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प्रवासी मजदूर

जब खत्म हुआ दाना पानी
वापस घर जाने की ठानी
कौड़ी थी पास नहीं पल्ले
हफ्तों से बैठे  निठल्ले
सुदूर गाँव , मात्र एक आस
असंभव यहाँ आगे प्रवास

यहाँ सुने कोई आह नहीं
राहों में उनकी राह  नहीं
पैदल निकले छुपते छुपते
जलते जलते तपते तपते
रूखा सूखा जो मिला ग्रास
कुछ जल बूंदो से बुझा प्यास

मीलों पैदल चलते चलते
रवि क्षितिज पार ढलते ढलते
सब पटरी पर तब लेट गये
जीते जीते मरते मरते
चिंतित चेहरा देह उदास
व्यवस्था से होकर निराश

पर नींद रही इतनी गहरी
कि गयी न फिर, वहीं चिर ठहरी
निकले थे चलने मील हजार
पर पहुँच गये वह क्षितिज पार
कोई न जहाँ हो दूर पास
किसी के न हों, रहें प्रभु दास

वह सबके थे, उनका न कोई
फटका न जीते पास कोई
जीवन भर  रोटी को तरसे
जब जग  छोड़ा पैसे बरसे
यह राजनीति क्या समझे लाश
जीवन की होती कद्र, काश
-ओंम प्रकाश नौटियाल
बडौदा,मोबा. 9427345810
(पूर्व प्रकाशित-सर्वाधिकार सुरक्षित )   

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