसी
होनी चाहिए जो विद्यार्थियों के दिमाख में केवल सिद्धान्त और आंकड़े ही न ठूँसती हो, जिससे उसके व्यक्तित्व का विकास अवरूद्ध न होता हो, जिसमें केवल याद करने की दिमागी कसरत ही न करनी
पड़ती हो। शिक्षा विद्यार्थी को कठिनाइयों का अनुभव कराये और साथ ही साथ सत्य तक
पहुँचाने का मार्ग तथा जीवन मूल्य भी बताये।
आगे वे कहते है शिक्षा उन जातियों के छात्रों के प्रति सहानुभूति प्रगट करे
जिनके लिए शिक्षा के द्वार बन्द कर दिये गए थे।”13 डॉ. अंबेडकर की दृष्टि में शिक्षा जितनी लड़कों के लिए
जरूरी थी उतनी ही लड़कियों के लिए भी थी। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की शिक्षा
पर वे अधिक बल देते थे। वे कहते थे कि एक पुरुष के शिक्षित होने का मतलब अकेले
शिक्षित होना है, जबकि एक
स्त्री के शिक्षित होने का अर्थ एक परिवार का शिक्षित होना है। विद्यार्थी
विद्यार्थी और राजनीति के संबंध को स्पष्ट करते हुए डॉ. अंबेडकर कहते है, “स्कूल शिक्षा (हाईस्कूल) तक छात्रों को राजनीति में सक्रिय भाग नहीं लेना
चाहिए। उस समय उन्हें स्वाभिमान और स्वावलंबन पर ज़ोर देना चाहिए और उसे अपने उद्यम
औए साहस से प्राप्त करने का पूरा प्रयास करना चाहिए। लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्त
करने वाले छात्रों को राजनीति में भाग लेने का वे निषेध नहीं करते है। उनके अनुसार
देश का भविष्य देश के विद्यार्थियों पर ही निर्भर करता है। विद्यार्थी किसी भी
जाति का हो समझदार वर्ग होते हैं। वे जनमत को प्रभावित कर सकते है।”14 अर्थात
राजनीति को भी डॉ. अंबेडकर ने
अपने शिक्षा संबंधी विचारों में महत्वपूर्ण स्थान दिया है।
डॉ.
अंबेडकर दलित
वर्गों में शिक्षा की स्थिति और छात्रों तथा नौकरी प्राप्त लोगों के कार्य कलापों
से संतुष्ट नहीं थे। उनका यह कहना था कि, “हमारे समाज में शिक्षा का कुछ विकास हुआ है, लेकिन हमारे समाज में छात्र शिक्षा प्राप्त करने
के बाद जब उच्च पदों पर आसीन हो जाते हैं, तब उस समाज
को भूल जाते हैं जिसने उनको यहाँ तक पहुँचाने में तरह-तरह के अपमान और अत्याचार सहन किये है।”15 इसके आगे भी
डॉ अंबेडकर कहते है कि, “जो लड़का गाँव
में पढ़ता है उससे पूरे समाज को आशा रहती है कि वही उनका मार्गदर्शक होगा। एक गाँव
में एक शिक्षित समाज सेवी उस गाँव के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है। अतः समाज कि
उन्नति को ही अपनी उन्नति समझे।”16
यह बात सच भी है कि कई छात्र शिक्षा लेने के बाद उनकी शिक्षा का मतलब
उन्हीं तक सीमित हो जाता है। वे सिर्फ अपने ही बारें में सोचते है और यही बात डॉ. अंबेडकर को पसंद नहीं थी। जो पढे लिखे लोग है उनसे
यह भी अपेक्षा करते है कि उन्होंने अपने समाज के उत्थान के कार्यों के लिए अपनी
कमाई का बीसवाँ भाग (अर्थात पाँच
प्रतिशत) दान करे, तभी समाज का उत्थान हो सकत है।
निष्कर्ष
इस प्रकार डॉ. अंबेडकर महान अर्थशास्त्री, न्यायविद, संगठनकर्ता, समाज सुधारक
और दलित आंदोलन के प्रणेता माने जाते है। मूलतः शिक्षा क्षेत्र के एक जागरूक साधक
थे। डॉ. अंबेडकर ने
अपने शिक्षा संबंधी विचारो में सभी को शिक्षा मिले इसके पक्षधर थे। एक छात्रों ने
अपनी विद्यार्थी दशा में कैसे शिक्षा लेनी चाहिए और उसका अनुशासन कैसे हो इसके
बारें में उनका विचार मौलिक है। डॉ.
