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वेदना

शूलों पर  लेटा हूँ
आँख नहीं लग पाए
-1-
जीवन संग्राम प्रवीरों का
न भूखे दुर्बल शरीरों का
जो मार सके कंगाली को
उन हथियारों, शमशीरों का
अब तक भी जाने क्यों 
बस अभाव ही पाए
-2-
देखे कई जिंदा निष्प्राण 
त्रासद की मारी जीर्ण जान
घूमती जर्जर अस्थि काया
चाहें जो मिल सके निर्वाण 
आहत, घायल तन के
घाव नहीं भर पाए  
-3-
इक निक्षिप्त वृक्ष निकुंजों में
त्याज्य सदैव रहा अपनों में
जब नियति में कुटिल कंटक पथ
कहाँ चैन अनिमिष सपनों में
ठूँठ खड़ा ज्यों वन में
शाख बिना तरसाए !
-ओम प्रकाश नौटियाल
(  सर्वाधिकार सुरक्षित )
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