अंबेडकर के
अनुसार लड़कों के शिक्षा के साथ-साथ लड़कियों
ने भी शिक्षा लेनी चाहिए ऐसा उनका मानना था। खुद को आजन्म विद्यार्थी कहनेवाले डॉ. अंबेडकर एकमेव नेता थे। जिनसे आदर्श लेकर आज भी
दलित समाज कि पीढ़ी आगे बढ़ रही हैं यह सत्य बात है जिसे नकारा नहीं जा सकता। आज हम
देखते है कि शिक्षा क्षेत्र का प्रायवेटाइजेशन हो रहा है जिसमे गरीब लोगों को
अच्छी शिक्षा लेना बहुत कठिन बात है। इस लिए सरकार ने डॉ. अंबेडकर कि शिक्षा नीतियों पर विचार कर शिक्षा
क्षेत्र में सुधार करना बहुत जरूरी है। साथ ही साथ विद्यार्थियों को रोजगार से
संबन्धित शिक्षा प्राप्त हो ऐसी व्यवस्था करे ताकि रोजगार के क्षेत्र में भी देश
का विकास हो।
एक पढे लिखे विद्यार्थियों कि यह ज़िम्मेदारी है की
वे अपने साथ साथ अपने समाज को भी आगे ले जाए ताकि उस समाज का भी उत्थान हो यही
भावना से प्रेरित होकर डॉ.
अंबेडकर ने
यह विचार रखा था। लेकिन क्या आज की वर्तमान स्थिति में यह भावना सब के मन में है
जिसका उत्तर हैं नहीं। इस लिए डॉ. अंबेडकर के इस विचारो को ध्यान में रखते हुए और देश
को आगे ले जाने के लिए उनके विचारों को पाठ्यक्रमों मे सम्मेलित करना होगा। तभी
उसे पढ़कर छात्रों के मन में वो भावना पैदा होगी। जब आज शिक्षा क्षेत्र में भारत का
नाम आता है तो भारत की कोई भी यूनिवर्सिटी विश्व के टॉप मोस्ट 200 यूनिवर्सिटी
में नहीं दिखाई देती। अगर सही मायने में भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाना है तो डॉ. अंबेडकर जिस तरह की शिक्षा प्रणाली भारत में चाहते
थे अगर वहीं शिक्षा प्रणाली के आधार पर छात्रों को शिक्षा दी जाए तो तभी भारत का
नाम भी विश्व पटल पर चमक
उठेगा।
संदर्भ ग्रंथ
1.
लाल अँगने, बोधिसत्व
बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर जीवन
और दर्शन, सम्यक
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2.
बाली एल. आर., डॉ.
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और मिशन, भीम पत्रिका पब्लिकेशंज जालंधर, 2006,पृ. 31.
3.
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4.
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5.
राव रामबचन, भारतरत्न डॉ. आम्बेडकर व्यक्तित्व एवं कृतित्व, सागर प्रकाशन, दरीबा
मैनपुरी, उ.
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6.
अमिताभ, रोल मॉडेल
डॉ. आंबेडकर
विद्यार्थ्यांचा आदर्श, दी पीपल्स
व्हिजन कम्यूनिकेशन मिरा रोड पूर्व, 2012,पृ.
7.
7.
आजाद रामगोपाल, राजसत्ता पर
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8.
राव रामबचन, भारतरत्न डॉ. आम्बेडकर व्यक्तित्व एवं कृतित्व, सागर प्रकाशन, दरीबा
मैनपुरी, उ.
प्र., 1993, पृ.
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9.
वहीं, पृ. 113.
10.
वहीं, पृ. 113.
11.
वहीं, पृ. 158.
12.
वहीं, पृ. 114.
13.
वहीं, पृ. 115.
14.
लाल अँगने, बोधिसत्व
बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर जीवन
और दर्शन, सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली, 2009, पृ. 172.
15.
राव रामबचन, भारतरत्न डॉ. आम्बेडकर व्यक्तित्व एवं कृतित्व, सागर प्रकाशन, दरीबा मैनपुरी, उ.
प्र., 1993, पृ.
118.
16.
वहीं, पृ. 118.
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